[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣4️⃣
भाग 2
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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दोषु देहि जननी जड़ तेहिं……
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
देख लो ! माँ ! अच्छे से विचार कर लो ………..कैकेई के कन्धे में अपना सिर रखकर दुलारू बनते हुए श्रीराम नें कहा था ।
हाँ हाँ ……कैकेई का वचन है ………….अपनें प्राण दे देगी कैकेई !
श्रीराम उठे ………..माँ ! बड़ा कठिन पड़ेगा राम का वचन तुम्हे !
माँग ना ! जल्दी माँग…..मै अपनें राम के लिए कुछ भी कर सकती हूँ ।
बदनाम हो जाओगी माँ ! श्रीराम नें कहा ।
कोई बात नही …….अपनें पुत्र के लिये ये कैकेई बदनाम भी हो जायेगी ।
तुम ……..तुम विधवा भी हो सकती हो !
ये क्या कह रहा है तू ? कैकेई नें राम के मुख की और देखा ।
हाँ ……….माँ ! ये भी हो सकता है ।
कैकेई चुप हो गई ………….।
चरण में बैठ गए थे श्रीराम ……………कैकेई के चरण को पकड़ कर बोले …….तू हिम्मत वाली है माँ …………..ऐसे हिम्मत मत हार ……..
अपनें आपको सम्भाला कैकेई नें ………फिर राम के मुख की और देखते हुए लम्बी सांस लेकर बोली ……….माँग ! हे राम ! माँग !
माँ ! बात ये है कि मुझे राज्य देनें की तैयारी में सारा शासन जुट गया है …………कल ही मेरा राज्याभिषेक है ।
कैकेई आनन्दित हो उठी ……..ये तो बहुत ख़ुशी की बात है राम ।
माँ ! साँझ से समय पिता जी आपके पास आयेंगें …..ये सुचना देनें के लिये ………..।
माँ ! सुन, मेरी बात सुन !
कैकेई का हाथ पकड़ कर राम नें उच्च आसन में बिठाया था और स्वयं नीचे बैठ गए ।
माँ ! तुम को याद है ना ! देवासुर संग्राम में मेरे पिता जी के साथ तुम गयीं थीं….और वहाँ युद्ध में रथ के चक्र की कील निकल गयी थी ।
तुमनें अपनी ऊँगली लगा दी थी ……….।
माँ ! युद्ध के बाद जब मेरे पिता जी को पता चला तब वो तुम पर अतिप्रसन्न हुए थे ………..और उन्होंने वरदान माँगनें के लिए कहा था ।
दुइ वरदान भूपसन थाती।
मागहु आजु जुडावहु छाती ॥
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दो वरदान पुत्र ! कैकेई नें श्रीराम से कहा ।
हाँ हाँ …..माँ ! वो दो वरदान आज साँझ में मांग लेना ।
पर क्या वरदान माँगू पुत्र !
तू क्या कहना चाहता है ….स्पष्ट बोल ।
कैकेई के चरणों को सहलाते हुए श्रीराम बोले थे …….
सुतहि राज्य रामहि बनवासू।
देहु लेहु सब सवति हुलासू ॥
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क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 42
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अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् || ४२ ||
अथवा – या; बहुना – अनेक; एतेन – इस प्रकार से; किम् – क्या; ज्ञातेन – जानने से; तव – तुम्हारा; अर्जुन – हे अर्जुन; विष्टभ्य – व्याप्त होकर; अहम् – मैं; इदम् – इस; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; एक – एक; अंशेन – अंश के द्वारा; स्थितः – स्थित हूँ; जगत् – ब्रह्माण्ड में |
भावार्थ
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किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ |
तात्पर्य
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परमात्मा के रूप में ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं में प्रवेश कर जाने के कारण परमेश्र्वर का सारे भौतिक जगत में प्रतिनिधित्व है | भगवान् यहाँ पर अर्जुन को बताते हैं कि यह जानने की कोई सार्थकता नहीं है कि सारी वस्तुएँ किस प्रकार अपने पृथक-पृथक ऐश्र्वर्य तथा उत्कर्ष में स्थित हैं | उसे इतना ही जान लेना चाहिए कि सारी वस्तुओं का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि कृष्ण उनमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हैं | ब्रह्मा जैसे विराट जीव से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक इसीलिए विद्यमान हैं क्योंकि भगवान् उन सबमें प्रविष्ट होकर उनका पालन करते हैं |
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एक ऐसी धार्मिक संस्था (मिशन) भी है जो यह निरन्तर प्रचार करती है कि किसी भी देवता की पूजा करने से भगवान् या परं लक्ष्य की प्राप्ति होगी | किन्तु यहाँ पर देवताओं की पूजा को पूर्णतया निरुत्साहित किया गया है, क्योंकि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महानतम देवता भी परमेश्र्वर की विभूति के अंशमात्र हैं | वे समस्त उत्पन्न जीवों के उद्गम हैं और उनसे बढ़कर कोई भी नहीं है | वे असमोर्ध्व हैं जिसका अर्थ है कि न तो कोई उनसे श्रेष्ठ है, न उनके तुल्य | पद्मपुराण में कहा गया है कि जो लोग भगवान् कृष्ण को देवताओं की कोटि में चाहे वे ब्रह्मा या शिव ही क्यों न हो, मानते हैं वे पाखण्डी हो जाते हैं, किन्तु यदि कोई ध्यानपूर्वक कृष्ण की विभूतियों एवं उनकी शक्ति के अंशों का अध्ययन करता है तो वह बिना किसी संशय के भगवान् कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और अविचल भाव से कृष्ण की पूजा में स्थित हो सकता है | भगवान् अपने अंश के विस्तार से परमात्मा रूप में सर्वव्यापी हैं, जो हर विद्यमान वस्तु में प्रवेश करता है | अतः शुद्धभक्त पूर्णभक्ति में कृष्णभावनामृत में अपने मनों को एकाग्र करते हैं | अतएव वे नित्य दिव्य पद में स्थित रहते हैं | इस अध्याय के श्लोक ८ से ११ तक कृष्ण की भक्ति तथा पूजा का स्पष्ट संकेत है | शुद्धभक्ति की यही विधि है | इस अध्याय में इसकी भलीभाँति व्याख्या की गई है कि मनुष्य भगवान् की संगति में किस प्रकार चरम भक्ति-सिद्धि प्राप्त कर सकता है | कृष्ण-परम्परा के महान आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण इस अध्याय की टीका का समापन इस कथन से करते हैं
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– यच्छक्तिलेशात्सूर्यादया भवन्त्यत्युग्रतेजसः |
यदंशेन धृतं विश्र्वं स कृष्णो दशमेSर्च्यते ||
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प्रबल सूर्य भी कृष्ण की शक्ति से अपनी शक्ति प्राप्त करता है और सारे संसार का पालन कृष्ण के एक लघु अंश द्वार होता है | अतः श्रीकृष्ण पूजनीय हैं |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय “श्रीभगवान् का ऐश्र्वर्य” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |
] Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत – 4
“नटवर किशोर की झाँकी”
अस्ति स्वस्तरुणी-करापविगलत्कल्पप्रसूनाप्लुतं,
बस्तु प्रस्तुत-वेणुनाव-लहरी निर्माण-निर्व्याकुलम् ।
हस्त-व्यस्त नतापवर्गमखिलोदार किशोराकृति ॥२॥
साधकों ! चलिए इस झाँकी को विराजमान कीजिए अपने हृदय पटल में ।
आकाश से सुर स्त्रियों के हाथों द्वारा गिरे हुए पुष्पों से जो आच्छादित हैं , बाँसुरी को अपने अधरों में धरे हुए हैं ….और मंद मंद उसे बजा रहे हैं ….और बजाते हुए स्वयं झूम रहे हैं । आस पास अत्यधिक सुन्दर सुन्दर गोपियाँ खड़ी हैं …..उनकी नीवी बंधन खुल गयी है ….वो बार बार सम्भाल रही हैं ….जिसके कारण इनकी शोभा और बढ़ रही है …..यही हैं शरणागतों के अपवर्ग स्वरूप ….अजी ! यही किशोर की आकृति वाले श्रीकृष्ण ही जीव के परम पुरुषार्थ हैं ।
जी बड़ा भला किया है बिल्वमंगल जी ने जीवों का …जो जीव संसार में भटक रहा है …उसे समझ नही आरहा कि उसका परम पुरुषार्थ क्या है ? मुक्ति , जिसे अपवर्ग कहते हैं …वो परम पुरुषार्थ है क्या ? बिल्वमंगल हंसते हैं …कहते हैं परम मुक्ति तो ये है ….इसी किशोर को निहारना परम पुरुषार्थ है जी ।
रस समझते हो ? रस बिना सब कुछ व्यर्थ है ….मुक्ति भी व्यर्थ है ….बड़े बड़े योगी मुक्ति की लालसा करते हैं ….जब मुक्ति मिल जाती है …तो वो पृथ्वी की ओर ललचाई निगाह से देखते हैं ….मनुष्य भाग्यशाली है …उस रसिक किशोर की झाँकी को ये अनुभव कर सकता है ….उसकी लीला का आस्वादन कर सकता है ….लेकिन हम नही । क्यों नही ? तो वो मुक्त पुरुष कहते हैं …हमारे पास इंद्रियाँ नही हैं …..आँखें नही हैं ….फिर कैसे उस रूप को निहारें , मुक्त पुरुष दुखी हैं …..हाथ नही है उनके कैसे उस सनातन किशोर को , प्रगाढ़ आलिंगन में बाँधे ! पैर नही हैं …उसके साथ कैसे नाचें !
अजी ! कितने बेचारे हैं ये मुक्त पुरुष …इनसे भाग्यशाली तो यही संसार के फँसे लोग हैं ….जिनके पास इंद्रियाँ तो हैं …जगत को देखते देखते वो एक दिन तो “जगत मोहन” को निहार ही लेंगे …लेकिन ये मुक्त पुरुष !
बिल्वमंगल दूसरे श्लोक में ही अंतिम बात कह देते हैं …..कि मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ मुक्ति नही हैं …फिर क्या है ? उस सनातन किशोर को अपने हृदय में बसाना है ….फिर उसे एकान्त में निहारना है ….ये अद्भुत किशोर है …..जो बाँसुरी बजाता है तो स्वयं मग्न और मस्त हो जाता है …ये किसी के लिए नही बजाता बाँसुरी …अपने आनन्द के लिए बजाता है …अपने लिए बजाता है ….और स्वयं रस होकर भी रस में ही डूब जाता है ….उस समय सब कुछ ठहर गया है …प्रकृति रुक गयी है ….आकाश में देवताओं की स्त्रियाँ खड़ी होकर इसे निहार रही हैं …..निहारते निहारते वो सब कुछ भूल गयीं हैं …..उनकी चोटी ढीली हो गयी है ….उसमें से फूल गिरकर उस सौंदर्य के सागर किशोर को ढँक दिया है ….उस प्यारे से किशोर के घुंघराले केशों में अब फूल ही फूल हैं । फूल गिरते गिरते वो किशोर भी ढँक सा गया है …किन्तु उसके नेत्र बन्द हैं …वो मग्न बस बाँसुरी बजाए जा रहा है । उस किशोर को सब गोपियों ने घेर लिया है ….प्रेम के ज्वर से सब आक्रान्त सी हो गयी हैं …इसलिए उनकी नीवी खुल गयी है ….वो सम्भाल रही हैं पर संभल नही रहा …..इन सबसे इस किशोर की शोभा और बढ़ती जा रही है । बिल्वमंगल कहते हैं ….यही किशोर है जीव का परम पुरुषार्थ …इसी को देखना , इसी को पाना , इसी में अपने को मिटा देना ….यही है अपवर्ग ….यही हैं जीवन की सार वस्तु । देखो …वो अभी भी आँखें मूँद कर बाँसुरी बजा रहा है ……….बिल्वमंगल कहते हैं ।
क्रमशः….
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877