🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣5️⃣
भाग 2
मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )*
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#भवफन्दफेरनहारपुनिपुनि , #स्नेहगाँठजुरावहीं…..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही! …………….
ये सखी थोड़ी भोली थी ………तो पीछे बैठी बैठी पुछ रही है ।
अरे ! भौंरा यानि इन दूल्हा रघुनन्दन की आँखें ……….और कमल हमारी सिया जू का मुख …………..अब बताओ क्या फंसेंगें नही ये श्री रघुनन्दन के नयन रूपी भौरें …..?
जी अवश्य फंसेगें …………सखियाँ आज पूरे आनन्द के मूड़ में हैं ।
पर इतना सब होते हुए भी मेरे श्री रघुनन्दन मुझे ही एकटक देखे जा रहें हैं …………………….
पर इधर हमारे राजपुरोहित जी नें गँठ बन्धन की विधि प्रारम्भ कर दी ।
जयजयकार होनें लगे थे चारों ओर से …………….
मण्डप में विराजमान देवता लोग फूल बरसानें लगे थे …………मेरे और श्रीरघुनंदन की कलाई में आम के पत्ते का कँगन बाँधा गया था ।
पण्डित लोग वेद मन्त्र का उच्चारण लगातार करते ही जा रहे थे …….
मेरी चूनरी और पीला पटुका श्रीरघुनन्दन का…दोनों को बाँधा गया था ।
चारों और आनन्द ही आनन्द छा गया था …………….आहा !
कहते तो हैं जहाँ गाँठ होती है वहाँ रस नही होता ……………जैसे गन्नें की गाँठ में रस नही होता ………सम्बंधों में गाँठ पड़ जाए …….तो रस खतम हो जाता है उस सम्बन्ध से ……..पर विचित्र है ये विवाह की रीत …गाँठ पड़नें पर ही रस माधुर्य का सृजन होता है .इसमें ……….
मेरी सखियाँ बतिया रही हैं ………………….मै दुल्हन बनी सुन रही हूँ ……मेरे रघुनन्दन अभी भी मुझे ही देख रहे हैं ……अपलक ।
सखी ! ये विवाह मण्डप की गाँठ है ……………और इस गाँठ में यही नही बंध रहे …….हम सब भी बंध रहे हैं ……….और जो इनके साथ न बंधना चाहे …..उससे बड़ा अभागी और कौन होगा !
ये तो ब्रह्म और आल्हादिनी का “गँठजोड़” है ………हम जीव अनेकानेक जन्मों से भटक ही तो रहे हैं …………अब छोडो भी सखी ! अपनें आपको इनके साथ बाँध लो …………..और क्या चाहिए हमें ?
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: “मथुरा से द्वारिका”
भागवत की कहानी – 44
कहाँ विश्वास था मथुरावासियों को कि आततायी कंस को ग्यारह वर्ष का देवकीसुत मार गिराएगा ! किन्तु ये हुआ । अब तो कंस के कारण जो इधर उधर यादव समाज भागा फिर रहा था वो वापस मथुरा में बसने लगा था । अब सुख बरसेगा ! अब सुख आयेगा …ये मथुरावासी सोच ही रहे थे कि …..जरासन्ध का आक्रमण मथुरा में हुआ । ये आक्रमण बड़ा भीषण था ….ये आतंक का मुखिया जो था जरासन्ध । विश्व के आतंककारी इसके सम्पर्क में थे ….इसको सब मानते थे …और मथुरा में आक्रमण का कारण था श्रीकृष्ण द्वारा कंस वध । ये कंस का ससुर था । इसकी बेटियाँ विधवा हो गयीं थीं इसलिए ये तिलमिला उठा था । इसने आक्रमण किया ।
श्रीकृष्ण अभी यमुना स्नान करके आही रहे थे कि अक्रूर ने इनको सूचना दी कि …मथुरा को घेर लिया है जरासन्ध ने …..श्रीकृष्ण रुक गये ….एक क्षण ही लगा था उन्हें सोचने में ….उन्होंने तुरन्त कहा ….बड़े भैया बलराम को सूचना दो कि वो शीघ्र मेरे पास आयें । सामने से उद्धव बलराम जी को लेकर आही रहे थे । भैया ! जरासन्ध ने हमारे मथुरा को घेर लिया है । मुझे पता है कृष्ण ! उसे रोकना होगा …श्रीकृष्ण गम्भीर हैं । रोकना क्यों होगा , उसका वध करना है । बलराम जी ने श्रीकृष्ण से कहा । अब थोड़े चंचल बनकर श्रीकृष्ण बोले ….नही , अभी जरासन्ध के वध का समय नही आया है …इसलिए उसको हम अभी मात्र रोकेंगे ….इतना कहकर श्रीकृष्ण बलराम का हाथ पकड़ कर दौड़े अपनी सीमा में । क्या सेना की आवश्यकता है ? उद्धव और अक्रूर पूछते रहे …श्रीकृष्ण इतना ही बोले …तैयार रखना सेना को …किन्तु अभी हम दोनों ही उससे निपट लेंगे …..श्रीकृष्ण दौड़ते हुए क़िले में पहुँच गये ….और अपने सुदर्शन चक्र से जरासन्ध की सेना में त्राहि त्राहि मचा दी ….जरासन्ध को भागना पड़ा था । क्यों छोड़ दिया , जरासन्ध का वध करते….बलराम जी ने अपने छोटे भाई से कहा तो श्रीकृष्ण बोले ….इसी जरासन्ध के कारण हम पृथ्वी के भार को कम करेंगे भैया ! कैसे ? तो श्रीकृष्ण बोले – ये आतंक का पोषक है …ये अब शान्ति से नही बैठेगा , ये जाएगा , विश्व के किसी कोने से किसी आतंककारी को पकड़ लाएगा युद्ध के लिए , हम उसे यहीं बैठे बैठे मार गिरायेंगे …ये बात अब हंसते हुए श्रीकृष्ण बोले थे ।
और यही हुआ …..जरासन्ध खोज खोज कर आतंकियों को लाता रहा और श्रीकृष्ण और श्रीबलभद्र उनका संहार करते रहे । एक दो बार नही सत्रह बार श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को पराजित किया ….अब भी ये थका नही है ….ये सुदूर समुद्र पार गया …..वहाँ एक कालयवन नामक आतंकी रहता था । इसको वर प्राप्त था कि कोई यादव इसे मार नही सकता । ( इस प्रसंग को विस्तार से जानने के लिए “श्रीकृष्णचरितामृतम् उत्तरार्ध” पढ़ें ) उसी कालयवन को ये लेकर आया बस फिर क्या था ….श्रीकृष्ण ने श्रीबलभद्र से कहा ….भैया ! भागो …..श्रीबलभद्र बोले …कहाँ भागें ? अपनी प्रजा को छोड़कर इस तरह वीर लोग नही भागते …..प्रजा सुरक्षित है …ये प्रजा का कुछ नही बिगाड़ेगा ….चलो ! और अपने बड़े भाई का हाथ पकड़कर श्रीकृष्ण भागे । ये कालयवन अट्टहास करता हुआ पीछे भागा ।
मुचुकुन्द नामका सूर्यवंशी राजा एक गुफा में सो रहा था …ये युगों से सो रहा था ….इसने देवासुर संग्राम में सहायता की थी देवों की तो देवों ने इसे विश्राम करने के लिए कहा क्यों कि मानव होने के कारण इन्हें थकान हो गयी थी ये विश्राम में जाना चाहते थे ….ये भी कह दिया था देवों ने कि जो जगायेगा वो भस्म हो जाएगा । श्रीकृष्ण कालयवन से भागते हुए चले गये उस गुफा में और अपनी पिताम्बर उसके ऊपर डाल दी स्वयं छुप गए । उसी समय कालयवन आया और श्रीकृष्ण जानकर जैसे ही लात मारी तो मुचुकुन्द उठ गया और कालयवन भस्म हो गया ।
जरासन्ध ऐसे कैसे छोड़ देता वो भी पीछा करते हुए आया ….श्रीकृष्ण भागे …और भागते भागते समुद्र के तट में पहुँच गए ….जरासन्ध ने आग लगा दी उस वन प्रान्त में और उसे लगा की ये मर गए होंगे किन्तु श्रीकृष्ण और श्रीबलभद्र दोनों समुद्र में कूद गये और मध्य में जाकर इन्होंने एक सुन्दर पुरी का निर्माण करवाया विश्वकर्मा से ..एक ही रात में सम्पूर्ण पुरी का निर्माण हो गया था और उसी रात अपने मथुरावासियों को श्रीकृष्ण ने वहाँ बुलवाया माया के द्वारा ….अब सुबह उठते ही जब देखा मथुरावासियों ने कि ये तो हम कहीं और आये हैं …..लेकिन श्रीकृष्ण साथ में हैं ये जब जाना तब ये अतिप्रसन्न हुए थे …..श्रीकृष्ण की ये यात्रा थी मथुरा से द्वारिका तक की ….परीक्षित से शुकदेव कहते हैं ।
: Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 15
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स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम |
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते || १५ ||
स्वयम् – स्वयं; एव – निश्चय ही; आत्मना – अपने आप; आत्मानम् – अपने को; वेत्थ – जानते हो; त्वम् – आप; पुरुष-उत्तम – हे पुरुषोत्तम; भूत-भावन – हे सबके उद्गम; भूत-ईश – सभी जीवों के स्वामी; देव-देव – हे समस्त देवताओं के स्वामी; जगत्-पते – हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी |
भावार्थ
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हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु! निस्सन्देह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं |
तात्पर्य
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परमेश्र्वर कृष्ण को वे ही जान सकते हैं, जो अर्जुन तथा उनके अनुयायियों की भाँति भक्ति करने के माध्यम से भगवान् के सम्पर्क में रहते हैं | आसुरी या नास्तिक प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं जान सकते | ऐसा मनोधर्म जो भगवान् से दूर ले जाए, परं पातक है और जो कृष्ण को नहीं जानता उसे भगवद्गीता की टीका करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए | भगवद्गीता कृष्ण की वाणी है और चूँकि यह कृष्ण का तत्त्वविज्ञान है, अतः इसे कृष्ण से ही समझना चाहिए, जैसा कि अर्जुन ने किया | इसे नास्तिकों से ह्रहण नहीं करना चाहिए |
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श्रीमद्भागवत में (१.२.११) कहा गया है कि –
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वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् |
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ||
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परमसत्य का अनुभव तीन प्रकार से किया जाता है – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा या भगवान् | अतः परमसत्य के ज्ञान की अन्तिम अवस्था भगवान् है | हो सकता है कि सामान्य व्यक्ति, अथवा ऐसा मुक्त पुरुष भी जिसने निराकार ब्रह्म अथवा अन्तर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार किया है, भगवान् को भगवद्गीता को न समझ पाये | अतः ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे भगवान् को भगवद्गीता के श्लोकों से जानने का प्रयास करें, जिन्हें स्वयं कृष्ण ने कहा है | कभी-कभी निर्विशेषवादी कृष्ण को भगवान् के रूप में या उनकी प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं | किन्तु अनेक मुक्त पुरुष कृष्ण को पुरुषोत्तम रूप में नहीं समझ पाते | इसीलिए अर्जुन उन्हें पुरुषोत्तम कहकर सम्बोधित करता है | इतने पर भी कुछ लोग यह नहीं समझ पाते कि कृष्ण समस्त जीवों के जनक हैं | इसीलिए अर्जुन उन्हें भूतभावन कहकर सम्बोधित करता है | यदि कोई उन्हें भूतभावन के रूप में समझ लेता है तो भी वह उन्हें परम नियन्ता के रूप में नहीं जान पता | इसीलिए उन्हें यहाँ पर भूतेश या परम नियन्ता कहा गया है | यदि कोई भूतेश रूप में भी उन्हें समझ लेता है तो भी उन्हें समस्त देवताओं के उद्गम रूप में नहीं समझ पाता | इसलिए उन्हें देवदेव, सभी देवताओं का पूजनीय देव, कहा गया है | यदि देवदेव रूप में भी उन्हें समझ लिया जाये तो वे प्रत्येक वस्तु के परम स्वामी के रूप में समझ में नहीं आते | इसीलिए यहाँ पर उन्हें जगत्पति कहा गया है | इस प्रकार अर्जुन की अनुभूति के आधार पर कृष्ण विषयक सत्य की स्थापना इस श्लोक में हुई है | हमें चाहिए कि कृष्ण को यथारूप में समझने के लिए हम अर्जुन के पदचिन्हों का अनुसरण करें |
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (45)
🌇🌸🙇♀🙏सब का भला करो भगवान दाता दया निधान ,
सबका भला करो भगवान तुम दुनिया का प्रीतम प्यारा,
सबसे ऊँचा सबसे न्यारा सकल गुणों की धाम ,
सबका भला करो भगवान🙏
🙇♀श्यामल साह को ( द्वारका ) हुंडी
नागर जाति के कुछ प्रमुख लोग चोरे ( चौपाल ) पे बैठे आपस में जप-शप लगा रहे थे । इसी समय चार यात्री वहाँ आये और उन्होंने नम्रता से पूछा – “भाइयों ! इस नगर में ऐसा कोई धनवान कौन व्यापारी , जो हमारे सात सौ रूपये लेकर शामल शाह द्वारिका की हुंडी लिख दे ।”
चौरे पर उपस्थित नागरों में नरसिंह राम की चर्चा चल रही थी। यात्रियों की बात सुनकर एक ईर्ष्यालु नागर ने तुरंत उतर दिया -‘आप लोग नरसिंह मेहता के घर चले जाइये । द्वारिका में उनकी बहुत बड़ी पेढी (दुकान ) है । हुण्डी वही स्वीकृत हो जाएगी । आपलोगों को अन्य स्थान में ऐसी सुविधा नहीं मिलेगी ।
दो-एक और नागरों ने भी व्यंग्य से हाँ-में -हाँ मिला दी । बेचारे यात्रियों को विश्वास हो गया और वे पूछते ‘पूछते मेहता जी के घर पर आ पहुँचे । भक्त राज भगवद भजन से निवृत्त होकर भगवान को नैवेद समर्पित कर रहे थे । यात्रियों ने मेहता जी को नमस्कार किया । भक्त राज ने अभिवादन का उतर देने के बाद उन्हें आसन, जल और भगवत्प्रसाद प्रदान कर उनका यथोचित सत्कार किया और फिर आगमन का कारण पूछा । एक यात्री ने नम्रता पूर्वक कहा –
“नरसिंह राम जी ! हम लोग परदेशी यात्री हैं । जूनागढ से द्वारिकापुरी का मार्ग विकट होने के कारण द्रव्य लेकर चलना हमें अनुचित्त और भयावह प्रतीत होता है । अतएव ये सात सौ रूपये लेकर यदि आप द्वारिका की हुण्डी लिख दे तो बड़ी कृपा होगी ।”
भक्तराज ने हँसते हुये पूछा – ” हरिजनों ! मेरा घर आपलोगों को किसने बताया ? “
यात्री बोला – “भक्त राज ! यही पास में एक चौरे पर कुछ भले आदमी बैठे थे , उन्हीं लोगों ने आपका परिचय देकर विश्वास दिलाया है कि यहाँ द्वारिका की हुण्डी मिल जाएगी ।”
यह सुनकर भक्त राज को अपने जाति-भाईयों की करतूत पर हँसी आ गयी । *”सज्जन पुरुष दुर्जनों के अनुचित कार्यों से भी घबड़ाते नहीं, बल्कि उन्हें भी उपयोगी समझ कर सन्तोष मानते हैं, महासागर के खारे जल को अमृत बनाकर मेघ मण्डल जगत को जीवन प्रदान करता है;।
भक्त राज ने सोचा कि इस अनायास उपस्थित संयोग में अवश्य ही ईश्वरीय संकेत होना चाहिए, अन्यथा यह असम्भव कार्य सम्भव कैसे होता ? कल से ही तो पत्नी के एकादशाह -द्वादशाह के निमित्त जाति-भोजन कराना है । इसी कार्य के लिये इस रूप में भगवान ने सहायता भेजी होगी ,नहीं तो इन यात्रियों का और मेरा यह संयोग ही कैसे बनता । समय विचार कर कार्य करने वाला ही मनुष्य सावधान कहा जाता है । अतः हुण्डी लिखने में विल्मब करना उचित नहीं । परमात्मा की इच्छा के अनुसार यह सुयोग उपस्थित हुआ है और मेरी हुण्डी वह द्वारिका वासी भगवान अवश्य ही स्वीकार कर लेगे ।*
‘ऐसा दृढ़ निश्चय करके भक्त राज ने सात सौ रूपये ले लिये और हुण्डी लिखकर उन्हें दे दी ‘ । “
साँवरिया थारा नाम हज़ार रे,
मैं कइयाँ लिखू कुम कुम पत्री,
कोई कवे तने देवकी रो,
कोई कवे तने यशोदा रो,
कोई कवे तने एहलवती रो लाल रे,
मैं कइयाँ लिखू कुम कुम पत्री,
कोई कवे तने मथुरा वालो,
कोई कवे तने वृन्दावन वालो,
कोई कवे तने द्वारिका रो नाथ रे,
मैं कइयाँ लिखू कुम कुम पत्री,
कोई कवे तने बहामा पति कोई कवे तने रुक्मण पति,
कोई कवे तने राधा जी रो श्याम रे,
मैं कइयाँ लिखू कुम कुम पत्री,
कोई कवे तने मुरली वालो,
कोई कवे तने खाटू वालो,
कोई कवे तने बंसी वालो श्याम रे,
मैं कइयाँ लिखू कुम कुम पत्री,
क्रमशः ………………!
🌼🌻मीरा माधव 🌻🌼
