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August 1, 2025 12:03 pm

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 श्री सीताराम शरणम् मम (93-2), मिथिला के भक्त – 36,श्री भक्तमाल (074) तथा श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏

मैंजनकनंदिनी..9️⃣3️⃣
भाग 2

( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

मैं वैदेही !

मैं अगर रामपत्नी सीता का हरण करके लंका ले आऊँ तो ?

क्यों की सुपर्णखा के कहे अनुसार तो राम मर ही जाएगा सीता के वियोग में ………और अगर नही भी मरा तो मानव है राम ….सौ योजन सागर पार करके लंका तो नही आसकता ………..

हाँ यही ठीक रहेगा ……………..रावण को ये विचार ठीक लगे ।

तभी सामनें देखा रावण नें ……….लंका के पास में ही एक और छोटा सा टापू है ……..उसे याद आया इस टापू में तो ‘मारीच” रहता है ।


ये मारीच उत्तर में सिद्धाश्रम में रहता था …………इसके साथ सुबाहु भी तो था …………ताड़का भी तो थी ।

पर एक दिन ये सीधे उत्तर दिशा से दक्षिण लंका के ही पास इस द्वीप में आ गिरा था…………….

रावण यही सब सोचते हुए उस द्वीप की ओर बढ़ रहा था ।

इसी मारीच नें मुझे कहा था – कि समस्त विद्याओं के ज्ञाता ऋषि विश्वामित्र दो राजकुमार को लाये थे सिद्धाश्रम में ………….

वो दो राजकुमार यही तो थे ………..रावण चला जा रहा था उस मारीच के द्वीप में ……………..

इसको छोड़ दिया राम नें ……..मारीच को मारा नही ………..हाँ सुबाहु और ताड़का को मार दिया था …….पर इस मारीच को नही मारा ।

रावण यही सब के सोचते हुये मारीच के पास पहुँच गया था ।


क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….


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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: मिथिला के भक्त - 36

!! श्रीअवध किशोर दास “प्रेमनिधि जी” !!

19, 1, 2025


मीठी लगे मोहिं सिया जु को नाम, अनुपम रंग भरो जी ।
अपर ठौर नही प्रीति बढ़त कछु , छन छन मेरो हीय हरो जी ।।
चारिउ फल के चाह न सपनेहुं , सुख संपति जग भार परो जी ।
साधन सिद्ध नाम केवल दृढ़ , मन वच करम सुबूझि धरो जी ।।

साधकों ! मधुर उपासना में नाम,रूप, लीला धाम इन चारों का बड़ा ही महत्व है । लेकिन मधुर उपासक नाम रस को पीता है …उसे अपने प्रियवर के नाम से अगाध प्रेम है । उसे और कुछ सुनना ही नही है ….उसके लिए साधना नाम है , उसके लिए उपासना नाम है ..उसके लिए तप , तीर्थ सब नाम है ….मग्न हो जाता है नाम को लेते ही । उसके लिए चारों पदार्थ नाम से ही सिद्ध होते हैं ….नाम पर वो दृढ़ है ….”सिया सिया” कहते हुये वो डूब जाता है रस में ….सुख इसके लिए यही है …आनन्द इसके लिए यही है ….कि अपने प्रियवर का नाम लो । यही मधुर उपासना के प्राण हैं ….ये साधक स्मरण रखें कि मधुर उपासना एक ही है ..चाहे बृज की हो या मिथिला की ।


कल से आगे का प्रसंग –

“मिथिला परिक्रमा” में कंचन वन के बाद आता है श्रीधनुषा धाम । यहाँ आज भी धनुष का एक टुकड़ा है …कहते हैं ..श्रीराम ने पिनाक जब तोड़ा तो उसके तीन टुकड़े हुये , एक आकाश में गया एक पाताल में और एक यहीं रहा …एक टुकड़ा यहीं हैं ….इसलिए इस क्षेत्र का नाम धनुषा धाम है ….आज भी धनुष के दर्शन होते हैं , उसी पिनाक के टुकड़े के ।

अवध किशोर दास जी यहाँ जब पहुँचे तब उन्हें भावावेश आ गया । ध्यान में उस लीला का साक्षात दर्शन हुआ जब रंग भूमि में भगवान श्रीराम ने धनुष को तोड़ा था । ये भाव में इतने डूब गये ….कि मिथिला के स्थावर जंगम सब कुछ इन्हें चैतन्य लगने लगा था । क्यों कि पिनाक धनुष को इन्होंने बढ़ते हुये देखा ….तब इन्हें लगा कि …ये भूमि तो सिया जू की है …और सिया जू की भूमि जड़ नही हो सकती । वैसे भी अवध किशोर दास जी बैल गाड़ी और ताँगे में कभी बैठते नही थे ….ये बड़े ही समवेदनशील थे …..इन्हें बड़ा ही कष्ट होता था कि लोग पशु पर अत्याचार क्यों करते हैं ? इनका पहला मत ही यही था कि अगर आपमें समवेदना नही है तो आध्यात्मिक तो छोड़ो आप मानव भी नही है ।

धनुषा धाम में परिक्रमा का पड़ाव था ….सब यात्री भक्त जन संकीर्तन भजन आदि में मग्न थे ….लेकिन इनकी मस्ती तो अलग ही थी …”सिया सिया सिया” बस यही गाते हुए ये उस अवनी में मत्त चल रहे थे । कभी बैठ जाते ..और कुछ पद गाने लगते …पद गाते गाते ये उस भाव जगत में चले जाते । दूसरे दिन प्रातः ही स्नान आदि करके आगे परिक्रमा में निकलने की तैयारी में ही थे ….कि इन्होंने सामने देखा कि एक बैल गाड़ी है उसका बैल बूढ़ा है …चल नही पा रहा लेकिन गाड़ी वाला उसे मार रहा है ….अवध किशोर दास जी की दृष्टि उधर गयी …ये इधर दर्द से चीखे …उधर सामने वाले ने अपने बैल को फिर मारा ……इधर अवध किशोर दास जी दर्द से छटपटाने लगे …..लोगों ने देखा ….वो इनके पास में गये तो क्या देखते हैं …..जितनी चोट बैल को मारी गयी थी वो सब अवध किशोर दास जी को ही लगी थी । देह में सारे निशान थे अवध किशोर दास जी के । वो अब मूर्छित हो गए थे पीड़ा के कारण । लोगों ने आकर उनके मरहम आदि लगाया था । गुरुदेव श्रीमथुरा दास जी ने जब अपने शिष्य की ये स्थिति देखी तो भावुक हो उठे , उठाकर अपने शिष्य अवध किशोर दास जी को अपनी गोद में रख लिया था । भक्त जन ये दृश्य देखकर जयजयकार कर उठे थे ।

शेष प्रसंग कल –

Hari sharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (074)


सुंदर कथा 52 (श्री भक्तमाल – श्री रासिकमुरारी जी )

पूज्यपाद श्री गणेशदास भक्तमाली जी की टीका गीत प्रेस अंक ,श्री मन् मध्वगौड़ेश्वर जगद्गुरु श्यामानंद द्वारका पीठ का साहित्य , श्री रासिकानंद प्रभु के वंशज गोपिवल्लभपुर के आशीर्वचन और कृपाप्रसाद से प्रस्तुत चरित्र ।

जन्म और बाल्यकाल :

श्री रासिकमुरारि जी का जन्म उडीसा मल्लभूमि में रोहिणीनगर में शक सं १५१२ में कार्तिकशुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल की मंगल वेला में हुआ था । इनके पिता श्री अच्युत पट्टनायक जमींदार होते हुए भी बड़े भगवद्भक्त थे तथा माता भवानीदेवी पतिव्रता सद्गृहिणी थीं । इनका जी का नामकरण करते समय पण्डितो ने ज्योतिष गणना के आधारपर इनका नाम रसिक रखा और महापुरूष के लक्षण बताते हुए कहा की यह बालक महान संत होगा । इनके पिताजी बालक का नाम मुरारी रखना चाहते थे और पंडितो ने नाम रखवाया रसिक अत: दोनों नाम मिलाकर इनका नाम रासिकमुरारी रखा गया ।

अन्नप्राशन के अवसरपर प्रवृत्ति-परीक्षण हेतु हमारे संस्कृति में कुछ चीज़े रखी जाती है और बालक को उन चीजो में से एक को चुनने के लिए छोड़ दिया जाता है ।श्री रासिकमुरारी जी ने अपना हाथ ग्रन्थरत्न श्रीमद्भागवत पर रख दिया । उसी समय उपस्थित जनों और कुटुम्बियों को यह दृढ निश्चय हो गया कि यह बालक परमभागवत और महान् भगवद्भक्त होगा । बाल्यकाल से ही इनका सन्तो के प्रति सहज आकर्षण था ।

संत विचरण करते हुए गाँव में आते थे और जय जगदीश की ध्वनि करते थे , यह ध्वनि सुनते ही श्री रासिकमुरारि जी अपने नन्हें नन्हें हाथोमे जो कुछ मिलता भरकर लाते और संतो को भिक्षा देते । एक बार श्री रासिकमुरारि जी के यहां श्रीमद् भागवत का सप्ताह पाठ चल रहा था, जब उसमें गोपीगीत का प्रसंग अया तो श्री रासिकमुरारी जी मूर्छित हो गये । श्रीमद्भागवत ग्रन्थपर इनका विशेष अनुराग था ।

श्री गुरुदेव भगवान् की कृपा:

गौड़ीय संप्रदाय में प्रकट हुए महान संत श्री श्यामानंद प्रभु ,श्री रासिकमुरारि जी के गुरुदेव थे ।श्री रसिक मुरारी जी सद्गुरुदेव की प्राप्ति के लिए व्याकुल रहा करते थे जो उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में निर्देश दे सके । एक दिन वे घंटाशीला में एक निर्जन स्थान में बैठकर ध्यान में मग्न थे उसी समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी – हे मुरारी, तुम चिंता मत करो, तुम्हे श्री श्यामानंद जी के चरणों की प्राप्ति होगी , वे ही तुम्हारे श्री गुरुदेव है । तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगे । उनके श्री चरणों में आश्रित होकर तुम कृतार्थ हो जाओगे ।

आकाशवाणी सुनने के बाद श्री रसिक मुरारी जी परम उत्साह और आनंद के साथ ‘श्री श्यामानंद’ प्रभु के नाम का जप करते रहते । श्री श्यामानंद प्रभु के दर्शनों के लिए व्याकुल श्री मुरारी दिन रात क्रंदन करते तड़पते रहते थे। कुछ दिनों बाद उनकी हृदय की तड़प देखकर रात्रि के अंतिम प्रहर में श्री श्यामानंद प्रभु ने स्वप्न में उन्हें दर्शन देते हुए कहा – अब और लम्बे समय तक चिंता मत करो, प्रात:काल ही तुम्हे मेरे दर्शन होंगे |

प्रात:काल के समय श्री रसिकमुरारी प्रभु कातरता से देख रहे थे, उसी समय उन्हें श्री श्यामानंद प्रभु मुस्कराते हुए श्री किशोर दास आदि भक्तों से घिरे हुए श्री नित्यानंद और श्री चैतन्य प्रभु के नामों का उच्चारण करते हुए उनकी और आते दिखे । बहुत दिनों से जिन गुरूजी के लिए श्री रसिकमुरारी तड़प रहे थे, आज उन गुरूदेव के साक्षात् दर्शन प्राप्त कर वे उनके चरणों में गिर पड़े ।

श्री श्यामानंद प्रभु जी ने उन्हें उठाया और आलिंगन कर उन्हें श्री महामंत्र दीक्षा प्रदान की । श्री श्यामानंद जी से ही रासिकमुरारी जी को व्रजतत्व और सम्प्रदाय रहस्य का ज्ञान हुआ । श्रीगुरुदेव जी के साथ आपने व्रजके तीर्थो की यात्राकर उनके तात्विक दर्शन किये । तत्पश्चात उन्ही के साथ आप उत्कल देश चले गये, वहाँ अनेक विमुखो को भक्त बनाया और अन्तिम समयतक भगवान् श्री जगन्नाथ जी की सेवा में रत रहे ।

विलक्षण संत सेवा :

श्री रसिकमुरारी जी बड़े बृहद् रूप से सन्त सेवा करते थे ।इनकी सेवा की पद्धति कुछ विलक्षण ही थी, वह यह की सन्तो के चरणोदक से भरे हुए मटके घरपर धरे रहते थे ।श्री रासिकमुरारि जी उसीको प्रणाम करते, उसीकी पूजा करते और उसी का हृदय में ध्यान धरते थे । इनके यहां जो भी सन्त वैष्णव आते, उन्हें अपार सुख देते थे ।यह बड़े समारोह से श्री गुरुउत्सव मनाया करते थे । उसमें पूँरे दिन कीर्तन सत्संग, भोज भण्डारे होते रहते थे, जिससे सब लोग बहुत सुख पाते थे । यह उत्सव बारह दिन तक लगातार चलता रहता था । बारहों दिनतक भक्तो की भीड़ लगी रहती थी, जो देखने में अत्यन्त ही प्रिय लगती थी ।

एकदिन श्रीरसिकमुरारी जी के यहाँ भण्डारे में बहुत से सन्त प्रसाद पा रहे थे । इन्होंने एक शिष्य का संतो के प्रति हृदय का भाव जानने के लिये उसे आज्ञा देकर कहा कि जाकर संतो के चरणामृत अच्छी प्रकार से ले आओ । उसने शिष्य ने कुछ देर बाद आकर कहा कि सब संतो का चरणामृत वह ले आया है । श्रीरसिकमुसरी जी ने चरणामृत पान किया और कहा – क्या कारण है कि चरणामृत में पहले जैसा स्वाद नहीं आ रहा है?

श्री रासिकमुरारि जी ने निश्चय करके जान लिया कि यह शिष्य किसी सन्त का चरणामृत लेने से छोड आया है, अत्त: जोर देकर पूछा कि -सही कहो तुमने किसी संत को छोडा तो नहीं है ? तब शिष्य ने कहा कि एक कोढ़ी सन्त थे, मैने उनका चरणामृत नहीं लिया । श्री रासिकमुरारि जी स्वयं उन संत को ढूंढने निकले और कुछ ही दूर वृक्ष की छाया में एक कोढ़ी संत को बैठे देखा । कोढ़ी होने पर भी उनके मुख पर अद्भुत तेज था । श्री रासिकमुरारी जी ने संत के चरणों में दण्डवत् प्रणाम् किया और क्षमा याचना करने लगे । बार बार दण्डवत् करते ,क्षमा याचना करते और कहते – हे संत भगवान् ! आप कृपा करे ,मै आपकी शरण में हूँ ।

जिन कोढ़ी संत के समीप जाने से भी लोग कतराते उनके प्रति ऐसा भाव देखकर वे संत बहुत प्रसन्न हुए और संत ने श्री रासिकमुरारी जी के मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा – बेटा ! संतो के चरणों में तुम्हारी अद्भुत भक्ति है , तुम पर भगवान् की महान कृपा है । संत ने प्रसन्न होकर श्री रासिकमुरारी जी को बहुत शुभ आशीर्वाद दिए । इसके बाद श्री रासिकमुरारी जी ने संत का चरणामृत उतारकर उसे स्वयं पान किया और दूसरो को भी पान करवाया । श्री रासिकमुरारी जी को वह चरणामृत पाने से अपार सुख मिला । श्री रासिकमुरारि जी के नेत्रो से प्रेमाश्रु बह चले ।

संतो के प्रति अपार श्रद्धा और प्रेम:

एक बार भक्तराज श्री रासिकमुरारि जी राजाओंके समाज में विराजमान होकर ज्ञाणोपदेश कर रहे थे । सभी लोग बड़े ही मनोयोगपूर्व इनका उपदेश श्रवण कर रहे थे, वही पासमें ही एक स्थलपर सब सन्त बैठे भोजन कर रहे थे। उन्हीं सन्तों मे एक सन्त अपने अतिरिक्त अपने सोंटेका भी दूसरा पारस मांग रहे थे । (*सोंटे का अर्थ है मोटी छड़ि अथवा लठ , पारस अर्थात खाना डिब्बे में बाँध कर अथवा कमंडल में ले जाना । )संत कहते है हम यहाँ पंगत में बैठ कर प्रसाद नहीं खाएंगे हम तो अपनी कुटीया में ले जाकर अपने ठाकुर जी को भोग लगाकर पाएंगे । ऊपर से हमें शाम में अपनी मोटी लठ (सोंटे )से भांग घोटने की आदत है , भांग खाने के बाद भूख अधिक लगती है अतः हमें एक अधिक पारस बाँध कर दे दो, हमारा शाम का भोजन भी अच्छा हो जायेगा । परंतु रसोइया उन्हें सोंटे का पारस नहीं दे रहा था । पारस न देनेपर वह संत शोरगुल मचा रहे थे ।

अन्ततोगत्वा उन संत ने अपनी परोसी हुई पत्तल उठायी और गोस्वामी श्री रसिकमुरारि जी के ऊपर डाल दी और साथ ही साथ बहुतेरी गालियां भी दीं । प्रवचन करते समय मुँह खुला होने के कारण एक लड्डू श्री रासिकमुरारि जी के मुखमें चला गया । श्री रासिकमुरारि जी शान्तिपूर्वक गालियां सुनते रहे । फिर उन्होने अवसर देखकर कहा – अहो ! मैं सन्तो की सीथ-प्रसादी से विमुख था तो संत ने कृपा करके स्वयं लाकर मेरे मुख मे ही डाल दिया । तत्पश्चात् आपने उस सेवक रसोईया को कहा कि तुम्हारा सन्त सेवा में भाव नहीं है, सेवा से अलग कर दिया और सोंटे का पारस दिलाया ।

संत और हुक्का :

एक दिनकी बात है श्री रसिकमुरारि जी के बाग में सन्तो की जमात टिकी हुई थी । श्री रासिकमुरारि जी सन्तो का दर्शन करने चले । उस समय एक सन्त हुक्का पी रहे थे । उन्होने रासिकमुरारि जी को आते हुए देखा तो हुक्के को कहीं छिपा दिया । अपने आनेसे सन्तो को संकोच हुआ यह जानकर इसके प्रायश्चित्त के लिये रासिकमुरारि जी ने उन साधुका सम्मान करना चाहा । फिर तो उसी क्षण चक्कर खाकर पेट पकडकर बैठ गये और बोले – मेरे पेटमें बड़े जोर का दर्द हो रहा है, देखो तो किसी संत के पास हुक्का रखा है क्या ?

श्री रासिकमुरारि जी के एक सेवक ने सन्तो की जमात में घूमकर सबको पूछा कि किसी के पास हुक्का तम्बाकू है ? यह सुनकर हुक्का पीनेवाले सन्त को बडा उल्लास हुआ और उन्होने तत्काल ही हुक्का लाकर सामने कर दिया । रासिकमुरारि जी ने झूठ- मूठ की लम्बी श्वास खींचकर हुक्का पीने का स्वांग किया और तुरंत स्वस्थ हो गये । इस प्रकार इन्होंने झूठे स्वांग से सन्त की शंका और दुख को दूर कर दिया और संत का अपमान भी नहीं किया । बाद में उन संत को समझाया की तम्बाखू शास्त्रो में वर्जित है इसको कृपा कर के त्याग दे तो कृपा होगी । इस तरह संत ने तम्बाखू हुक्का त्याग दिया ।

श्री रसिक जी की गुरु भक्ति और गुरुआज्ञा का अक्षरशः पालन :

श्री रसिकमुरारि जी के गुरूदेव श्री श्यामानंद प्रभु ‘धारेन्दा’ नामक स्थान मे रहते थे । उनके स्थान से सम्बन्धित कुछ जमीन बानपुर नामक ग्राम मे थी । वहां खेती होती थी । जो अन्न उत्पन्न होता, वह साधुुसेवा निमित्त धारेन्दा स्थानपर आता । श्यामानंद जी के सत्संग से प्रभावित होकर यह जमीन श्यामानंद जी को एक बुढ़े जमींदार ने दान में दी थी ।

श्यामानंद जी विरक्त महात्मा थे, वे किसीसे कुछ नही लेते थे इसलिये उस जमींदार भक्त ने श्यामानंद प्रभु के चरणों में हाथ जोड़कर प्रार्थना की- भगवन! आप जैसे सच्चे सन्तों का सत्संग बड़े भाग्य से ही प्राप्त होता है। मेरे अति सौभाग्य हैं जो आपके पवित्र सत्संग का अमृत अन्तिम अवस्था में प्राप्त हो गया। अब मैं यह चाहता हूँ कि आप यहां सदैव के लिये निवास स्थान बनाकर अपने पारमार्थिक सत्संग से जीवों का कल्याण करें। मैं यह जानता हूँ कि आप जैसे सच्चे सन्तों को किसी बात की परवाह नहीं होती, न ही किसी वस्तु की इच्छा अथवा चाह होती है।

मेरे पास काफी भूमि है, इस पर आप एक स्थान स्थापित कर दें तो यह भूमि भी आपके पवित्र चरणों से सफल हो जायेगी और मैं भी शेष समय आपके चरणों की सेवा में व्यतीत करके सच्चा लाभ प्राप्त कर लूंगा, जिससे मेरा जीवन गुरु-कृपा से धन्य हो जायेगा। स्वामी श्यामानन्द जी ने ज़मींदार भक्त की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। रसिक मुरारी जी के गांव से यह स्थान आठ-नौ मील की दूरी पर था। रसिक मुरारी जी भी प्रायः वहां जाया करते और कुछ दिनों तक गुरु-चरणों में रहकर पारमार्थिक लाभ प्राप्त करते।

कथा का शेष भाग कल की कड़ी (०75) में देखें
[19/01, 19:55] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 17 : श्रद्धा के विभाग
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श्लोक 17.21
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यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः |

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् || २१ |

यत् – जो; तु – लेकिन; प्रति-उपकार-अर्थम् – बदले में पाने के उद्देशय से; फलम् – फल को; उद्दिश्य – इच्छा करके; वा – अथवा; पुनः – फिर; दीयते – दिया जाता है; च – भी; परिक्लिष्टम् – पश्चाताप के साथ; तत् – उस; दानम् – दान को; राजसम् – रजोगुणी; स्मृतम् – माना जाता है ।

भावार्थ
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किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छा पूर्वक किया जाता है, वह रजो गुणी (राजस) कहलाता है ।

तात्पर्य
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दान कभी स्वर्ग जाने के लिए दिया जाता है, तो कभी अत्यन्त कष्ट से तथा कभी इस पश्चाताप के साथ कि “मैंने इतना व्यय इस तरह क्यों किया?” कभी-कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दिया जाता है | ऐसे दान रजोगुण में दिये गये माने जाते हैं |

ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं, जो उन संस्थाओं को दान देते हैं, जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्म रहता है | वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते | केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है |

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