🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣1️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐
#कौशल्यादिराममहतारी , #प्रेमबिबसतनदसाबिसारी ।…..
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही ! ……………._
इतना कहते हुए मेरे पिता जी फिर भावुक हो उठे थे …..पर इस बार जानें का इशारा स्वयं मैनें किया ……..वो समझ गए …….इस पुत्री के वियोग को तो सहना ही पड़ेगा ……………ये रीत है …………पता नही कैसी रीत ! की पिता पालपोस कर बड़ा करे ………..
एक पाकर वृक्ष के नीचे खड़े रहे मेरे पिता जी …..सब परिकरों के साथ ……मेरी डोली चल पड़ी थी …………..आँखों में आँसू बहते रहे ……अपलक नयनों से आँसू बहते रहे मेरे और मेरे पिता जी के …..मै देखती रही …………..वो ओझल हो गए थे ।
अयोध्या नगरी !
सरजू निर्मल बह रही हैं ………………..
सूर्यवंशी बड़े बड़े प्रतापी राजा हुए हैं ……….मेरे पिता जी हमें बचपन में सुनाते थे ………………..।
हमारे स्वागत की तैयारियां बहुत पहले से ही शुरू हो गयी थीं ।
मेरी यहाँ की माता……….सासू माँ ….कौशल्या जी ! वैसे मेरी तीन माताएं हैं …यानि तीन सासू माँ ………सबसे बड़ी हैं …….जो मेरे श्री रघुनन्दन की माँ हैं ……..और दूसरी हैं …..सुमित्रा ……. और तीसरी माँ हैं कैकेई ……।
अवध में पहुँचते ही ……………महल में जैसे ही मेरी पालकी गयी …….
आनन्द है यहाँ की आबोहवा में तो…………………शहनाई गूँज रही है मधुर मधुर …………….सुगन्धित तैल का छिड़काव किया गया है ……..सुन्दर सुन्दर वन्दनवार लगाये गए हैं ………रंगोली बड़ी सुन्दर निकाली है ……..।
ओह ! मुझे उतारा गया ……………मैने अपनें पाँव रखे थे इस अवध की भूमि में………………।
ओह ! मेरा मुख मण्डल जल रहा है ……………पता नही क्यों ?
मेरा मुखमण्डल कुम्हला रहा है ……….पता नही ये क्यों हो रहा है ?
मुझे चलना है ……मेरी सासू माताएं आरती की थाल लेकर खड़ी हैं ।
मै पालकी से उतरी ……………और चलनें लगी …….आह !
मेरे पैरों में कुछ गढ़ रहा है …………पर मै यहाँ किसे कहूँ ?
किससे कहूँ ?
मै अपनें आपको सम्भाले …..फिर चलनें लगती हूँ ……………पर ….
आह ! गढ़ रहा है कुछ मेरे पाँव में ……….मै किसे कहूँ ?
नही चला जा रहा ।
क्या हुआ सिया बहू ? कोई दिक्कत है ?
मेरे पास आगयी थीं मेरी पूज्या सास कौशल्या जी ……….
नही ………मैने सिर हिलाया ………………और फिर चलनें का प्रयास करनें लगी …………मेरे ऊपर फूल बरसाए जा रहे थे ……….पर ।
बहू ! बताओ क्या बात है ? तुम्हारा मुख मुरझा रहा है ……और तुम चल भी नही पा रही हो ।
मेरी सासू माँ नें मुझसे फिर पूछा ।
देखो ! सिया बहू ! मैने तुम्हारे लिए ही ये कमल के पराग बिछाए हैं …..ताकि तुम्हारे सुकोमल पाँव में कुछ गढ़े नही ………..
क्रमशः …..
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
उद्धव गीता – “सांख्य योग”
भागवत की कहानी – 63
हे उद्धव ! किसी वस्तु को समझने के लिए उसके जन्म की और प्रलय की कल्पना की जाती है तभी वो वस्तु ठीक ठीक समझ में आती है …..ऐसे ही हमें भी विचार करना चाहिए कि हमारा मूल स्वरूप क्या है ….और उस मूल स्वरूप की हमें विस्मृति क्यों हुई ? भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा उद्धव को आज “सांख्य योग” समझा रहे हैं । पूर्व में जब लोग विशुद्ध विवेकी थे …तब ज्ञान और अर्थ अलग अलग नही थे …दृष्टा और दृष्य अलग अलग नही थे ….सब कुछ ब्रह्म रूप था …किन्तु जब माया का प्रभाव आया …तब द्वैत आया …द्वैत आया तो द्वन्द भी आया ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ….उद्धव ! ये बड़ी विचित्र बात थी….दृष्टा और दृष्य ये दो रूपों में दिखाई देने लगे थे …..विवेकी लोग कहते हैं ….एक पुरुष से प्रकृति हुई , ये द्वैत का जन्म था …यानि द्वन्द का । ये माया ही द्वन्द है उद्धव ! श्रीकृष्ण कहते हैं ।
प्रकृति दृष्य है और पुरुष दृष्टा । ज्ञान का नाम पुरुष है यानि परमात्मा । हे उद्धव ! इसी द्वन्द से ही सत्व ,रज, और तम का प्राकट्य होता है ….अहंकार के अंतिम में प्रकट होते ही …पंचभौतिक ये सृष्टि आरम्भ हो जाती है ….फिर उसमें से मेरा शरीर प्रकट होता है , नारायण रूप में …उस मेरे शरीर के नाभि से कमल प्रकट होते हुए आकाश में चला जाता है और उसी कमल से ब्रह्मा प्रकट होते हैं ….फिर ये ब्रह्मा ही सृष्टि को आगे बढ़ाते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …ये समस्त सृष्टि सिर्फ कर्म का ही फल है ….कर्म में से कामना को त्याग कर या उस कर्म फल को मुझे सौंप कर अगर कोई मेरी भक्ति करता है तो उसे मेरा परम धाम ही मिलता है ….वो माया से भी बचा रहेगा । हे उद्धव ! कर्म में उलझने से संसार भव में डूबते और उबरते रहोगे , कुछ लाभ मिलने वाला नही है । इसलिए इन माया जनित जगत से अपने को बचाना है तो सिर्फ मेरा आश्रय जीव ले ले…..तो उसे कोई द्वन्द में फँसा नही पाएगा …क्यों कि माया द्वन्द ही है । भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं …उद्धव ! ये सब मिथ्या हैं …सत्य तो मात्र पुरुष ही है अर्थात परमात्मा है । अब देखो उद्धव ! सत्य तो सोना है ! सत्य तो मिट्टी ही है ….सोने के कंगन , कानों में झुमके ये सब तो मिथ्या है ..घड़ा , सुराही आदि तो विकार ही है ….किन्तु सत्य तो सोना है और मिट्टी है । अब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …मिथ्या का अर्थ है जो बनता और बिगड़ता रहे …उसे ही मिथ्या कहा जाता है ….लेकिन सत्य तो वही है-जो है , पहले भी था …और बाद में भी रहेगा….किन्तु ये संसार न पहले था ना रहेगा …बीच में जो है ….वो व्यवहार के लिए मान्यता मात्र है …इससे ज़्यादा और कुछ नही है ।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण सहज भाव से कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं ।
हे उद्धव ! भगवान कुछ देर बाद बोलना फिर प्रारम्भ करते हैं । …..जब प्रलय होता है ना , तब सब कुछ प्रकृति में लीन हो जाता है …और सब कुछ अपने में लीन करके प्रकृति स्वयं पुरुष में लीन हो जाती है ….तब एक मात्र पुरुष ही रह जाता है …वही है भी …..वही वही है ….उसके सिवा और कुछ नही है उद्धव ! फिर राग द्वेष क्यों हो उद्धव ? भगवान पूछते हैं …जब पहले परमात्मा था , मध्य में परमात्मा है और अंतिम में भी परमात्मा ही रहता है …तो फिर द्वेष किससे ? राग किससे ? सब कुछ मैं ही मैं तो हूँ …बस इतना समझ लो ना उद्धव ।
भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को ये सांख्ययोग का उपदेश दिया था ।
उद्धव गीता – “सांख्य योग”
भागवत की कहानी – 63
हे उद्धव ! किसी वस्तु को समझने के लिए उसके जन्म की और प्रलय की कल्पना की जाती है तभी वो वस्तु ठीक ठीक समझ में आती है …..ऐसे ही हमें भी विचार करना चाहिए कि हमारा मूल स्वरूप क्या है ….और उस मूल स्वरूप की हमें विस्मृति क्यों हुई ? भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा उद्धव को आज “सांख्य योग” समझा रहे हैं । पूर्व में जब लोग विशुद्ध विवेकी थे …तब ज्ञान और अर्थ अलग अलग नही थे …दृष्टा और दृष्य अलग अलग नही थे ….सब कुछ ब्रह्म रूप था …किन्तु जब माया का प्रभाव आया …तब द्वैत आया …द्वैत आया तो द्वन्द भी आया ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ….उद्धव ! ये बड़ी विचित्र बात थी….दृष्टा और दृष्य ये दो रूपों में दिखाई देने लगे थे …..विवेकी लोग कहते हैं ….एक पुरुष से प्रकृति हुई , ये द्वैत का जन्म था …यानि द्वन्द का । ये माया ही द्वन्द है उद्धव ! श्रीकृष्ण कहते हैं ।
प्रकृति दृष्य है और पुरुष दृष्टा । ज्ञान का नाम पुरुष है यानि परमात्मा । हे उद्धव ! इसी द्वन्द से ही सत्व ,रज, और तम का प्राकट्य होता है ….अहंकार के अंतिम में प्रकट होते ही …पंचभौतिक ये सृष्टि आरम्भ हो जाती है ….फिर उसमें से मेरा शरीर प्रकट होता है , नारायण रूप में …उस मेरे शरीर के नाभि से कमल प्रकट होते हुए आकाश में चला जाता है और उसी कमल से ब्रह्मा प्रकट होते हैं ….फिर ये ब्रह्मा ही सृष्टि को आगे बढ़ाते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …ये समस्त सृष्टि सिर्फ कर्म का ही फल है ….कर्म में से कामना को त्याग कर या उस कर्म फल को मुझे सौंप कर अगर कोई मेरी भक्ति करता है तो उसे मेरा परम धाम ही मिलता है ….वो माया से भी बचा रहेगा । हे उद्धव ! कर्म में उलझने से संसार भव में डूबते और उबरते रहोगे , कुछ लाभ मिलने वाला नही है । इसलिए इन माया जनित जगत से अपने को बचाना है तो सिर्फ मेरा आश्रय जीव ले ले…..तो उसे कोई द्वन्द में फँसा नही पाएगा …क्यों कि माया द्वन्द ही है । भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं …उद्धव ! ये सब मिथ्या हैं …सत्य तो मात्र पुरुष ही है अर्थात परमात्मा है । अब देखो उद्धव ! सत्य तो सोना है ! सत्य तो मिट्टी ही है ….सोने के कंगन , कानों में झुमके ये सब तो मिथ्या है ..घड़ा , सुराही आदि तो विकार ही है ….किन्तु सत्य तो सोना है और मिट्टी है । अब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …मिथ्या का अर्थ है जो बनता और बिगड़ता रहे …उसे ही मिथ्या कहा जाता है ….लेकिन सत्य तो वही है-जो है , पहले भी था …और बाद में भी रहेगा….किन्तु ये संसार न पहले था ना रहेगा …बीच में जो है ….वो व्यवहार के लिए मान्यता मात्र है …इससे ज़्यादा और कुछ नही है ।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण सहज भाव से कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं ।
हे उद्धव ! भगवान कुछ देर बाद बोलना फिर प्रारम्भ करते हैं । …..जब प्रलय होता है ना , तब सब कुछ प्रकृति में लीन हो जाता है …और सब कुछ अपने में लीन करके प्रकृति स्वयं पुरुष में लीन हो जाती है ….तब एक मात्र पुरुष ही रह जाता है …वही है भी …..वही वही है ….उसके सिवा और कुछ नही है उद्धव ! फिर राग द्वेष क्यों हो उद्धव ? भगवान पूछते हैं …जब पहले परमात्मा था , मध्य में परमात्मा है और अंतिम में भी परमात्मा ही रहता है …तो फिर द्वेष किससे ? राग किससे ? सब कुछ मैं ही मैं तो हूँ …बस इतना समझ लो ना उद्धव ।
भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को ये सांख्ययोग का उपदेश दिया था ।
भक्त नरसी मेहता चरित (63)
सांवरिया थारा नाम हजार कैसे लिखू कु कु पतरी
कु कु पतरी रे श्याम प्रेम पतरी
घनश्यामी थारा नाम हजार कैसे लिखू कु कु पतरी
कोई कहे यशोदा रो कोई कहे देवकी रो
कोई कहे नन्द जी को लाल कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे गोकुल वालो कोई कहे मथुरा वालो.
कोई कहे द्वारिका नाथ कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे राधा पति को कहे रुक्मण पति,
कोई कहे गोपियों का श्याम कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे माखन चोर कोई कहे नन्द किशोर ,
नरसी तो करे पुकार कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे गाये वालो कोई कहे बंसी वालो ,
कोई कहे मदन गोपाल कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
🕉🙇♀🚩काम क्रोध मद मोह को, जब लगि घट में स्थान
क्या पंडित क्या मूरखा, दोनों एक समान🚩🙇♀🕉🏵🙏🙏
🏵भक्तराज शास्त्रार्थ वाद-विवाद असमर्थ*
अनन्तराय के सप्रमाण वक्तव्य को सुनकर राजा बड़े विचार में पड़ गये । उन्होंने सोचा कि चंचला वेश्या की बात तो सर्वविदित है ही कि वह भक्तराज के पास जाया करती है, फिर अनन्तराय ईश्वर की शपथ लेकर स्वयं अपना अनुभव कह रहे है, अपने घर के विषय में एक प्रतिष्ठित आदमी कभी झूठी बात नहीं कह सकता । फिर इस विषय में निर्णय कैसे किया जाय ?
अच्छा, जरा नरसि़ंहराम से भी पूछा जाय, देंखे वह इन बातों का क्या उतर देते है । दोनों पक्ष की बात पहले सुन लेना आवश्यक है । इस प्रकार सोचकर उन्होंने भक्तराज की ओर देखा और कहा–‘भक्तराज ! इस विषय में आप क्या कहना चाहते है ?”
भक्तराज ने निवेदन किया – *”राजन ! अनन्तराय का कथन सब यथार्थ ही है । परंतु किसी मनुष्य से भजन में आने के लिये न तो मैं आग्रह करता हूँ और न किसी के लिये प्रतिबंध लगाता हूँ । मेरे घर आकर भगवद्भजन करने का अधिकार आबला-वृद्ध, स्त्री -पुरुष सबको समान है । इस विषय में मैं अपने को दोषी नहीं समझता ।
मैं अपने ‘ राधेश्याम ‘ के नाम के सिवा और कुछ भी नहीं जानता । मैं तो अपने पास आकर भजन करने वालों का प्रतिरोध करके उनका जी दुखाना स्वयं भगवान के प्रति दोष करने के बराबर समझता हूँ । फिर आप राजा है, आप में परमात्मा का अंश वर्तमान है, आप स्वयं विचार कर देख सकते है कि मैं इस विषय में दोषी हूँ कि नही ? दोषी – निर्दोष निश्चित करके दण्ड दे सकते है ।”*
महात्माओं का हृदय अत्यन्त कोमल और दयालु होता है । वे स्वयं आपति में पड़ जाने पर भी अपने मुँह से अपराधी मनुष्यों को भी अपराधी नहीं कहते । भक्तराज जानते थे कि इन लोगों ने ईर्ष्यावश ही यह सब काण्ड रचा है, तथापि उन लोगों को दोषी ठहराना भक्तराज के लिये पाप ही था।
भक्तराज का कथन सारंगधर से नही सहा गया । वह तुरंत अपने आसन से उठकर कहने लगा –
“नरसि़ंहराम ! तुम बहुत अनर्थ कर रहे हो । तुम्हें शास्त्र ज्ञान तो बिलकुल नहीं मालुम और बन बैठे हो उपदेशक । यदि तुम अपने को उपदेश देने का अधिकारी समझते हो तो इन सन्यासियों के साथ शास्त्रार्थ करो और इस सभा में अपनी सर्वज्ञता सिद्ध करों ।”
‘ भाई ! न तो मैं शास्त्रज्ञ हूँ और न सर्वज्ञ । परमात्मा के सिवा इस जगत में कोई भी सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता । अतएव मैं शास्त्रार्थ या वेदार्थ कुछ भी करने में असमर्थ हूँ । और कहा है —-
काम क्रोध मद मोहको, जब लगि घट में स्थान।
क्या पंडित क्या मूरखा, दोनों एक समान ।।
शास्त्रों को पढ़कर वाद-विवाद तथा काम-क्रोध के वशीभूत होकर उन शास्त्रों का दुरुपयोग करनेवाले को पंडित कहनेवाला भी मूर्ख है।
अतः मुझे तो पहले से ही पंडित बनना नापसन्द है । मैं तो केवल आत्मचिन्तन और भगवान का नाम ही जानता हूँ । भगवत्-चिन्तन के द्वारा जबतक आत्मा की पहचान नहीं होती, तब तक यज्ञ, तप और व्रत आदि साधन भी उपयुक्त फल नहीं देते । सुनिये —-
प्रभाती
ज्यां लगी आतमा तत्व चिन्तन नही, त्यां लगी सर्व झूठी।
मानुष देह तारो ,एम एल गयो, मावठांनी जेम वृष्टि बूटी।। 1 ।।
शुं थयुं स्नान सेवा ने पूजाथकी, शुं थयुं घेर रहा दान दीधे ।
शुं थयुं धरि जटा भस्म लेपन कर्य, शुं थयुं लाललोचन कीधे।। 2॥
शुं थयुं तप ने तीरथ कीधाथकी, शुं थयुं माल ग्रहण नाम लीधे ।
शुं थयुं तिलक ने तुलसीधार्या थकी, शुं थयुं गंगजल पान कीधे।3॥
शुं थयुं वेद व्याकरण वाणी वदे, शुं थयुं राय ने रंक जाने। शुं थयुं देवदर्शन सेवाथकी, शुं थयुं वरणना भेद आणे ।।4।।
ए छे परपंच सहु, पेट भरवातणा, आत्म परब्रह्म जेणे न जोयो ।
भणे नरसैयो के तत्वदर्शन बिना, रत्र चिन्तामणी जन्म खोयो ।5॥
क्रमशः ………………!
भक्त नरसी मेहता चरित (63)
सांवरिया थारा नाम हजार कैसे लिखू कु कु पतरी
कु कु पतरी रे श्याम प्रेम पतरी
घनश्यामी थारा नाम हजार कैसे लिखू कु कु पतरी
कोई कहे यशोदा रो कोई कहे देवकी रो
कोई कहे नन्द जी को लाल कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे गोकुल वालो कोई कहे मथुरा वालो.
कोई कहे द्वारिका नाथ कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे राधा पति को कहे रुक्मण पति,
कोई कहे गोपियों का श्याम कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे माखन चोर कोई कहे नन्द किशोर ,
नरसी तो करे पुकार कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
कोई कहे गाये वालो कोई कहे बंसी वालो ,
कोई कहे मदन गोपाल कैसे लिखू कण कु पतरी
वनवारी थारा नाम हजार कैसे लिखू कण कु पतरी
🕉🙇♀🚩काम क्रोध मद मोह को, जब लगि घट में स्थान
क्या पंडित क्या मूरखा, दोनों एक समान🚩🙇♀🕉🏵🙏🙏
🏵भक्तराज शास्त्रार्थ वाद-विवाद असमर्थ*
अनन्तराय के सप्रमाण वक्तव्य को सुनकर राजा बड़े विचार में पड़ गये । उन्होंने सोचा कि चंचला वेश्या की बात तो सर्वविदित है ही कि वह भक्तराज के पास जाया करती है, फिर अनन्तराय ईश्वर की शपथ लेकर स्वयं अपना अनुभव कह रहे है, अपने घर के विषय में एक प्रतिष्ठित आदमी कभी झूठी बात नहीं कह सकता । फिर इस विषय में निर्णय कैसे किया जाय ?
अच्छा, जरा नरसि़ंहराम से भी पूछा जाय, देंखे वह इन बातों का क्या उतर देते है । दोनों पक्ष की बात पहले सुन लेना आवश्यक है । इस प्रकार सोचकर उन्होंने भक्तराज की ओर देखा और कहा–‘भक्तराज ! इस विषय में आप क्या कहना चाहते है ?”
भक्तराज ने निवेदन किया – *”राजन ! अनन्तराय का कथन सब यथार्थ ही है । परंतु किसी मनुष्य से भजन में आने के लिये न तो मैं आग्रह करता हूँ और न किसी के लिये प्रतिबंध लगाता हूँ । मेरे घर आकर भगवद्भजन करने का अधिकार आबला-वृद्ध, स्त्री -पुरुष सबको समान है । इस विषय में मैं अपने को दोषी नहीं समझता ।
मैं अपने ‘ राधेश्याम ‘ के नाम के सिवा और कुछ भी नहीं जानता । मैं तो अपने पास आकर भजन करने वालों का प्रतिरोध करके उनका जी दुखाना स्वयं भगवान के प्रति दोष करने के बराबर समझता हूँ । फिर आप राजा है, आप में परमात्मा का अंश वर्तमान है, आप स्वयं विचार कर देख सकते है कि मैं इस विषय में दोषी हूँ कि नही ? दोषी – निर्दोष निश्चित करके दण्ड दे सकते है ।”*
महात्माओं का हृदय अत्यन्त कोमल और दयालु होता है । वे स्वयं आपति में पड़ जाने पर भी अपने मुँह से अपराधी मनुष्यों को भी अपराधी नहीं कहते । भक्तराज जानते थे कि इन लोगों ने ईर्ष्यावश ही यह सब काण्ड रचा है, तथापि उन लोगों को दोषी ठहराना भक्तराज के लिये पाप ही था।
भक्तराज का कथन सारंगधर से नही सहा गया । वह तुरंत अपने आसन से उठकर कहने लगा –
“नरसि़ंहराम ! तुम बहुत अनर्थ कर रहे हो । तुम्हें शास्त्र ज्ञान तो बिलकुल नहीं मालुम और बन बैठे हो उपदेशक । यदि तुम अपने को उपदेश देने का अधिकारी समझते हो तो इन सन्यासियों के साथ शास्त्रार्थ करो और इस सभा में अपनी सर्वज्ञता सिद्ध करों ।”
‘ भाई ! न तो मैं शास्त्रज्ञ हूँ और न सर्वज्ञ । परमात्मा के सिवा इस जगत में कोई भी सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता । अतएव मैं शास्त्रार्थ या वेदार्थ कुछ भी करने में असमर्थ हूँ । और कहा है —-
काम क्रोध मद मोहको, जब लगि घट में स्थान।
क्या पंडित क्या मूरखा, दोनों एक समान ।।
शास्त्रों को पढ़कर वाद-विवाद तथा काम-क्रोध के वशीभूत होकर उन शास्त्रों का दुरुपयोग करनेवाले को पंडित कहनेवाला भी मूर्ख है।
अतः मुझे तो पहले से ही पंडित बनना नापसन्द है । मैं तो केवल आत्मचिन्तन और भगवान का नाम ही जानता हूँ । भगवत्-चिन्तन के द्वारा जबतक आत्मा की पहचान नहीं होती, तब तक यज्ञ, तप और व्रत आदि साधन भी उपयुक्त फल नहीं देते । सुनिये —-
प्रभाती
ज्यां लगी आतमा तत्व चिन्तन नही, त्यां लगी सर्व झूठी।
मानुष देह तारो ,एम एल गयो, मावठांनी जेम वृष्टि बूटी।। 1 ।।
शुं थयुं स्नान सेवा ने पूजाथकी, शुं थयुं घेर रहा दान दीधे ।
शुं थयुं धरि जटा भस्म लेपन कर्य, शुं थयुं लाललोचन कीधे।। 2॥
शुं थयुं तप ने तीरथ कीधाथकी, शुं थयुं माल ग्रहण नाम लीधे ।
शुं थयुं तिलक ने तुलसीधार्या थकी, शुं थयुं गंगजल पान कीधे।3॥
शुं थयुं वेद व्याकरण वाणी वदे, शुं थयुं राय ने रंक जाने। शुं थयुं देवदर्शन सेवाथकी, शुं थयुं वरणना भेद आणे ।।4।।
ए छे परपंच सहु, पेट भरवातणा, आत्म परब्रह्म जेणे न जोयो ।
भणे नरसैयो के तत्वदर्शन बिना, रत्र चिन्तामणी जन्म खोयो ।5॥
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🪷🪷🪷🪷🪷🪷
श्लोक 10 . 33
🪷🪷🪷🪷🪷
अक्षराणामकारोSस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च |
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्र्वतोमुखः || ३३ ||
अक्षराणाम् – अक्षरों में; अ-कारः – अकार अर्थात् पहला अक्षर; अस्मि – हूँ; द्वन्द्वः – द्वन्द्व समास; सामासिकस्य – सामसिक शब्दों में; च – तथा; अहम् – मैं हूँ; एव – निश्चय ही; अक्षयः – शाश्र्वत; कालः – काल, समय; धाता – स्त्रष्टा; अहम् – मैं; विश्र्वतः-मुखः – ब्रह्मा |
भावार्थ
🪷🪷🪷
अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ | मैं शाश्र्वत काल भी हूँ और स्त्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ |
तात्पर्य
🪷🪷
अ-कार अर्थात् संस्कृत अक्षर माला का प्रथम अक्षर (अ) वैदिक साहित्य का शुभारम्भ है | अकार के बिना कोई स्वर नहीं हो सकता, इसीलिए यह आदि स्वर है | संस्कृत में कई तरह के सामसिक शब्द होते हैं, जिनमें से राम-कृष्ण जैसे दोहरे शब्द द्वन्द्व कहलाते हैं | इस समास में राम तथा कृष्ण अपने उसी रूप में हैं, अतः यह समास द्वन्द्व कहलाता है |
.
समस्त मारने वालों में काल सर्वोपरि है, क्योंकि वह सबों को मारता है | काल कृष्णस्वरूप है, क्योंकि समय आने पर प्रलयाग्नि से सब कुछ लय हो जाएगा |
सृजन करने काले जीवों में ब्रह्मा प्रधान हैं, अतः वे भगवान् कृष्ण के प्रतिक हैं |
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877