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August 1, 2025 12:35 pm

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 122 (2),”श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा – 58″,

तथा श्री भक्तमाल (159) : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣2️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

   *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
वैदेही की आत्मकथा गतांक से आगे-

मैं वैदेही !

मैं बैठ गयी …….धड़ाम से ……….मेरा शरीर पसीनें से नहा गया था ।

आगे क्या हुआ त्रिजटा ? मैंनें डरते हुए पूछा ।

रामप्रिया ! श्रीराम और लक्ष्मण मूर्छित हो गए हैं ।

क्या ! ! ! ! ! ! …………ये सुनते ही मेरा शरीर काँपने लगा ।


राक्षसराज रावण की विजय हो गयी….राक्षसेन्द्र रावण युद्ध जीत गए ।

राम लक्ष्मण को मार दिया मेघनाद नें ।

अशोक वाटिका में कुछ राक्षसियाँ थीं ………वो कहनें लगीं ………मेघनाद नें इन्द्र को जीता है ………ये बेचारे कोमल तपस्वी उसके आगे कहाँ टिकते ………मार दिया मेघनाद नें ।

मैं शून्य में तांक रही थी ………मेरे तो पुत्र का भी योग है …फिर ये कैसे हो सकता है ? दैव बलवान है ……उसके आगे किस की चली है ………मेरे मन में अनेक बातें आनें लगीं थीं ।

तभी आकाश से पुष्पक विमान आया……मेरे सामनें ही आकर रुका ।

उसमें से प्रहस्त उतरा ……..और मुस्कुराते हुए बोला ……..

राक्षसेन्द्र नें कहा है ……….राम लक्ष्मण मारे गए हैं ………मेरे वीर पुत्र मेघनाद नें उन्हें मार दिया है ………..अगर सीता को विश्वास न हो तो पुष्पक विमान में बैठे और स्वयं जाकर त्रिजटा के साथ युद्ध के भूमि की स्थिति देख आये ।

इतना कहकर चुप हो गया था रावण का मन्त्री प्रहस्त ।

मैं उठी …………..और त्रिजटा से कहा …….चलो त्रिजटा ! स्वयं देखते हैं वहाँ की स्थिति क्या है ?

पुष्पक विमान में बैठकर…….हम दोनों चले…….रात्रि का समय हो गया था…….चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था श्रीराम की सेना में ।

मैं नीचे देखती हुई जा रही थी……….मेरा हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा था …………….

न हीं ! ! ! ! …………मैं ऊपर से ही चिल्लाई ……………

क्रमशः…..
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌷 जय श्री राम 🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-58”

( दामोदर लीला – भाग 13 )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल …….

आहा ! वे दो दिव्य पुरुष छोटे से हमारे कन्हैया के आगे हाथ जोड़ के ठाढ़े हे ……उनकौ ध्यान मेरे कन्हैया के नन्हे नन्हे चरनन की ओर ही हो । कन्हैया के नख चन्द्र छटा ते जो किरणें निकल रही हीं ….उन किरणन ते इन कुबेर पुत्रन कूँ ज्ञान कौ प्रकाश प्राप्त हे रह्यो हो । वे ज्ञान के आलोक में कन्हैया कौ अद्भुताद्भुत ऐश्वय कौ दर्शन कर रहे ..और माधुर्य रस तौ यहाँ प्रवाहित है ही रह्यो है ।

नतमस्तक कुबेर पुत्र कछु बोलवे की स्थिति में नही हे …वो बारम्बार यही कह रहे …हे लोक नाथ ! हमारे ऊपर इतनी कृपा ! हर्षातिरेक के कारण उनके नेत्रन ते अश्रु प्रवाह चल पड़े हे …..वे झुके …और जैसे ही कन्हैया के चरण छूवे लगे ….सोई कन्हैया ने अपने पाँव हटाय लिए ….और भय के साथ चारों ओर देखनौं शुरू कियौ ।

मोकूँ हँसी आयी …..जे कन्हैया की ….ऐश्वर्य कौ छुपानौं और माधुर्य कूँ प्रमुखता ते या लीला में स्थापित करनौं ….यही प्रयोजन हो ।

हटाय लिए कन्हैया ने अपने पाँव ……….

अभी भी रस्सी बंधी भई है ….ऊखल अभी भी पड्यो भयौ है …..कन्हैया की दृष्टि में भय है …….

आप भयभीत हो ? हँसते भए कुबेर के पुत्र कह रहे हैं ।

अरे जाओ यहाँ ते …..मैया आएगी तौ फिर पीटेगी । कन्हैया कह रहे हैं ।

जे सुनके कुबेर पुत्र एक दूसरे कूँ देखवे लगे ….ऐश्वर्य लीला में तौ इनकौ प्रवेश है …लेकिन माधुर्य लीला में इनकौ तनिक हूँ प्रवेश नही है …..अरे ! माधुर्य लीला में तौ हमारौ प्रवेश है ….केवल हम बृजवासियन कौ …..जे कुबेर पुत्र कहा जानैं मधुर लीला कूँ ।

मुस्कुराय के कुबेर पुत्र आपस में कहवे लगे ….हम तौ इनके चरनन कौ स्पर्श करेंगे ही । लेकिन कन्हैया कौ ध्यान तौ मैया की ओर ही हो …कि कहीं मैया न आय जाये ।

अब दोनों आगे बढ़े और कन्हैया के चरनन में अपने दोनों हाथ धर दिए ।

छोटौ से कन्हैया अब अपने पामन ने देख रहे हैं …फिर उन कुबेर पुत्रन कूँ देखवे लगे ।

“कहन लगे हरि तिन तन चाहि , तुम तौ कोउ देवता आहि ।
इमि इहि गोकुल गोप दुलारे , क्यों हो पकरत पाँव हमारे ।।”

तुम देवता हो ….फिर क्यों मेरे पाँव पकड़ रहे हो ? कन्हैया कह रहे हैं ।

लेकिन कन्हैया की या मधुर लीला कूँ जे कुबेर पुत्र कहाँ जानें ।

याके ताईं तौ दिव्य प्रेम भावना आवश्यक है …..जो इन धन धनी पुत्रन के पास नही हैं ।

लेकिन अब स्तुति करवे लगे हैं …..कुबेर पुत्र चरनन कौ स्पर्श करते भए कह रहे हैं ……हे समस्त कूँ अपने प्रति आकर्षित करवे वारे श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो ।

कन्हैया भोलेपन ते इनकूँ देख रहे हैं …….और चकित भाव ते भर गए हैं ….अधिक ही जब चरन पकड़वे लगे तब झुँझला के कन्हैया बोले ….अरे ! जाओ, अपने घर जाओ ।

नही नाथ ! हम अब कहूँ नही जाँगे । अब हम केवल तुम्हारे ही हैं …..हे परम कल्याण स्वरूप तुम्हारी जय हो …..हे विश्वमंगल विधायक तुम्हारी सदाईं जय हो । हे गोपेश ! तुम्हारी जय हो …हे जगत के आधार , हे प्रेम रूप नन्द किशोर ! तुम्हारी जय जय हो ।

जे कहते भए भाव में भरके कन्हैया के चरनन में अपनौं माथौ धर दियौ……पहले तौ छोड़ हूँ रहे लेकिन अब तौ बैठ गए हैं चरनन के पास और नेत्रन ते अश्रु बहवे उनके ।

हे दीन बन्धु ! हे कृपा सिन्धु ! हे भक्तवत्सल ! हे गोपी नाथ !

कुबेर के पुत्रन ने जब स्तुति कौं अन्त ही करनौं नही चाहो …तौ अपनी माधुर्यलीला में विघ्न न आवे जे सोच के …कन्हैया तुरन्त बोले ….माँगौ तुम ,कहा चहिए तुम्हें ? कुबेर के पुत्र मुस्कुराए ….कन्हैया फिर बोले …अरे जल्दी माँगौ …नही तौ मेरी मैया आय जाएगी और तुम्हारे कारण मेरी माधुर्य लीला में विघ्न पड़ जावैगौ ।

हे प्रेमनिधि ! हमें आपसे और कुछ नही चाहिए ।

अरे ! माँगौ ..जल्दी माँगो ! कन्हैया कूँ झुँझलाहट है रही है ……कन्हैया माधुर्य लीला में विघ्न मान रहे हैं इन कुबेर के पुत्रन कूँ ।

कछु नही चहिए ……कुबेर पुत्र फिर बोले ।

तौ जाओ मैंने तुम्हें मुक्ति दई …तुमकूँ मोक्ष मिलेगौ । कन्हैया ने हूँ कह दियौ ।

तौ कुबेर पुत्र बोले ……हे नाथ ! भटका दो संसार में वो चलेगा , लेकिन मुक्ति मत दो ।

कन्हैया चौंक गये और कुबेर पुत्रन ते बोले …….दुनिया मुक्ति चाहे और तुम मना कर रहे हो ?

कुबेर पुत्र बोले …..नाथ! मुक्त है गये ….तौ तुम्हारी जे माधुर्य लीला न तौ देखवे कूँ मिलेगी न सुनवे कूँ ….या लिए मेरी प्रार्थना है …..हमकूँ यही संसार में भटकाय दो । संसार में भटके रहेंगे तौ कभी न कभी तुम्हारे दर्शन , तुम्हारी लीला कौ , श्रवण आदि कौ परम लाभ तौ मिलेगौ ।

कन्हैया बोले …जल्दी बोलो …कहाँ चहिए तुम्हें ? कन्हैया कूँ आगे लीला करनी है …वृक्ष गिरे हैं अब सब आएँगे …..या लिए जे कुबेर पुत्रन कौ प्रकरण जल्दी समाप्त करके अपनी लीला में ही रहनौं चाहें कन्हैया…..या लिए बोले …जल्दी माँगौ ।

हे परम सुन्दर ब्रह्म ! हमें इतनौं ही दो कि ..अपनी वाणी ते तुम्हारे गुण कौ गान करते रहें …अपने कानन ते तुम्हारी माधुर्यपूर्ण लीला सुनते रहें …अपने हाथन ते तुम्हारी सेवा करें …और हमारे जे जौ पाँव हैं ना …तुम्हारे ही धाम में घूमते रहें …और अहंकार स्वरूप हमारौ जे सिर केवल तुम्हारे ही सामने झुकौ रहे …..और कोई कामना नही है । जे कहते भए कन्हैया के सामने साष्टांग लेट गए हे जे कुबेर पुत्र ……………..

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (159)


सुंदर कथा १०४ (श्री भक्तमाल – श्री कीताचार्य जी )

श्री रामचन्द्र जी द्वारा श्री कीताजी के कन्या की रक्षा और संत हृदय कीता जी का राजा को क्षमा करना

श्री कीता जी महाराज का जन्म जंगल मे आखेट(शिकार) करनेवाली जाति मे हुआ था, परंतु पूर्वजन्म के संस्कारों से आपकी चित्तवृत्ति अनिमेषरूप से भगवत्स्वरूप मे लगी रहती थी । आप सर्वदा भगवान् श्री राम की कीर्ति का गान किया करते थे । साथ ही आपकी सन्तसेवा मे बडी प्रीति थी, यहां तक कि जब धन नही होता तब आप सन्तसेवा के लिये भगवद्भक्ति विमुख जनों (अधर्मी और नास्तिक) को जंगल मे लूट भी लिया करते थे और उससे सन्त सेवा करते थे । एक बार की बात है, आपके यहां एक सन्तमण्डली आ गयी, परंतु आपके पास धन की कोई स्थायी व्यवस्था तो थी नही, लूटने को कोई नास्तिक भक्ति विमुख भी मिला नही ,अत: आपने अपनी एक युवती कन्या को ही राजाके यहां गिरवी रख दिया और उस प्राप्त धनसे सन्तसेवा की। आपको आशा थी कि बाद मे धन प्राप्त होनेपर कन्या को छुड़ा लूंगा ।

उधर जब राजा की दृष्टि कन्यापर पडी तब उसके मन मे कुस्तित भाव आ गया । कन्या को भी राजा की बुरी नजर का पता चला तो उसने अपने पिता के घर गुप्त रूप से महल की एक दासी की सहायता से संदेश भेजा । बेचारे कीताजी क्या करते, राजसत्तासे टकराने से समस्या का हल नहीं होना था, अन्त मै उन्होने प्रभु श्री रामचन्द्र जी की शरण ली । उधर कन्या ने भी अपनी लज्जा-रक्षा के लिये प्रभुसे प्रार्थना की । भक्त की लज्जा भगवान् की लज्जा होती है, जिस भक्त ने संतो सेवा के लिये अपनी लज्जा दाँवपर रख दी हो, उसकी लज्जा का रक्षण तो उन परम प्रभु को करना ही होता है और उन्होंने किया भी । राजा जब कन्या की ओर वासना के भाव से आगे बढा तो उसको कन्या के स्थानपर भयंकर सिंहिनी दिखायी दी । अब तो उसके प्राणों पर संकट आ गये और काममद समाप्त हो गया ।

सिंहिनी ने राजा को पृथ्वी पर गिराकर बहुत डराया , उसके प्राण नही लिए । राजा थरथर कांपने लगा और उसका शरीर पसीने से भीग गया । उसने सिपाहियों को बुलाया पर एक भी सिपाही नही आया, सिपाहियों के कानों में आवाज ही नही जा रही थी। कीताजी भक्त है, यह बात तो उसे मालूम ही थी, उसे लगा कि भक्त कीताजी का अपमान करने के कारण ही उसपर ऐसा भगवान का कोप हो गया है क्योंकि महल के ऊपर सिंहिनी का चढ़ कर आना तो असंभव है । उसने उस कन्या के रूप मे दिखने वाली सिंहिनी के चरणों मे प्रणाम किया और क्षमा याचना करने लगा । भक्त श्री किताजी की जयजय कर करने लगा । भावदृष्टि बदलते ही सिंहिनी पुन: कन्या के रूप मे दिखायी देने लगी । राजा की आँखे खुल गयी, उन्होंने कीताजी के पास जाकर क्षमा प्रार्थना की । कीताजी सन्तहृदय थे, उन्होंने राजा को क्षमा कर दिया ।

श्री कीता जी की सत्यनिष्ठा और संतसेवा

श्री कीताजी भगवत्कृपा प्राप्त भक्त थे । एक बार सन्त सेवा के लिये आपको एक घोड़े की आवश्यकता थी, संतो के लिए समान लाना था और कुछ सामान संतो के निवास स्थान पर पहुंचाना था । पास मे ही फौज (सेना) की छावनी थी । आप वहाँ गये तो पहरेदार ने पूछा- कौन है ? आपने कहा – मै चोर हूँ। मेरा नाम कीता है और मै घोडा चुराने आया हूँ । आपकी इस बात से पहरेदार ने समझा कोई फौज के अधिकारी है, विनोद(मजाक) कर रहा है, अत: कुछ नही बोला । आप एक बढिया घोडे को लेकर चले आये । दूसरे दिन छावनी में घोड़े की चोरी की बात से हड़कम्प मच गया । पहरेदार ने कीताजी का नाम बताया और रात की सारी घटना बतायी ।

तुरंत ही कीताजी के यहाँ फौजदार साहब सिपाही लेकर पहुंचे तो एक वैसा ही घोडा उनके यहाँ बँधा मिला, परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि उस घोड़े का रंग सफेद था, जबकि छावनी से चोरी हुए घोड़े का रंग लाल था। इस बारे मे जब कीताजी से पूछताछ हुई तो उन्होंने सारी बात सच-सच बता दी । फौजदार ने पूछा – लापता घोड़े का रंग तो लाल था ,तुम्हारे यहां मिला हुआ घोड़ा तो सफेद है । रंग बदलने के बारे मे कीता जी ने कहा कि ऐसा तो प्रभुकी इच्छा से ही हुआ है, यह मेरी मानवीय सामर्थ्य की बात नही है । आपकी सत्यनिष्ठा और भगवद्भक्ति से फौज का सरदार बहुत प्रभावित हुआ और जान गया कि कीता जी सिद्ध संत है । राजा के साथ घटित घटना भी उसने सुन रखी थी । सन्तसेवा के निमित्त बहुत सा द्रव्य भेंट किया, साथ ही अपने बहुत से सैनिकों के साथ आपका शिष्य बन गया ।

शिष्य की गुरुनिष्ठा और धैर्य की परीक्षा

श्री कीता जी निष्ठावान् और सच्चे आज्ञाकारी साधकों लो ही शिष्य बनाते थे । एक बार एक साधक भक्त ने १२ वर्षतक आपकी सेवा की, परंतु आपने उसको तब भी दीक्षा नहीं दी, फिर अपने इष्टदेव प्रभु से रामजी के स्वप्न मे आदेश देनेपर उसे दीक्षा देने का निर्णय लिया, इसपर भी आपने उसकी बडी कठिन परीक्षा ली । शीत ऋतु (ठंड) मे उससे एक घड़े मे जल मँगवाया। जब वह साधक जल लेकर आया तो उन्होंने उसके सिरपर रखे घड़े को डण्डे के प्रहार से फोड़ दिया, जिससे उसका सारा शरीर भीग गया । ठंड से शरीर कांपने लगा ।तत्पश्चात् आपने पुनः उस से दूसरा घड़ा भरकर लाने को कहा । इस प्रकार आपने सात घड़े उसके सिरपर फोड दिये । अन्त मे जब आठवाँ घड़ा भरकर ले आया तो आपने उसको धैर्य और गुरु-आज्ञा के प्रति निष्ठाकी परीक्षा मे उत्तीर्ण मानका उसे दीक्षा दे दी ।

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