श्रीकृष्णकर्णामृत – 64 : नीरु आशरा

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श्रीकृष्णकर्णामृत - 64

हे विभो ! मेरा परिपालन करो…


परिपालय नः कृपालयेत्यसकृज्जल्पितमार्त्तबान्धवः ।
मुरली-मृदुल स्वनान्तरे विभुराकर्णयिता कदानु नः ॥६२।।

हे साधकों ! इस रस राज्य की यही साधना है , यही उपासना है कि अपने आपको प्रियतम की सेवा में जीवन का उत्सर्ग कर देना । इसी सेवा के लिए तो बिल्वमंगल नाना प्रकार की कल्पना जल्पना ‘श्रीकृष्णकर्णामृत’ में कर रहे हैं । साधकों ! एक बात समझना ….इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो या न हो किन्तु भाव का स्वभाव त्यागना अत्यंत कठिन है । और ये ‘भाव’ प्रिय के संयोग अथवा वियोग दोनों अवस्थाओं में रहता है और क्षण क्षण में अनेकानेक नवीन लालसाओं की सृष्टि करता रहता है । प्रेमी इसी में मग्न है …खोया है ।
अब जब भाव की तरंगे उठती हैं – निराशा की तरंग उठी तो दुःख होता है ..अपार दुःख होता है …और आशा की तरंग उठी तो सुख की कोई सीमा नही रहती ….ये चलता रहता है ….एक अद्भुत रहस्य और है इस रस मार्ग में कि …आशा और निराशा ये दोनों ही क्षण क्षण घटते हैं …और कभी कभी तो ये एक साथ भी घट सकते हैं ….याद रहे – ये जब किसी भागशाली के साथ घटित होता है तब पहले तो वो समझ नही पाता ..लेकिन लोग उसे ही पागल कहते हैं …क्यों की उसका हंसना और रोना साथ साथ होता है ..है ना ये रहस्य !

आज बिल्वमंगल अत्यन्त उद्विग्न से दिखाई देते हैं ….कुछ डरे हुये से भी …..डरे हुए इसलिए कि निराशा ने घेर लिया है । अब कैसी निराशा ? यही कि …प्रियतम अब मुझे दर्शन नही देंगे । ओह ! अगर उन्होंने दर्शन नही दिये तो ? बस यहीं बिल्वमंगल दुखी और डरे हुए से दीखते हैं ।

वो एकाएक चिल्लाते हैं ….हे कृपानाथ ! वो पुकारते हैं …हे विभो ! मुझे बचाओ ।

बिल्वमंगल कहते हैं …हे विभो! अभी तक मैंने बहुत अर्ज़ियाँ लगायी होंगी…कभी कुछ कहा होगा तुमसे तो कभी कुछ …लेकिन आज मेरी ये अर्जी सुनो ….बाकी की अर्ज़ियों को फाड़ कर फेंक दो ।

क्या अर्जी है तुम्हारी ?

बिल्वमंगल कहते हैं …..मेरी रक्षा करो । मुझे बचाओ । मेरा परिपालन करो ।

“परिपालय न : कृपालय”

हे कृपालु ! के कृपा के आगार ! मेरा परिपालन करो । नही तो मैं मर जाऊँगा ।

कैसे परिपालन करें तुम्हारा ?

बिल्वमंगल कहते हैं – अपने दर्शन द्वारा । अपना मुखचन्द्र दिखाओ प्यारे ! उसी से मेरा परिपालन होगा ।

अच्छा यहाँ एक समझने की बात है …’परिपालन’ का अर्थ क्या होता है ? परिपालन का अर्थ होता है …सम्यक प्रकार से पालन किया जाना …परिपालन माना जाता है – सम्यक् पालन , समग्र पालन , सर्व प्रकार के पालन , सर्व ओर से पालन , सर्व भाव से पालन , सर्व रस से पालन , सर्व काल में पालन , सर्व देश में पालन ..बिल्वमंगल कहते हैं …बस तुम मेरा इस प्रकार पालन करो । फिर बिल्वमंगल कहते हैं – सुन रहे हो ना ? सुनो ! बिल्वमंगल आगे कहते हैं …विचित्र हो मैं इतना प्रलाप कर रहा हूँ तुम सुन ही नही रहे ….तभी बिल्वमंगल को बाँसुरी ध्वनि सुनाई देती है ….वो मुस्कुराने लगते हैं ….वो मग्न हो जाते हैं …फिर कुछ देर में कहते हैं – अच्छा ! बाँसुरी बजाते हो तो उस ध्वनि के बीच मेरा ये प्रलाप कहाँ सुनाई देता होगा ना तुम्हें ? मैं सोच ही रहा था ..कि इतने प्रलाप के बाद तो तुम सुनोगे ! लेकिन आज समझ में आया कि मेरा प्रलाप तो तब सुनो ना जब बाँसुरी बंद हो । बिल्वमंगल कुछ देर यहाँ सोचने लग जाते हैं ।

मैं कहाँ से सुनूँगा तेरे प्रलाप को ? मैं बाँसुरी बजाऊँ या तेरी पुकार सुनूँ ?

बिल्वमंगल कुछ देर सोचने के बाद में कहते हैं …दोनों करो …बाँसुरी भी बजाओ और मेरी पुकार भी सुनो ।

अरे ! दोनों काम एक साथ कैसे होंगे ? बिल्वमंगल हंसते हुए बोले …तुम ‘विभु’ हो …..यानि तुम सर्वशक्तिमान हो …और सर्व समर्थ हो ….तुमसे इतना नही हो सकता । मैंने तो देखा है ..सामान्य योगी भी दो दो रूपों में दिखाई दे जाता है …तो तुम तो योगेश्वर हो ….निरंजन ज्योति हो …फिर तुमसे ये क्यों न होगा ?

इसलिए मैं कह रहा हूँ ….हे विभो ! मेरा परिपालन करो ! नही तो मैं मर जाऊँगा । इतना बोलकर बिल्वमंगल फिर सुबकने लगते हैं ।

‘सब अर्जिन तजि यही अर्ज़ है , आय बचावहु प्रान ।
वंशी धुन बिच मेरी विनती , सुन लीजो हे कान्ह ‘।।

क्रमशः….
Hari sharan

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