श्रीसीतारामशरणम्मम(21-2),
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#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣1️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#कहीनजाइसबभाँतीसुहावा….._
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
काम की उत्पत्ति है मन से ……..(मेरी चन्द्रकला किसी बृहस्पति से कम थोड़े ही है) …………अब मन तो चंचल होता ही है ………..इसलिये मैनें तो एक बात समझ ली ………कि मन को शान्त करनें की अपेक्षा………अपनें मन में रघुनंन्दन की इस छबि को ही बैठा लो……..इससे लाभ ये होगा सिया जू ! कि मन अपनें आप शान्त हो जाएगा…….और उसका चंचल होना भी सफल हो जाएगा ……..।
अच्छा पण्डितानी जू ! अब ये प्रवचन बन्द करके ……थोडा आँखों देखा हाल बता दो …….जो तुम्हारी ये सिया सुनना चाहती है ……।
मैने हँसते हुए उस चन्द्रकला से कहा ।
तब उसनें जो वर्णन किया वो अद्भुत था …………।
सिया जू ! बरात चल पड़ी है …………अश्वारूढ़ दूल्हा श्री राम के दर्शन करना मुझे तो लगता है इन नयनों की सफलता इसी में है ……..
सिया जू ! मै क्या कहूँ …….जिसनें देखा है वह बोल नही सकते और जो बोल सकते हैं उसनें देखा नही है …जैसे आँखें और जिह्वा………मै क्या बोलूँ ।
अच्छा सुनो पहले समधी महाराज की बात ………….समधी महाराज यानि आपके होनें जा रहे ससुर जी …………ये कहते हुए चन्द्रकला हँस पड़ी थी …………..
पता है वो हाथी पर बैठे हैं ………..और मूँछों में ताव देकर चले आरहे हैं …….जनकपुर वासी अपनी अपनी अट्टारिकाओं में खड़े होकर फूल बरसा रहे हैं ……जय जयकार कर रहे हैं …………..।
मार्ग फूलों से पटा पड़ा है …………………ऊपर से फूल निरन्तर बरस ही रहे हैं …………….चारों ओर सुगन्धित इत्र का छिड़काव किया गया है ……और पचकारिओं से अभी भी छिड़काव हो ही रहा है ।
मैने फिर पूछा ………मेरे रघुनन्दन ?
आहा ! सिया जू ! उनका वर्णन मै कैसे कर सकती हूँ ………..चन्द्रकला नें कहा। ।
मैने जब दर्शन किये रघुनन्दन श्री राम के …….घोड़े में बैठे हुए थे ……
उनके जिस अंग पर मेरी दृष्टि जाती थी …………..मेरी दृष्टि वहाँ से हटती ही नही थी …………….आहा ! उनका हर अंग !
दृष्टि और पलकों की मानों लड़ाई ही छिड़ गयी थी …………पर दृष्टि नें अब पलकों पर विजय पा लिया था ……क्यों की पलकें हार गयीं थीं …..और पलकों नें झपकना बन्द कर दिया था ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “नन्द -यशोदा”
भागवत की कहानी – 32
गोकुल में कोई साधना नही है , गोकुल पूरी तरह से निस्साधन है । अब देखिए ना ! भगवान आरहे हैं …अपने आप आरहे हैं फिर भी द्वार बन्द हैं ..गोप गोपी यहाँ तक की यशोदा मैया भी घोर निद्रा में हैं ..किन्तु करुणानिधान की करुणा …द्वार अपने आप खुल गये …चुपके से वसुदेव कन्हैया को यशोदा के बगल में सुला गये । अद्भुत प्रसंग है ये तो ! यशोदा मैया ने कहाँ तप किया ? कहाँ जप किया ? कोई विशेष लालसा , उत्कण्ठा , या व्याकुलता रही हो , पता नही । इन्होंने तो स्वप्न में भी नही सोचा था कि ब्रह्म आयेंगे , परमात्मा हमारे लाला के रूप में आयेंगे ।
परन्तु वो आये , चुपके से आये , छुपके आये यही तो करुणा है ब्रह्म की ..कि निस्साधन के पास आये…साधना वालों के पास परमात्मा आयें तो क्या बड़ी बात है ।
सब सो रहे हैं …..गहरी नींद है सबकी ……बाहर वर्षा हो रही है ….यमुना उफान पर है ।
तभी नींद खुल जाती है यशोदा मैया की ….नींद कैसे खुली ? जब उसके बगल में लेटे उसके लाला ने रोना आरम्भ किया । बस इसी रोदन ने चमत्कार किया था । समाचार फैलते देर कहाँ लगी । यशोदा का तो अंग अंग प्रमुदित है । उसका तो वात्सल्य झरने लगा है । समाचार पहुँचा नन्द जी के पास …ये भी रात्रि में ही गौशाला में जाकर बैठ गये थे …और प्रतीक्षा में थे कि कब समाचार मिले कि मेरे लाला हुआ है ।
ये दम्पति अनुराग से भरे हैं …..नन्द बाबा और यशोदा मैया । नन्द बाबा मुखिया हैं । गोकुल गाँव के मुखिया । इनके कोई पुत्र हुआ नही है …लेकिन इनको पुत्र का कोई आग्रह भी नही है …..फिर भी इनके पुरोहित ऋषि शांडिल्य ने एक अनुष्ठान रखवा दिया है । किसी को पता नही है कि कब क्या होगा ! अतिथि का सत्कार , वृद्धों की सेवा और भगवान की भक्ति …ये तीन वस्तुयें अच्छी तरह से यशोदा मैया के जीवन में दिखाई देती हैं । ‘बृजेश्वरी’ कहते हैं यशोदा मैया को , और बृजेश्वर हैं नन्द बाबा । लेकिन बृजेश्वरी कहलाना यशोदा मैया को कभी प्रिय नही लगा , फिर भी लोग आदर देते हुये कहते ही ।
आज ब्रह्ममुहूर्त की वेला में …”नन्द के आनन्द भयो, जै कन्हैया लाल की”…ये शुरू हो गया था ।
यशोदा बारम्बार अपने बगल में सो रहे लाला को देखतीहैं…..वो गदगद हैं । उधर नन्द बाबा को ये सूचना मिलती है कि …हे बृजेश्वर ! “आपके लाला हुआ”…..बस ये सुनते ही जो दशा हुई है नन्द महाराज की , वो तो देखते ही बनती है । उन्होंने तुरंत यमुना में स्नान किया है …दो लाख गौ दान का संकल्प किया है …आनन्द का ज्वार मन में इतना है कि कुछ समझ नही पा रहे कि हम क्या करें ! सब कुछ लुटा देते हैं ….सोना चाँदी , हीरे मोती , वस्त्र , मिठाई आदि सब कुछ लुटा दिया है । शुकदेव तो “महामना” शब्द का प्रयोग करते हैं नन्द बाबा के लिए ।
ये ध्यान देने वाली बात है कि …श्रीकृष्ण नन्द बाबा के अपने “जाए”पुत्र नही हैं । यानि पुत्र भाव है …देह से उत्पन्न पुत्र नही हैं । परन्तु भगवान का औरस पुत्र होना आवश्यक नही ….उनके प्रति तो भाव का जन्म होना ही पर्याप्त हैं । यहाँ ये बताया गया है कि ..परमात्मा के प्रति “पुत्र भाव” का प्रकट होना ही “पुत्र जन्म” है । पुत्र तो ये वसुदेव के हैं …किन्तु पुत्र भाव उनके मन में नही आ नही पाया । वो कृष्ण को भगवान ही मानते रहे ….देवकी भी भगवान मानती रहीं …भगवान भले ही पुत्र के रूप में पाया हो वसुदेव देवकी ने …लेकिन “पुत्र भाव”तो यशोदा और नन्द ने ही पाया ।
वसुदेव देवकी के मन में कृष्ण के प्रति पुत्रभाव का न होना ….उसका कारण ? कारण ये कि श्रीकृष्ण चार भुजा धारण करके प्रकट हो गए थे देवकी वसुदेव के समक्ष । किन्तु यशोदा और नन्द जी के साथ ऐसा नही हुआ । इसलिये तो यशोदा गोद में लेकर चूमती भी है कन्हैया को और गलती करे तो पीट भी देती है । द्वारिका में वसुदेव जब अपने महल से बाहर निकल रहे होते और उस समय श्रीकृष्ण आजाते तो वसुदेव जी की जूतियाँ हाथों में लेकर अपने पिता के सामने जब रखते तो वसुदेव को बड़ा ही संकोच होता ….वो मना करते ……ऐसा न करने को कहते ….क्यों कि “पुत्र भाव” प्रकट हो ही नही पाया । अब इधर देखो – “कन्हैया ! बाबा की जूतियाँ लैओ”। तब दोनों भैया दौड़कर जाते और सबसे पहले कन्हैया बाबा की जूतियों को पकड़ता फिर अपने सिर में रखकर वो कन्हैया नन्दबाबा की जूतियाँ लेकर आता …नन्द बाबा बड़े प्रसन्न होते कन्हैया के सिर में हाथ रखते …कन्हैया फूल जाता ख़ुशी के मारे ।
पुत्र भाव अत्यन्त गाढ़ है नन्द-यशोदा का ……इसलिए तो इनकी महिमा है ।
लक्ष्मी आकर खेल रही है बृज में ……फिर रिद्धि सिद्धि की कौन कहे ।
ये वात्सल्य की ही अधिकता है नन्द बाबा में कि उन्हें कंस को कर यानि टैक्स देने की भी चिंता है …..मेरे पुत्र हुआ है तो सबको कुछ न कुछ लाभ होना चाहिए …यही सोचकर तो ये भोले भाले नन्दबाबा कंस के पास जाते हैं और उसे ‘कर’ देते हैं …..कंस को सारी बात बता देते हैं नन्द जी …उनके यहाँ पुत्र हुआ है और कब हुआ ….सब कुछ बता देते हैं …..कंस दुष्ट है वो भोले भाले नन्द जी से सब कुछ जानकारी ले लेता है और पूतना को भेज देता है ….ये राक्षसी है …ये राक्षसों को जन्म देने वाली है …..ये आती है …इधर भोली भाली मैया यशोदा हैं …जो वात्सल्य की मारी हैं …इनके विषय में कहा कहें । पूतना को अतिथि मान कर उसका सत्कार करती हैं यशोदा मैया …..जल फल फूल आदि लेने जब भीतर जाती हैं …और वापस आकर जब वो देखती हैं …न वो अतिथि है न उसका कन्हैया ही है । अब तो ये बेचारी भागतीं हैं पागलों की तरह ….इन्हें कुछ सूझ नही रहा ….ये भागते भागते गिर पड़ती हैं लेकिन उनका लाला कहाँ हैं ? मैया के तो प्राण ही सूख गए हैं ….उन्हें कुछ भान नही है । तभी एक गोप आकर कहता है ..मैया ! तेरा लाला तो वहाँ है ! मैया यशोदा उठतीं हैं और दौड़ते हुये जब वो जातीं हैं …..तब तो सामने एक विशालकाय राक्षसी पड़ी हुई है …..उसके ऊपर उसका बालक खेल रहा है …तभी ….मैया ये राक्षसी है ….ओह ! जैसे ही ये सुना मैया यशोदा ने कि ये राक्षसी है ….मैया तो वहीं मूर्छित हो गयीं । नन्द बाबा भी उसी समय आए हैं मथुरा से , वही पूतना के देह से कन्हैया को उठाते हैं और उसकी मैया के गोद में रख देते हैं …..कन्हैया ने भी जब देखा मेरी मैया उठ नही रही ….तो कन्हैया ने रोना शुरू किया ….मैया ने जब रोने की आवाज़ सुनी ….तब उनकी जान में जान आयी थी । ये हैं हमारे महामना नन्द बाबा , और ये हैं वात्सल्यमूर्ति यशोदा मैया ।
[6/4, 8:45 PM]
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 1
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श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः |
यत्तेSहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया || १ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; भूयः – फिर; एव – निश्चय ही; महा-बाहो – हे बलिष्ट भुजाओं वाले; शृणु – सुनो; मे – मेरा; परमम् – परं; वचः – उपदेश; यत् – जो; ते – तुमको; अहम् – मैं; प्रीयमाणाय – अपना प्रिय मानकर; वक्ष्यामि – कहता हूँ; हित-काम्यया – तुम्हारे हित (लाभ) के लिए |
भावार्थ
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श्रीभगवान् ने कहा – हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो | चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभि तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा |
तात्पर्य
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पराशर मुनि ने भगवान् शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है – जो पूर्ण रूप से षड्ऐश्र्वर्यों – सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण धन, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण सौन्दर्य तथा सम्पूर्ण त्याग – से युक्त है, वह भगवान् है | जब कृष्ण इस धराधाम में थे, तो उन्होंने छहों ऐश्र्वर्यों का प्रदर्शन किया था, फलतः पराशर जैसे मुनियों ने कृष्ण को भगवान् रूप में स्वीकार किया है | अब अर्जुन को कृष्ण अपने ऐश्र्वर्यों तथा कार्य का और भी गुह्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं | इसके पूर्व सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शक्तियों तथा उनके कार्य करने के विषय में बता चुके हैं | अब इस अध्याय में वे अपने ऐश्र्वर्यों का वर्णन कर रहे हैं | पिछले अध्याय में उन्होंने दृढ़ विश्र्वास के साथ भक्ति स्थापित करने में अपनी विभिन्न शक्तियों के योगदान की चर्चा स्पष्टतया की है | इस अध्याय में पुनः वे अर्जुन को अपनी सृष्टियों तथा विभिन्न ऐश्र्वर्यों के विषय में बता रहे हैं |
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ज्यों-ज्यों भगवान् के विषय में कोई सुनता है, त्यों-त्यों वह भक्ति में रमता जाता है | मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति में भगवान् के विषय में सदा श्रवण करे, इससे उसकी भक्ति बढ़ेगी | भक्तों के समाज में ऐसी चर्चाएँ केवल उन लोगों के बीच हो सकती हैं, जो सचमुच कृष्णभावनामृत के इच्छुक हों | ऐसी चर्चाओं में अन्य लोग भाग नहीं ले सकते | भगवान् अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूँकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, अतः तुम्हारे लाभ के लिए ऐसी बातें कह रहा हूँ |
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🕉🙇♀🚩कृष्णा गोबिंद गोबिंद गोपाल नन्दलाल,
हम प्रेम नगर की बंजारन,
जप तप और साधन क्या जाने,
हम श्याम के नाम की दीवानी,B
व्रत नेम के बंधन क्या जाने,
हम बृज की भोरि गवालनियाँ,
ब्रह्म ज्ञान की उलझन क्या जाने,
ये प्रेम की बातें हैं ऊधो,
कोई क्या समझे कोई क्या जाने,
मेरे और मोहन की बातें या मैं जानू या वो जाने,
मैंने स्याम सुंदर संग प्रीत करी,
जग में बदनाम मैं होय गई,
कोई एक कहे कोई लाख कहे,
जो होनी थी सो तो होय गई,
कोई साँच कहे कोई झूठ कहे,
मैं तो श्याम पिया की होये गई,
मीरा के प्रभू कब रे मिलोगे,
मैं तो दासी तुम्हारी होये गई
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🙏🏵सात सौ परिवार को श्राद्ध भोजन निमन्त्रण
पर्ण कुटी में श्रीद्वारिकाधीश की जयध्वनी संग*
फिर दो-चार नागरों को ही क्यों ? बाकी लोगों का क्या दोष है ? क्या ये सब लोग आपके पिता जी के श्राद्ध के अवसर पर आपके घर पर आकर भगवान का प्रसाद नहीं पा सकते ?’ नागर जाति के पुरोहित ने मजाक के ढंग पर कहा ।
‘महाराज ! भगवत्प्रसाद के तो सभी अधिकारी है । परंतु कल तो मेरे बड़े भाई के घर पितृ श्राद्ध के निमित्त सारी जाति का निमंत्रण होगा ही ; फिर मुझ अकिंनचन के घर कौन भाई आना चाहेंगे ?’ नरसिंह राम ने अभिमान रहित स्वर में कहा ।
‘मेहताजी ! वंशीधर के घर पर जाति भोजन का निमंत्रण होने पर भी आपको दुःख मानने का कोई कारण नहीं ! आपके घर चलकर हम सब लोग भगवान को समर्पित किया हुआ नैवेद अवश्य ग्रहण करेंगे और इस तरह अपने देह को पवित्र करेंगे । आपकी कामना भी पूर्ण हो जायेगी ।’
प्रसन्नराय ने झूठी नम्रता प्रकट करते हुए कहा ।
किसी की कीर्ति को कलंकित करने के लिए दुर्जन अत्यंत नम्र बन जाते है । प्रसन्नराय के इस भाव को वहाँ उपस्थित सभी नागरों ने संकेत द्वारा प्रोत्साहित किया । उन्होंने सोचा, आज यदि सारी जाति का निमंत्रण नरसिंह राम दे दे तो बड़ा अच्छा हो । देखे , कहाँ से यह इतने आदमियों के भोजन का प्रबंध करता है ।
किंतु शुद्ध हर्दय मनुष्य को तो सर्वत अपनी तरह शुद्धता ही दिखाई देती है । नरसिंह राम ने मन विचार किया कि जब जाति के सभी प्रतिष्ठित वयक्ति भगवत्प्रसाद की अपेक्षा रखते हैं तब उनका अनादर करना उचित नहीं । फिर एक बार जाति गंगा के आगमन से मेरा घर पवित्र हो जायेगा ।
इस प्रकार का भाव मन में आते ही उन्होंने भगवान का स्मरण किया और सोचा कि निमंत्रण तो सारी जाति का दे ही दूँ , फिर परमात्मा की जो इच्छा होगी वह होगा ही ! बस , उन्होंने पुरोहित जी से कहा – ‘पुरोहित जी ! आप सात सौ घर के सभी जाति भाईयो को भोजन का निमंत्रण दे आइये । कल सांयकाल श्री द्वारिकाधीश की जयध्वनि करती हुई जाति-मैया मेरी पर्णकुटि को पावन बनावेगी। यह भी एक आनंद का विषय होगा ।’
‘ जैसी आपकी आज्ञा ‘कहकर पुरोहित जी उठे और सभी जाति के लोगों को सकुटुम्ब निमंत्रण दे आये।
क्रमशः ………………!
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877