श्रीकृष्णकर्णामृत - 69
वो आदि पुरुषोत्तम…
आर्द्रावलोकित-धुरा परिणद्ध-नेत्र –
माविष्कृत-स्मित-सुधा-मधुराधरोष्ठम् ।
आद्य पुमांसमवतंसित-बर्हि – बर्ह-
मालोकयन्ति कृतिनः कृत-पुण्य-पुञ्जाः ।।६७।।
हे साधकों ! इस रस राज्य में अपने प्राणप्रिय को खोजते हुए बिल्वमंगल आज अत्यधिक दैन्यता से भर जाते हैं । वह कहते हैं – मैं कहाँ उसके दर्शन करने योग्य हूँ । कहाँ वो आदि पुरुषोत्तम और कहाँ मैं भाग्यहीन ! मैं कहाँ देख पाऊँगा उसे । उसे तो वही देख पायेंगे जिन्होंने अनन्त पुण्य किए हों ….जिनके अनन्त पुण्यराशि हों । और मैं ? बिल्वमंगल ढल से जाते हैं …..वो बैठ गए हैं …..अब उन्हें थकान लग रही है । ये क्या अब सम्भव है ? कुछ देर बाद बिल्वमंगल अपने ही मन से पूछते हैं , तो मन भी प्रतिप्रश्न कर देता है …क्या असम्भव है बिल्वमंगल ?
मैं उस आदि पुरुषोत्तम को इन नयनों से देख पाऊँगा ? वह तो आदि पुरुष है …आदि पुरुषोत्तम है ….यानि प्रथम पुरुष वही है …ये कहते हुए बिल्वमंगल रो देते हैं ।
मन फिर बिल्वमंगल को कहता है …ये कहो ना कि वो नारायण हैं । नही , वो नारायण नही है बिल्वमंगल मना करते हैं । क्यों ? आदि पुरुष तो नारायण ही हैं ….मन ने कहा । बिल्वमंगल बोले ….किन्तु , किसी ने आज तक नारायण को मोर पंख अपने सिर में फहराते नही देखा है । नारायण को कभी नाचते नही देखा है ….लेकिन ये मेरा आदि पुरुष तो मोर पंख भी लगाता है और नाचता भी है । बिल्वमंगल यहाँ हंसते हैं ….अगर नारायण भगवान वैकुण्ठ में नाचने लगें तो लक्ष्मी जी परेशान हो जायेंगी …कि मेरे स्वामी को क्या हुआ ?
बिल्वमंगल की बातें सुनकर उनका मन फिर बोला ….अच्छा अच्छा , हम समझ गये कि वो नारायण नही हैं …वो आदि पुरुषोत्तम कोई और है । किन्तु बिल्वमंगल ! ये तो बताओ कि वह प्रथम पुरुष है , आदि पुरुष है …तो अवश्य ही उसके मन में अहंकार होगा ….कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ …मेरे समान तो कोई है नही । अपने मन से ये सुनकर बिल्वमंगल के नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….वो बोले …ना , ऐसा नही है ….वो आदिपुरुष तो अपूर्व करुणा से भरा है ….उसमें तनिक भी अहं नही है । बिल्वमंगल कहते हैं …..हे मन ! तुमने उनको कभी देखा हो , तो उनकी आँखें देखी ? उनकी आँखें करुणा के जल से सदा भीगीं रहती है , आहा ! वह जिसको एक बार देख ले …फिर अपने करुणा के जल से उसे सींचता ही रहता है …..इतना ही नही अपने स्नेह पाश में बाँध लेता है ….फिर कभी नही छोड़ता …ऐसा है वह आदि पुरुष ….बिल्वमंगल गदगद होकर ये बताते हैं । तो तुम रो क्यों रहे हो ? मन ने फिर पूछा । बिल्वमंगल बोले – मैं इसलिए रो रहा हूँ कि एक बार वो मेरी ओर देखें तो ….हाँ , देख लेंगे तो निहाल कर देंगे ये पक्का है …लेकिन हे मन ! वो मेरी ओर देख ही तो नही रहे …रोना इसी बात का तो है ।
मन कुछ देर तो शान्त रहा …..फिर उसने पूछना आरम्भ किया ।
अच्छा , तो आगे बताओ ..वो ‘आद्यपुमान’ यानि तुम्हारा आदि पुरुष और कैसा है ?
बिल्वमंगल कहते हैं – उसने आविष्कार किया है । अरे ! कैसा आविष्कार ? मन ने पूछा । तो बिल्वमंगल बोले – उस आदि पुरुष ने अपने अरुण अधर में स्मित और सुधा (अमृत ) का आविष्कार किया है । जो इसकी मुस्कान देख ले …वो मुर्दा भी जीवित हो जाये …उसका सब कुछ छूट जाये । नियम क्या ? विधि क्या ? ये सब भुला दे ….ऐसी विलक्षण स्मित ( मुस्कान ) जिसमें से अमृत भी झरता है ….ये आविष्कार यानि सृष्टि इसने ही की है । मन ने बिल्वमंगल की बातें सुनी तो फिर उसने कहा ….किन्तु तुम दुखी क्यों हो ? मेरी ओर वो देखता नही है …क्यों नही देखता ? बिल्वमंगल हिलकियों से वहीं रोने लगते हैं । मैं हत भाग हूँ …मेरे में कोई पुण्य नही हैं ….अरे ! वो तो उनको मिलता है जिसके जीवन में अनन्त पुण्य हों । हे मन ! मैं क्या करूँ ? क्या इस तरह रोना ही मेरे जीवन में लिखा है या उसकी वो सुधा वर्षिणी स्मित मुस्कान को मैं कभी देख भी सकूँगा ? बिल्वमंगल ये कहते हुये यहाँ मूर्छित ही हो जाते हैं ।
( हे साधकों ! आप कहोगे कि क्या पुण्यों से श्याम सुन्दर मिलते हैं ? हमने तो सुना था कि वो केवल भाव से मिलते हैं ? आपकी बात सत्य है …लेकिन यहाँ बिल्वमंगल जो कह रहे हैं वो प्रेम-उन्माद की स्थिति में कह रहे हैं ….प्रेमी की बातों को समझने के लिए प्रेमी का हृदय चाहिए । आप लोग प्रेम की भाषा को समझेंगे – ऐसी आशा है )
। माई री बा मुख की मुसकान , सम्हारि न जैहै , न जैहै न जैहै ।
क्रमशः….
Hari sharan
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