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March 12, 2025 3:52 am

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श्रीसीताराम बनशरणम् मम (109-1),“ श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ कीआत्मकथा-19″,[] श्री भक्तमाल (119) तथा श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏

मैंजनकनंदिनी..1️⃣0️⃣9️⃣
भाग 1
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ॥

वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥

जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |

मैं वैदेही !

पर ज्ञानियों के गुरु मिथिलापति विदेहराज की ये आशंका अकारण भी तो नही थी ……….महान सिद्ध ऋषियों के रक्त में एक बून्द भी जल का गिर जाए …….ऐसा साहस भला देवराज इन्द्र भी कैसे कर सकते थे ।

अकाल, जैसे मिथिला में अपना अड्डा ही बना चुका हो ……..और एक दो दिन की बात कहाँ थी …….. पूरे बारह वर्ष !

धरती पूरी तरह से शुष्क हो चुकी थी ………घास की कौन कहे …..वृक्ष भी पत्तों से रहित हो गए थे ………सरोवर के तल में दरारें दिखाई देंनें लगीं थीं…………प्रजा भाग रही थी अपनें प्राण बचानें के लिए ।

मुझ से क्या अपराध हो गया !

आज गुरु याज्ञवल्क्य जी के शरण में पहुँचे थे विदेह राज जनक ।

मुझ शासक का कौन सा ऐसा पाप है …….जिसके कारण प्रजा दुःख भोग रही है ………..रो पड़े थे विदेहराज ।

हे गुरुदेव ! कृपा करो ………चरण पकड़ लिए ।

आप अपनें प्रति अकारण आशंका करते हैं विदेह !

दो क्षण के लिये अपनी आँखें बन्द कीं योगेश्वर याज्ञवल्क्य जी नें, फिर आँखें खोलते हुए बोले – विदेहराज ! निमि वंश में पाप का लेश भी कभी नही आया………ये वंश निष्पाप है …………।

फिर आँखें बन्दकर के ध्यान करनें लगे थे याज्ञवल्क्य जी ……….

इस बार समय लग गया ध्यान में……..घड़ी भर आँखें बन्दकर बैठे रहे …….फिर आँखें खोल कर बोले – हे जनकराज ! परमसौभाग्य की प्राप्ति के लिये कुछ तप आवश्यक होते हैं ……………और ये सौभाग्य तुम्हारा ही नही ……..अपितु सम्पूर्ण सृष्टि का होगा ।

क्रमशः….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-19”

*( अन्नप्रास संस्कार और शकटासुर वध )*

मैं मधुमंगल ……

आज मेरे कन्हैया कौ अन्नप्रास संस्कार है …सब बड़े ही आनंदित हैं …लेकिन बृजराज बाबा ने छुपाय रखो है अपने आनन्द और उत्सव कूँ । कह रहे – वसुदेव ने बढ़िया बात बताई मथुरा में कि अपने पुत्र जन्म की बात कौ छिपाय रखो …नज़र लग जावे । बात तौ सही है …या लिए आज अन्नप्रास संस्कार कौ उत्सव हूँ बाबा छिपाव के करवे वारे है …लेकिन कन्हैया कौ उत्सव हूँ छुपे का ? गोकुल में पहले ही हल्ला है गयौ । और सब ग्वार बाल नाचते गाते भए नन्द आँगन में इकट्ठे है वे लगे । उत्सव और आनन्द या बृजवासिन कौ जीवन धन है ….इनकूँ उत्सव ते बड़ौ ही प्रेम है …आनन्द में तौ जे जीमें ही हैं ।

बृजराज बाबा सबन कूँ देखके हँसवे लगे ….लेकिन हँसते भए बृजवासी कह रहे …बाबा ! तोकुँ हम छोड़वे वारे नही हैं ….तेरे छोरा ने का जादू कर दियौ है , अब तौ लगे बस बाही कूँ देखते रहें …बृजराज बाबा संकोच करते हैं ….और उठकर उन सबका आदर करते हुए कहते हैं….तुम लोग भी मेरे अत्यन्त प्रिय हो ….तू झूठ बोले बाबा ! अगर हम प्रिय हैं तौ तैनैं हमकूँ निमन्त्रण चौं ना दियौ ? बृजवासी सहजता में बोले । बृजराज बाबा बोले …नही , ऐसी बात नही है ….तुम सब तौ जानौं …..कि वसुदेव कौ छोरा हूँ यहीं हैं ….और वसुदेव के छोरा के पीछे कंस लग्यो है …..या लिए पूतना जैसों संकट फिर नही आवे जे सोच के मैंने हल्ला नाँय माचयवे की सोची, और काहूँ कूँ निमन्त्रण हूँ नही दियौ ।

लेकिन बृजराज बाबा ! हम शान्ति ते बैठींगे …अब गोकुल की बात बाहर नही जावेगी । बृजराज बाबा जे सुनके अति प्रसन्न हे गये । बृजवासिन ते अब कह रहे हैं …तुम आशीर्वाद दो मेरे लाला कूँ …कि कोई अलाय बलाय अब याकूँ नही लगे ।

मैं देख रह्यो हूँ …त भै ऋषि शांडिल्य पधारे हैं …बृजराज ने उनकूँ प्रणाम कियौ है । ऋषि के पीछे कई ब्राह्मण हे…..वो सब शंख ध्वनि करवे लगे नन्द आँगन में पहुँचते ही ।

अब तौ वेणु , भेरी, वीणा, मृदंग, झाँझ सब बजवे लगे हे । मंगल ध्वनियाँ गोपियन ने हूँ आरम्भ कर दियौ हो ।

ब्राह्मणन ने हाथ में दूर्वा , हल्दी , चन्दन और धान आदि धर के ….स्वस्तिवाचन करते भए चारों ओर छींटवे लगे हे …..नमः शब्द , जय शब्द कौ बारम्बार उच्चारण कर रहे ।

अब तौ सुन्दर सुन्दर सजी गोपियन ने नृत्य हूँ आरम्भ कर दियौ ।

या प्रकार चारन ओर तै प्रसन्नता फैल गयी ही ……..

बृजराज बाबा ने प्रथम ऋषि शांडिल्य के चरण पखारे ….फिर अन्य ब्राह्मणन के …अब तौ मैया मोकूँ बुलायवे लगी मेरे पामन कूँ धोयवे के लिए….लेकिन मैं तौ भगौ ….बृजराज बाबा मोकूँ देखके बहुत हँस रहे ।

ऋषि शांडिल्य ने यज्ञ की वेदी बनानी आरम्भ करी ……सबरे ब्राह्मण उनके साथ हे ……

इधर मैया बृजरानी ने अपने लाला कन्हैया कूँ गोद में उठायौ …रोहिणी मैया ने दाऊ भैया कूँ गोद में लियौ । वस्त्रन कूँ उतार के दो बालकन कूँ तातौ पानी ते मैयायें नवाहेवे लग गयीं ……आहा ! एक श्याम और गौर ..दो बालक कितने सुन्दर लग रहे हे …मैं तौ देखके आनंदित है रह्यो हो ।

अब स्नान है गयौ है …सुन्दर स्वच्छ वस्त्रन ते लाला के अंग कूँ मैया पोंछवे लगीं …..अब तौ कन्हैया रोयवे लग्यो …..तभी मैया ने अपने दूध कूँ लाला के मुख में दे दियौ …कन्हैया चुप है गयौ….फिर मैया ने लाला के केशन में सुगंधित तैल लगाय दियौ …फिर आँखन में अंजन आँज दियौ ….लाला तौ फिर रोएवे लग्यो ….तौ मैया फिर दूध पिवायवे लगी ।

अब हवन आरम्भ है रह्यो हो …तौ बृजराज बाबा ने मैया कूँ बुलायौ । अब मैया की गोद में कन्हैया है ….और कन्हैया अब सोय गयो है । बृजराज बाबा के निकट मैया गयीं ….तौ दाहिनी बैठवे कौ संकेत कियौ ..ऋषि शांडिल्य ने । मैया बृजरानी बैठ तौ गयीं …लेकिन मैया की गोद में कन्हैया सोय गयो हो ….अब का करें ? हवन में मन्त्र ध्वनि और अग्नि के ताप ते लाला की नींद टूट जावेगी । मैया इधर उधर देखवे लगीं । तभी दो तीन गोपियाँ आयीं ..बृजरानी ने संकेत में कही …जा शकट ( बैलगाड़ी ) के नीचे झूला बनाय दे ….लाला कूँ सुलाय दूँगी ….तुरन्त गोपिन ने बढ़िया पीरे वस्त्रन कूँ लेके शकट के नीचे झूला बनाय दियौ ….और बाक़ी डोर मैया के हाथ में दे दई । मैया ‘स्वाहा स्वाहा’ कर रही है ..लेकिन ध्यान लाला माहूँ ही है ….बीच बीच में झुलाय भी रही है …..और बीच बीच में गोपिन कूँ देखवे कूँ भी बोल रही है …………

लेकिन हम सब अब शकट के पास ही पहुँच गये हे …..हम सब ते मतलब ? सखा वृन्द । जी , श्रीदामा , तोक , अर्जुन , भद्र ….ये सब छोटे छोटे हैं ….मैं भी तौ छोटौ ही हूँ ……( मधुमंगल यहाँ पर हँसते हैं )

हम सब सखा अपने कन्हैया कूँ देख रहे हैं …….अरे ! जाने तौ अपने नेत्रन कूँ खोल लिए ….और अपने बड़े बड़े कमलनयनन ते हमें देख रो है ….फिर हँस रो है ….किलकारी भर रो है । श्रीदामा और भद्र जे अपने मुख कूँ लाला के पास लै जामें …तौ लाला किलकतौ भयो…अपने अपने नन्हे नन्हे से पामन कूँ फेंक रह्यो है ।

त भै …..

अरे , काहूँ कूँ पतौ नही चल्यो …..एक देह रहित राक्षस आगयौ …..बु आएके बैल गाड़ी में ही चिपक गयौ …कंस कौ असुर हौ ……बाने गाड़ी पलटायवे की सोची …लेकिन हमारे कन्हैया ने अपने चरण पटकने शुरू कर दिए ….कन्हैया रोयवे लग्यो ….लेकिन उधर वेद मन्त्र ध्वनि के कारण अब मैया कूँ लाला कौ रुदन सुनाई नाँय दे रो …..लाला ने अब ज़ोर ते अपने चरण पटके …सोई धड़ाम् ते बैल गाड़ी पलट गयी ! पूरी पलट गयी ….राक्षस मर गयौ ।

लेकिन बृजरानी मैया के प्राण ! हवन छोड़ के मैया तौ भगी बैल गाड़ी की ओर ….बैल गाड़ी उल्टी पड़ी ही …लाला अब हँस रह्यो है …लाला बच गयो …मैया के प्राण बच गये …बृजराज दौड़े ….मैया ने तुरन्त लाला कूँ अपनी गोद में लै लीनौं …..और मोते पूछवे लगीं …श्रीदामा ते पूछवे लगीं …कैसे बैल गाड़ी पलटी ? तोक सखा ने उत्तर दियौ …तेरे लाला ने अपने पामन कूँ पटक्यो तौ मैया ! बैलगाड़ी पलट गयी । मैया ने ध्यान नही दियौ ……बृजराज ने मैया ते पूछी …कहा कहे रहे हैं बालक …कैसे पलटी बैल गाड़ी ? मैया बोलीं ..बालक हैं ….अब लाला के पामन के हिलवे ते कोई बैल गाड़ी पलटेगी ?

मैया कूँ विश्वास नही है ….सही भी बात है ….बालक है मैया के ताई कन्हैया …बु कैसे मान ले …कि ………

तभी चाँदी की कटोरी में , खीर लेकर ऋषि शांडिल्य आगये ….और खीर पहले मन्त्रोच्चार के साथ लाला को खिलाया गया …फिर तौ मैया ने , भुआ ने , सबने थोड़ी थोड़ी खीर लाला के मुख में दे दियौ । अब लाला थक गयौ है ..बाकूँ जम्हाई आय गयी है ….मैया ने पालने में सुलाय दियौ है ।

क्रमशः…..

Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (119)


सुंदर कथा ७४ (श्री भक्तमाल – श्री प्रयागदास जी )(भाग 03)

पूज्यपाद श्री विन्दुजी ब्रह्मचारी ,भगवती मंजुकेशी देवी ,श्री पंचरसचार्य रामहर्षण दास जी महाराज , बाबा बालकृष्ण दास जी महाराज के कृपाप्रसाद एवं लेखो से प्रस्तुत भाव ।

घडी रात गये कुछ ग्रामीण माताएँ आयी और दो भोग-थाल निवेदन करती हुई बोली – आज़ हमारे यहाँ भगवान की पूजा और कथा हुई है । यह प्रसाद आप लोगो के लिए लायी हैं, ले लीजिये, थाल सबेरे ले जायेंगे । हमे घर जल्द पहुंचना है , रात हो गयी है । थाल रखकर यह कहती हुई वे उलटे पैर लौट गयीं । थाल न जाने किस खान के अदभुत सोनेके थे । उनपर पुरैन के पत्ते बिछे थे, जिनपर नाना प्रकार के व्यंजन चुने थे । महात्मा जी और मामा जी मन्त्र मुग्ध की तरह देखते रह गये । पीछे जब महात्मा जी ने पत्ते टालकर थाल देखे, तब हैरान रह गये । रहस्य समझ गये । जानकी जी ने ही अपनी सखियों को थाल लेकर भेजा था । सहृदय महात्मा जी ने प्रयागदत्त जी को प्रेमसे खिलाया और स्वयं भी पाया ।

उन लोकोत्तर रसास्वादमय दिव्य भोगोका सेवन करके वे दोनों महात्मा मस्त हो गये । वे सब पदार्थ भगवद्रस (ब्रह्मानंद) से सने हुए थे, स्थुलता का हरण करनेवाले थे और चेतना का संचार करनेवाले थे । तत्काल नवीन तेज, नवीन बल और नवीन चेतना से शरीर चमक उठे । मामा प्रयागदत्त जी का सारा श्रम और ग्लानि क्षणभर में कपूर की तरह उड़ गयी । हृदय कमल आनन्द-रस सरोवर मे लहराने लगा । प्रात:काल प्रयागदत्त जी को विदा करते हुए महात्मा जी दोनों स्वर्ण थाल साफी मे लपेटकर उन्हें देने लगे क्योंकि उनका कोई लेनेवाला न आया और न आनेवाला था ।परंतु प्रयागदत्त जी ने नहीं लिया, बोले कि माता नाराज होगी, कहेगी कि बहिन के घर से चीज क्यों लाये? फिर महात्मा जी उनके साथ गये और रास्तेपर पहुँचाकर जब लौटे, तब थाल ले जाकर गणेशकुण्ड मे डाल दिये ।

रमा बिलास राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बडभागी ।।

बहिन-बहनोई की भावना में मस्त प्रयागदत्त जी घर पहुंचे । माताने पूछा तो सब हाल कह सुनाया । पुत्रका वृत्तान्त सुनकर माता चकित रही और बहुत प्रसन्न हुई । हृदय तल से एक प्रबल, परंतु गम्भीर करुण स्त्रोत फूट निकला और आखो मे छलछला उठा । साल बीतने भी नहीं पाया कि प्रयागदत्त जी की माता साकेत धाम प्रयाण कर गयी । प्रयागदत्त जी अकेले रह गये , घर में और कोई भी नही । माताके देव पितृ-कर्म के बाद अकेला पाकर वैराग्य और अनुराग, दोनों उन्हें पूर्णतया अधिकृत करने लगे । पास के एक ग्राम के एक प्रतिष्ठित और सुसंपन्न ब्राह्मण चाहते थे कि प्रयागदत्त को जमाई बनाकर अपने घर रखें और अपना उत्तराधिकारी बनाए ।

उनके भी एकमात्र कन्या रह गयी थी । पुत्र स्वर्गगामी हो चुके थे । यद्यपि प्रयागदत्त दीन और दरिद्र थे, पर रूप, शील और कुल से सम्पन्न थे । ब्राह्मण जानता था की प्रयागदत्त जी के पूर्वपुरुषो में अनेक यशस्वी विद्वान् हुए है । उनके पिता भी सात्विक गुणों से मण्डित एक प्रतिष्ठित पण्डित थे । जनता को उनमें बडी श्रद्धा थी , बहुत लोग उनके शिष्य थे । जब ब्राह्मण मिथिला नागरी में आया तब लोगोंने कहा कि लडका अभागा है, कुलच्छनी है । पिता का भी भक्षण किया और धन-सम्पत्ति का भी । यह सब सुनकर ब्राह्मण ने प्रयागदत्त को कोरा जवाब दे दिया और लौट गया । प्रयागदत्त जी को तो संसार में कोई रस था ही नहीं , उनका मार्ग अब खुला हो गया ।

प्रयागदत्त जी ने अब अयोध्या जाने का निश्चय किया । मिथिला से सीधे अयोध्या पहुंचकर सरयू जी में स्नान किया । पहले वे मणिकूट के उसी स्थान विशेषपर सीधे पहुंचे, जहाँ उन्हें अपने सीताराम जी के दर्शन मिले थे । कुछ देर वहाँ बैठे पर उनके मिलने की ऐसी धुन उन्हे सवार थी कि विश्राम करने के लिये भी अवकाश नहीं था । कुंजो और झाड़ियो में चारो ओर उन्हें ढूंढते फिरे । ढूंढते ढूंढते पूर्वपरिचित महात्मा श्रीत्रिलोचन स्वामी की ओर निकल गये । महात्मा जी ने इम्हें पहचाना और प्रेमपूर्वक स्वागत किया । विश्राम कराया । इनको बिह्फता शान्त करनेके लिये उन्हाने अनेक भगवद् रहस्य की बातें कही, पर उससे वह और भी तीव्र हो गयी ।

धीरे-धोरे स्वामीजी ने अपने अपूर्व सत्संग के प्रभाव से उन्हें शान्त और सावधान किया । फिर कुछ भोजन कराया ।
दूसरे दिन प्रात:काल प्रयागदत्त जी श्री त्रिलोचन स्वामी जी के चरणो मे लोट गये । स्वामी जी ने उन्हे वात्सल्यपूर्वक उठाकर बैठाया । महात्मा जी मे उनकी श्रद्धा आकर्षित हो चुकी थी । स्वामी जी से उन्होने वैराग्य दीक्षा के लिये प्रार्थना की । सद्गुरु में उमड़ती हुई श्रद्धाके उसी मुहूर्त को उपयुक्त समझा और दीक्षा दे दी । लँगोटी – अँचला प्रदान किया । प्रयागदत्त जी अब प्रयागदास जी हो गये । कुछ रात गये प्रयागदास जी की दशा कुछ ऐसी चढी कि वे सोते ही उठ पड़े और वन- बीहड़ो में जहां -तहां घुमने लगे । जिधर निकल गए उधर ही निकल जाते। चल रहे हैं परंतु पता नहीं कहाँ जा रहे है , न जाने क्या-क्या देखते हैं । न जाने किससे क्या कहत हैं ।

दिन -दिन और रात-रात इसी दशा में बीत रही है, न खाने की सुध, न पीनेकौ चिन्ता, न सोने की परवा । अखण्ड योगनिद्रा और दिव्य स्वप्न । किसी ने खिला दिया तो खा लिया और पिला दिया तो पानी पी लिया । कोई-काई प्रेमी तो उन्हें अपने हाथ से भी खिला दिया करते थे और इसमे वे बडे सुख का अनुभव करते थे । परमहंस प्रयागदास जी को कभी कभी लड़के छेडा भी करते और न जाने किसने सिखला दिया था कि सब उन्हें ‘मामा-मामा’ कहने लग गये । केश बिखरे हैं, शरीरपर धूल पडी है और आँखें चढी हूई हैं । लक्ष्मी जी के भ्राता होने से आकाश में चन्द्रमा ही लडको के मामा थे, अब जानकी जी के भ्राता होने से प्रयागदास जी भूतलपर दूसरे मामा हो गए ।

प्रयागदास जी को जहाँ – तहाँ सीताराम जी अनेक लीलाएं दिखाई दिया करती । जिस लीला का दर्शन करते ,उसी का अपनी वाणी से वर्णन करते रहते । एक बार उन्हे वन यात्रा की लीला दृष्टिगोचर हुई । फिर तो वे अपने जीजा जी से नाराज हो गये और यह कहते फिरे – देखो अपने आप वन में गया और मेरी सुकुमारी बहिन को भी बन-बीहड में लेता गया । अब वे पैसै बटोरने लगे । यदि काईं पैसा देता, तो अब वे ले लेते और रखते जाते । कुछ दिनो मे जब काफी पैसे जमा हो गये, तब उन्होंने उनसे तीन जोडे जूते बनवाये-जितने बढिया वे बनवा सकते थे और तीन सुन्दर सुकोमल तोशक और इतने ही पलंग । तीनों पलंग ऐसे, एकसे छोटा एक बनवाया कि एक के पेट में एक अटक सके ।

एक के ऊपर एक करके क्रमश: तीनों पलंग रख लिये । ऊपरवाले पलंगपर तीनों तोशक बिछाये और तीनों जोडे जूते रखे । उन्हें सिरपर रखकर वे ले चले । चलते चलते मामाजी पहुंचे जाकर चित्रकूट । जहाँ जहाँ मार्ग में कुशा-कण्टक मिलते , वहाँ-वहाँ वे अपने जीजा राम जी को कोसते गये ।स्फटिक शिला के परम रम्य प्रदेश मे वे जाकर ठहरे । तीनों पलंग सुसज्जित कर दिये । फूल भी तोड़-तोडकर बिछा दिये । तीनों पलंगो के तले तीनों जोड़े जूते भी रख दिये । कुछ देर इधर-उधर देखते रहे । फिर झाडियों में घुस घुसकर खोजने लगे । कही भी कुछ आहट मिलती, कोई खडखडाहट होती, तो उधर ही वे उत्सुकता से देखने लग जाते । आखों मे अश्रु भरे ,राम की बाट शोध रहे हैं ! जब इधर-उधर कही कुछ पता नहीं चला ,तब मन्दाकिनी की ओर लौटने लगे और कहने लगे – देखो, छिप गया न, जान गया कि प्रयागदास आ गया । अच्छा छिपो ,कितनी देर छिपा रहेगा ।

शेष भाग-04 कड़ी संख्या ( 120) में देखें
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – सन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.42
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शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || ४२ ||

शमः– शान्तिप्रियता; दमः– आत्मसंयम; तपः– तपस्या; शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता; आर्जवम्– सत्यनिष्ठा; एव– निश्चय ही; च– तथा; ज्ञानम्–ज्ञान; विज्ञानम्– विज्ञान; आस्तिक्यम्– धार्मिकता; ब्रह्म– ब्राह्मण का; कर्म–कर्तव्य; स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक |

भावार्थ
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शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |

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