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November 22, 2024 4:26 am

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श्रीसीतारामशरणम्मम(31-1),उद्धव गीता – “साधक अधिकार देखे”(62),भक्त नरसी मेहता चरित (62) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(31-1),उद्धव गीता – “साधक अधिकार देखे”(62),भक्त नरसी मेहता चरित (62) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣1️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#कौशल्यादिराममहतारी , #प्रेमबिबसतनदसाबिसारी ।…..

📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._
मै अयोध्या नगरी पहुँच गयी ।

क्या लिखूँ अपनें जनकपुर के बारे में …………वहाँ की स्थिति तो अकल्पनीय थी ……………मेरे पिता जी अपनें आप में नही थे …..

जब डोली में बैठकर बिटिया जाए विदेस।
पत्थर से पत्थर हृदय सह न सके यह ठेस॥
राजदुलारी कि आज विदाई।
राजन प्यारी की आज विदाई॥
💫🍃💫🍃💫🍃💫🍃💫🍃💫

मै पालकी में बैठी थी ………….पिता जी मुझे देखते ……मेरे हाथों को पकड़ते ………….फिर मेरे रघुवर से कहते इसका ख्याल रखना ।

चक्रवर्ती महाराज अपनें रथ से उतरते …….और मेरे पिता जी को बड़े आदरपूर्वक कहते ………अब आप जाइए विदेहराज !

बहुरि बहुरि कौशल पति कहही।
जनक प्रेम वश फिरा न चहही॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाड़े।
प्रेम प्रवाह बिलोचन बाड़े॥
💫🌴💫🌴💫🌴💫🌴💫🌴💫

हाँ हाँ मै जा रहा हूँ ……………..इतना कहकर वो रुक जाते ……….मेरी पालकी के पास ………चक्रवर्ती महाराज अपनें रथ में बैठ जाते थे ।

मेरी पालकी चल पड़ती …………तो मेरे पिता जी भी मेरी डोली के साथ साथ फिर चल पड़ते ……………।

मै इस दृश्य को देख नही पा रही थी …………मेरे नयनों से भी गंगा जमुना बह ही रहे थे ।

इस बार रथ को रोककर गुरु महाराज वशिष्ठ जी उतरे थे ……..

हे महाराज विदेह !

  मेरे पिता जी   वशिष्ठ जी के इस सम्बोधन पर  हाथ जोड़कर खड़े रहे ...........।

हे विदेह महाराज ! पुत्री को तो विदा करना ही पड़ता है ना …..यही रीत है …………..आप जैसे ज्ञानी को हमें समझाना पड़ रहा है ……।

आप जाएँ …….लौट जाएँ आप ……………

हाँ कष्ट होता है ……….अपनें कलेजे को देनें में कष्ट तो होता ही है ।

महल में मेरी सखियाँ मूर्छित हो गयी हैं …………….ये बात बरात में फैल गयी थी …………..मेरा हृदय धक्क करके रह गया था ।

मेरी माँ सुनयना ?

उनका तो रो रोकर बुरा हाल है …………।

इधर वशिष्ठ जी समझा रहे थे ………….आप लौट जाएँ ………..आप ही इस तरह भाव में बह जायेंगें तो इस जनकपुर का क्या होगा महाराज !

मेरे पिता नें महाराज चक्रवती को प्रणाम किया …..गुरु वशिष्ठ जी को प्रणाम किया …………और मेरे श्री रघुनन्दन को प्रणाम किया ।

आप निराकार ब्रह्म साकार रूप धारण करके आये हैं …….हे भगवन् ! मेरा ये परम सौभाग्य है …..मेरा ही नही मेरे जनकपुर का ये परम सौभाग्य है कि ………….आप जैसे ब्रह्म स्वरूप को हमनें अपना जामाता पाया ……………हे मुनिमन मानस हँस ! बस इस जनकपुर को भी अपनें हृदय में स्थान देते रहना ………..हमें भूलना मत ।

इतना कहते हुए मेरे पिता जी फिर भावुक हो उठे थे …..पर इस बार जानें का इशारा स्वयं मैनें किया ……..वो समझ गए …….इस पुत्री के वियोग को तो सहना ही पड़ेगा ……………ये रीत है …………पता नही कैसी रीत ! की पिता पालपोस कर बड़ा करे ………..

एक पाकर वृक्ष के नीचे खड़े रहे मेरे पिता जी …..सब परिकरों के साथ ……मेरी डोली चल पड़ी थी …………..आँखों में आँसू बहते रहे ……अपलक नयनों से आँसू बहते रहे मेरे और मेरे पिता जी के …..मै देखती रही …………..वो ओझल हो गए थे ।

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

उद्धव गीता – “साधक अधिकार देखे”

भागवत की कहानी – 62


हे भगवन्!
क्या एक मार्ग नही हो सकता ? आपने भिन्न भिन्न मार्गों के विषय में बताया …लेकिन इन मार्गों को सुनकर तो मुमुक्षु भ्रमित हो जाएगा ना ! उसके लिए सही मार्ग कौन सा है ?

उद्धव का ये प्रश्न है ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे प्रिय ! सबके लिए एक मार्ग कैसे हो सकता है ? सबके कर्म-प्रारब्ध अनुसार अधिकार अलग अलग हैं …उसके अनुसार स्वभाव अलग है …..कोई बुद्धिजीवी है तो कोई भाव प्रधान है …किसी को कर्म से ही प्रेम है । हे उद्धव ! इसलिए अधिकार अनुसार ,स्वभाव अनुसार सबके लिए अपने अपने पंथ है । भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं ……कोई बुद्धिजीवी है तो उसके लिए ज्ञानयोग है …और हृदय प्रभाव है कोई तो उसके लिए भक्ति है …और कर्म ही जिसके जीवन में महत्व रखता है उसके लिए निष्काम कर्म योग के माध्यम से वो लक्ष्य को प्राप्त कर जाएगा । हे उद्धव ! अब एक बात और सूक्ष्मता की सुनो…जिसके मन में वैराग्य है …उसके लिए विरक्ति का मार्ग है और जिसके मन में थोड़ा भी राग है उसके लिए गृहस्थ में रहकर प्रेम से भगवान का भजन कर ले तो उसी गति को ये भी प्राप्त कर लेगा जिस गति को एक सन्यासी प्राप्त कर लेता है ।

( साधकों ! ये बात भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी काम की है हम साधकों के लिए , कि अपने अधिकार को पहचानों । तुम्हारा स्वभाव क्या है ? स्वभाव के विपरीत जाने से या कहें अधिकार के विरुद्ध जाने से साधक को कोई लाभ नही होता । )


भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को एक बात कहते हैं – अधिकार के विरुद्ध साधन करने से गुण भी दोष बन जाते हैं …और अधिकार अनुसार चलने से दोष भी गुण बन जाते हैं ।

इसलिए उद्धव ! अन्यों के मार्गों को मत देखो , उद्धव ! दूसरे का पथ कैसा है तुम्हें इससे क्या प्रयोजन ? तुम तो अपना मार्ग देखो …कितना चलना है वो देखो …तुम कब तक पहुँचोगे वो देखे …..अपने गुरु का आश्रय लो ….उनसे पूछो …वो जो कहें उसे मानों ।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – मित्र ! सब कुछ मैं ही हूँ ….भेद वैसे कहीं नही हैं …किन्तु व्यवहार में भेद दिखाई देता है वो हमारी कल्पना है ….ये आवश्यक है इसलिए कि जीवन की यात्रा को भी तो चलाना है …इसलिए मात्र व्यवहार के लिए भेद है बाकी अभेद ही है ….क्यों कि मेरे सिवाय और कुछ भी नही है । हे उद्धव ! मैंने जो तुम्हें कहा ….कि अधिकार के अनुसार मार्ग पर चलो ….ये भी व्यवहार ही है ….अभी तुम चलने की शुरुआत कर रहे हो इसलिए ये भेद अतिआवश्यक है …कि ये ज्ञान योग या भक्ति योग …लेकिन लक्ष्य को पाने के बाद ये भेद कहीं बाकी नही रहता …ज्ञानी भी वही है और भक्त भी वही है ….ज्ञानी भक्त है और भक्त परम ज्ञानी । हे उद्धव ! भक्त से बड़ा ज्ञानी और कौन होगा ? जिसने ये समझ लिया कि मेरे प्रियतम के सिवा और कुछ है ही नही । उद्धव बहुत प्रसन्न हैं। । भगवान इतना ही बोले हैं ।

भक्त नरसी मेहता चरित (62)


न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके,
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्दः ,
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे ।।

हे भोग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले मुकुन्द ! संसार मेँ ऐसा कोई निन्दित कर्म नहीँ बचा है जिसे मैँने हजारो बार नही किए हैँ । ऐसे भयंकर महान पापोँ को करने वाला मैँ अब जब समस्त कृत पाप पककर फल देने की अवस्था मेँ पहुँच गये हैँ तब दुःखो से अपनी रक्षा हेतु अन्य को रक्षक न पाकर आपके सामने रो रहा हूँ ।।

🙇‍♀🙏🙏🙇‍♀

भक्तराज पर दरबार में अन्तराय का आरोप

इसी समय अनन्तराय ने बोलना शुरु किया – ” राजन ! आपने जो कुछ व्याख्या सुनायी वह अनन्य भक्तों के लिये बिलकुल यथार्थ है । यह नरसि़ंहराम तो मेरा भानजा ही है, परंतु यह कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच नहीं होता कि यह वास्तव में भजन के बहाने अनाचार ही बढाता है । इस विषय में मेरा एक प्रत्यक्ष अनुभव है, सो मैं निवेदन करता हूँ ।

‘मेरी स्त्री भी नित्य इसके भजन में शामिल होती थी । वह नित्य आधी रात को भजन के बीच में इसे जल पिलाया करती थी । इस बात को सारंगधर जी ने मुझसे कई बार कहा, परंतु मैं इसे नहीं मानता था । एक दिन जब मैने स्वयं उसे पानी पिलाते देखा तो दूसरे दिन मैने उसे बांधकर कमरे में बन्द कर दिया और ताला लगाकर चाभी अपने पास रख ली । मैनें सुना था कि भजन के बीच में यह दूसरे के हाथ का जल नहीं पीता । इसलिये कौतूहलवश मैं उस रात इसके घर यह देखने गया कि खज इसकी टेक कैसे रहती है । परंतु भजन के बीच विश्राम के समय देखा कि वही ( जिसे मैं घर में बंद किया था ) मेरी स्त्री इसको अपने हाथ से पानी पिला रही है ।’

यह दृश्य देखते ही मुझे बड़ा क्रोध हुआ कि उसे किसने निकाल दिया । मैं उसी क्षण घर गया । परंतु वहाँ जाकर देखता हूँ कि ताला भी बन्द है और वह उसी तरह बँधी अवस्था में राधाकृष्ण के नाम की धुन लगाती हुई पड़ी है, तब तो बड़ा आश्चर्य हुआ । कुछ समझ में नहीं आया कि मामला क्या है ।

अन्त में इस निश्चय पर आया कि इसी प्रकार नरसि़ंहराम जादू के बल पर अनेक स्त्रियाँ को अपनी ओर आकर्षित करता है और फिर उनके साथ स्वेच्छा-विहार करता है । यदि आपको विश्वास न हो तो आप स्वंय शहर में चलकर चंचला वेश्या को देख आइये ।

उसने भी इसी के फन्दे में फँस कर विचित्र वेष धारण कर लिया है और नित्य वह भी इसके यहाँ जाया करती है,यह बात शहर के तमाम लोग जानते है । राजन ! क्या कोई मनुष्य रात्रि के समय एकान्त में किसी वेश्या के साथ रहकर पवित्र रह सकता है ? भला काजर की कोठरी में श्वेत वस्त्र पहनकर रहनेवाला कभी उसके दाग से बच सकता है ? आप स्वंय ही विचार करें कि हमलोगों का अभियोग ठीक है या नहीं ।

भव पार लगा देंगी भज राधे राधे,
हर काम बनादेगी भज राधे राधे,
राधे राधे है ऐसा नाम सुन के जिसको रीजे है श्याम,
मोहन से मिला देगी राधे राधे,
तोहे रसिक बना देगी बोल राधे राधे,

करुणा की कामना राधे राधे शक्ति का दाम राधे राधे,
रसिको का प्राण राधे राधे ब्रिज का घुमान राधे राधे ,
हर पिड छुड़ा देंगी जप राधे राधे,
खुशियां बरसादेगी राधे राधे ,

हीरा का मोल राधे राधे सोने की तोल राधे राधे,
संतो के बोल राधे राधे मिश्री का घोल राधे राधे,
श्री मान बड़ा देगी भज राधे राधे,
हर काम बनादेगी जप राधे राधे,
भव पार लगा देगी राधे राधे,
तोहे सखी बना देंगी भज राधे राधे

मुरली की तान राधे राधे कान्हा जी जान राधे राधे ,
भक्तो का धान राधे राधे गीता का ज्ञान राधे राधे,
तेरा भाग्ये जगा देगी जप राधे राधे
समान बड़ा देगी राधे राधे,
राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे
मस्ताना बना देगी जप राधे राधे,
तोहे रसियां बना देगी भज राधे राधे

क्रमशः ………………!

श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 32
🌹🌹🌹🌹🌹
सर्गाणामादिरन्तश्र्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् || ३२ ||

सर्गाणाम् – सम्पूर्ण सृष्टियों का; आदिः – प्रारम्भ; अन्तः – अन्त; च – तथा; मध्यम् – मध्य; च – भी; एव – निश्चय ही; अहम् – मैं हूँ; अर्जुन – हे अर्जुन; अध्यात्म-विद्या – अध्यात्मज्ञान; विद्यानाम् – विद्याओं में; वादः – स्वाभाविक निर्णय; प्रवदताम् – तर्कों में; अहम् – मैं हूँ |

भावार्थ
🌹🌹🌹
हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ | मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ |

तात्पर्य
🌹🌹
सृष्टियों में सर्वप्रथम समस्त भौतिक तत्त्वों की सृष्टि की जाती है | जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह दृश्यजगत महाविष्णु “गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरदकशायी विष्णु द्वारा उत्पन्न और संचालित है | बाद में इसका संहार शिवजी द्वारा किया जाता है | ब्रह्मा गौण स्त्रष्टा हैं | सृजन, पालन तथा संहार करने वाले ये सारे अधिकारी परमेश्र्वर के भौतिक गुणों के अवतार हैं | अतः वे ही समस्त सृष्टि के आदि, मध्य तथा अन्त हैं |
.
उच्च विद्या के लिए ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, यथा चारों वेद, उनके छह वेदांग, वेदान्त सूत्र, तर्क ग्रंथ, धर्मग्रंथ, पुराण | इस प्रकार कुल चौदह प्रकार के ग्रंथ हैं | इनमें से अध्यात्म विद्या सम्बन्धी ग्रंथ, विशेष रूप से वेदान्त सूत्र, कृष्ण का स्वरूप है |

तर्कशास्त्रियों में विभिन्न प्रकार के तर्क होते रहते हैं | प्रमाण द्वारा तर्क की पुष्टि, जिससे विपक्ष का भी समर्थन हो, जल्प कहलाता है | प्रतिद्वन्द्वी को हारने का प्रयास मात्र वितण्डा है, किन्तु वास्तविक निर्णय वाद कहलाता है | यह निर्णयात्मक सत्य कृष्ण का स्वरूप है |


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