श्रीसीताराम बनशरणम् मम (109-2),“ श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ कीआत्मकथा-21″,[] श्री भक्तमाल (121) तथा श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी..1️⃣0️⃣9️⃣भाग 2
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ॥
वामाङ्कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥
जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |
मैं वैदेही !
मिथिलापति दुःखी हो गए थे …………मेघ आते हैं आकाश में पर यहाँ बरसते ही नही ………यहाँ से ऐसे चले जाते हैं …….जैसे यहाँ बरसनें से उन्हें डर लगता हो ……….।
पर ज्ञानियों के गुरु मिथिलापति विदेहराज की ये आशंका अकारण भी तो नही थी ……….महान सिद्ध ऋषियों के रक्त में एक बून्द भी जल का गिर जाए …….ऐसा साहस भला देवराज इन्द्र भी कैसे कर सकते थे ।
अकाल, जैसे मिथिला में अपना अड्डा ही बना चुका हो ……..और एक दो दिन की बात कहाँ थी …….. पूरे बारह वर्ष !
धरती पूरी तरह से शुष्क हो चुकी थी ………घास की कौन कहे …..वृक्ष भी पत्तों से रहित हो गए थे ………सरोवर के तल में दरारें दिखाई देंनें लगीं थीं…………प्रजा भाग रही थी अपनें प्राण बचानें के लिए ।
मुझ से क्या अपराध हो गया !
आज गुरु याज्ञवल्क्य जी के शरण में पहुँचे थे विदेह राज जनक ।
मुझ शासक का कौन सा ऐसा पाप है …….जिसके कारण प्रजा दुःख भोग रही है ………..रो पड़े थे विदेहराज ।
हे गुरुदेव ! कृपा करो ………चरण पकड़ लिए ।
आप अपनें प्रति अकारण आशंका करते हैं विदेह !
दो क्षण के लिये अपनी आँखें बन्द कीं योगेश्वर याज्ञवल्क्य जी नें, फिर आँखें खोलते हुए बोले – विदेहराज ! निमि वंश में पाप का लेश भी कभी नही आया………ये वंश निष्पाप है …………।
फिर आँखें बन्दकर के ध्यान करनें लगे थे याज्ञवल्क्य जी ……….
इस बार समय लग गया ध्यान में……..घड़ी भर आँखें बन्दकर बैठे रहे …….फिर आँखें खोल कर बोले – हे जनकराज ! परमसौभाग्य की प्राप्ति के लिये कुछ तप आवश्यक होते हैं ……………और ये सौभाग्य तुम्हारा ही नही ……..अपितु सम्पूर्ण सृष्टि का होगा ।
क्रमशः…..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-21”
( नामकरण संस्कार )
मैं मधुमंगल…..
मेरौ तौ कन्हैया है और मैं कन्हैया कौ । मेरौ कोई और परिचय ही नही है । वैसे भी “कन्हैया कौ सखा” या परिचय के आगे और कौन सौ परिचय तुम्हें अच्छों लगे ?
लगे तौ तुम्हारे करम फूटे हैं …
कन्हैया और दाऊ भैया दोनों अब बड़े है रहे हैं ….अब तौ घुटवन घुटवन चलनौं हूँ शुरू कर दियौ है …..पहचान हूँ रहे हैं ….जे अपने हैं जे परायौ है …इतनौं समझवे लगे हैं । अब तुम कहोगे …जे तौ ब्रह्म हैं, परब्रह्म हैं ….जे सब कछु जानें । तुम ठीक कह रहे हो …लेकिन भैया ! जब ब्रह्म कौ बाप बालक बनके आयौ है …तौ बालक के समान ही तौ लीला करेगौ । अब गम्भीर हे के बैठनौं है तौ ऊपर बैकुण्ठ में ही बैठतौ ना , यहाँ काहे कूँ आयौ ! अब आयौ है तौ सामान्य शिशु के समान लीला कर ..हम सबकूँ याही में सुख मिले है ….और हाँ , तुम्हें मैं एक रहस्य की बात बताऊँ ….हमैं ही सुख नही मिले लीला में …हमकूँ सुख दै कै …हमें सुखी देखके …जा कूँ हूँ परम सुख मिले है….जे अपनी लीला करके ही परमसुखी है …अरे ! अपनी आत्मा ते ही तौ लीला कर रह्यो है …और अपनी आत्मा के ताईं कर रह्यो है । हम सब याही की आत्मा तौ हैं …और जे कन्हैया हमारी आत्मा है…….बतायौ कैसी कही ?
अब छोड़ो …मैं भी कहा “बुढ़िया पुराण” लै कै बैठ गयो .. देखो भैया ! ब्रह्म परमात्मा की चर्चा तौ मोपे होवे नही है …हाँ , कन्हैया की चर्चा मोपे करवाये ल्यो । कितनौं हूँ करवायौ ल्यो । अजी ! मेरौ प्राण है कन्हैया ….जा कौ कन्हैया प्राण नही हैं …बु मेरी आत्मकथा ते दूर ही रहियौं , चौं कि मेरी आत्मकथा मेरे कन्हैया की ही कथा है । समझे ?
मैं तौ खेल रह्यो हूँ अपने कन्हैया और दाऊ भैया ते ….दोनों घुटवन चलें …चलते भए मेरे पास आमें …मैं आँखन कूँ मूँद के बैठ जाऊँ ….फिर मोकूँ मारते भए चले जामें …मैं आँखन कूँ खोल के देखूँ तौ किलकारी भरते भए दोनों हँसें …खूब हँसें । फिर फिर मोकूँ आँख मूँदवे कूँ कहें ….मैया बृजरानी भीतर ते देख रही हैं ..रोहिणी मैया हूँ देख रही हैं ….समय अधिक है गयो तौ भूखौ जान बालकन कूँ लै गयीं मैया …बस फिर का हो ….दोनोंन ने रोनों शुरू कर दियौ …खूब रोयवे लगे …उन दोनोंन कूँ ‘मैं’ ही चहिए ….फिर शुरू भयौ आँख मूँदवे कौ खेल ।
सामने ते आरहे हैं …ऋषि शांडिल्य और बृजराज बाबा …इनके संग में हैं एक कोई दिव्य आचार्य …..कौन हैं जे मैंने पहचानौं नही । अब तौ परिचय दियौ बृजराज बाबा ने ही …”वसुदेव जी के कुलपुरोहित हैं आचार्य गर्ग जी महाराज”।
अब यही हमारे बालक कौ नाम करण करेंगे । बृजराज बाबा ने कही ।
किन्तु कब ? बृजरानी मैया पूछ रहीं हीं ।
आज , अभै । बृजराज बाबा बोले और यज्ञ आदि की तैयारी आरम्भ हूँ हे गयी ।
लेकिन इतनी जल्दी ? अरे ! कमसे कम पाँच दिना पहले गाँव में निमन्त्रण तौ दै देते ।
बृजरानी ! बात कूँ समझौ ….अधिक हल्ला मचायवे ते का लाभ ? हमें दिखावौ करनौं है या अपने बालकन के मंगल की सोचनौं है । बृजराज बाबा गम्भीर हे के बोल रहे हे ।
देखो ! कंस ने पूतना कूँ भेजी …बाकूँ लग रह्यो है कि वसुदेव कौ आठवौ बालक हमारे घर में जन्म लै कै आयौ है । आप ते कौन नैं कही ? बृजरानी ने पूछ लियौ ।
देखो बृजरानी ! जे वसुदेव के पुरोहित हैं ….इनते पूछो ….कंस कौ सबरौ ध्यान अब हमारे बालकन के ऊपर ही है …जा लिए हम काहूँ कूँ नाँय बतामेंगे ।
तौ कहाँ होयगौ नाम करण ?
खिरक में ( गौशाला )। बृजराज बाबा बोले ।
मैं आगे आयौ और कही बाबा ! गोपाल कौ नाम करण तौ खिरक में ही हौनौं चहिए ।
मेरी बात सुनके सब प्रसन्न है गये, ऋषि शांडिल्य मैरौ परिचय आचार्य गर्ग कूँ दै रहे हे ।
दोनों मैया सुन्दर साड़ी पहनके , सज धज के , अपने अपने बालकन कूँ गोद में रख के, यज्ञ वेदी के सामने आयके बैठ गयीं हैं । आचार्य गर्ग तौ कर्मकाण्ड में लगे हे ….बृजराज ते गणपति आदि की पूजा करवा रहे हे…..तभी उनकी दृष्टि गयी बृजरानी के गोद में …आहा ! नीलमणि सो सुन्दर शिशु …..अत्यन्त चपल नयन …कपोल खिले भए ….नील ज्योति की दिव्य आभा …
जे कौन हैं ?
आचार्य गर्ग मन्त्रोच्चार भूल गए …गणपति की पूजा भूल गये …नन्दनन्दन में इनकौ त्राटक सो लग गयो है । बुद्धि इतनी अवश्य सोच रही है आचार्य की …कि जे शिशु कौन है ? का विशुद्ध ब्रह्म स्वरूप है जे बालक ? फिर सोच रहे हैं ….का उपनिषद कौ सिद्धान्त ही कहूँ आकार लै कै प्रकट तौ नाँय भयौ ? आचार्य भाव विभोर हे गये हैं ….कहूँ हमारे परम सौभाग्यरूप कल्पवृक्ष कौ …सौरभ बिखेरतौ भयौ जे दिव्य पुष्प तौ नही हैं ? आचार्य गर्ग कन्हैया कूँ देखते देखते …विदेह की स्थिति में जाय रहे हैं …..कहूँ रस ही आकार लैकै प्रकट तौ नही भयौ ? जे कौन है …ज्ञानी कौ ब्रह्म है ? या योगी कौ परमात्मा है ? या भक्तन कौ भगवान है ? नेत्र बन्द है गए हैं आचार्य गर्ग के ।
तभी ……ऋषि शांडिल्य मुस्कुराते भये उठा रहे हैं , लेकिन आचार्य गर्ग कूँ ।
अरे बाबा ! का भयौ ? मैंने ही पीछे ते झकझोर्यो आचार्य कूँ ….सब हँसवे लगे ……
आचार्य जागृत भए …..फिर अपने आप कूँ सावधान करते भए बोले ….आहा ! जाकौ कहा नाम रखूँ ? बृजरानी बोलीं …पहले याकौ …रोहिणी मैया की गोद में दिखाती भई बोलीं । आचार्य ने जब रोहिणी मैया की गोद में देख्यो …तो मुस्कुराए ….”राम”। का नाम रख्यो बाबा ! मैया बृजरानी पूछ रहीं । “राम”…..शान्त मन ते आचार्य गर्ग ने कही । राम ? बृजराज बाबा ने पूछी …तौ फिर आचार्य बोले …बल अधिक है जा लिए ‘बलराम’।
और मेरे छोरो कौ नाम ? बृजरानी मैया हँसते भए पूछ रहीं हैं ।
याकौ नाम ? लम्बी साँस लई आचार्य ने ।
बाबा ! ऐसौ का है कि तुम मेरे छोरा के नाम धरवे में लम्बी साँस लै रहे हो ?
बृजरानी भोली हैं कछु भी कह सकें ।
नहीं …बात जे है कि याकौ नाम तौ ……का है याकौ नाम ? बृजरानी फिर पूछ रही हैं ।
जे तौ रंग बदलतौ रे ….हर समय याकौ रंग बदलवे कौ ही काम है ……आचार्य की बात पे मैं हंस्यो ……..जैसे आचार्य ? मैंने पूछी ……तौ आचार्य बोले …सतयुग में याकौ रंग है सफेद …..त्रेता में लाल ..द्वापर में पीरो…और कलियुग में कारौ ।
तौ बाबा याकौ नाम है “रंग पलटू” । मैंने जैसे ही कही तौ सब हँसवे लगे ……आचार्य भी हँसे …..फिर शान्त होकर बोले …..अब जो युग आने ही वाला है वो है कलियुग ….कलियुग में याकों रंग है …कारो । या लिए ..कृष्ण नाम है याकौ ।
का ? मैया पूछवे लगी । नाम समझवे मैं नही आयौ मैया के ।
मैंने कही ……मैया ! कृष्ण ।
किसन ? मैया ते बोलो नही जाय रो …..
मैंने ही आचार्य की ओर देखके कही …मैया ! तू तौ कनुआ कहे ..कन्हैया कह ……
मेरे मुख ते जे बात सुनते ही आचार्य मुस्कुराए और बोले …आप माता हैं …आपका स्नेह वात्सल्य जो बुलवाये , आप वहीं बोलें । मैंने कही ….कन्हैया सबते सुन्दर नाम है …मैया ! हम सब कन्हैया ही कहेंगे । मैया मोते बोली …हाँ , सही कह रो है …..”कन्हैया” ही सही है ।
तौ या प्रकार तै खिरक में कन्हैया कौ “नाम करण संस्कार” पूरौ भयौ ।
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (121)
सुंदर कथा ७६ (श्री भक्तमाल – श्री कुर्मदास जी )
पूज्यपाद श्री महीपति जी महाराज , प्रह्लाद महाराज , भगवान् बाबा और अन्य वारकरी महात्माओ के आशीर्वचन
भगवान् श्री पंढरीनाथ के एक भक्त हुए है श्री कुर्मदास जी । कुर्मदास जी पैठण नामक गाँव में रहते थे । श्री कुर्मदास जी को बाल्यकाल से ही हाथ पाँव के पंजे नहीं थे और इस कारण से उन्हें अपने शरीर को किसी तरह घसीट कर चलना पड़ता था । जहाँ -तहाँ पडे रहते और जो कुछ मिल जाता खा लेते । मुख से राम कृष्ण हरी विट्ठल केशव जपते रहते ।
एक दिन पैठण में संत एकनाथ जी के दादाजी – पूज्य श्री भानुदास जी महाराज द्वारा हरिकथा हो रही थी । श्री भानुदास जी सिद्ध महात्मा थे , दूर दूर से प्रेमी जान और संत महात्मा उनकी कथा में आते थे । कुर्मदास पेटके बल रेंगते हुए हुए कथा-स्थल पर पहुंचे । उस समय संत श्री भानुदास जी पंढरपुर की आषाढी कार्तिकी यात्रा का माहात्म्य सुना रहे थे । कार्तिकी एकादशी मे अभी चार माह बाकी थे । कुर्मदास ने तत्क्षण ही निश्चय किया और पेटके बल रेंगते हुए चल पड़े पंढरपुर की दिशा में । यह है भगवत्प्रेम । सिद्ध वास्तविक महापुरुष का एक क्षण का संग भी कल्याण कर जाता है । कुर्मदास जी ने रेंगते रेंगे जाना शुरू कर दिया , दिनभर में वे एक कोस से अधिक नहीं रेंग पाते थे ।
रात को कही रुक जाते और जो कुछ अन्न-जल मिल जाता, ग्रहण कर लेते । इस तरह चार माह निरन्तर रेंगते हुए वे लहुल (लऊळ ) नामक स्थानपर पहुंचे । यहां से पंढरपुर सात कोस दूर था और दूसरे ही दिन एकादशी थी । किसी भी तरह कूर्मदास का वहाँ पहुंचना सम्भव नहीं था । शरीर छील गया था ,कई स्थानों पर जख्म हो गए थे , अब आगे जाना संभव नहीं हो पा रहा था । उन्हें समझ गया था की अब शरीर ज्यादा दिन रहेगा नहीं । पंढरपुर के रास्ते में झुण्ड-के-झुण्ड यात्री चले जा रहे है । जय विट्ठल, जय विट्ठल की गूंज और अपार जनसमूह । लेकिन कुर्मदास लाचार ।
क्या यह अभागा भगवान् के दर्शन से वञ्चित रहेगा । अथाह दर्द ! लेकिन दृढता हिमालय-सी अडिगा । उन्हे विचार आया – मै तो कलतक वहाँ भगवान के पास नहीं पहुँच सकता, लेकिन क्या भगवान् यहाँ नहीं आ सकते ? वे तो जो चाहे कर सकते हैं । प्रेम क्या नहीं का सकता ! उन्होने एक यात्री भक्त से विनती करके भगवान् के नाम चिट्ठी लिखवाई -हे भगवन ! यह बे-हाथ-पैर का आपका दास यहां पडा है , कलतक यह आपतक नहीं पहुँच सकता इसलिये आप ही दया करके यहाँ आकर मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करे । यह चिट्ठी लिख उन्होने उस यात्री के हाथ भगवान् के पास भेज देने की विनती की । दूसरे दिन एकादशी को भगवान् के दर्शन कर उस यात्री ने यह चिट्ठी भगवान के श्रीचरणो मे रख दी ।
इधर लहुल ग्राम में कूर्मदास भगवान् की प्रतीक्षा कर रहे थे । जोर-जोर से बड़े आर्तस्वर से पुकार रहे थे-भाग्वान्! कब दर्शन देगे ? अभीतक क्यों नहीं आये? मैं तो आपका दूँ न ! इस प्रकार अत्यन्त व्याकुल हो पुकारने लगे । नाथ कब आओगे ,कब आओगे की पुकार सुन स्वभाववश प्रेमाधीन भगवान् पण्डरीनाथ श्रीविट्ठल ज्ञानदेव, नामदेव और सावता माली के साथ कूर्मदास के सामने आ खड़े हुए । कूर्मदास धन्य हो गए । अपलक अपने विट्ठल को निहारते ही रह गये । चेत आनेपर किसीतरह भगवान् के चरण पकड लिये । तब से भगवान् विट्ठल जबतक कूर्मदास रहे, वही रहे ।
संतो और भगवान् के सानिध्य में ही महाभाग्यवान भक्तराज श्री कुर्मदास जी का शरीर छूट गया और वे विमान में श्री गोलोक पधारे । वहाँ जो विट्ठलनाथ का मन्दिर है वह इन्हीं कूर्मदास पर भगवान् का मूर्त अनुग्रह है , यह है भगवान का प्रेमानुबंध । मंदिर के बगल में पीछे ही एक कुँआ है ।आषाढ़ी यात्रा के समय कितना भी भयंकर अकाल पड़ा हो अथवा सुखा हो परंतु इस कुँए का पानी उस यात्रा के समय एकाएक भर जाता है । भगवान् के साथ श्री चंद्रभागा नदी भी कुर्मदास जी ली समाधी का दर्शन करने वहाँ आती है ऐसा कहा जाता है ।
औरंगज़ेब जैसा क्रुर शासक जिसने कई मंदिर तोड़ दिए ,उसी औरंगजेब ने कुर्मदास जी का मंदिर और समाधी स्थान बनवाया था यह एक महान् आश्चर्य है । संत कुर्मदास जी का भगवत्प्रेम सुनकर वह कठोर हृदयी क्रुर बादशाह भी द्रवित हो गया था और इसकारण से यह मंदिर और समाधी उसने निर्माण करवाई । यहां ब्राह्मण , क्षत्रिय और मुसलमान तीनो तरह ले लोग अलग अलग सेवा करते है ।वहाँ गाय के घी का दिया सतत प्रज्वलित रहता है ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – सन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.44
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कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् |
परिचर्यात्मकं कर्म श्रूद्रस्यापि स्वभावजम् || ४४ ||
कृषि– हल जोतना; गो– गायों की; रक्ष्य– रक्षा; वानिज्यम्– व्यापार;वैश्य– वैश्य का; कर्म– कर्तव्य; स्वभाव-जम्– स्वाभाविक; परिचर्या– सेवा;आत्मकम्– से युक्त; कर्म– कर्तव्य; शूद्रस्य– शुद्र के; अपि– भी; स्वभाव-जम्–स्वाभाविक |
भावार्थ
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कृषि करना, गो रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं औरशूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है |

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877