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June 6, 2025 3:56 am

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श्रीसीतारामशरणम्मम(19-1), “राजा ययाति”/(25),भक्त नरसी मेहता चरित (26) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(19-1), “राजा ययाति”/(25),भक्त नरसी मेहता चरित (26) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: “राजा ययाति”

भागवत की कहानी – 25


ये चन्द्रवंशीय राजा हैं – ययाति । राजा नहुष के पुत्र हैं …राजा नहुष के छ पुत्र थे ….ये ययाति द्वितीय पुत्र हैं ……वैसे राजसत्ता प्रथम पुत्र को ही दी जाती है …..जी , दी जाती है ज्येष्ठ पुत्र को किन्तु वो ज्येष्ठ पुत्र स्वीकार न करे तो । क्यों नहुष के ज्येष्ठ पुत्र ने सत्ता स्वीकार नही करी ? नही , क्यों की राजा का काम प्रपंच से भरा है ….इसलिए बड़े पुत्र ‘यति’ ने सत्ता स्वीकार नही की ….इनका मन ध्यान , भजन आदि में ही लगता था ….इसलिए द्वितीय पुत्र ययाति को ही सत्ता देनी पड़ी ….ययाति ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था ।

हे परीक्षित ! राजाओं की कहानियाँ सुनाने का मेरा उद्देश्य केवल इनकी महानता का गुणगान नही है …न इनका वैभव मुझे बघारना है ….मैं तो इन कहानियों को इसलिए सुना रहा हूँ ताकि तुम ये समझो कि बड़े बड़े राजा इस पृथ्वी में हुये अनन्त काल तक भोग किया …किन्तु अन्त में शान्ति मिली तो मात्र वैराग्य से । यही बात समझाने के लिए मैं तुम्हें इन राजाओं की कहानियाँ सुना रहा हूँ ……शुकदेव ने राजा परीक्षित से ये सब कहा था ।


राजा ययाति का अभी अभी राज्याभिषेक हुआ ही है …वो अति प्रसन्न हैं ….इसी प्रसन्नता में वो अश्वारूढ़ होकर अपने ‘राज्य भ्रमण’ में निकल जाते हैं । वो अपनी प्रजा को देखते हैं …प्रजा की समस्याओं को वो अनुभव करते हैं ….यही सब देखते हुये वो आज कुछ दूर तक चले आए थे ।

निर्जन किन्तु सुन्दर वन , राजा ययाति को दिखाई दिया ….राजा को उस वन ने आकर्षित किया था …अपने अश्व को ये उधर ही ले जाते हैं ….वो चारों ओर देखते हैं …एक कुआँ है वहाँ ….इन्हें अब प्यास भी लग रही थी ….अश्व को एक वृक्ष से बांधकर ….राजा ययाति कुएँ के पास में जाते हैं …..किन्तु ये क्या ! राजा जैसे ही कुएँ के पास गये ….कुएँ में से किसी के रोने की आवाज़ आरही थी …और आवाज़ पुरुष की नही किसी स्त्री की थी । राजा ने जैसे ही कुएँ में झाँका …..नही , नही , नही ….मुझे देखना मत , मैं नग्न हूँ ….वो स्त्री जोर से चिल्लाई । राजा हट गया …..कुछ ही देर में फिर आवाज़ आयी ….मुझे बाहर निकालो ….अब तो राजा ने पहले अपना उत्तरीय कुआँ में फेंका ….और कहा – इसको अपने अंगों में लपेट लो …..फिर राजा कुएँ के पास गया ….झुका और अपनी लम्बी भुजाओं को नीचे झुकाया …..उसी को पकड़कर वो स्त्री बाहर आगयी थी । साँवली , तीखे नैंन नक़्श , बड़ी बड़ी कमल जैसी आँखें …..राजा उसे देख रहा है …..फिर कुछ देर में पूछा …..यहाँ निर्जन वन में तुम सुन्दरी कैसे ? अकेली ?

वो स्त्री शरमाई …फिर बोली ….मैं अपनी सखियों के साथ आयी थी यहाँ खेलने । ‘तुम्हारी सखियों ने तुम्हें अकेले क्यों छोड़ दिया ‘? राजा ययाति ने प्रश्न किया । हाँ , हाँ राजन ! मैं और मेरी सखी …..मेरी सखी असुरराज वृषपर्वा की बेटी है ….शर्मिष्ठा नाम है उसका । हे राजन ! हम दोनों बचपन की ही सहेलियाँ हैं । तुम्हारा नाम ? देवयानी । उस स्त्री ने कहा । राजा कुछ और पूछते देवयानी ने कहा …मैं असुरगुरु शुक्राचार्य की पुत्री हूँ । राजा ययाति चकित थे ….वो आगे की घटना सुनना चाहते थे । हे राजन ! हम दोनों सखियाँ यहाँ नित्य आती थीं और खेलती थीं …..हम दोनों की मित्रता घनिष्ठ थी ….किन्तु आज …..देवयानी के आँखों से आँसु बहने लगे थे । हम दोनों ही यहाँ नहाते थे …और खेलते थे …देवयानी आज की घटना बता रही है …आज , शर्मिष्ठा और मैं नहा रहे थे ….फिर शर्मिष्ठा पहले जल से निकल कर बाहर आयी …..मैं बाद में …..किन्तु मैंने उसे देखा कि उस राजकुमारी ने मेरे वस्त्र पहल लिए थे । मुझ में जाति का अहंकार है ही ….मैं ब्राह्मण हूँ और एक गुरु पुत्री भी हूँ ….उसने मेरे वस्त्र कैसे पहन लिए । शर्मिष्ठा बोलती रही …कि हम दोनों सहेली हैं इसमें क्या हुआ तो ? किन्तु मैं नही मानीं ….क्यों मानूँ ? मैंने उसे खूब सुनाया …कहा मेरे पिता अगर नही हों ना …तो तुम असुर लोग बचोगे ही नही ….देवयानी कहती है …मैंने इतना ही कहा था कि उसने तो मुझे कुएँ में नग्न धक्का दे दिया …और बोली ..जा , भिखमंगे की बेटी । इतना कहकर वो चली गयी मुझे ऐसे नग्न कुएँ में धक्का देकर । फिर अपने अश्रुओं को पोंछती हुई देवयानी कहती है …किन्तु राजन ! मैं भी बदला लेकर मानूँगी …अरे शुक्राचार्य की बेटी हूँ …वो जानती नही हैं मेरे पिता मेरे ऊपर प्राण वारे रहते हैं ।

राजा ययाति सब समझ गये थे कि लड़ाई कोई विशेष बात पर नही है …इसलिए ययाति अब यहाँ से जाने लगे तो देवयानी ने राजा का हाथ पकड़ लिया । ये क्या कर रही हो ? छोड़ो ! ययाति ने कहा । राजन ! अब मेरा हाथ मत छोड़िये …मुझे तो अब आप से ही ब्याह करना है । देवयानी की बात सुनकर ययाति तुरन्त बोले ….ये सम्भव नही है । क्यों ? क्यों सम्भव नही है ? क्या मैं सुन्दर नही हूँ …….नही देवि ! तुम बहुत सुन्दर हो ….बात सुन्दरता की नही है , बात है तुम ब्राह्मण हो और मैं क्षत्रिय , ब्राह्मण कन्या से क्षत्रिय कैसे विवाह करे ! ययाति ने कहा । तब उन्मुक्त हंसते हुये देवयानी बोली ….मेरा विवाह ब्राह्मण से हो ही नही सकता । क्यों ? राजा ययाति ने प्रश्न किया । क्यों की देवगुरु वृहस्पति के पुत्र “कच” ने मुझे शाप दिया है ।


वो बड़ा सुन्दर , छैला , पूर्ण यौवन से भरा …वो देवगुरु का पुत्र ‘कच’ । वो हमारे यहाँ आया ….मेरे पिता जी से पढ़ने आया था ….मैंने उसे देखा तो उसी समय मैंने अपना हृदय उसे दे दिया । उसने आते ही प्रणाम करके मेरे पिता जी को कहा था ….”पिता बृहस्पति ने मुझे मृतसंजीवनी विद्या सीखने के लिए आपके पास भेजा है …..आप मुझे अधिकारी मानें तो वो विद्या प्रदान करें । देवयानी कहती है ….यही एक विद्या है जो देवगुरु के पास नही है मेरे पिता जी के पास है । अब कच को अपना शिष्य बना लिया था मेरे पिता जी ने ….उसे विद्या देना आरम्भ भी कर दिया था ….लेकिन ! लेकिन क्या ? ययाति ने देवयानी से पूछा । असुर समाज में ये हलचल मच गयी ….कि अब ये विद्या देवताओं के पास चली जाएगी तो हम असुर समाज का क्या होगा ? राजन ! कच को असुरों ने मार दिया और फेंक दिया । देवयानी कहती है …शाम तक कच कुटिया में नही आया तो मैंने पूछा ….पिता जी ! कच कहाँ है ? पिता जी मुस्कुराते हुये बोले ….असुरों ने बेचारे को मार दिया । देवयानी कहती है …मैं रोने लगी …पिता जी ! कुछ भी हो कच मुझे चाहिए । मुझे मेरे पिता बहुत चाहते हैं मेरी बात आज तक नही टाली है …वो मुझे लेकर चले गए उसी स्थान पर जहाँ कच का देह मुर्दा पड़ा था । मेरे पिता ने कच के देह को छुआ और कुछ मन्त्र पढ़े …कच तो उठ गया …जैसे नींद से उठा हो । मैं इतनी खुश हुई कि कच को अपने हृदय से लगा लिया । अब फिर मृतसंजीवनी विद्या देना मेरे पिता ने आरम्भ कर दिया था और कच बड़े मनोयोग से पढ़ रहा था ….लेकिन इतनी जल्दी कैसे मान लेते असुर …..इस बार कच को असुरों ने मारा और मारा ही नही …उसे जलाकर राख बना दिया । ये बात मुझे पता चली तो मेरी जिद्द …मुझे प्यार हो गया था कच से …इसलिए मेरे पिता ने मेरी बात मानी और राख में से कच को जीवित कर दिया …..विद्या पूरी हो गयी थी अब कच अपने यहाँ जाने वाला था …कि तभी असुरों ने कच को मार दिया और जला दिया ….फिर सोचा जलाने के बाद राख से तो गुरु जी ज़िन्दा कर देते हैं । इस बार मेरे पिता शुक्राचार्य जी के ही शर्बत में उसी राख को मिला कर उन्हीं को पिला दिया । देवयानी यहाँ ययाति को कुछ देर अपलक देखती है …फिर कहती है ….कच कहाँ है पिता जी ! मैंने पूछा जब बहुत देर के बाद में भी कच नही आया तो । बेटी ! भूल हो गयी मुझ से , मुझे वो शर्बत नही पीना था ….असुरों ने कच को मार दिया , जला दिया उसके राख को शर्बत में डालकर मुझे ही पिला दिया है …बेटी ! अब भूल जाओ कच को …वो मर गया है ।

नही , अगर आपने कच को जीवित नही किया तो आपकी बेटी मर जाएगी ….पिता जी ! ज़िन्दा कीजिए कच को …कैसे भी हो । राजन ! मेरी जिद्द के आगे मेरे पिता सदैव झुकते रहे हैं …आज भी झुक गये ….उन्होंने सब से प्रथम अपने पेट में कच को ज़िन्दा किया …फिर कच को बोले …कच ! मृतसंजीवनी विद्या तुम्हें आती है ….तो एक काम करो मेरे पेट को काटो और बाहर आओ ….मैं मर जाऊँगा …तो मेरी विद्या से ही मुझे जीवित करो । कच ने वही किया …वो बाहर आया फिर शुक्राचार्य को ज़िन्दा किया । देवयानी ययाति को कहती है …अब कच जाने लगा अपने लोक ….उसने मेरे पिता को प्रणाम किया फिर मुझे देखकर जैसे ही मेरे भी पैर छूने को उद्यत हुआ ही था कि ….कच ! मैं तुमसे प्यार करती हूँ । मैंने भी अब कह दिया । और कच का हाथ पकड़ कर मैं बोली …चलो हम दोनों ब्याह करते हैं …तब कच ने मेरा हाथ झटक दिया …नही, ये नही हो सकता । क्यों नही हो सकता ? मैंने कच से पूछा । क्यों की तुम मेरी गुरु पुत्री हो …मेरी बहन हो ….ऐसे मत करो । वो जाने लगा ….तब मुझे भी क्रोध आया …और मैंने तुरन्त उसे शाप दे दिया ….हे कच ! जा , तूने जो विद्या पढ़ी है मेरे पिता से वो सब निष्फल हो जाएगा ।

ओह ! क्या शाप दिया तुमने ? कच मुझे देखकर बोला । उसको क्रोध आरहा था …इसलिए उसने मुझे भी शाप दे दिया ….जा देवयानी ! दुनिया का कोई ब्राह्मण तुझ से ब्याह नही करेगा ।


हे राजन ! अब मैं क्या करूँ ? मेरा हृदय तुम पर आया है …इसलिए अब मुझे अपनी महारानी बनाओ । देवयानी ने जब कहा ….तब ययाति भी इससे प्रभावित हो गये इसलिए इन्होंने भी स्वीकार कर ही लिया । देवयानी अपने पिता के पास ययाति को लेकर गयी और जाकर बोली ….ये आपके जामाता हैं ….जमाई हैं । शुक्राचार्य अपनी बेटी की हर बात मानते थे लाड़ली थी ये अपने पिता की ….कन्या दान किया शुक्राचार्य ने । और विदाई के समय …..पिता जी ! मैं आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ । देवयानी ने कहा । हाँ , हाँ बेटी माँगों ! पिता जी मेरी दासी बनकर शर्मिष्ठा मेरे यहाँ चले …और जीवन भर दासी बनकर ही रहे । शुक्राचार्य अपनी बेटी की हर बात मानते थे ….ये बात भी मानीं ….राजा वृषपर्वा से कहा कि अपनी बेटी को दासी बनाकर हमारी बेटी के साथ भेजो । वृषपर्वा के समझ में भी नही आरहा था कि ये क्या हुआ ? शर्मिष्ठा शान्त भाव से बोली …पिता जी ! ईर्ष्या के वश में है देवयानी इसलिए उसने ये किया है …पिता जी ! मुझे जाने दीजिए …..शर्मिष्ठा दासी बनकर देवयानी के यहाँ गयी और वहीं रहने लगी थी । किन्तु शर्मिष्ठा कुछ भी हो राजकुमारी है ….वो अपने साथ एक हजार दासियों को लेकर गयी । देवयानी ने यहाँ बुद्धिमत्ता नही दिखाई थी ।


कई वर्ष बीत चुके हैं …….आज आँगन में बालक खेल रहे हैं …..दो बालक तो मेरे हैं ….देवयानी देख रही है और सोच रही है ….किन्तु ये तीन बालक किसके ? देवयानी ने उन्हीं बालकों से पूछा …..तुम्हारे पिता का नाम …..वो तीनों बालक एक स्वर में बोले …महाराजा ययाति । देवयानी ने सोचा बालक ऐसे ही बोल रहे हैं ….माता का नाम पूछा …तुम्हारी माता का नाम ? बालकों ने उत्तर दिया …शर्मिष्ठा । बस ये सुनते ही देवयानी तो क्रोध में भुन भुनाई …और राजा ययाति को जाकर बोली …तुमने उस दासी को भी महारानी बना लिया ….और मेरे दो ही पुत्र उसके तीन पुत्र ! अब तो ययाति पैरों में गिरने लगा देवयानी के ….क्षमा माँगने लगा ….किन्तु देवयानी अब क्षमा नही करेगी ….वो गयी अपने पिता शुक्राचार्य के पास …पीछे पीछे ययाति भी गया ….सारी बात देवयानी ने अपने पिता को रो रोकर सुना दी थी ..शुक्राचार्य अपनी बेटी के आँखों में ये अश्रु कैसे देख लेते ..चिल्लाकर राजा ययाति को शाप दे दिया …जा ! तू बूढ़ा हो जा । अब तो ययाति बूढ़ा हो गया ….भीतर आया ….देवयानी ने कहा …ये कौन है ? ययाति ने कहा …तुम्हारे पिता ने बिना सोचे विचारे शाप दे दिया ….अब मैं बूढ़ा हूँ तो कष्ट तुझे ही होगा । अब तो देवयानी फिर रोने लगी ….पिता जी ! इन्हें युवा बनाइये । शुक्राचार्य बोले …अब तो ये बूढ़े हो गये …हाँ , एक उपाय हो सकता है । क्या ? ययाति ने पूछा । अगर तुम्हारे बेटे अपनी जवानी दे दें और तुम्हारा बुढ़ापा ले लें ….तो काम बन सकता है । ययाति लौट कर अपने यहाँ आये …देवयानी कहती है ….माँगों किसी से जवानी ….पर कौन देगा ? ययाति ने अपने पुत्रों से ही कहा ….सब ने मना कर दिया …किन्तु सबसे छोटा पुत्र ‘पुरु’ ने दया करके अपने पिता को अपनी जवानी दे दी …और पिता का बुढ़ापा ले लिया ।

शुकदेव यहाँ पर हंसते हैं ……सौ वर्षों तक पुत्र की जवानी से ययाति भोग करते रहे …किन्तु उनका मन भरा ? ये भोग है …ये विषय विलास है …इससे किसे तृप्ति मिली है ?

आज सन्ध्या की वेला है ….ययाति सन्ध्या में भी भोग कर रहा है …..वो बाहर आता है ….सामने एक वृद्ध जा रहा है ….ये सबसे छोटा पुत्र है ययाति का …पुरु । ययाति चौंक जाता है ….सौ वर्ष हो गये हैं ….पुत्र की जवानी से भोग ? ययाति आकाश में देखता है …बादल जा रहे हैं आ रहे हैं ….किन्तु आकाश स्थिर है ……इसी से ययाति को तत्वज्ञान हो जाता है …आत्मा है आकाश …जो निर्लेप है , निर्मल है , अविनाशी है , चेतन है । और ये बादल ! ये वासना हैं …जो मल से भरा हुआ है …अशान्ति देने वाला है …क्यों की अस्थिर है । धिक्कार है मुझे आकाश को ध्यान में न रखकर मैं बादलों में खो गया ….और आज मेरी दुर्दशा ! छी ! पुत्र की जवानी से विषय भोग ……ययाति को अपने आपसे घृणा होने लगी …..असल में इंद्रियाँ इतनी दुष्ट हैं कि कितनी भी इनकी बात मानों ये तृप्त नही होती ….ययाति कहते हैं …मनुष्य को चाहिए कि वो इंद्रियों का गुलाम न बने …कोई लाभ नही है ….अपितु जीवन की हानि ही होगी ।

शुकदेव कहते हैं ……पुरु ! पुरु ! जोर से आवाज़ लगाई अपने पुत्र को ययाति ने …पुरु ने पीछे मुड़कर देखा ….ययाति उसके पास गये ….तुरन्त संकल्प बल से जवानी अपने पुत्र को लौटाई और अपना बुढ़ापा लेकर वन की ओर चल पड़े थे …उनके मुख से “नारायण , नारायण ,नारायण “यही प्रकट हो रहा था ।
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Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣9️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#मंगलमूललगनदिनुआवा…….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मेरी सखी चन्द्रकला सुबह ही सुबह आगयी थी………और मुझे उसनें ये सूचना दी कि, विवाह की तिथि तय हो गयी है ……………

उसनें स्वयं सुना था ……….जब मिथिलेश और अवधेश दोनों की चर्चाएं हो रही थीं ………….मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी …….।

मै ये सुनकर खुश तो हुयी…….पर दूसरे ही क्षण जब मैने चन्द्रकला के नेत्रों को देखा …….तो मुझे अच्छा नही लगा ।

उसकी आँखें बता रही थीं कि वह रोई है …….बहुत रोई है ।

अच्छा बता चन्द्रकला ! बात क्या हुयी थी दोनों महाराजाओं में ?

चन्द्रकला नें मुझे बताया ……………..


आप पूछते क्यों हैं महाराज ?

जब मेरे पिता जनक जी नें अवध नरेश दशरथ जी से ये कहा था कि – आप जिस तिथि को कहें …….हम उसी तिथि में विवाह करनें के लिये तैयार हैं ………..!

तब चक्रवर्ती नरेश नें एक ही बात कही थी ………आप पूछते क्यों हैं !

आप दाता हैं महाराज जनक ! हम तो झोली फैलाकर लेनें आये हैं ।

आप जब देना चाहेंगें हम ले लेंगे ……और हे मिथिलेश ! आप धर्मज्ञ हैं आप जो करेंगें हमें सब स्वीकार है ………..महाराज अवधेश नें नम्रता से ये बात कही थी ।

इस उत्तर से मेरे पिता जी गदगद् हो गए थे ……..हे चक्रवर्ती महाराज ! वैसे तो हम सब जनकपुर वासी ये चाहते ही नही हैं कि विवाह की तिथि शीघ्र तय हो …………..

क्यों ? ऐसा क्यों ? महाराज दशरथ जी नें मेरे पिता जी से पूछा था ।

क्यों की ………विवाह तिथि के तय होनें का अर्थ ही यही है कि अब शीघ्र विदाई की वेला भी आनें वाली है ।

पर …………..हमारे कुल गुरु शतानन्द जी विवाह की तिथि तय करके लाये हैं ……………..

उस समय हमारे कुलगुरु शतानन्द जी खड़े हुए थे …………….

और गुरु वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम करके बोले ……….

विधाता ब्रह्मा द्वारा शोधित मुहूर्त है ये ……………….

मुझे ही ब्रह्मा नें ध्यान की अवस्था में ये आदेश दिया था ……और कहा था इस मुहूर्त में ही श्रीसीता राम का विवाह सम्पन्न हो ………

हमारे कुल गुरु नें वह मुहूर्त बताया ………..मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी ।

वशिष्ठ जी नें सुना…..और मुस्कुराते हुए बोले ………बहुत सुन्दर मुहूर्त है ………हम सब इस मुहूर्त पर अपनी स्वीकृति देते हैं ………..

सिर झुकाकर हमारे कुल गुरु नें वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम किया ।

मेरे पिता जनक जी नें सबको प्रणाम निवेदित किया ।

जीजी ! जीजी !

 तभी उर्मिला दौड़ी दौड़ी आयी मेरे पास .................

क्या बात है उर्मिला ?

काका कुशध्वज आ गए हैं !

उर्मिला के मुख से ये सुनते ही ………..मै उछल पड़ी थी ……

फिर तो माण्डवी और श्रुतकीर्ति भी आयी होंगीं ?

जीजी !

दोनों बाहों को फैलाये ………..एक ही स्वर में ख़ुशी से चिल्लाते हुए …दोनों दौड़ी आरही थीं ………माण्डवी और श्रुतकीर्ति ।

मैने दोनों को अपनें हृदय से लगा लिया था ……………मेरे काका की बेटियां हैं ये …..मेरी बहनें ।

और उर्मिला तो मेरी मानी हुयी बहन है ………..छोटे में ही इसे गोद लिया था मेरी माँ सुनयना नें……….हम दोनों साथ ही बड़े हुए थे ……वैसे मुझ से कुछ महिनें ही छोटी है……उर्मिला ….मुझे बहुत प्यारी लगती है ……….हाँ चित्र बहुत सुन्दर उकेरती है ये उर्मिला ।

पर मेरी ये काका की बेटियां ………….ये भी बहुत अच्छी हैं ……….जब जब आती हैं ………….मानों उत्सव ही मन जाता है ।

आपका विवाह होनें जा रहा है जीजी ?

काका की दोनों बेटियों नें पूछा था ।

लाज लग गयी थी …………..कुछ नही बोली मै ।

उस समय मेरी सखी चन्द्रकला जानें लगी ……………तब मैने उसे रोका ……..आगे क्या हुआ चन्द्रकले ! ये तो बताओ ।

हँसते हुए माण्डवी और श्रुतकीर्ति नें चन्द्रकला को भी अपनें हृदय से लगा लिया था ………………।

क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (26)


न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी,
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगतिश्शरण्यं,
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।।

हे शरणागत प्रतिपालक ! मैँ धर्म मेँ निष्ठा रखने वाला नहीँ हूँ , आत्मज्ञानी भी नहीँ हूँ तथा आपके श्रीचरणोँ मेँ पूर्ण एवं अनन्य भक्तिभावा भी नहीँ हूँ । मै सव प्रकार के मोक्ष साधनोँ से शून्य अतएव अकिञ्चन हूँ। मेरी रक्षा करने वाला कोई दूसरा नहीँ अपितु एकमात्र आप ही हैँ , अतएव मैँ अनन्यगति हूँ और इसी कारण से मैँ आपके श्रीचरणकमलो के मूल मेँ ही शरण ग्रहण करता हूँ ।।

नरसीराम ( भगवत कृपा से ) पुत्र की बारात लेके चले

नरसिंह राम ने बड़नगर के ब्राह्मण का उचित सत्कार करके विदाई कर दी और आप निश्चित होकर भजन -पूजन करने लगे । माघ शुक्ला प्रतिपदा के दिन वह सिर पर चन्दन लगा, हाथ में करताल ले, दस-पाँच साधुओं के साथ पुत्र का विवाह करने के लिये जूनागढ से चल पड़े ।

इस विचित्र बारात को देखकर माणिकबाई ने पति से कहा – “स्वामिन ! यही सामग्री लेकर आप एक दीवान के घर जायँगे ? कही अपमानित होकर बड़नगर से पुत्र का विवाह करने के बदले ज्यों- का-त्यों वापस न आना पड़े ।”

मेहता जी ने सरल ढंग से उत्तर दिया – “प्रिये ! तुम बहुत अधीर हो जाती हो । जब मैंने मान लिया है कि मेरा पुत्र ही नहीं है, तब मेरा अपमान कैसा और इसकी चिंता क्यों ? जिसका यह पुत्र है वह आप ही सारा प्रबंध करेगा और अपमान से बचने की चिंता भी करेगा ।”

जूनागढ के दुष्ट नागर ब्रह्माणों ने जब इस अनोखी बारात को देखा तो उनके आनंद का ठिकाना न रहा । उन्होंने सोचा कि अब अपना काम आप ही बन जायगा । नरसिंह राम और उसके साथी उस दीक्षित की भी सारी हेकड़ी सहज ही दूर हो जायगी ।

देखो न इस भिखमंगे की हिम्मत! ऐरे-घेरे भिखमंगो की टोली बनाकर चला है दीवान की बेटी ब्याहने ! इस बार इसकी पोल खुलेगी । बड़नगर में जब लोग लँगोटी और करताल छीनकर इसकी पूजा करेंगे तब यह सदा के लिए कीर्तन भूल जायगा और हम लोग भी सुख की नींद सोयगे ।

परंतु भक्तराज काहे की चिंता ! वह तो बस कीर्तन करते हुए चले जा रहे थे ।

कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने देखा कि एक बहुत बड़ी बारात डेरा-तम्बू डाले पड़ी है । समीप जाकर उन्होंने स्वयं भगवान को गृहस्थ रूप में देखा और उन्हें भक्ति पूर्वक प्रणाम किया ।

फिर भक्तराज ने प्रेम भरे स्वर में कहा – “भगवन ! आप मेरे लिए इतना बृहत स्वरूप धारण करेंगे और मेरा कार्य सम्पन्न करायेंगे, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ।”

क्रमशः ………………!
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 28
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श्रुभाश्रुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: |
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि || २८ ||
शुभ – शुभ; अशुभ – अशुभ; फलैः – फलों के द्वारा; एवम् – इस प्रकार; मोक्ष्यसे – मुक्त हो जाओगे; कर्म – कर्म के; बन्धनैः – बन्धन से; संन्यास – संन्यास के; योग – योग से; युक्त-आत्मा – मन को स्थिर करके; विमुक्तः – मुक्त हुआ; माम् – मुझे; उपैष्यसी – प्राप्त होगे |

भावार्थ
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इस तरह तुम कर्म के बन्धन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे | इस संन्यासयोग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे |

तात्पर्य
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गुरु के निर्देशन में कृष्णभावनामृत में रहकर कर्म करने को युक्त कहते हैं | पारिभाषिक शब्द युक्त-वैराग्य है | श्रीरूप गोस्वामी ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है (भक्तिरसामृत सिन्धु २.२५५)—
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अनासक्तस्य विषयान्यथार्हमुपयुञ्जतः |
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ||
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श्रीरूप गोस्वामी कहते हैं कि जब तक हम इस जगत् में हैं, तब तक हमें कर्म करना पड़ता है, हम कर्म करना बन्द नहीं कर सकते | अतः यदि कर्म करके उसके फल कृष्ण को अर्पित कर दिये जायँ तो वह युक्तवैराग्य कहलाता है | वस्तुतः संन्यास में स्थित होने पर ऐसे कर्मों से चित्त रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है और करता ज्यों-ज्यों क्रमशः आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रगति करता रहता जाता है, त्यों-त्यों परमेश्र्वर के प्रति पूर्णतया समर्पित होता रहता है | अतएव अन्त में वह मुक्त हो जाता है और यह मुक्ति भी विशिष्ट होती है | इस मुक्ति से वह ब्रह्मज्योति में तदाकार नहीं होता, अपितु भगवद्धाम में प्रवेश करता है | यहाँ स्पष्ट उल्लेख है – माम् उपैष्यसी – वह मेरे पास आता है, अर्थात् मेरे धाम वापस आता है | मुक्ति की पाँच विभिन्न अवस्थाएँ हैं और यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जो भक्त जीवन भर परमेश्र्वर के निर्देशन में रहता है, वह ऐसी अवस्था को प्राप्त हुआ रहता है, जहाँ से वह शरीर त्यागने के बाद भगवद्धाम जा सकता है और भगवान् की प्रत्यक्ष संगति में रह सकता है |
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जिस व्यक्ति में अपने जीवन को भगवत्सेवा में रत रखने के अतिरिक्त अन्य कोई रचित नहीं होती, वही वास्तविक संन्यासी है | ऐसा व्यक्ति भगवान् की परं इच्छा पर आश्रित रहते हुए अपने को उनका नित्य दास मानता है | अतः वह जो कुछ करता है, भगवान् के लाभ के लिए करता है | वह सकामकर्मों या वेदवर्णित कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता | सामान्य मनुष्यों के लिए वेदवर्णित कर्तव्यों को सम्पन्न करना अनिवार्य होता है | किन्तु शुद्धभक्त भगवान् की सेवा में पूर्णतया रत होकर भी कभी-कभी वेदों द्वारा अनुमोदित कर्तव्यों का विरोध करता प्रतीत होता है, जो वस्तुतः विरोध नहीं है |
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अतः वैष्णव आचार्यों का कथन है कि बुद्धिमान व्यक्ति भी शुद्धभक्त की योजनाओं तथा कार्यों को नहीं समझ सकता | ठीक शब्द है – ताँर वाक्य, क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय (चैतन्यचरितामृत, मध्य २३.३९) | इस प्रकार जो व्यक्ति भगवान् की सेवा में रत है, या जो निरन्तर योजना बनाता रहता है कि किस तरह भगवान् की सेवा की जाये, उसे ही वर्तमान में पूर्णतया मुक्त मानना चाहिए और भविष्य में उसका भगवद्धाम जाना ध्रुव है | जिस प्रकार कृष्ण आलोचना से परे हैं, उसी प्रकार वह भक्त भी सारी भौतिक आलोचना से परे हो जाता है |

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