🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣0️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#उद्भवस्थितिसंहारकारिणीम्……._
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मै_वैदेही ! ……………._
आप आद्य शक्ति हैं …….आप सकल जगत की सृष्टि पालन और संहार करनें वाली हैं ……….आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है ।
वो मेरी सुन कहाँ रहे थे…….मै संकोच से धरती में गढ़ी जा रही थी ।
फिर एकाएक पता नही वशिष्ठ जी को क्या लगा ……..वो श्रीरघुनंदन की और मुड़े …………श्रीरघुनंदन का हाथ पकड़ कर मेरे हाथों में रखते हुए बोले ……………हे मिथिलेश किशोरी ! ये मेरा शिष्य राम है …….इसको स्वीकार करो …………।
ये क्या कह रहे थे वशिष्ठ जी ……..।
फिर हाथ जोड़नें लगे थे ……………हे सीता भगवती !
तुम आद्यशक्ति हो …..समस्त शक्तियों का केंद्र हो ……उमा, रमा, ब्रह्माणी सब तुम्हारी नख चन्द्र छटा से ही प्रकट होती हैं ……….तुम प्रसन्न हो जाती हो तो इस सृष्टि का प्रकटीकरण हो जाता है ……..तुम सन्तुष्ट हो जाती हो तो इस सृष्टि का पालन होजाता है ……और तुम्हारा तनिक क्रोध भी संपूर्ण सृष्टि में प्रलय ले आता है …………..इसलिये हे जनकपुर बिहारिणी ! मेरी बस इतनी प्रार्थना है तुमसे ……..
ये राम मेरा शिष्य है……..इससे तुम्हारा अपराध होगा…………ये इसकी लीला होगी ……………..जगत को वैराग्य का सन्देश देनें के लिए ही राम ने अवतार लिया है ………….और वैराग्य इतना …….त्याग इतना ……कि इतिहास में ऐसा कोई त्यागी नही हुआ ……..वैराग्य इतना कि ……….असीम ।
तुम राम हो …..और राम तुम हो …………पर ये राम अपनें आपको भी त्याग सकता है ……………..हे वैदेही ! एक आदर्श राजा का उदाहरण मेरा ये शिष्य प्रस्तुत करेगा समाज के सामनें ……….
उस समय हे मेरी आराध्या सीता भगवती ! मेरे राम पर क्रोध मत करना ……….मेरे राम पर करुणा करती रहना ……………
ये कहते हुए ………………मेरे चरणों में ही झुक गए थे वशिष्ठ जी ।
आप ये क्या कर रहे हैं ? मै घबड़ाई ……………
पर वशिष्ठ जी के नेत्रों से झरझर अश्रु बहते जा रहे थे ………….
मै उस समय समझ नही पाई ……….कि इतना बड़ा ज्ञानी …..रघुकुल का गुरु ………….फिर मेरी जैसी साधारण नारी से ।
पर आज समझ में आता है …………गुरु वशिष्ठ त्रिकालदर्शी हैं……….उन्हें सब पता था ……….वो इस वैदेही के साथ घटनें वाली हर घटना को प्रत्यक्ष् देख रहे थे ।
जनकपुर से विदा के समय ……..एकान्त में आकर जो बात कही थी वशिष्ठ जी नें ………………वो यही तो था ………..
आदर्श राजा बननें की सनक ? क्या मेरे राम को एक आदर्श राजा बननें की सनक थी ?…….जिसके लिये उन्होंने अपनें आपको भी त्याग दिया ……….वशिष्ठ जी का यही तो कहना था ना …….कि मै राम की आत्मा हूँ …….अपनी आत्मा को छोड़ दिया ?
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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उद्धव गीता – “क्रिया योग”
भागवत की कहानी – 61
हे भगवन्! ये मनुष्य बिना कर्म किए रह नही सकता । हाथों को काम चाहिए , पैरों को चलना है , मुँह से बोलना है , आँखों को देखना है , नाक को सूँघना है । ये सब इंद्रियाँ बिना काम के रह नही सकतीं । इन सबको वश में कैसे किया जाये ?
उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण से ये प्रश्न किया था ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले थे – हे उद्धव ! तुमने सही प्रश्न किया है । इसलिए मैं तुम्हें “क्रिया योग” की शिक्षा देता हूँ जिस क्रिया के करने से इन सांसारिक क्रियाओं के प्रति अनासक्ति तुम्हारी सहज ही हो जाएगी । ठीक प्रश्न किया तुमने ये कि – इंद्रियाँ सच में परेशान करके रख देती हैं ….इसलिए इनको काम देना आवश्यक है ….सामान्य सांसारिक जीव को ये कह देना कि अपना मन भगवान में लगाओ …और वो तुम्हारी आज्ञा से मन लगा दे ….ये इतना सरल है ? नही है …क्यों कि मन अतिचंचल है ….उसी के कारण इंद्रियाँ भी चंचल हो जाती हैं । इसलिए उद्धव ! जन्मों के अभ्यास को मिटाने के लिए क्रिया से ही क्रिया को काटा जाए …फिर आनन्द से अपने प्राण प्यारे प्रभु को रिझाया जाये ।
मेरी पूजा तीन प्रकार से होती है । भगवान श्रीकृष्ण अब क्रियायोग बताने लगे थे ।
वैदिक , तांत्रिक और मिश्रित । इनमें से जिसको जो रुचे उसी के अनुसार पूजा करे ।
वैदिक पूजा वो है जिसमें नियमों की प्रधानता हो । तांत्रिक वो है …जिसमें भावना की प्रधानता हो ….भावना के माध्यम से तुम अपने इष्ट की पूजा कर रहे हो …और मिश्रित यानि वैदिक और तांत्रिक दोनों को मिलाकर …यानि नियम भी हो और भावना भी । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …साधक को जो रुचे उसी के अनुसार पूजा करनी चाहिए ….मुझे तो सब प्रिय हैं ।
पहले गुरु बनाये , गुरु के प्रति निष्ठा रखे , फिर गुरु से दीक्षा लेकर उनके द्वारा दिये गए मन्त्रों का जाप करे …फिर विग्रह की सेवा करे । भगवान श्रीकृष्ण के ये कहने पर उद्धव ने प्रश्न किया …विग्रह तो कई प्रकार के होते हैं , भिन्न भिन्न धातुओं के होते हैं , भगवन् ! उनमें से कौन सा श्रेष्ठ है और उपासक को किस विग्रह की पूजा करनी चाहिए । भगवान श्रीकृष्ण बोले ….विग्रह ( प्रतिमा ) आठ प्रकार की होती है ….और सभी श्रेष्ठ हैं । भगवान श्रीकृष्ण बोले …पत्थर की , लकड़ी की , लोहे की , मिट्टी की , चित्र के रूप में , मणियोंकी , ताम्बा पीतल और मनोमयी आदि की । इनमें से किसी भी प्रतिमा का चुनाव करो …और उनकी पूजा करो ….बाहरी वस्तुओं से पूजा करो …अगर बाहरी वस्तुओं का अभाव है तो मन से भोग लगाओ ….मानसिक पूजा का भी उतना ही महत्व है जितना महत्व बाहरी पूजा का है ।
( यहाँ साधकों ! ये दृष्टव्य है कि भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ….”मनोमयी”
यानि मन में स्थापित प्रतिमा का मन से ही पूजन करो उसका भी फल उतना ही है …या कहें तो कुछ ज़्यादा ही है )।
हे उद्धव ! उपासक मेरी पूजा करे , नाना वस्तुओं के द्वारा मेरी पूजा करे …अगर वस्तुएँ नही हैं तो भी कोई बात नही ….मानसिक सेवा से भी मैं उतना ही प्रसन्न होता हूँ …जितना बाहरी सेवा से । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ।
उद्धव ! मूर्ति या विग्रह में मेरी पूजा करनी है ….तो स्नान आदि से पवित्र होकर , पवित्र आसन में , और पवित्र वस्तुओं द्वारा मेरी अर्चना की जाये । लेकिन मानसिक पूजा करनी है …तो उसके लिए बाह्य शुद्धि की कोई विशेष आवश्यकता नही है …..बिना स्नान के भी वो उपासक अपने मन में मेरी पूजा कर सकता है ….क्यों कि मैं ही मन में आगया तो फिर अशुद्ध उसका मन रहा ही नही …और मानसिक पूजा के लिए बाह्य शुद्धि आवश्यक नही है ।
हे उद्धव ! जिनके मन में प्रेम नही है …भाव नही है …वो चाहे मेरे आगे छप्पन भोग भी लगा दें …मुझे प्रसन्नता नही होती …लेकिन कोई भक्त अगर भाव से मुझे जल भी भोग लगा देता है तो मैं उससे बहुत प्रसन्न होता हूँ ….मुझे प्रेमी ही प्रिय हैं । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ।
मन लगाने का ये सरल उपाय है …सुबह उठो , स्नान करो , फिर ठाकुर जी जो विग्रह रूप में हमारे यहाँ विराजमान हैं उन्हें उठाओ …स्नान कराओ , पोशाक धारण कराओ …फिर भोग लगाओ …फिर आरती । हे उद्धव ! मेरी प्रतिमा को मेरा ही रूप मानना …और साष्टांग प्रणाम करना ….फिर परिक्रमा करना । नाम संकीर्तन करना । नाम गाते हुए उत्साह-उमंग से भर जाना ।
लोगों को , अपने परिवारी जनों को प्रसाद बाँटना , फिर भगवान का प्रसाद ग्रहण करते हुए अपने को धन्य मानना । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …..उच्च स्वर से मेरा नाम पुकारना …इससे भाव की जागृति होती है हमारे मन में ……मेरे भगवान ही सब कुछ हैं …यही मानकर चलना ।
इतना बोलकर भगवान श्रीकृष्ण मौन हो जाते हैं …उद्धव श्रीकृष्ण चरणों को ही निहार रहे हैं ।
भक्त नरसी मेहता चरित (61)
न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी,
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगतिश्शरण्यं,
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।।
हे शरणागत प्रतिपालक ! मैँ धर्म मेँ निष्ठा रखने वाला नहीँ हूँ , आत्मज्ञानी भी नहीँ हूँ तथा आपके श्रीचरणोँ मेँ पूर्ण एवं अनन्य भक्तिभावा भी नहीँ हूँ । मै सव प्रकार के मोक्ष साधनोँ से शून्य अतएव अकिञ्चन हूँ। मेरी रक्षा करने वाला कोई दूसरा नहीँ अपितु एकमात्र आप ही हैँ , अतएव मैँ अनन्यगति हूँ और इसी कारण से मैँ आपके श्रीचरणकमलो के मूल मेँ ही शरण ग्रहण करता हूँ ।।
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जय मुरली माधव श्याम हरे
जय जय प्रभु दीन दयाल हरे
जय कृष्ण हरे गोविन्द हरे
जय जय गिरिधर गोपाल हरे
गोविन्द हरे गोपाल हरे.
👏🙇♀भक्तराज नरसी राम दरबार में
दूसरे दिन रावमाण्डलीक के दरबार में भक्तराज हाजिर हुए सारंगधर, वंशीधर,अन्तराय इत्यादि अपने ही कुटुम्बीजन नरसि़ंहराम का अपमान करने के लिये इस तरह उतारू होकर दरबार में बैठे थे, जिस तरह काठ को काटने के लिये काठ का ही टुकड़ा कुल्हाड़ी का बेंट बना हुआ रहता है ।
भक्तराज नरसीराम को ज्ञानहीन ठहराने के लिये सारंगधर अपने साथ शहर के दो-चार सन्यासियों को रूपयौ का लालच देकर ले आया था । जब सब लोग आकर यथास्थान बैठ गये तब राजा ने सारंगधर की मण्डली की ओर देखते हुए कहा- “कहिये, आपलोगों का क्या कहना है ?”
“हे राजन् ! यह नरसि़ंहराम इस शहर में रहकर अनेक प्रकार के ढोंग रचकर जनता को भ्रम डाल रहा है, भक्ति का झूठा बहाना बनाकर अनेक प्रकार के अनाचारों का पोषण कर रहा है और स्वंय अज्ञानी होने पर भी अन्य मनुष्यों को ज्ञान देने का निन्दित एवं धर्म शास्त्र के विरुद्ध कार्य कर रहा है । अतः राजा का धर्म है कि ऐसे अधर्म की वृद्वि करने वाले मनुष्य को उचित दण्ड देकर अधर्म से देश की रक्षा करें ।” सारंगधर ने अपनी शिकायत पेश की ।
राजा ने कहा – सारंगधर जी ! मैं बहुत दिनों से भक्तराज की कीर्ति सुन रहा हूँ । वह ‘भगवान कृष्ण के प्यारे भक्त है । जन्म से लेकर आज-पर्यन्त उनके ऊपर किसी प्रकार का कलंक आया हो, ऐसा सुना नहीं है । फिर आज वृद्धावस्था में उनके अन्दर कोई कुप्रवृत्ति पैदा हो जैसा कि आप कहते हैं असम्भव हैं । ऐसे वीतराग महात्मा भगवद् भक्ति के द्वारा संसार को सच्चे मार्ग पर ला देते है, उनका आचरण ही धर्म शास्त्र बन जाता है । आखिर आपका धर्म शास्त्र क्या है ? ऐसे ही महानुभावों का अनुभव, उपदेश और जीवन-प्रणाली ही तो है । अतःइनका आचरण कभी धर्मशास्र विरूद्घ नहीं हो सकता । अब रही उनके अनाचार की बात । सो इस विषय में जब तक कोई विश्वसनीय गवाही नहीं मिल जाती, तबतक उनको दुराचारी कहना पाप है ।
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 31
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पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् |
झषाणां मकरश्र्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी || ३१ ||
पवनः – वायु; पवताम् – पवित्र करने वालों में; अस्मि – मैं हूँ; रामः – राम; शस्त्र-भृताम् – शस्त्रधारियों में; अहम् – मैं; झषणाम् – मछलियों में; मकरः – मगर; च – भी; अस्मि – हूँ; स्त्रोतसाम् – प्रवहमान नदियों में; अस्मि – हूँ; जाह्नवी – गंगा नदी |
भावार्थ
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समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ |
तात्पर्य
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समस्त जलचरों में मगर सबसे बड़ा और मनुष्य के लिए सबसे घातक होता है | अतः मगर कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है |और नदियों में , भारत में सबसे बड़ी माँ गंगा है | रामायण के भगवान् राम जो श्रीकृष्ण के अवतार हैं, योद्धाओं में सबसे अधिक शक्तिशाली हैं |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877