] Niru Ashra: “नाटक नही ‘नट’ पर दृष्टि रखो”
सौभरी वन में पागलबाबा – 23
मन में बड़ा क्षोभ होता है कि विरक्त-बाबा बनकर भी लोग संग्रह में लगे रहते हैं और ग्रहस्थ होकर लोग बाबाओं की निन्दा करते हैं …..अच्छा नही लगता । ये प्रश्न मेरे साथ के एक साधक ने पागलबाबा से किया था ।
इस प्रश्न को सुनकर पहले तो बाबा बहुत हंसे ……फिर चारों ओर देखते हुये बोले ….ये सब क्या है ? ये सब नटवर का नाटक नही है क्या ? क्या कह रहे हो ! किस भूल में हो ! भैया ! कौन बाबा जी और ग्रहस्थ ? बाबा सहज बोले – यह सब तुम्हारे मन की कल्पना है …कि ये बाबा जी और ये ग्रहस्थ ……लेकिन सच ये है कि यह सब नटवर श्रीकृष्ण का नाटक है ….बाबा जी भी श्रीकृष्ण हैं और गृहस्थ भी श्रीकृष्ण हैं …..क्या ये बात सच नही है ? बाबा जी भी तभी तक बाबा जी है जब तक उसके भीतर नट श्रीकृष्ण बैठकर नाटक कर रहा है …जिस दिन श्रीकृष्ण निकल गया वो बाबा जी रहेगा ? गृहस्थ भी तो श्रीकृष्ण ही हैं …..श्रीकृष्ण हैं उसके भीतर तभी वो है ….श्रीकृष्ण निकल जायेंगे तो उसका कोई अस्तित्त्व रहेगा ? बाबा आज अद्भुत ढंग से समझा रहे थे ।
बाबा लोग संग्रह करते हैं …..ये संग्रह नाटक है ….और गृहस्थ निन्दा करते हैं ….वो भी नाटक है …..सब तरफ़ नाटक ही चल रहा है ….देखो ! वही श्रीकृष्ण पक्षी बनकर चहक रहा है …..वही श्रीकृष्ण वृक्ष बनकर झूम रहा है …वही श्रीकृष्ण वायु के रूप में बह रहा है …..तुम्हें चला रहा है श्रीकृष्ण …..तुम्हारे पिता में पिता बनकर बैठा है …तुम्हारी माता में माता बनकर बैठा है …तुम्हारी पत्नी में वो पत्नी बनकर बैठा है …..वही है सब कुछ वही है ….चारों ओर वही वही है ।
देखो ! जब तुम इतने वर्षों से सत्संग कर रहे हो …..तो ये बात अभी तक क्यों नही समझ पाए कि …..ये अच्छा , ये बुरा …ऐसी दृष्टि ही उचित नही है । ये फिर भी ठीक है कि – अच्छा ही अच्छा देखना ….लेकिन बुरा देखना ये तो बिल्कुल उचित नही है ……उसकी लीला में कुछ बुरा है ? उसके द्वारा किए जा रहे नाटक में कुछ गलत है ? नही । वैसे देखो ! हमको सत्संग के द्वारा अपने इस भले बुरे की भावना को शिथिल करना ही होगा …..ये समझ लो ना ….और यही सत्य भी है कि सब कुछ कन्हैया लाल का लीला विलास है …..नाटक है यार ! नाटक में भीम दुर्योधन ये सब मनोरंजन के लिए हैं …..ये रावण कुम्भकर्ण तुम्हारे हमारे मनोरंजन के लिए हैं …..नाटक में मृत्यु होती है जन्म होता है ….इसको गम्भीरता से नही लेना है । जीवन में रोग आयेंगे …दुःख आयेंगे ….लेकिन इन सब के बिना नाटक में रस भी तो नही आएगा ना ? क्या ‘अद्भुत’ रस नही है ? ‘रौद्र’ रस नही है ? ‘भयानक’ रस नही है ? ‘विभत्स’ रस नही है ?
बाबा बोले …फिर क्यों क्षुब्ध हो रहे हो ? नाटक के सारे नव रस यहीं चारों ओर दिखाई देंगे …..देखो तो ? नाटक चल रहा है …..लेकिन ……बाबा यहाँ रुक जाते हैं ….फिर बड़े प्रेम से समझाते हुए कहते हैं ….मत देखो नाटक को …मत उलझो नाटक में …..तुम तो ‘नट’ को देखो……देखो वो नट ही सब कुछ कर रहा है ….सारे रसों को प्रवाहित करके वो मग्न है ….तुम उस नट की मग्नता को देखो …वो नाटक करते हुए आनंदित है …तुम उसके आनन्द को देखो …..नाटक को लेकर गम्भीर नही हुआ जाता ….तुम परेशान इसलिए हो कि गम्भीर हो जाते हो ….तुम सिर्फ नट का ध्यान रखो ना । और उसकी मस्ती में मस्त हो जाओ …हाँ …तुमको जो रोल मिला है …उसे अच्छे से निभाओ । लेकिन नाटक की तरह ….और फिर कहूँ …..नट को मत भूलना….बाकी – कौन बाबा और कौन गृहस्थी ? सब वही है । बाबा हंसते हुए उठ गए थे ।
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (020)
पूज्यपाद श्री रामेश्वर दास रामायणी जी , श्री गणेशदास भक्तमाली जी , श्री राजेंद्रदासचार्य जी के कृपाप्रसाद और भक्तमाल टीका से प्रस्तुत भाव
सुंदर कथा १७
(श्री भक्तमाल -श्री दामाजी पंत)
श्री दामाजी पंत भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त हुए है।
महाराष्ट्र में तेरहवीं शताब्दी में भयंकर अकाल पड़ा था। अन्न के आभाव से हजारो मनुष्य तड़प तड़प कर मर गए।
वृक्षों की छाल और पत्तेतक नहीं बचे थे। उन दिनों गोवल-कुंडा बेदरशाही राज्य के अंतर्गत मंगलबेड्या प्रांत का शासनभार श्री दामाजी पंत के ऊपर था।
दामाजी और उनकी धर्मपत्नी दोनों ही भगवान् पांडुरंग श्री विट्ठल के अनन्य भक्त थे। पांडुरंग के चिंतन में रात दिन उनका मन लगा रहता था। भगवान् का स्मरण करते हुए निष्काम भाव से कर्त्तव्य कर्म करना उनका व्रत था। दिन- दुखियों की हर प्रकार से वे सेवा- सहायता किया करते थे। शत्रु को भी कष्ट में पड़ा देखकर व्याकुल हो जानेवाले दामाजी पंत अपनी अकालपीड़ित प्रजाका करुण क्रंदन सहन न कर सके। राज्य भण्डार में अन्न भरा पड़ा था। दयाके सम्मुख बादशाह का भय कैसा। अन्न भण्डार के ताले खोल दिए गए। भूक से व्याकुल हजारो मनुष्य, साधु ,संत ,गायें मरने से बच गए।
समाज में ऐसे कुछ लोग होते है जो उदार,पुण्यात्मा पुरुषों की अकारण निंदा करते है। दामाजी के सहायक नायाब सूबेदार ने देखा कि अवसर अच्छा है,यदि दामजी को बादशाह हटा दे तो मै प्रधान सूबेदार बन सकुंगा। उसने बादशाह को लिखकर सूचना भेजी । दामाजी पंत ने अपनी कीर्ति के लिये सरकारी अन्न- भण्डार लुच्चे लफंगों को लूटा दिया। नायाब सूबेदार का पत्र पाते ही बादशाह क्रोधसे आग-बबूला हो गया। उसने सेनापति को एक हजार सैनिको के साथ दामाजी को ले आने की आज्ञा दी।
सेनापति जब मंगलबेड्या प्रांत में पहुंचा उस समय दामाजी श्री पांडुरंगकी पूजामें लगे थे। सेनापति उन्हें जोर जोर से पुकारने लगा। दामाजी की धर्मपत्नी ने तेजस्विता के साथ कहा, ‘अधीर होने की आवश्यकता नहीं – जबतक उनका नियमकर्म पूरा न हो जाए, लाख प्रयत्न करनेपर भी तबतक मैं किसीको उनके पास नहीं जाने दूंगी। सेनापति पतिव्रता नारी के तेज से अभिभूत हो गया। उसका अभिमान लुप्त हो गया।वह प्रतीक्षा करने लगा।
दामाजी की पूजा समाप्त हो जाने पर स्त्रीने उन्हें सेनापति के आने का समाचार दिया। दामाजी समझ गए कि अन्न लुटवाने का समाचार पाकर बादशाह ने उन्हें गिरफ्तार करने हेतु सैनिक भेजे है। भय का लेश तक उनके चित्त में नहीं था। पत्नी से उन्होंने कहा,चिंता करने की कोई बात नहीं है,हमने अपने कर्त्तव्य का पालन ही किया है।बादशाह कठोर से कठोर दंड देगा इसके लिए हम पहले से ही तैयार है। भगवान् पांडुरंग का प्रत्येक विधान् दया से परिपूर्ण ही होता है।जीव के मंगल के लिए ही उनका विधान है।उनकी प्रसन्नता ही अभीष्ट है।
दामाजी पत्नी को आश्वासन देकर बाहर आये। उनका दर्शन करते ही सेनापति का अधिकार- गर्व चला गया।उसने नम्रतापूर्वक कहा, बादशाह ने आपको शीघ्र बुला लाने के लिए मुझे भेजा है। जैसे ही दामाजी की गिरफ्तारी हुई,उनकी स्त्री ने कहा, ‘नाथ! भगवान् पंढरीनाथ जो कुछ करते है उसमे हमारा हित ही होता है।उन दयमय ने आपको एकांतसेवन का अवसर दिया है।अब आप केवल उनका ही चिंतन करेंगे। मुझे तो इतना ही दुःख है कि ये दासी स्वामी की चरणसेवा से वञ्चित रहेगी। ‘
सेनापति हथकड़ी डाल कर उनको ले चले।दामाजी को न बंदी होने का दुःख है न पदच्युत होने की चिंता। बंदक होते हुए भी वे सर्वथा मुक्त है और भगवान् पांडुरंग के गुणगान में मग्न है। कीर्तन करते चले जा रहे है। गोवल-कुण्डा के मार्ग में ही पंढरपुर धाम पड़ता है।दामाजी का मन भगवान् से भेट करने का हुआ। सेनापति ने स्वीकृति दे दी। मंदिर में प्रवेश करते ही दामाजी का शारीर रोमांचित हो गया। नेत्रों से टपाटप बूंदे गिरने लगे। शारीर की सुधि जाती रही।कुछ देर में अपने को संभाल कर वे भावमग्न होकर भगवान् की स्तुति करने लगे।
विलम्ब हो जानेसे सेनापति दामाजी को पुकार रहा था। भगवान् को साष्टांग प्रणाम् कर भगवान् की सुंदर मोहिनी मूरत ह्रदय में धारण कर दामाजी बहार आये। सेनापति उन्हें लेकर आगे बढे।इधर बेदर का बादशाह दामाजी की प्रतीक्षा कर रहा था।देर हो जानेसे उसका क्रोध बढ़ रहा था। इतने में एक काले रंग का किशोर हाथ में लकड़ी लिए,कंधे पर काली कम्बल डाले निर्भयतापूर्वक दरबार में चला आया। उसने जोहर करके कहा- ‘बादशाह सलामत! यह चाकर मंगलबेड्या क्षेत्र से अपने स्वामी दामाजी पंत के पास से आ रहा है।’
दामाजी का नाम सुनते ही उसने उत्तेजित होकर पूछा-‘ क्या नाम है तेरा?’ उसने कहा – मेरा नाम तो विठू है,
सरकार!दामाजी के अन्न से पला मैं चमार हूं। यह अद्भुत सुंदर रूप,यह ह्रदय को स्पर्श करती मधुर वाणी- बादशाह एकटक देख रहा था विठू को। बादशाह ने पूछा- क्यों आये हो यहाँ?
उसने कहा – अपराध क्षमा हो,अकाल में आपकी प्यारी प्रजा भूकी मर रही थी तो मेरे स्वामी ने आपके अन्नभण्डार को खोल कर सब अनाज बांट दिया,मैं उसी का मूल्य देने आया हूँ। आप कृपा करके पूरा मूल्य खजाने में जमा करा ले और मुझे रसीद दिलवाने की कृपा करे।
बादशाह मन ही मन बड़ा लज्जित हुआ।पश्चाताप करने लगा – मैंने दामाजी जैसे सच्चे सेवाकपर बिना-सोचे समझे बेईमानी का आरोप लगाया और उसे गिरफ्तार करने के लिए फ़ौज भेज दी। बादशाह को व्याकुल देखकर विठू ने एक छोटी थैली निकालकर सामने धर दी और बोला, सरकार मुझे देर हो रही है ।ये रुपया जमा करके मुझे शीघ्र रसीद दिलवा दे। बादशाह का दिल नहीं चाहता था की विठू उनके सामने से एक पल के लिए भी हटे परंतु किया क्या जाए?
विठू एक साधारण चमार सही,परंतु उसकी इच्छा के विपरीत मुह तक खोलने का सहस दीखता बादशाह को अपने में।उन्होंने खजनजी के पास उसे भेज दिया।बेचारा खजांजी तो हैरान रह गया। वह उस छोटी से थैली से जितनी बार धन उलट ता उतनी बार थैली फिर भर जाती। रसीद प्राप्तकर उसने रसीद पर बादशाह से दस्तखत और शाही मोहोर ले ली। उसने कहा ,’मेरे स्वामी चिंता करते होंगे मुझे आज्ञा दीजिये।’ यह कहकर वह विठू चल दिया। यहाँ बादशाह ने दीवानजी को आज्ञा दी के दामाजी को तुम शीघ्रतापूर्वक जाओ और दामाजी को आदरपूर्वक ले आओ।
इधर दामजीपंत पंढरपुर से आगे चले आये थे।एक दिन स्नान आदि करके गीता पाठ करते समय उनको एक चिट्ठी मिली जिसपर लिखा था, दामाजी पंत से अपने अन्न-भण्डार के पूरे रुपये चुकती भर पाये। उसपर शाही मोहोर और बादशाह की सही थी। दामाजी को आश्चर्य हुआ लेकिन वह अपनी पूजा में लगे रहे। इधर बादशाह का सन्देश लेकर दीवानजी पहुँचे। दामाजी की हथकड़िया खोल दी गयी और उन्हें सम्मान पूर्वक सवारी पर बिठाया गया।
बादशाह की विचित्र दशा हो रही थी। विठू विठू पुकार कर पागलो जैसा करने लगा।चारो तरफ घोड़े दौड़ाये गए पर क्या इस तरह विठू मिला करता है? कहा है वो विठू?कहा चला गया?कहते कहते वह पैदल राजधानी से बहार तक चला गया था। उसी समय दामाजी सामने से आ रहे थे।बादशाह दौड़कर उनको गले से जा लगा और बड़ी कातरता से कहने लगा, दामाजी!दामाजी! बताओ बताओ मुझ पापी को बताओ वह प्यारा विठू कहा है?उस सुंदर विठू के मुख को देखेने के लिए मेरे प्राण निकले जा रहे है?उसको नहीं देखा तो मै मर जाऊंगा। मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं।
दामाजी तो हक्के बक्के से ही गए,वे बोले -हुजूर !कौन विठू?
बादशाह ने कहा दामाजी !छिपाओ मत। वाही सांवरा सांवरा लंगोटी पहने ,हाथमे लकुटी लिए तुम्हारे पास से रुपये लेकर आने वाला मेरा विठू कहा है? दामाजी के सामने से परदा है गया, रोते रोते वे बोले,आप धन्य है। त्रिभुवन के स्वामी ने आपको दर्शन दिए। मुझ अभागे के दिए वे सर्वेश्वर एक दरिद्र चमार बने और एक सामान्य मनुष्य से अभिवादन करने आये। नाथ!मैंने जिसका अन्न लुटवाय था वो मेरे प्राण लेने के अतिरिक्त और क्या कर सकता था। दयधाम!सर्वेश्वर !आपने इतना कष्ट क्यों उठाया?
बादशाह को याद आया के भगवान् ने अपने को दामाजी का सेवक बताकर अपना परिचय दिया था। जीन दामाजी की कृपा से मुझ पापी को भी सहज भगवान् के दर्शन हुए और जिन्हें स्वयं भगवान् ने अपना स्वामी कहा । निश्चित ही दामाजी कोई साधारण कोटि के महात्मा नहीं है। बादशाह ने ताज उतार कर चरणों में रख दिया। दामाजी प्रेम में उन्मत्त होकर पांडुरंग ! पांडुरंग! पुकारते मूर्छित हो गये। भक्तवत्सल भगवान् ने आकर उन्हें उठाया । उस समय बादशाह ने भी दामाजी की कृपा से श्रीभगवान् के दर्शन पाये। बादशाह भी उन सौंदर्य सागर के पुनः दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो गया।
संसार में कोई सेवक को अपना स्वामी नहीं बनाता परंतु श्री भगवान् ऐसे है की वे सेवक की भक्ति पर रीझकर उसे अपना स्वामी बना लेते है।
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी..7️⃣4️⃣भाग 3
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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सीता चरण चोंच हति भागा……..
📙( रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
मैं वैदेही !
जयन्त ! तुम जाओ यहाँ से……हाँ ब्रह्मास्त्र को सम्भालनें वाले ब्रह्मा हैं ……तुम वहाँ जाओ ….शायद कुछ उपाय निकल जाए ।
भागा जयन्त ………………
ब्रह्म लोक में पहुँचा ……..
हे विधाता ! मुझे बचाइये ………………
ब्रह्मा जी नें देखा था जयन्त की ओर ………………उनको क्या फ़र्क पड़ता ……दुनिया में हर क्षण हजारों मरते रहते हैं …..और जन्मते रहते हैं …….ब्रह्मा इतना ही बोले …………जाओ यहाँ से ।
जयन्त वहाँ से भी भागा …………….गया कैलाश ।
ये तो अच्छा था कि उस समय समाधि में नही बैठे थे महादेव ।
क्या बात है इन्द्र पुत्र !
महादेव सहजता में बोले ।
श्रीराम का ये बाण मुझे मार देगा …..जयन्त बोला ।
आहा ! ये तो तेरा परम सौभाग्य होगा कि तू श्रीराम के बाणों से शरीर छोड़ेगा ………….तू मर जा श्रीराम के बाणों से ……..तेरी मुक्ति हो जायेगी पगले !
महादेव के मुखारविन्द से ये सब सुनना जयन्त को अच्छा तो नही लगा …..क्यों की उसको प्रवचन नही सुनना था ।
वो वहाँ से भी भागा ।
नारायण नारायण नारायण !
लो सामनें आगये देवर्षि नारद जी …………
पागल है तू जयन्त ! श्रीराम अगर तुझे मारना चाहते तो तू बच सकता था अब तक……….देवर्षि नें समझाया ।
मै क्या करूँ फिर ?
तू जा ! जा जयन्त ! तू उन्हीं दयानिधि श्री राघवेन्द्र सरकार के चरण पकड़ …जा ।
नही …..वो मुझे क्षमा नही करेंगें ………..जयन्त समझ गया था कि उसका अपराध कितना बड़ा है ।
पागल ! वो दयानिधि हैं ……….वो परम कृपालु हैं …………तू जा !
देवर्षि नें जयन्त को भेज दिया …………..मेरे श्रीराम के पास ।
आपको क्रोध नही करना चाहिये था
……….मैने फिर छेड़ा अपनें श्रीराम को ।
क्यों नही करना चाहिये ! मेरी और देखकर कहा श्रीराम नें ।
बालक अपराध करते ही हैं नाथ !
तभी आगया वो काक जयन्त……..और सीधे चरणों में गिरा मेरे श्रीराम के ।
बालक अपराध नही करेंगे तो कौन करेगा ?
मैने फिर छेड़ा …………मुझे आज आनन्द आरहा था अपनें श्रीराम को छेड़नें में ……….।
प्रभो ! मुझे क्षमा कर दो………..वो जयन्त चिल्ला रहा था ।
आप पिता हैं ……….अब इससे अपराध हो ही गया ……कर दीजिये ना क्षमा ………मैने मन्द मुस्कुराते हुये कहा ।
क्यों तुम कह रही हो……..? क्या तुमनें क्षमा कर दिया मैथिली ?
मैने तो अपराध माना ही नही हैं नाथ ! ये तो बालक है …..अबोध बालक ……….क्या बालक माँ के साथ कभी कुछ चंचलता कर दे तो माँ उसे………..हे प्राण ! मै माँ हूँ …….इसलिये मैं तो अपराध मानती ही नही ……..।
अरे ! मेरे सामनें हाथ जोड़नें लगे थे मेरे श्रीराम ………महान हो आप मैथिली !……….महान हो ……..मुझ से भी ज्यादा ।
ऐसा मत कहिये ………मैने उनके हाथों को पकड़ कर चूम लिया था ।
ब्रह्मास्त्र की मर्यादा है ……………….उसे ऐसे नही खींचा जा सकता ।
काक जयन्त के नेत्र में बाण मार दिया था …………..जिसके कारण उसका एक नेत्र चला गया …………
और जयन्त अब अपनें स्वरूप में …………..
सम्पूर्ण काक समाज का ही एक नेत्र कर दिया था मेरे सत्य संकल्प श्रीराम नें………।
वो जयन्त बहुत देर तक हाथ जोड़े खडा रहा…और प्रार्थना करता रहा ।
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
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अध्याय 15 : पुरुषोत्तम योग
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श्लोक 15.2
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अधश्र्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः |
अधश्र्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके || २ ||
अधः – नीचे; च – तथा; उर्ध्वम् – ऊपर की ओर; प्रसृताः – फैली हुई; तस्य – उसकी; शाखाः – शाखाएँ; गुण – प्रकृति के गुणों द्वारा; प्रवृद्धा: – विकसित; विषय – इन्द्रियविषय; प्रवालाः – टहनियाँ; अधः – नीचे की ओर; च – तथा; मूलानि – जड़ों को; अनुसन्ततानि – विस्तृत; कर्म – कर्म करने के लिए; अनुबन्धीनि – बँधा; मनुष्य-लोके – मानव समाज के जगत् में ।
भावार्थ
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इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं । इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती हैं, जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं ।
तात्पर्य
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अश्र्वत्थ वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है । इसकी शाखाएँ चतुर्दिक फैली हुई हैं । निचले भाग में जीवों की विभिन्न योनियाँ हैं, यथा मनुष्य, पशु, घोड़े, गाय, कुत्ते, बिल्लियाँ आदि । ये सभी वृक्ष की शाखाओं के निचले भाग में स्थित हैं । लेकिन ऊपरी भाग में जीवों की उच्चयोनियाँ हैं-यथा देव, गन्धर्व तथा अन्य बहुत सी उच्चतर योनियाँ । जिस प्रकार सामान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है, उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित है । कभी-कभी हम देखतें हैं कि जलाभाव से कोई-कोई भूखण्ड वीरान हो जाता है, तो कोई खण्ड लहलहाता है, इसी प्रकार जहाँ प्रकृति के किन्ही विशेष गुणों का आनुपातिक आधिक्य होता है, वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योनियाँ प्रकट होती हैं ।
वृक्ष की टहनियाँ इन्द्रिय विषय हैं । विभिन्न गुणों के विकास से हम विभिन्न इन्द्रिय विषयों का भोग करते हैं । शाखाओं के सिरे इन्द्रियाँ हैं – यथा कान, नाक , आँख, आदि, जो विभिन्न इन्द्रिय विषयों के भोग से आसक्त हैं । टहनियाँ शब्द, रूप, स्पर्श आदि इन्द्रिय विषय हैं । सहायक जड़ें राग तथा द्वेष हैं , जो विभिन्न प्रकार के कष्ट तथा इन्द्रियभोग के विभिन्न रूप हैं । धर्म-अधर्म की प्रवृत्तियाँ इन्हीं गौण जड़ों से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं, जो चारों दिशाओं में फैली हैं । वास्तविक जड़ तो ब्रह्मलोक में है, किन्तु अन्य जड़ें मर्त्यलोक में हैं । जब मनुष्य उच्च लोकों के पूण्य कर्मों का फल भोग चुकता है, तो वह इस धरा पर उतरता है और उन्नति के लिए सकाम कर्मों का नवीनीकरण करता है । यह मनुष्यलोक कर्मक्षेत्र माना जाता है ।


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