Explore

Search

March 12, 2025 8:03 pm

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

 श्रीसीताराम शरणम् मम [108-1],“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-16”,श्री भक्तमाल (116) तथा श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏

मैंजनकनंदिनी..1️⃣0️⃣8️⃣
भाग 1

( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

उद्भवस्थिति संहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करी सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।

मैं वैदेही !

मत सोचिये रावण के बारे में हे रामबल्लभा ! आप ही हैं जो इस रावण के त्रास से इस सम्पूर्ण सृष्टि को बचानें के लिए आई हैं !

हे रामप्रिया ! ये रावण अनन्तकाल तक सम्पूर्ण सृष्टि को दुःखी बनाता रहता …..विधाता ब्रह्मा का वर जो इसे प्राप्त था ……पर आप के कारण अब इस सृष्टि की आस जगी है…….त्रिजटा बोले जा रही थी ।

मेरे पिता विभीषण कहते हैं ……..रावण का वध तो केवल पुरुषोत्तम श्रीहरि ही कर सकते हैं ………और रावण के वध की भूमिका भी श्रीहरि नें लिख दी है ।

तब ही लिख दी थी ………जब ऋषियों का रक्त रावण नें “कर” के रूप में वसूलना शुरू कर दिया था – ऋषियों से ।

ओह ! मुझे पीड़ा हुयी ।

और उन्हीं ऋषियों के रक्त से आपका जन्म हुआ………जो रावण के मृत्यु की भूमिका बनाता है ………त्रिजटा कुछ रहस्यमयी लग रही थी आज …..और इसकी बातें भी …….मैने प्रश्नवाचक दृष्टि से त्रिजटा को देखा था …….और मैने उसे कहा भी …….मैं कुछ नही बोल रही ….तेरी हर बात सुन रही हूँ …… तो तू कुछ भी बोलेगी त्रिजटा !

नही, हे किशोरी ! आप ब्रह्म की आद्यशक्ति हो ……

हे वैदेही !

आप वो शक्ति हो जिनसे ज्ञान, क्रिया और द्रव्य शक्ति का प्रदुर्भाव होता है ……………

हे सीते ! आप के बिना ब्रह्मराम भी कुछ नही कर सकते ….।

रावण का उद्धार करना आवश्यक है……………नही तो पृथ्वी में त्राहि त्राहि मच गया है ………….तब भूमिका ऐसी बनी कि आपको अपनें साकेत धाम से यहाँ आना ही पड़ा ……………….

हे रामहृदयेश्वरी ! वैसे तो आपका न जन्म है …..न मृत्यु ………..पर जब ब्रह्म को अपनें इस धरा धाम पर विहार करना होता है …….लीला करनी होती है ……तब आपका भी अवतरण होता है ………..क्यों की शक्ति के बिना शक्तिमान कैसा ?

मैं त्रिजटा की बातें सुन रही थी…….स्मित हास्य मेरे मुख मण्डल में था ।

हे अवधविहारिणी ! मेरे पिता विभीषण कहते हैं ……………आप शक्ति हो ब्रह्म की ……आप किसी के गर्भ में वास नही करती ………..इसलिये आपका जन्म एक घट से हुआ है ………….और उस घट को पृथ्वी में दवा दिया था ……. स्वयं रावण नें ।

हे वैदेही ! उस घट का मुँह जब खुलेगा उसी दिन से रावण के मृत्यु की घड़ी बजनी शुरू हो जायेगी ………ये श्राप था ऋषि अगत्स्य का ….रावण को ……..और आपको पता है ? उस घट में क्या था ? अगस्त्य जैसे महानभक्त महान ऋषियों का रक्त था …………….

त्रिजटा नें ये सब कहा ………………मेरी प्रार्थना की …………..मेरे सामनें प्रणाम की मुद्रा में खड़ी भी हो गयी थी ।

मैं उसे देखती रही ……………………………

कुछ समय के बाद वो शान्त होकर बैठ गयी थी ……….

मैनें ही उससे पूछा था ……कि वो ऋषियों का श्राप और घड़ा ………मुझे बता त्रिजटा ? वो इतिहास मुझे सुननी है ! ……….

आज पता नही त्रिजटा को क्या हो गया है …………….वो बारबार मुझे प्रणाम किये जा रही है ………मैने जब उसे शान्त किया तब जाकर वो मुझे ये घटना बतानें लगी थी ।

“दण्डकारण्य मेरा हुआ”

मेरे ससुर जी “मय” नें अपनी मन्दोदरी पुत्री को मुझे क्या दिया साथ में ये दण्डकारण्य भी दे दिया ।

रावण बहुत खुश था वो बारम्बार अट्हास किये जा रहा था ।

पर हे लंकापति ! दण्डकारण्य में तो ऋषि मुनि तप करते हैं ।

रावण के दूत शुक सारक नें कहा था ……।

भगा दो उन ऋषियों को !……..और बोलो कि वह क्षेत्र अब राक्षसों की क्रीड़ा भूमि बनेगी !…….रावण का अहंकार चरम पर पहुँचा हुआ था ।

पर वो ऋषि मुनि वहाँ से हटेंगे नही….रावण के दूत नें ये भी स्पष्ट कहा ।

अगर वो लोग वहाँ रहना चाहते हैं ….तो “कर” दें ………प्रजा क्या अपनें स्वामी राजा को “कर” नही देती ? रावण के विनाश का समय आगया था ………..त्रिजटा नें मुझे बताया ।

क्रमशः….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा- 16”

( बृजराज चले मथुरा की ओर..)


मैं मधुमंगल …….

रात भर हम सब नाचते गाते रहे …पतौ ई नाँय चल्यौ कि कब रात बीत गयी …वैसे अभी दो घड़ी रात्रि बाँकी ही …लेकिन त भै बृजराज नन्दबाबा ने मथुरा जायवे की तैयारी शुरू कर दई ।

बैल गाड़ी सज रही हैं …और एक बैल गाड़ी नही हैं …कम से कम पचास ते तौ अधिक ही होंगी । सबमें माखन की मटकी , घी, दूध, दही ये सब भर दिये हे और दो चार ऐसी बैल गाड़ी हूँ हतीं…..जामें मणि, माणिक्य , हीरे मोती सब धर दियौ हतौ ।

मैं देख रो बृजराज बाबा कूँ …..तो बिन्ने भी मेरी ओर देख के कह्यो ….”हम मथुरा जा रहे हैं …हमारौ राजा कंस हूँ प्रसन्न रहे …मैं कछु कहतौ बाते पहले बाबा ही बोले …मधुमंगल ! मनुष्य के जीवन में जब प्रसन्नता आवे न …तो मनुष्य कौ कर्तव्य है …बा प्रसन्नता कूँ सबमें बाँटनौं …..फिर कंस तौ राजा है …हमारौ राजा है …हमारी खुशी में बाकौ हूँ अधिकार है …..है ना ? मोते ही बृजराज पूछवे लगे ।

मैं तो अपने बृजराज बाबा कूँ देखूँ तो गदगद है जाऊँ । काहू के प्रति बुरी भावना बाबा की है ही नही ….वैसे बुरे लोगन के प्रति बुरी भावना हौनौ गलत तो नही है ….कंस तो बुरो है …लेकिन बृजराज …कंस जैसेन के प्रति भी बुरी भावना नही रखें हैं । फिर मन में आवै मेरे, मेरे कन्हैया के पिता हैं …महान हैं, नही तौ कन्हैया के पिता थोड़े ही बन पाते ।

तैयारी करते करते ब्रह्म महूरत कौ समय हूँ बीत गयौ …….

वैसे बाबा सोच रहे मथुरा में ही जायके यमुना जी में नहाऊँगौ …लेकिन अब बिना नहाए यात्रा में निकलनौ उचित नही है …जे सोच के बृजराज यमुना जी गये …स्नान करके तुरन्त आए …..भगवान नारायण की सेवा करी …मस्तक में तिलक लगायौ ….फिर बाहर आए ।

मैं तौ कन्हैया के पास खड्यो हो ….बृजराज बाबा आये ….मैया बृजरानी पूछ रहीं ….कब तक आप आजाओगे मथुरा ते ? बृजराज बोले ….सन्ध्या तक आही जाऊँगौ । मोकूँ आज डर लग रह्यो है ….बृजरानी कह रहीं । चौं? बृजरानी बोलीं …पतौ नही । बृजराज अपने लाला कूँ देखते रहे …..फिर बोले ….लाला कूँ देखके कहीं जायवे की इच्छा ही नही करे । जैसे ही बृजराज ने जे कहके लाला के कपोलन कूँ स्पर्श कीयौ …..लाला कन्हैया तौ जग गयौ । बृजराज मथुरा जाएवे लग रहे ….लाला कूँ जग गयौ देखके वे फिर रुक गए ….और अपलक नेत्रन ते लाला कूँ निहारवे लगे ।

तब मैंने नन्हे कन्हैया ते कही ……कन्हैया ! ओ साँवरे ! मेरी आवाज सुनके बु मेरी ओर देखवे लग्यो …हाथ पामन्ने फेंकवे लग्यो ।

कन्हैया ! कन्हैया ! मैं फिर बोलो …”देख ! तेरे बाबा मथुरा जाय रहे हैं …..तोते आज्ञा लेवे कूँ आए हैं”…….मेरी बातन कूँ सुनके सब हँसवे लगे ….मधुमंगल ! तेरे बातन्ने समझ जाये कन्हैया …मोते मैया कह रही है । देख ! कन्हैया ! आज्ञा दे बाबा कूँ ! कह दे जाओ और जल्दी आना । ओह ! मेरो जे कहनौ हो….कि कन्हैया के मुख पे अद्भुत बालभंगिमा की एक चंचलता भरी हंसी खेल गयी …..बाही भंगिमा के आवेश ते कन्हैया के अरुण अधरन में मादक मुस्कान स्थिर सी है गयी ही ….अरे ! बृजराज कौ तौ त्राटक ही लग गयौ ….बु भूल गये कि मोकूँ मथुरा हूँ जानौं है …..सब कुछ स्तब्ध सो है गयो हो । तभी …..

बृजराज बाबा ! मथुरा चलनौं नही है का ?

बाहर बैल गाड़ी वारे चिल्लाएवे लगे ….तब बृजराज बाबा कूँ कछु होश आयौ ….बिन्ने मन कूँ दृढ़ करके अपने बालक कन्हैया के बा चंचल हंसीं कूँ …..हृदय में बसायके ….बृजराज बाबा चले गए मथुरा ।

लेकिन कन्हैया के जन्म कौ उत्सव तौ चल ही रह्यो है ………

क्रमशः…..

Hari sharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (116)


सुंदर कथा ७३ (श्री भक्तमाल – श्री गोरा कुम्हार जी ) –भाग 04

पूज्यपाद संत श्री महीपति महाराज , भीमास्वामी रामदासी , श्री नामदेव गाथा के आधार पर और श्री वारकरी संतो के कृपाप्रसाद से प्रस्तुत भाव ।

श्री गोरा जी द्वारा अपने हाथ कटवा लेना और स्वयं भगवान् लक्ष्मी और गरुड़ का उनके घर नौकरी करना :

पास ही में धारदार नुकीले धारदार फर्श बनाने के पत्थर पड़े थे ,वही जाकर रगड़ते हुए गोरा जी ने अपने दोनों हाथ कटवा दिए । हाथ चले जाने के कारण गोरा जी का काम धंदा बंद हो गया । जिन गोरा जी के घर आया हुआ कुत्ता भी विन्मुख नहीं जाता था ,वे आज पत्नियो सहित उपवास कर रहे है । भगवान् का नाम सतत जपते रहते है और रूपध्यान करते रहते है । कभी किसी से कुछ मांगने ना स्वयं जाते और ना पत्नियों को जाने देते । पेट में अन्न ना जाने से गिरा जी शरीर निस्तेज होने लगा था । भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण से गोरा जी की ऐसी विपन्न अवस्था देखी नहीं जा रही थी । गोरा जी ने कुछ खाया नहीं इसीलिए कृष्ण भी नहीं कहते । रुक्मिणी जी पूछती है पर भगवान् कुछ बोलते नहीं है । गोरोबा शांत परंतु पंढरीनाथ अशांत।

कुछ दिन ऐसे ही बीते तब भगवान् से रुक्मिणी माता ने हठ करके पूछ लिया । भगवान् ने सब वृत्तांत कह सुनाया और कहने लगे की गोरा जी की यह स्थिति मेरे कारण हुई है , पत्नी यही मेरे नाम की शपथ यही नहीं दी होती तो यह सब नहीं होता । गोरा जी मेरी शपथ के कारण बंध गए है। जब कई दिन तक गोरा जी भूखे ही रह गए तब भगवान् ने अंततः गरुड़ जी को बुलाया और रुक्मिणी माता सहित वे गोरा जी के घर को गए । भगवान् ने कमलनाथ कुम्हार का,रुक्मिणी माता ने कुम्हारन और गरुड़ जी ने गधे का रूप धारण कर लिया । वे तीनो गोरा जी के घरपर आये और कहने लगे – क्या यही गोरा कुम्हार का घर है ? गोरा जी ने कहा – हाँ ! आप लोग कौन है और किस काम से आये है ? भगवान् रुपी कुम्हार कहने लगे – मै विठु कुम्हार और यह मेरी पत्नी , हम पंढरपूर से आये है और काम ढूढ़ रहे है । आप कुम्हार है , आपके यहाँ कुम्हारी का कोई काम हो तो हम करने को तैयार है ।

गोरा जी ने कहा – आप यहां रह सकते है और आपके लिए मेरे पास कुम्हारी का काम भी है परंतु देने के लिए पैसे नहीं है , मै आपको पगार नहीं दे सकता । विठु कुम्हार बोला -सुना है आप बहुत सुंदर कीर्तन सेवा करते है ,आप हमें कीर्तन सुनाया करना और जो दो समय का भोजन प्रसाद दे देना । गोरा जी ने उन सबको अपने घरपर रख लिया । गोरा जी विठु कुम्हार को कोई काम नहीं बताते , वे स्वयं सारा काम उत्तम रीति से करता है । प्रातःकाल उठकर गधे के ओवर लादकर मिट्टी लेकर आता और एक से बढ़कर एक बर्तन बनाया करता । रुक्मिणी जी भी उनकी मदत करती और बर्तनों पर सुंदर नक्षी कला बनती । गोरा जी उनके लिए कीर्तन सुनाया करते थे । धीरे धीरे गोरा जी का धंदा बढ़ने लगा , सब जगह यह बात प्रसिद्ध हो गयी की गोरा जी के यहां काम करने वाला विठु कुम्हार बड़े सुंदर आकर और उत्तम मिट्टी के बर्तन बनाता है ।

जो भगवान् विविध प्रकार के मनुष्य ,प्राणी ,कीटक निर्माण करते है और उनमे चैतन्य भरकर पृथ्वी चलते है ,उनके लिए विविध आकार के मिट्टी के बर्तन बनाना कौनसी बड़ी बात है ? गोराई काका का घर धन -धान्य से संपन्न हो गया । गरीबो को हर तरह से मदत होने लगी , संतो की सेवा होने लगी । आगे कुछ दिन बाद आषाढ़ी एकादशी आने वाली थी । निवृत्ती, ज्ञानदेव ,सोपान ,मुक्ताई आदि अनेक संत पंढरपुर जाने के लिए निकले थे । वे जब गोरा जी के गाँव तेरढोकी के समीप पहुंचे तब गाँव के लोगो द्वारा घटित सब प्रकार समझ में आया । लोगो ने बताया की पंढरपूर का कोई विठु कुम्हार गोराई काका के लिए बर्तन बनाता है , बहुत होशियार और मेहनती है वह । गोराई काका को उसने बहुत सा धन कमाकर दिया । गोराई काका उसे पगार भी नहीं देते ,कीर्तन के बदले वह सब काम कर दिया करता है ।

सर्वज्ञ ज्ञानदेव जी ने मन से सब सत्य जान लिया । वे कहने लगे – संसार में ऐसा कौन है बिन पगार के केवल कीर्तन के बदले दसूरे के यहां नौकरी करता है ? ऐसे तो भतवत्सल भगवान् ही है । चलो ,चलो ,गोराई काका के घर चलकर देखते है उस विठु कुम्हार को । इधर भगवान् श्री कृष्ण रुक्मिणी जी से बोले – आषाढ़ी एकदशी निकट है ,पंढरपुर में सब भक्त पधारेंगे , हमें चलना चाहिए । इस बहाने से भगवान् रुक्मिणी और गरुड़ सहित वहाँ से अंतर्धान हो गए । संत जान कीर्तन करते हुए गोरा जी के घर के निकट आया । हरिनाम सुनकर गोरा जी बहार गए तो संतो को देखकर एक अल्लड बालक की भाँती दौड़े । आखों में अश्रुओं की धार है , आलिंगन देने को हाथ तो थे नहीं । प्रेम भरे अंतःकरण से श्री निवृत्तिनाथ ,श्री ज्ञानदेव जी की छाती से छाती लगाकर आवक वाणी से अपनी असमर्थता व्यक्त की , मुक्ताबाई ने भी उनके कंधे से सर लगा दिया ।

गोरा जी ने सबको घर में लिवा लाये ,पत्नी ने बैठे के लिए आसान बिछाये , हाथ – पैर धोने के लिए पानी दिया । ज्ञानदेव जी से और अधिक रहा नहीं गया ,उन्होंने कहा – बुलाओ बुलाओ ! उस विठु को बुलाओ । देखेने तो दो हमारे गोराई काका के विठु कुम्हार को जिसने कीर्तन का पगार लेकर मिट्टी के बर्तन बनाये । गोरा जी की पत्नी विठु को बुलाने अंदर गयी ;परंतु व्यर्थ ! तबतक तो यह माखन चोर अपनी पत्नीसह पसार हो चूका था । बहुत ढूंढा , विविध दिशाओ में आदमी भेजे परंतु ना विठु का पता चला ,ना पत्नी का और ना उसके गधे का ।गोरा जी के आखों से अश्रुओं की धार बहने लगी , मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे । उसी समय श्री ज्ञानदेव जी बोले – गोराई काका ! वह विठु कुम्हार नहीं अपितु पंढरिनाथ श्रीकृष्ण ही आपके प्रेम में बंधकर यहां रहते थे और सब काम करते थे ,धन्य है धन्य है गोराई काका आपकी भक्ति धन्य है ।

श्री गोरा जी के हाथ पूर्ववत होना और बालक का जीवित होना :

श्री ज्ञानदेव जी ने गोराई काका की पत्नी से भगवान् द्वारा बनाये बर्तन दिखाने को कहा । जब ज्ञानदेव जी ने उन बर्तनों को देखा तो उन सब से दिव्य तेज निकल रहा था और जब एक बर्तन उठाकर पास में लिया तो उसमे से विट्ठल विट्ठल ऐसी ध्वनि निकल रही थी ।यह लीला देख कर सब संत गोराई काका की जय जय कार करने लगे । अब आषाढ़ी एकादशी का दिन आया ,सब संत मंडली पंढरपुर दर्शन को पधारी । साथ में गोरा जी और उनकी दोनों पत्नियां भी थी ।पंढरपुर में भगवान् के दर्शन किये और सबने नामदेव जी से भेट की । नामदेव गोराई काका का शरीर देख कर कुछ बोल नहीं पाये । एकादशी का पवन अवसर था , नामदेव जी को गोराई काका ने कीर्तन सुनाने को कहा परंतु नामदेव जी गोराई काका की ऐसी दशा देखकर उदास थे । सब संतो के कहने पर नामदेव ने कीर्तन आरम्भ किया ।

विट्ठल विट्ठल पांडुरंग , जय जय रामकृष्ण हरी की ध्वनि पूरे पंढरपुर में होने लगी । बहुत से भीड़ एकत्रित हो गयी , टाल ,मृदंग आदि वद्य बजने लगे । नामदेव जी हाथ ऊँचे करके कीर्तन करने लगे । सारा संत समुदाय और भक्तजन भी हाथ ऊँचे करके तालियां बजा रहे थे । गोराई काका आनंद अतिरेक में नृत्य करने लगे और देखते देखते चमत्कार हो गया । गोराई काका के के हाथ निकल आये , उन्होंने भी अपने हाथ ऊपर उठा लिए और तालियां बजाकर झूमने लगे । सभी संत इस चमत्कार को देखकर प्रसन्न हुए ,स्वयं भगवान् विट्ठल भी वहाँ कीर्तन में नृत्य कर रहे थे ।गोरा जी की दोनों पत्नियां संती और रामी भी यह चमत्कार देखकर बहुत प्रसन्न हुए । दोनों विट्ठल विट्ठल पांडुरंग गाने लगी ।

कीर्तन समाप्त होते ही दसूरा चमत्कार हुआ , गोरा जी की पत्नी रामी ने अनुभव किया की उसके पैर के पास आकर कोई बालक माँ ! माँ ! कह रहा है । निचे देखा तो आश्चर्य ! यह तो उसका वही बालक था जो मिट्टी में दबकर मर गया था । भगवान् पांडुरंग भी बहुत प्रसन्न थे ,प्रसन्नता के कारण उनके आँख से अश्रु बाह रहे थे ।नामदेव की दासी संत जनाबाई भीड़ में खड़े भगवान् को आश्चर्य से देख रही थी ।भगवान् गोरा जी के सामने प्रकट हुए और उन्हें आलिंगन प्रदान किया । भगवान् ने कहा की मेरी शपथ में बंधकर तुमने दोनों पत्नियो का स्पर्श नहीं किया परंतु अब मै स्वयं कह रहा हूं की तुम अब किसी शपथ के बंधन में नहीं हो । तुम अपनी दोनों पत्नियो के साथ प्रेम से संसार में रहते हुए भजन में लगे रहो । उसके बाद अन्य संतो से भी भगवान् मिले और अंतर्धान हो गए ।


[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 18.39
🌹🌹🌹🌹

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः |

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् || ३९ ||

यत् – जो; अग्रे – प्रारम्भ में; अनुबन्धे – अन्त में; च – भी; सुखम् – सुख; मोहनम् – मोहमय; आत्मनः – अपना; निद्रा – नींद; आलस्य – आलस्य; प्रमाद – तथा मोह से; उत्थम्- उत्पन्न; तत् – वह; तामसम् – तामसी; उदाहृतम् – कहलाता है ।

भावार्थ
🌹🌹🌹
तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है ।

तात्पर्य
🌹🌹🌹
जो व्यक्ति आलस्य तथा निद्रा में ही सुखी रहता है, वह निश्चय ही तमोगुणी है । जिस व्यक्ति को इसका कोई अनुमान नहीं है कि किस प्रकार कर्म किया जाय और किस प्रकार नहीं, वह भी तमोगुणी है । तमोगुणी व्यक्ति के लिए सारी वस्तुएँ भ्रम (मोह) हैं । उसे न तो प्रारम्भ में सुख मिलता है, न अन्त में । रजोगुणी व्यक्ति के लिए प्रारम्भ में कुछ क्षणिक सुख और अन्त में दुख हो सकता है, लेकिन जो तमोगुणी है, उसे प्रारम्भ में तथा अन्त में दुख ही दुख मिलता है ।

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements