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April 19, 2025 5:35 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 122 (1), “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’की आत्मकथा – 57”, तथा श्री भक्तमाल (158) : नीरु आशरा –

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣2️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

   *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
वैदेही की आत्मकथा गतांक से आगे-

मैं वैदेही !

युद्ध शुरू हो गया …..लंका में युद्ध की भेरी बज उठी थी ।

“जय श्रीराम”……..मेरी वानर सेना के लोग कह रहे थे ।

और “जय राक्षसेंद्र” …..रावण की सेना के लोग कह रहे थे ।

मारो , काटो …….यही शब्द मेरे कानों में पड़नें शुरू हो गए थे ।

मायावी शक्ति लेकर बैठी थी आज त्रिजटा मेरे पास …..और लंका के युद्ध भूमि की घटना मुझे बताती जा रही थी ……………

हे रामप्रिया ! अंगद नें रावणपुत्र मेघनाद का रथ नष्ट कर दिया है ….मेघनाद का रथ नष्ट हो गया ……..उसका सारथी मारा गया ।

तभी …………त्रिजटा रुक गयी थी ये कहते हुये ।

क्या हुआ त्रिजटा ? बोल……युद्ध भूमि में क्या हो रहा है ?

मैने पूछा ……….तू रुक क्यों गयी ?

मेघनाद अंतर्ध्यान हो गया है……….मुझे डर लग रहा है …..कहीं माया का प्रभाव न छोड़ दे……..सच में मैने देखा त्रिजटा घबडा गयी थी ……वो जानती होगी ना …….क्यों की ये भी तो इसी कुल की है ……मैने त्रिजटा को घबड़ाते हुए देखा ……तो मैं भी घबडा गयी ……।

त्रिजटा बता ! ……….मेरे श्रीराम और लक्ष्मण कहाँ हैं ?

वो भी परेशान हो रहे हैं रामप्रिया ! धनुष में बाण लगाकर चारों ओर देख रहे हैं …….पर ! ……त्रिजटा देखनें की कोशिश कर रही है ।

रामप्रिया ! आकाश से बाणों की वर्षा कर रहा है मेघनाद ……स्वयं अंतर्ध्यान है ……और बाणों की वर्षा …………….

मेरा हृदय धड़क रहा था ……अज्ञात भय के कारण ……………….

श्रीराम बचनें की कोशिश कर रहे हैं…….लक्ष्मण भी । ……..हजारों वानर मर गए हैं…..सुग्रीव को भी बाण लगा है …….मेरे पिता .विभीषण नें उनके बाण को निकाल कर उस स्थान पर कोई जड़ी लगा दी है ।

त्रिजटा बताये जा रही थी ।

रामप्रिया ! अंतरिक्ष से “नागास्त्र” छोड़ दिया है मेघनाद नें ।

त्रिजटा चिल्लाई ।

देख ! देख ! त्रिजटा ! अब क्या हुआ ? मैं उठ खड़ी हुयी थी ।

वो नागास्त्र आरहा है दोनों भाइयों के समीप ……….और ?

क्या और ? बता त्रिजटा !

वो अस्त्र “नाग” बन गया है …….और नाग श्रीराम और लक्ष्मण के शरीर से लिपट गए हैं ………त्रिजटा इतना बोली ।

मैं बैठ गयी …….धड़ाम से ……….मेरा शरीर पसीनें से नहा गया था ।

आगे क्या हुआ त्रिजटा ? मैंनें डरते हुए पूछा ।

रामप्रिया ! श्रीराम और लक्ष्मण मूर्छित हो गए हैं ।

क्या ! ! ! ! ! ! …………ये सुनते ही मेरा शरीर काँपने लगा ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌷 जय श्री राम 🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा मधुमंगल की आत्मकथा-57”

( दामोदर लीला – भाग 12 )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल …..

मैं दूर खड्यो हूँ …..एक वृक्ष है जो या नन्द भवन कौ पूज्य है ….चौं कि नन्द आँगन के बीचौं बीच ठाढ़ो है । और आज ते नही है ….बरसन ते है । नही नही ..नन्द भवन कौ ही पूज्य नही है जे वृक्ष ……तीन चार बरसन ते तौ पूरे गोकुल गाँव कौ ही पूज्य बनौ है । अब तौ मावस और पूनौं कूँ गोपियाँ आमें और या वृक्ष में जल अक्षत आदि चढ़ाके पूजा और करें । रंगीन धागौ बाँध के याकी परिक्रमा करें ….याते कितनी कन्यान कौ ब्याह है गयौ …कितने ग्वालन कौ घर बस गयौ ।

‘अर्जुन’ नाम है या वृक्ष कौ …दो वृक्ष एक साथ ठाढ़े हैं ….या लिए “यमलार्जुन” कहें याते ।

मैं याही वृक्ष के पास हूँ …बहुत पास…यहीं ते मैं कन्हैया कूँ देख रह्यो हूँ …कन्हैया मोकूँ देख रो है ।

दूर चौं ठाढ़ो हूँ ? तौ सुनौं मैया यशोदा ने सबकूँ कन्हैया के पास ते भगाय दियौ है ….सब भाग गए हैं …..मैं कहाँ जाऊँ ? कन्हैया रस्सी ते बध्यो है ….मैं कहाँ जाऊँ ? तौ मैं सामने जो अर्जुन नामकौ वृक्ष है बाही के पास जायके ठाढो है गयौ । सोच लियौ हो मैंने मैया देखेगी तौ वृक्ष की ओट में छुप जाऊँगौ । भयौ यही । मैया आयीं तौ मैं वृक्ष की ओट में छुप गयौ ।

लेकिन जे कहा ? वृक्ष कौ हृदय धडक रह्यो है …..कौन ? मैंने पूछी …तौ वृक्ष ते आवाज़ आयी ….कुबेर पुत्र । कुबेर पुत्र ? हाँ …कुबेर पुत्र – नलकूबर मणिग्रीव ।

मैं कछु और जाननौं चाह रो …लेकिन ….सामने कन्हैया मोकूँ बुलाय रो ….मैंने हूँ संकेत में कह दिनी ….तेरी मैया है , मारेगी । कन्हैया दारिकौ , मोकूँ पिटवानौं चाहे ….मैं नही आय रो ….मैंने मना कीयौ ….लेकिन कन्हैया ने तौ ऊखल कूँ अपने पाँवन ते गिरायौ और ऊखल ते आगे जायके ऊखल कूँ खींचवे लग्यो …हाथन ते खींचवे लग्यो । मैं देख रो हूँ ….मैंने सोची- मैं जाऊँ कन्हैया के पास ….लेकिन मैया कौ डर मोकूँ हूँ तौ है ।

कन्हैया मुस्कुरा रो है ….और आश्चर्य ! इतनौं भारी ऊखल जे अकेले ही खैच रो है !

कन्हैया मेरे पास आय गो ….लेकिन जे कहा कियौ याने ….दो वृक्षन के बीच में ऊखल फँसाय दिए । मैंने कही …कन्हैया ! जे कहा कियौ तैनै? लेकिन कन्हैया हँस रो है …मोकूँ कह रो ऊखल तौ निकल जाएगौ …लेकिन मैया कहाँ है ? मैंने कही …भीतर रसोई में है । कछु सोच के बोलो कन्हैया ….मधुमंगल ! चल खेलवे । मैंने कही …कन्हैया ! या ऊखल ते तौ पहले मुक्त है लै ।

कन्हैया ने कही ….या ऊखल ते मुक्त हे वै मैं कहा वेद पड़नौं पड़े ?

मधुमंगल ! लै …..कहके कन्हैया ने एक जोर कौ झटका दियौ …..बस वाही समय तेज आवाज भई ….और दोनों विशाल वृक्ष धड़ाम ते अवनी में गिर गये हे ।


दो दिव्यपुरुष हे वे …..सुन्दर , अति सुंदर हे …..उनके नयन बड़े बड़े और शान्त हे ।

कुबेर के पुत्र हैं हम …….सिर झुकाकर वो दोनों कह रहे । फिर काहे कूँ वृक्ष योनि में आए ? कन्हैया पूछ रो तौ मैं भी सुनवे लगो ……

देवर्षि नारद जी ने हमें श्राप दियौ …….नल कूबर ने कही ।

नही नही श्राप नही , वरदान दियौ देवर्षि ने तौ …..आनन्दपूर्वक मणिग्रीव बोल्यो ।

कैसे ? नन्हा सौं परब्रह्म कन्हैया पूछ रह्यो है ।

हे नाथ ! का तुम तप आदि ते मिलते ? कौन कूँ मिले हो बताओ ?

तुम जप तप ते मिले हो ? नही ना । फिर हम कूँ मिल गए ….हम जैसेन कूँ मिल गये …जो सदैव विषय भोग के चिन्तन में ही लगे रहें ……

मंदाकिनी जैसी पावन नदी में हूँ नहाते समय मदिरा कौ सेवन । फिर परस्त्री गमन ….और सन्तन कौ अपराध …ओह ! इतने पे हूँ देवर्षि ने कृपा करी ….और हे नाथ ! हमें तुमते मिलाय दियौ । सच कही है शास्त्रन ने ….दुष्ट कौ आशीर्वाद हूँ दुखद होय है …और सन्त पुरुष कौ श्राप हूँ सुख प्रदान करवे वारौ होय । हे हरि ! हम आज धन्य है गये …धन्य है गये ।

स्तुति करवे लगे हैं कन्हैया की कुबेर के ये पुत्र…….

क्रमशः…..

Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (158)


सुंदर कथा १०३ (श्री भक्तमाल – श्री खड्गसेन जी )

पूजय बाबा श्री गणेशदास जी की टीका और गीता प्रेस भक्तमाल से प्रस्तुत चरित्र :

जन्म और रचनाएं –

श्री खड्गसेन जी का जन्म इ. स. १६०३ एवं रचनाकाल सं १६२८ माना जाता है । ये ग्वालियर में निवास करते थे और भानगढ़ के राजा माधोसिंह के दीवान थे । श्री राधागोविन्द के गुणगनो को वर्णन करने मे श्री खड्गसेन जी की वाणी अति उज्वल थी । आपने व्रज गोपि और ग्वालो के माता -पिताओं के नामों का ठीक ठीक निर्णय किया । इसके अतिरिक्त ‘दानकेलिदीपक ‘आदि काव्यों का निर्माण किया, जिनसे यह मालूम होता है कि आपको साहित्य का प्रचुर ज्ञान था और आपकी बुद्धि प्रखर थी । श्री राधा गोपाल जी, उनकी सखियाँ और उनके सखाओं की लीलाओं को लिखने और गाने मे ही आपने अपना समय व्यतीत किया । कायस्थ वंश मे जन्म लेकर आपने उसका उद्धार किया । आपके हदयमें भक्ति दृढ थी, अत: सांसारिक विषयों की ओर कभी नही देखा।

राजा की भक्त भगवान में श्रद्धा प्रकट होना-

श्री खड्गसेन भानगढ़ के राजा माधोसिंह के दीवान थे । एक दिन इनके यहाँ वृंदावन के एक रसिक सन्त पधारे । उन्होंने इनको श्री हितधर्म (श्री हरिवंश महाप्रभु का सम्प्रदाय सिद्धांत ) का उपदेश दिया । रसिक सन्त से इष्ट और धाम का रहस्य सुनकर इन्होंने श्री राधावल्लभ लाल के चरणों मे अपने को अर्पित कर दिया और वृन्दावन आकर श्रीहिताचार्य महाप्रभु से दीक्षा ले ली । श्री श्रीजी की शरण ग्रहण करते ही गृहस्थी एवं जगत के प्रति इनका दृष्टिकोण एकदम बदल गया । श्रीश्यामा-श्याम का अनुपम रूप-माधुर्य इनके नेत्रों मे झलक उठा एवं दसों दिशाएँ आनंद से पूरित हो गई । ये अधिक से अधिक समय नाम और संतवाणी के गान मे लगाने लगे । इनका यश चारों ओर फैल गया और दूर-दूर से साधु संत आकर इनका सत्संग प्राप्त करने लगे । उनकी सेवा सुश्रुषा मे मुक्त हस्त से धन खर्च करने लगे ।

इनको अंधाधुंद खर्च करता देखकर दुष्ट और इनसे जलने वाले लोगों मे कानाफूसी होने लगी और कुछ दिन बाद उन लोगों ने राजाके कान भरना प्रारम्भ कर दिया । उनका कहना था कि दीवानजी को वेतन तो सीमित ही मिलता है, किंतु खर्च असीमित करते है । ऐसी स्थिति मे राजकोष के अतिरिक्त ये अन्यत्र कहाँ से धन पा सकते है ? हमे तो लगता है कि ये राजकोष का धन बर्बाद कर रहे है । राजा माधोसिंह के समझ मे यह बात आ गयी कि दीवान जी मेरा ही धन खर्च कर रहे है । उन्होंने तत्काल इनको बुलवाया और अत्यन्त कुपित होकर इनसे कहा – तूने राजकोष (खजाने) से चोरी की है । या तो तू एक लाख रुपया दण्ड मे दे अथवा मैं तुझे फाँसीपर लटकवा दूँगा ।

श्री खड्गसेन जी ने राजा को समझाने की बहुत चेष्टा की । इन्होंने कहा – हे राजन ! आप राज़कोष की जांच करा लीजिये और यदि कोई गडबडी निकले तो मुझे दण्ड दीजिये । अपराध के बिना दण्ड देना उचित नहीं है । किंतु राजाने इनकी एक नहीं सुनी और इन्हे कारागृह मे डाल दिया । इनका भोजन- पानी बन्द कर दिया गया । खड्गसेन जी को कारागृह (जेल) मे जाने से कोई पीड़ा नही हुई परंतु संत सेवा बंद हो जाने के कारण वे व्याकुल हो गए । रात को राजा जैसे ही सोया, भगवान नारायण के दूत यमदूतों का भयंकर रूप लेकर वहां आये और राजा को यमके दूतोने आकर घेर लिया और अनेक प्रकार से डराना आरम्भ कर दिया ।भयंकर रूप वाले यमदूतों ने उसके हाथ-पैरों मे हथकडी-बेडी डाल दी । राजा का शरीर कांपने लगा, वह घबड़ाकर रोने लगा । उसके मुंह से आवाज नही निकल रही थी ।

यमदूतों ने उससे कहा- तूने एक निरपराध हरिभक्त को कारागृह में डाल दिया है, तू उनको शीघ्र मुक्त कर दे, अन्यथा तेरी खैर नहीं है । प्रातःकाल होने पर भी राजा मृतकतुल्य पडा था ,कुछ बोलता न था । वैद्य, तांत्रिक आदि भी जब राजा के निकट आने का प्रयास करते तो उनके शरीर मे कंपन और दाह होने लगता। यह देखकर उसके उन नौकर-चाकरो को भी बहुत दुख हुआ, जिन्होने खड्गसेन जी की शिकायत की थी । राजा का एक सेवक बडा बुद्धिमान था। उसने कहा – भक्त श्री खड्गसेन जी को पीड़ा देने के कारण ही यह सब हो रहा है । इसका निवारण केवल खड्गसेन जी ही कर सकते है । शिकायत करने वाले सबको यह विश्वास हो गया कि खड्गसेन जी प्रति किये गये अपराध से ही राजा को यह महान् कष्ट मिल रहा है । अत: उनको ही राजाके पास ले चलना चाहिये । वे तीसरे दिन खड्गसेन जी को लेकर राजाके पास पहुँचे ।

श्री खड्गसेन जी का वैष्णव तेज और स्वरूप देखते ही यमदूतो ने उन्हें प्रणाम किया और राजाके पास से हट गये और राजा स्वस्थ हो गया । राजा ने यह सब अपनी आँखो से देखा ,अन्यत्र कोई भी यमदूतों को नही देख पाया था । खड्गसेन के इस प्रभाव को देखकर राजा लज्जित हो गया और उसने उठकर उनके चरण पकड़ लिये । इस घटना के बाद से राजा उनका बहुत आदर करने लगा । कोई राज्य-कार्य आनेपर वह स्वयं इनके घर चला जाता था, इनको अपने दरबार मे नहीं बुलाता था । वह इनका भगवान के समान आदर करने लगा । राजा खडगसेन जी के यहां नित्य सत्संग करने लगा, उसकी संत वैष्णवो में बहुत श्रद्धा बढ़ गयी । कुछ दिनों बाद उसने इनसे दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । खडगसेन जी ने उसको श्री वृन्दावन ले जाकर दीक्षा दिलवा दी ।श्री खड्गसेन जी सत्संग से राजा के जीवन मे आमूल परिबर्तन हो गया । से खड्गसेन अपना शेष जीवन सत्संग मे ही व्यतीत किया । चौथी अवस्था (बुढापा)आनेपर इनकी श्री राधा वल्लभलाल की रसात्मिका सेवा में समय बिताने लगे । इनका महाप्रयाण आराध्य श्री राधवल्ल जी की भाव सेवा करते ही हुआ ।

शरीर त्यागकर महारास प्रवेश-

गौतमीतन्त्र मे वर्णित विधि से शरद पूर्णिमा की महारास का हृदय में ध्यान धारणकर आपने शरीरका परित्याग किया । ग्वालियर मे आप रासलीला के आयोजन यथासमय करते ही रहते थे । (एक बालक श्रीकृष्ण और एक बालिका श्रीराधा का रूप धारण करके रास लीला का अभिनय करते है) एक बार शरद पूर्णिमा की रात्रि में महारास हो रहा था । उस दिन उनके ऊपर प्रेम का बड़ा भारी गाढा रंग चढ गया । वह भावावेश बढता ही गया, आंखो मे रासविहारिणी विहारी जी की सुन्दर छवि निरन्तर समाती ही चली गयी । नृत्य और गान करती हुई प्रिया प्रियतम की सुन्दर जोडी को आपने अपलक नेत्रों से भली भाँति निहारा तो उसी समय मानसिक भावनासे नश्वर शरीर को त्यागकर युगलकिशोर की नित्यलीला में पहुँच गये । इस प्रकार श्री खड्गसेन जी ने अपार दिव्य सुख का अनुभवकर तथा लीला बिहारी की छविपर रीझकर अपने शरीर को न्यौछावर कर दिया । इस प्रकार प्रेम करना और शरीर त्यागना बहुत प्रिय लगा

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