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November 22, 2024 4:15 am

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“उद्धव गीता – “ध्यान योग” – भागवत की कहानी – 59 : नीरु आशरा

“उद्धव गीता – “ध्यान योग” – भागवत की कहानी – 59 : नीरु आशरा

“उद्धव गीता – “ध्यान योग”

भागवत की कहानी – 59


हे भगवन् ! आपका ध्यान हम कैसे करे ? उद्धव ने यहाँ ध्यानयोग के सम्बन्ध में पूछा था ….तो भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया …..हे उद्धव ! बुद्धि मन और वाणी इन तीनों को भगवन्मय बना लो ….फिर ये तीनों जहाँ जहाँ देखें , जायें , वहाँ भगवान हैं ऐसी भावना रखो । प्रिय उद्धव ! अब तुम्हें क्या कहूँ ! ध्यान के सम्बन्ध में तुमने पूछा है ना ! तो सुनो …..पहले तो ध्यान के लिए आवश्यक है स्थान ….जिस स्थान में तुम ध्यान करो …वो स्थान पवित्र होना चाहिए …फिर वो स्थान शांत होना चाहिए …और वो स्थान सम होनी चाहिए ….भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …..हे प्रिय सखा ! पीठ की रीढ़ सीधी करके ही ध्यान में बैठना चाहिए । अपने हाथों को अपनी गोद में रख लें ….यानि उद्धव ! पहले हम इस देह की चंचलता को शांत करें …..कोई कोई कहते हैं कि पहले मन को तो शांत करो …लेकिन शुरुआत इस शरीर से ही होती है ….आप शरीर को स्थिर रखिए ….उद्धव ! सामान्य व्यक्ति के लिए सीधे मन तक पहुँच पाना बड़ा ही कठिन है ….इसलिए ध्यानयोग में साधक धीरे धीरे आगे बढता है …वो पहुँच ही जाएगा । भगवान श्रीकृष्ण दोहराते हैं ….पहले शरीर की चंचलता को दूर करे …इसके लिए आसन में बैठे ….अपने दोनों हाथों को गोद में रखे …..यानि हाथों की चंचलता को भी दूर करे । फिर दृष्टि की चंचलता …..दृष्टि की चंचलता मन की ही चंचलता है …..क्यों की दृष्टि से जो देखता है …वही मन बनता है । अच्छा देखो ,अच्छे बनो …बुरा देखो, बुरे बनो । इसलिए ध्यान के समय अपनी दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर स्थिर करो ….बस उसी अपने नाक केअग्र भाग को देखना है …उसी में दृष्टि स्थिर करनी है….भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को कह रहे हैं ।

फिर गहरी साँस लें…..इसे प्राणायाम कहा जाता है …पूरक , कुम्भक , रेचक । इससे साँस शांत होती है ….हे उद्धव ! साधक ओमकार का उच्चारण तीव्रता से करते हुए अंतर्मुखी हो जाए ….फिर वो अपने हृदय कमल को देखे ….हृदय में एक कमल है …लेकिन वो कमल मुरझाया हुआ है और उल्टा पड़ा है …उसे सीधा करो ….और खिलाओ …..वो धीरे धीरे खिल रहा है …उसकी एक एक कर्णिका खिल रही है …..उसमें आठ दल हैं ….कर्णिका के सहित ध्यान करना है । भगवान श्रीकृष्ण यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं ……फिर वो शांत स्वर से बोलना आरम्भ करते हैं ……..उद्धव ! तुम्हारे हृदय का कमल अब खिल गया …कमल में से सुगन्ध फैल रही है ….वो चारों ओर फैल रही है ……उसी कमल के सुगन्ध में से आकार बन रहा है …..सूर्य …..हाँ , हाँ उद्धव ! आकाश में जाकर सूर्य बन गया है तुम्हारे हृदय का सुगन्ध ….वही चन्द्रमा बन गया है …और वही उड़ते हुए अग्नि बनकर प्रज्वलित हो रहा है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …..अब तुम्हें अपने इष्ट के दर्शन सूर्य में करने हैं ….देखो ! बंद आँखों से , शांत भाव से देखो …..सूर्य में कैसे तुम्हारे इष्ट चमक रहे हैं । फिर चन्द्रमा को निहारो …चन्द्रमा में भी तुम्हारे भगवान ही विराजे हैं …..फिर अग्नि में ..शुद्ध अग्नि में …धूम्र रहित अग्नि में भगवान प्रकट हो रहे हैं …..वो कितने सुन्दर लग रहे हैं ….उनका रूप चमक रहा है ।

( साधकों ! मैंने एक बार अपने पागलबाबा को साप्ताहिक मूल भागवत सुनाई थी …वो थे , मैं था …गौरांगी और शाश्वत थे । कथा का संकल्प था भगवान श्रीकृष्ण के नाम से …यानि यजमान थे श्रीकृष्ण …उस कथा में ये प्रसंग जब आया एकादश स्कन्ध का …और मैंने ये जब कहा – ध्यान योग के विषय में , तब गौरांगी ने पूछा था …अग्नि में , सूर्य में , चन्द्रमा में …ध्यान करना क्यों ? तब पागलबाबा ने ये रहस्य बताया था कि …सूर्य में ध्यान यानि बुद्धि से भगवान का चिन्तन ! बुद्धि के देवता हैं सूर्य …..बुद्धि तर्क करती है ….तो उस तार्किक पक्ष को भी भगवद चिंतन में ही लगाओ ….सोचो , विचारो भगवान के विषय में …प्रश्न करो , तर्क करो भगवान के ही पक्ष में …फिर देखो तुम्हारी बुद्धि शुद्ध पवित्र हो जाएगी ……शाश्वत ने पूछा था ….चन्द्रमा का ध्यान क्यों ? तब बाबा ने कहा था …यहाँ चन्द्रमा का ध्यान नही कहा …चन्द्रमा में ध्यान करो भगवान का ….ये कहा है ……इसका मतलब है ….चन्द्रमा मन के देवता हैं ….तो मन में उनका चिंतन चले । मन में उनका ध्यान हो । मैंने पूछा था – फिर अग्नि में भगवान का ध्यान क्यों ? गौरांगी ने कहा …हमारे श्रीराधावल्लभ लाल तो झुलस जाएँगे । तब बाबा ने कहा था …अग्नि का अर्थ है वाक् ….वाक् यानि वाणी …वाणी अग्नि रूप है …..इसलिए अग्नि में ध्यान का अर्थ है …अपनी वाणी से भगवान के नाम का सदैव जाप ..नामस्मरण । )


अब भगवान के रूप ध्यान करो …श्रीकृष्ण कहते हैं ….कैसे हैं भगवान ? सम हैं …उनके दोनों नेत्र समान हैं …दोनों कान समान हैं …और दोनों हाथ और चरण समान हैं ….अच्छा ! सम का अर्थ है …समान । अलग अलग मत देखो भगवान को …जैसे कान – मन ने एक बार एक कान देखे दूसरी बार दूसरा कान …ऐसे नही …एक ही बार में …भगवान के दो नयन हैं एक ही बार में उन्हें देखो ….इस तरह बड़ा आनन्द आता है….अब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ….उद्धव ! इस तरह ध्यान करने से आपके अनुभव में आएगा कि आहा ! भगवान तो सर्वांग सुन्दर हैं ….उनकी सुंदरता का बखान कौन कर सकता है । अब आपको उनकी आँखों में दिखाई देगा कि वो कुछ कहना चाहते हैं …अब आपको लगेगा कि वो कुछ संकेत करना चाहते हैं ….वो बुला रहे हैं ….वो कुछ देना चाहते हैं …या मुझ से कह रहे हैं …आज मेरे लिए ये भोग बना ।

अब यहाँ उद्धव से श्रीकृष्ण कहते हैं ….हे उद्धव ! मेरे सर्वांग में अपना ध्यान लगाओ। फिर उपाय बताते हैं …मन द्वारा अपनी इंद्रियों को खींचकर …फिर मन को बुद्धि से खींच कर मुझ में लगाये ।

उद्धव बहुत आनंदित हैं उन्हें स्वयं भगवान उपदेश कर रहे हैं ………

हे उद्धव ! फिर मन के द्वारा मुझे वो साधक देखे …..पहले सर्वांग का दर्शन करे ….फिर धीरे धीरे सर्वांग से लेकर एक किसी अंग में अपने मन को लगाये ….फिर उस अंग से निकाल कर दूसरे अंग में लगाये …इस तरह धीरे धीरे अपने मन को भगवान में लगाए …फिर अंतिम में सुन्दर , प्रसन्न , मुस्कुराता मुखमण्डल देखकर वहीं रुक जाए , ठहर जाए । इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण चुप हो जाते हैं क्यों कि उद्धव का ध्यान लग गया था ।

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