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June 6, 2025 4:04 am

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दमन में सड़क सुरक्षा अभियान को मिली नई दिशा, “Helmet Hero “मुहिम के अंतर्गत आयोजित हुई जागरूकता ग्राम सभा माननीय प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के कुशल नेतृत्व में दमन में सड़क सुरक्षा के प्रति जनजागरूकता अभियानोंको नई गति

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श्रीसीतारामशरणम्मम/(19-3), भक्त नरसी मेहता चरित (28),:“परम भागवत भीष्म पितामह” & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम/(19-3), भक्त नरसी मेहता चरित (28),:“परम भागवत भीष्म पितामह” & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣9️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#मंगलमूललगनदिनुआवा…….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मेरे नेत्रों से ख़ुशी के आँसू झर ही रहे थे ………………हम सब बहनें एक साथ रहेंगीं ………अब मै अकेली कहाँ ! मैने अपनें हृदय से लगा लिया था उन दोनों को भी………।

उन दिनों मेरा जनकपुर झूम रहा था…..मेरे जनकपुरवासी झूम रहे थे ।

चारों ओर आनन्द ही आनन्द छा गया था ।


उत्सव के शुरू हुए तो बहुत दिन हो गए ……..

हँसी भी आती है कभी कभी ……….एक महिनें से भी ज्यादा हो गए हैं ..पिनाक के टूटे हुए …………….अरे ! उत्सव तो तब से ही शुरू है जब से पिनाक टूटा है ……….।

पर विवाह की तिथि तय नही थी ……………अब हुयी है ।

देवता लोग आनें लगे थे रूप बदल बदल कर मेरे जनकपुर धाम में ।

देवियाँ आती थीं ………रूप बदल कर ………….

पर मेरे जनकपुर की नारियों के आगे वो स्वर्ग की देवियाँ भी शरमा जाती थीं …….क्यों की सुन्दरता मेरे जनकपुर में बिखरी हुयी थी ।

मै सुनती थी बड़े बड़े विद्वानों और प्राचीन ऋषियों के मुख से ………कि श्री राम ब्रह्म स्वरूप हैं ……….और मै ? तब मुझे उत्तर मिलता मै ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति ।

कहते हैं ……….मेरे विवाह में विधाता ब्रह्मा से लेकर गन्धर्व , किन्नर यक्ष …..देवताओं की तो भरमार थी ।

पर मेरे विवाह की एक घटना……पता नही मुझे किसनें सुनाई थी …….पर मुझे हँसी आती है उस घटना का स्मरण करके ………

विधाता ब्रह्मा चकित हो गए थे ……….ब्रह्मा की बुद्धि जबाब दे गयी थी ……मेरे जनकपुर को देखकर ………मेरे जनकपुर के नर नारियों को देखकर ………..।

इतना सुन्दर ये नगर ! इतना सुन्दर सजा है ये नगर !

और यहाँ के लोग ………कितनें सुन्दर हैं ……….अद्भुत !

पर ब्रह्मा को उसी समय घनी उदासी नें घेर लिया था …………

देवों नें कहा ……..चलो जनकपुर सीताराम का विवाह महोत्सव होनें जा रहा है ………हे विधाता ! चलिए ।

पर विधाता उदास हो गए ।

उस समय देवाधिदेव महादेव प्रकट हुए थे ……..और उन्होंने पूछा था हे विधाता ! क्या बात है आप इतनें दुःखी क्यों हैं ? क्या ऐसी बात हो गयी, जिसके कारण आप उदास हो गए ?

ये समय उदासी का नही है ………….श्री राम दूल्हा बननें जा रहे हैं ।

पर हे भूत भावन ! मेरी ये समझ में नही आरहा …………

कि जनकपुर के इस विवाह उत्सव में कहीं मेरी कृति क्यों नही है ?

उस समय भगवान शंकर हँसे थे …………..और हँसते हुए बोले थे ……ये हमारे सीता राम जी का विवाह है …………

ये हमारे माता पिता का विवाह है …….माता पिता के विवाह में बच्चों की कृति नही होती ………….इसलिये ये सब सोचना छोडो …..और चलो जनकपुर में ।

मै जगत जननी हूँ ………?

हाँ मेरे श्री राम जगत पिता हो सकते हैं …………पर ये सीता जगत जननी है ?

आज मुझे बस रोना आरहा है …………..उन पलों को याद करके …….उस समय का स्मरण करके ……………

क्या सीता जगत जननी होती तो उसकी आज ये दशा होती ?

तुम जगत जननी हो …….तुम जगत की माँ हो………..हे सीता पुत्री ! ये सब आस्तित्व की लीला है …….तुम्हारी महानता जगत को बतानें के लिए ……….आस्तित्व रूपी श्रीराम नें ही ये लीला की है ………..।

त्याग , तप, सहनशीलता ……..इसकी चरम स्थिति पर तुम हो …….जगत तुम्हे देख रहा है …………..तुम्हारी महिमा गायेगा ये जगत …..क्यों की तुम इस जगत की माँ हो ……….

ठीक कहा था भगवान शंकर नें ……विधाता ब्रह्मा से ……कि हमारे माता पिता का विवाह है ये तो ।

मेरे सामनें ऋषि वाल्मीकि आकर खड़े हो गए थे ……………

मैने लेखनी वहीं रख दी ……और उठकर खड़ी हो गयी थी ।

पुत्री ! दुःखी मत हो …………क्या पता आस्तित्व क्या चाहता है !

इतना कहकर ऋषि चले गए थे ………….

मै देखती रही …………….शाम का समय होनें जा रहा था ।

ऋषि भी तो ‘सन्ध्या” करनें गंगा जी के किनारे गए थे ।

अपनी कुटिया में आकर मैने दीया जलाया था ।

ओ ओ ओ ओ ओ ओ …………………

मै चिल्लाई …….
मैने एकाएक आँखें बन्द कर ली थीं …………..कोई कीड़ा गिर गया था ऊपर से……… मेरे ऊपर …….मै डर गयी थी ।

वन देवी ! वन देवी ! क्या हुआ ?

मेरी सेवा में जो रह रही थी वो सेविका दौड़ी हुयी आयी ……..

नही ……कुछ नही ……..तुम जाओ ।

मै जलता हुआ दीपक देखती रही ……………..

कितना सजा था ना उस समय मेरा जनकपुर ……………

और मेरे श्री राम दूल्हा बनकर घोड़े में बैठ कर आये थे ।

मै जलता हुआ दीया अपलक देखे जा रही थी…………..

शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

[Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (28)


हरि मोरे जीवन प्रान अधार ।। टेक ।।

और आसिरो नाहीं तु बिन, तीनूँ लोक मँझार ।

आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरख्‍यौ सब संसार ।

मीरां कहै मैं दास राबरी, दीज्‍यौ मती बिसार ।।4।।

‘साहिब चितवो हमरीं ओर ॥टेक॥

हम चितवैं तुम चितवो नाहीं, तुम्हारो हृदय कठोर।

औरन को तो और भरोसो, हमैं भरोसो, तोर॥’

नरसी भक्तराज के पुत्र शामलदास का विवाह

भगवान ने किंचित विनोद का भाव बनाकर कहा -‘मदन राय जी !मैं तो उनका एक तुच्छ सेवक हूँ । चलिये, मैं आपको उनके पास ले चलता हूँ ।’

भगवान उन्हें साथ लेकर भक्त राज के पास आये । भक्त राज अत्यंत साधारण वेष में कुछ भक्तों के साथ बैठे हुए हरि कीर्तन कर रहे थे । वह भजन में इतने तल्लीन हो रहे थे कि उन्हें बाहरी जगत का कुछ भी ध्यान न था । उनकी इस स्थिति और अतुल ऐश्वर्य के बीच इस सादगी को देखकर मदन मेहता का सारा अभिमान चूर्ण हो गया । उन्होंने ऐसे सत्पुरूष को सम्बनधी रूप में पाने के लिए मन ही मन अपने भाग्य की सराहना की ।

भगवान ने भक्त राज का ध्यान भंग करके मदनरायजी का परिचय कराया । दोनों समधियों ने एक -दूसरे को अभिवादन किया और प्रेम पूर्वक आलिंगन किया । कुशल समाचार होने के बाद मदन मेहता ने अपनी धृष्टता के लिये क्षमा माँगी और कहा – ‘ भक्त राज ! आपके साथ सम्बनध होने के कारण आज मैं धन्य हो गया ।’

मेहता जी ! यह सब प्रभु की कृपा का ही परिणाम है । भक्त राज ने उत्तर दिया ।

मदन मेहता ने भगवान के साथ नरसिंह राम का यथा शक्ति आतिथ्य -सत्कार किया तथा विधिपूर्वक वर-पूजन करके अपनी कन्या को दान कर दिया । बड़े समारोह के साथ विवाह -कार्य सम्पन्न हुआ । मदन मेहता ने वस्त्र, अलंकार ,रत्नादि बहुमूल्य वस्तुएँ दहेज में देकर पुत्री को विदा कर दिया ।

इस प्रकार प्रणतपाल भगवान भक्त -पुत्र शामलदास का विवाह -कार्य सम्पन्न करके सुकुटुम्ब अन्तर्हित हो गये

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: “परम भागवत भीष्म पितामह”

भागवत की कहानी – 27


बेचैन हैं युधिष्ठिर , उनको रात रात भर आज कल नींद नही आती ।

कारण ?

महाभारत युद्ध । कितने लोग मरे , कितनी नारियाँ विधवा हो गयीं , कितने बालक अनाथ हो गये ….अभी भी युधिष्ठिर के कानों में चीख पुकार चल रही है ….कोई रो रहा है तो कोई चीख रहा है …..जिधर देखा उधर रक्त ही दिखाई देता है । फिर स्वयं का सम्मान ! कोई जयकारा लगा रहा है …हस्तिनापुर नरेश महाराज युधिष्ठिर की जय । कोई पुष्प चढ़ा रहा है ….किन्तु इन सबमें युवा कोई नही है ….हस्तिनापुर का युवा कहाँ गया ? राजा युधिष्ठिर पूछते हैं । नये राजा का स्वागत हस्तिनापुर में इस तरह ! विधवा नारियाँ हैं …या बूढ़े बड़े लोग …बस ? युवक कहाँ ?

सब मारे जा चुके हैं …..हे युधिष्ठिर ! तुम्हारे महाभारत युद्ध ने युवाओं को लील लिया है । अब यहीं तुम राज करो …इन्हीं विधवाओं और वृद्घों के मध्य अपना राज्य चलाओ । ओह ! हिलकियाँ छूट गयीं युधिष्ठिर के ……ये मैंने क्या किया ? ये मुझे से क्या अनर्थ हो गया ! युधिष्ठिर पागल हो उठे हैं …..इन्हें चैन नही है …न नींद है …..इन्होंने इतना बड़ा युद्ध जीता है….फिर भी इनको शान्ति नही । कौन मुझे इस दुःख के क्षणों से बाहर निकालेगा ? कौन मुझे सहारा देगा ? या कौन मेरी सुनेगा – समझेगा ? युधिष्ठिर इन मोहग्रस्त विचारों में डूबे हुए थे कि तभी इनके मन में श्रीकृष्ण आये …..ओह ! मैं भी कहाँ ! जब साथ हैं श्रीकृष्ण तो क्या चिंता ! युधिष्ठिर उसी समय ….उस समय अर्धरात्रि थी …..ये भी नही सोचा कि अर्धरात्रि को पता नही क्या कर रहे होंगे ! ये तो चल दिए श्रीकृष्ण के शिविर की ओर ।


शिविर का द्वार खुला ही था ….युधिष्ठिर जब भीतर गये तब वहाँ का दृष्य देखते ही युधिष्ठिर चौंक जाते हैं ……..श्रीकृष्ण का ये स्वरूप युधिष्ठिर ने आज तक देखा नही था । शान्त भाव से बैठे हैं श्रीकृष्ण …..पद्मासन में हैं …..अर्ध नेत्र उनके खुले हैं …उन नेत्रों से भी मात्र अपनी नासिका के अग्र भाग को ही वो देख रहे हैं । युधिष्ठिर दो घड़ी भर वहाँ ऐसे ही बैठे रहे ।

अरे ! महाराज युधिष्ठिर ! श्रीकृष्ण ध्यान से उठे ….तो सामने युधिष्ठिर को देखा ।

आप ध्यान कर रहे थे । थोड़ा मुस्कुराते हुए युधिष्ठिर ने कहा था ।

श्रीकृष्ण कुछ नही बोले , बस मुस्कुराए । किन्तु गोविन्द ! आप क्यों ध्यान करें ? आपका ध्यान तो जगत करती है । युधिष्ठिर महाराज के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने कहा …..ऐसी बात नही है मैं भी ध्यान करता हूँ ….अपने प्रिय का ध्यान करता हूँ ।

अच्छा बताइये आप इस समय किसका ध्यान कर रहे थे ? युधिष्ठिर ने जैसे ही पूछा …श्रीकृष्ण के नयन सजल हो उठे थे ….रहने दो युधिष्ठिर ! कोई कोई बड़े विशेष होते हैं …श्रीकृष्ण इससे ज़्यादा कुछ बोले नही थे । तो उन्हीं विशेष महाभाग का नाम बता दीजिए ….युधिष्ठिर तो विशेष आग्रह करने लगे थे …..तब नेत्रों से अश्रु बह चले गोविन्द के …”भीष्म पितामह”….युधिष्ठिर ! वो महाभाग हैं – भीष्म पितामह । पता है बाणों कि शैया में हैं किन्तु मेरा ध्यान उनके मन में निरन्तर बना हुआ है ….दुःख के कारण नही ..मेरे प्रति प्रेम है इसलिए ।
हे युधिष्ठिर ! वो मर जाते कब के …लेकिन उन्होंने अपने प्राणों को रोक कर रखा है …पता है क्यों ? युधिष्ठिर ने पूछा …क्यों ? क्यों कि मुझे बिना देखे वो अपने प्राण त्यागेंगे नहीं ।

श्रीकृष्ण भावुक हो उठे हैं …लेकिन युधिष्ठिर को विशेष मतलब नही है उनकी अपनी समस्या है …जिसका समाधान उन्हें चाहिए । हे कृष्ण ! आप सब जानते हैं …बताइये ना ! मेरे दुःख का कारण क्या है ? युधिष्ठिर ने पूछा …तो श्रीकृष्ण ने सहज उत्तर दिया …तुम्हारा दुःख , तो कारण भी तुम्हीं जानों । हे कृष्ण ! मेरे दुःख का कारण ये महाभारत युद्ध ही है । श्रीकृष्ण चौंक गए , मुड़कर युधिष्ठिर को देखा …फिर बोले …मतलब ? मतलब ये कि केशव ! मेरे द्वारा महाभारत का जो युद्ध हुआ उसमें कितने लोग मरे ! कितनी माताएँ विधवा हुईं …कितने बालक अनाथ हुए उसका पाप किसे लगेगा ? मुझे मुझे …युधिष्ठिर को । हे महाराज ! मुझे तो भीष्म पितामह की याद आरही है ….मैं उनके पास जा रहा हूँ …तुम चलोगे ? श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की बातों को महत्वहीन माना …..ऐसा युधिष्ठिर को लगा । बोलो , चलोगे ? श्रीकृष्ण फिर पूछते हैं । ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया था ….उसी समय द्रोपदी भी आगयी और अर्जुन भीम आदि सब आगये ….ये सब बोले …हम भी जायेंगे … पितामह के दर्शन करने हम भी जायेंगे । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की ओर देखा ….चलो कृष्ण । मैं भी चल रहा हूँ । युधिष्ठिर और अन्यों को भी साथ ले , श्रीकृष्ण भीष्म पितामह के पास पहुँचे थे ।


बाणों कि शैया है …बाण देह में भिधे हुये है …फिर भी मन में प्रसन्नता है भीष्म पितामह के ..और ये प्रसन्नता अनन्त गुनी तब हो गयी जब इन्होंने अपने पास आते श्रीकृष्ण के दर्शन किए ।

इनका रोम रोम प्रफुल्लित हो उठा था । सामने से मुस्कुराते हुये गोविन्द आरहे थे ।

भीष्म पितामह ने लेटे लेटे ही प्रणाम किया ….फिर मुस्कुराते हुये बोले …अब कोई कष्ट नही है जब तक तुम नही आये थे तब तक मैं कष्ट में था …..भाव से भर गये हैं पितामह ।

हे पितामह ! ये युधिष्ठिर कुछ कहना चाहते हैं …..इनकी समस्या का समाधान कीजिए ।

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को आगे कर ये बात कही थी ।

हे गोविन्द ! तुम्हारे होते हुए किसी को समस्या हो सकती है और समस्या भी है तो समाधान भी तो तुम्हीं हो । भीष्म भाव से भरे हैं । श्रीकृष्ण कुछ नही बोले …बस युधिष्ठिर को आगे किया तो भीष्म ने युधिष्ठिर को ही पूछ लिया …क्या समस्या है ? युधिष्ठिर बोले ….मन में बेचैनी है ……उचाट है …लग रहा है कोई महान अपराध बन गया । कोई पाप हो गया । हे पितामह ! समझ में नही आरहा कि ये धर्म है ? हिंसा धर्म कैसे हो सकता है ? किसी को मारना ये धर्म कैसे हो सकता है ? युद्ध से तो हानि ही है …मानवता को और प्रकृति को भी । इतना कहकर युधिष्ठिर चुप हो गए हैं । भीष्म पितामह हंसे ….बोले …हे युधिष्ठिर ! धर्म की एक परिभाषा तो नही हो सकती । क्या पुत्र का धर्म पिता का हो सकता है ? या राजा का धर्म प्रजा का हो सकता है ? या दाता का धर्म भिक्षुक का हो सकता है ? जो जहाँ है उसके लिए धर्म वही है । तुम राजा हो …राजपरिवार से हो ….तुम्हारी ज़िम्मेवारी बनती है कि तुम अन्याय के विरुद्ध लड़ो ….ये तुम्हारा धर्म है …तुम्हारा …सबका धर्म ये नही हो सकता । अन्याय के विरुद्ध युद्ध करना क्षत्रिय के लिए धर्म है ….अब चाहे तुम जीतो या हारो । भीष्म कहते हैं ….हे युधिष्ठिर ! तुम हार भी सकते थे ….तुम युद्ध में मर भी सकते थे , ये युद्ध है । आज तुम युद्ध जीते हो अगर हारते तो भी कोई बात नही थी …तुमने धर्म के लिए अपने कर्तव्य का पालन किया इससे ज़्यादा और क्या चाहते हो ! भीष्म पितामह अब श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे ….देखते देखते वो युधिष्ठिर से बोले ….श्रीकृष्ण के कारण तुम जीते हो …ये बात कहते हुए भीष्म मुस्कुराए ।

बात अपने ऊपर लोगे , कर्ता भाव अपनाओगे तो पाप पुण्य के भागी बनोगे ….अरे युधिष्ठिर ! क्यों कर्ताभाव अपना रहे हो ….सब कुछ करने वाला ये है ….इसकी ओर देखो ….ये मुस्कुराता है तो सृष्टि बन जाती है और ये थोड़ी भी भृकुटी टेढ़ी कर लेता है तो प्रलय आजाता है ….तुम क्यों अपने को कर्ता मारते हो ….भीष्म पितामह कहते हैं …..देखो ! अपनी बुद्धि इस श्याम सुन्दर को दे दो ….यही सबसे ठीक रहेगा । अपनी बुद्धि इसे दे दो । मैंने तो दिया है । कितना सुन्दर है ये …इसके गले में वनमाला , कानों में कुण्डल , पीताम्बर , सिर में मोर मुकुट ….इसको छोड़कर कहाँ पाप पुण्य में , हिंसा अहिंसा में फंस रहे हो …इसमें फंसो …इसके घुंघराली लटों में फँसो । तुम्हारा मन टेढ़ा है ना तो कोई बात नही ये श्याम सुन्दर तुम्हारे मन से भी टेढ़ा है …अपने मन को इसी में लगाओ । ये स्वामियों का भी परम स्वामी है …किन्तु सेवकों का तो ये सेवक है । तुम्हारे लिए इस श्याम सुन्दर ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी । अपने हाथों में रथ का चक्र उठा लिया और मुझे मारने के लिए दौड़े …..आहा ! वो झाँकी मैं भुला नही पा रहा । ये कहते हुये भीष्म पितामह भाव से भर जाते हैं ….उनका हृदय श्रीकृष्ण प्रेम से भर गया है ..उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे …..भीष्म पितामह दर्शन करते हैं श्रीकृष्ण के ..और दर्शन करते करते करते वो अपने प्राणों को त्याग देते हैं ।

श्रीकृष्ण ने प्रणाम किया था परमभागवत भीष्म पितामह को ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 30
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अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः || ३० ||

अपि – भी; चेत् – यदि; सु-दुराचारः – अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला; भजते – सेवा करता है; माम् – मेरी; अनन्य-भाक् – बिना विचलित हुए; साधुः – साधु पुरुष; एव – निश्चय ही; सः – वह; मन्तव्यः – मानने योग्य; सम्यक् – पूर्णतया; व्यवसितः – संकल्प करना; हि – निश्चय ही; सः – वह |

भावार्थ
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यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है |

तात्पर्य
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इस श्लोक का सुदुराचारः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अतः हमें इसे ठीक से समझना होगा | जब मनुष्य बद्ध रहता है तो उसके दो प्रकार के कर्म होते हैं – प्रथम बद्ध और द्वितीय स्वाभाविक | जिस प्रकार शरीर की रक्षा करने या समाज तथा राज्य के नियमों का पालन करने के लिए तरह-तरह के कर्म करने होते हैं, उसी प्रकार से बद्ध जीवन के प्रसंग में भक्तों के लिए कर्म होते हैं, जो बद्ध कहलाते हैं | इनके अतिरिक्त, जो जीव अपने अध्यात्मिक स्वभाव से पूर्णतया भिज्ञ रहता है और कृष्णभावनामृत में या भगवद्भक्ति में लगा रहता है, उसके लिए भी कर्म होते हैं, जो दिव्य कहलाते हैं | ऐसे कार्य उसकी स्वाभाविक स्थिति में सम्पन्न होते हैं और शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति कहलाते हैं | बद्ध अवस्था में कभी-कभी भक्ति और शरीर की बद्ध सेवा एक दुसरे के समान्तर चलति हैं | किन्तु पुनः कभी-कभी वे एक दूसरे के विपरीत हो जाती हैं | जहाँ तक सम्भव होता है, भक्त सतर्क रहता है कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे यह अनुकूल स्थिति भंग हो | वह जानता है कि उसकी कर्म-सिद्धि उसके कृष्णभावनामृत की अनुभूति की प्रगति पर निर्भर करती है | किन्तु कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्णभावनामृत में रत व्यक्ति सामाजिक या राजनीतिक दृष्टि से निन्दनीय कार्य करता बैठता है | किन्तु इस प्रकार के क्षणिक पतन से वह अयोग्य नहीं हो जाता | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि यदि कोई पतित हो जाय, किन्तु यदि भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो हृदय में वास करने वाले भगवान् उसे शुद्ध कर देते हैं और उस निन्दनीय कार्य के लिए क्षमा कर देते हैं | भौतिक कल्मष इतना प्रबल है कि भगवान् की सेवा में लगा योगी भी कभी-कभी उसके जाल में आ फँसता है | लेकिन कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि इस प्रकार का आकस्मिक पतन तुरन्त रुक जाता है | इसीलिए भक्तियोग सदैव सफल होता है, क्योंकि जैसा कि अगले श्लोक में बताया गया है कि ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत में पूर्णतया स्थित हो जाता है, ऐसे आकस्मिक पतन कुछ समय के पश्चात् रुक जाते हैं |

अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित है और अनन्य भाव से हरे कृष्ण मन्त्र का जप करता है, उसे दिव्य स्थिति में आसीन समझना चाहिए, भले ही देववशात् उसका पतन क्यों न हो चुका हो | साधुरेव शब्द अत्यन्त प्रभावात्मक हैं | ये अभक्तों को सावधान करते हैं कि आकस्मिक पतन के कारण भक्त का उपहास नहीं किया जाना चाहिए, उसे तब भी साधु ही मानना चाहिए | मन्तव्यः शब्द तो इससे भी अधिक बलशाली है | यदि कोई इस नियम को नहीं मानता और भक्त पर उसके पतन के कारण हँसता है तो वह भगवान् के आदेश की अवज्ञा करता है | भक्त की एकमात्र योग्यता यह है कि वह अविचल तथा अनन्य भाव से भक्ति में तत्पर रहे –

नृसिंह पुराण में निम्नलिखित कथन प्राप्त है –

भगवति च हरावनन्यचेताभृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः |
न हि शशकलुषच्छबिः कदाचित्
तिमिरपराभवतामुपैति चन्द्रः ||

कहने का अर्थ यह है कि यदि भगवद्भक्ति में तत्पर व्यक्ति कभी घृणित कार्य करता पाया जाये तो इन कार्यों को उन धब्बों की तरह मान लेना चाहिए, जिस प्रकार चाँद में खरगोश के धब्बे हैं | इस धब्बों से चाँदनी के विस्तार में बाधा नहीं आती | इसी प्रकार साधु-पथ से भक्त का आकस्मिक पतन उसे निन्दनीय नहीं बनाता |

किन्तु इसी के साथ यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि दिव्य भक्ति करने वाला भक्त सभी प्रकार के निन्दनीय कर्म कर सकता है | इस श्लोक में केवल इसका उल्लेख है कि भौतिक सम्बन्धों की प्रबलता के कारण कभी कोई दुर्घटना हो सकती है | भक्ति तो एक प्रकार से माया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है | जब तक मनुष्य माया से लड़ने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं होता, तब तक आकस्मिक पतन हो सकते हैं | किन्तु बलवान होने पर ऐसे पतन नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा चुका है | मनुष्य को इस श्लोक का दुरूपयोग करते हुए अशोभनीय कर्म नहीं करना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इतने पर भी वह भक्त बना रह सकता है | यदि वह भक्ति के द्वारा अपना चरित्र नहीं सुधार लेता तो उसे उच्चकोटि का भक्त नहीं मानना चाहिए |


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