Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>1️⃣1️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
माँ ! मैनें अहंकार तोड़ दिया रावण का ………
हनुमान नें मेरे सामनें हाथ जोड़ते हुये कहा था ।
माँ ! वैसे मेरी क्या सामर्थ्य ! प्रभु श्रीराम की इच्छा से ही सब हुआ है ।
कितनी नम्रता है इस हनुमान में ……मैं उसे देखकर गदगद् हो रही थी ।
इतना बड़ा पराक्रम किया ………समुद्र को लांघ कर आया ………फिर इस लंका में आग लगा दी…….इतनें यश के कार्य करनें के बाद भी स्वयं श्रेय न लेकर अपनें स्वामी श्रीराम को सारा श्रेय देना ..!
मैने अपना आशीर्वाद हनुमान को भरपूर दिया था ।
माँ ! अब मैं जाऊँ ?
मैने हनुमान की और देखा ………मेरे नयनों से गंगा यमुना बह चले थे ।
युद्ध अब अनिवार्य है हनुमान !…….मैने अपनें आँसू पोंछते हुए कहा ।
पर एक बात कहूँ …………तुमनें विभीषण के घर को नही जलाया ये ठीक किया ………इस लंका में मेरा ध्यान रखनें वाला हनुमान ! वही परिवार है ……..और पहले भी मुझे लेकर विभीषण कई बार रावण को समझा चुके हैं …..और मुझे लेकर वो अपमानित भी हुए हैं …..पर सत्य के साथ वह हर समय खड़े ही रहते हैं ।
हनुमान ! विभीषण की पत्नी “सरमा” वो गन्धर्व की पुत्री थीं ……पर इस रावण नें उनके माता पिता भाई सब को मार डाला है ………….
उनकी पुत्री है त्रिजटा ……….वो तो बहुत अच्छी है …………दिन रात मेरे ही पास बैठी रहती है……..त्रिजटा का एक भाई भी है ………”मत्तगजेंद्र”…….वो पिता की तरह ही दिन रात श्रीराम के ही ध्यान में लगा रहता है …………….।
हनुमान ! तुम सोच रहे होगे ……कि मैं ये सब क्यों बता रही हूँ ……….हनुमान ! युद्ध में इनके परिवार को कुछ नही होना चाहिए ।
मेरी बात सुनकर हनुमान मुस्कुराये थे ……….माँ ! मैं विभीषण जी से मिल चुका हूँ……..उनका वो श्रीराम भक्ति से ओतप्रोत हृदय भी टटोल चुका हूँ …….उनका भवन उनके आँगन में लगी तुलसी, और उस तुलसी का सुगन्ध भी मुझे आनन्दित कर गया है ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!!!
🌹जय श्री राम🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-35”
( भूली री उलाहनौं दैबौ )
मैं मधुमंगल ……
भूल गयीं , अपने सामने जब नन्दनन्दन कूँ गोपिन ने देख्यो तौ सब भूल गयीं । उलाहनौं दैनौ ही भूल गयीं ….बा श्यामघन कूँ जब अपने सामने देख्यो तौ बस जड़वत हैं गयीं ….जैसे बड़े बड़े योगियन की स्थिति आत्मतत्व के साक्षात्कार के समय है जावै …वही स्थिति यहाँ गोपिन की है गयी ।
अरी ! कछु तौ कहौ …या यौं ही कालक्षेपण करवे कूँ आयी हो ? बृजरानी मैया कूँ झुँझलाहट है रही है ….भीर गोपिन की आयी है और बस लाला कूँ देख रहीं हैं ….मुस्कुरा और रही हैं ….
उलाहनौं दैवै कूँ आयी हैं तौ कछु रोष हूँ तौ मुखमण्डल में लाऔ ।
बृजरानी बोलीं ….मैं बताऊँ तुम सबकी परेशानी कहा है ? बस हर समय ‘खैं खैं’ करवाय ल्यो तुम ते तौ । मैया बोलीं ….मेरौ छोरा उधमी है , मैं मानूँ , तुम्हारे घर में ऊधम मचातौ होयगौ …..लेकिन तुम भी थोड़ौ गम्भीर बनौं …..जब मेरौ लाला तुम्हारे घर में आवै ना , तौ गम्भीर है जायो करौ ।
जे सुनके एक गोपी बोली ….बृजरानी जु ! हम कहा करें ..हम हूँ रिसाय के जब या माहूँ देखैं …तौ तेरौ सपूत हम माहूँ देख के ताली बजाय के हँसे ….खूब हँसे …अब मैया ! तुम ही बताओ …का बा समय हम गम्भीर रह सकैं ? तेरे लाला कूँ देखते ही हमें हँसी आय जाय । गोपिन ने कही ।
जे बात सुनके तौ मैया कूँ ही हँसी आय गयी …मैया सोचवे लगी …बात तौ सही कह रही हैं गोपियाँ …खिलखिलाय के हँसे कन्हैया तौ सामने वारे कूँ हँसी तौ आएगी ही !
अच्छा ! अब बताओ…..का करे मेरौ कन्हैया ?
तौ एक गोपी बोली …..हमारे घर में आयके माखन खावे ।
जे बात सुनके बृजरानी मैया और हँसी और बोलीं – बालक है अपने घर में खावै नही है ..तेरे घर में खाय लियौ तौ का भयौ ? नही नही बृजरानी जु ! तेरौ लाला मेरे घर में आवै खावै …कोई बात नही …लेकिन याकै संग याकै संगी-साथी हूँ होय हैं , और मैया उनकूँ हूँ खिलाबै । गोपी ने जब जे बात कही ….तब मैया अपने माथे कूँ पकड़ में बोलीं …हे भगवान ! अरे ! अपने ही गाँव के बालक तौ हैं …..और देखौ – मेरे लाल कौ जे स्वभाव ही है ….कि कछु भी खावै, बाँट के खावै । तू अपनौं माखन सम्भाल के रख ….मेरे लाल कूँ चौं दोष दै रही है ? बृजरानी ने अब बा गोपी कूँ डाँट दियौ …तौ एक गोपी और आगे आयी …और बोली ….मैया ! गाँव के बालक माखन खावैं हमें कोई आपत्ति नही हैं …लेकिन एक बन्दर कूँ जे साथ में लै कै चलै ……..और बा बन्दर ने तौ हल्ला ही मचाय राख्यौ है पूरे गोकुल में । तेरौ लाला माखन कूँ खावै कम है लुटावै अधिक है ।
मधुमंगल ! जे बन्दर कौन हैं ? अब श्रीदामा ने जे प्रश्न बीच में कर दियौ ।
मैं हँस रो ….मेरे सामने बु बन्दर हौ ….जाकूँ लै कै कन्हैया अपने संग चलते ।
मैंने कही …हनुमान जी हैं …..कन्हैया ही तौ सब रूपन कूँ धारण करे …..राम कौ रूप हूँ याने धारण कियौ तौ अब कृष्ण के रूप में है । कन्हैया अपनौं दयालु है ना ….तौ यानैं सोची है राम के रूप में तौ हनुमान कूँ कछु खिला ना पायौ …चलो …कृष्ण के रूप में हनुमान कूँ चक्क माखन खिलाऊँ । मेरी बात सुनके सब सखा हँसवे लगे ।
देखौ गोपियों ! हमारौ कर्तव्य है कि सब जीव जन्तु कौ हूँ हम ध्यान रखें …है ना ? मैया गोपिन कूँ समझाय रही है । अब हम तौ स्वार्थी हैं …अपनौ ही पेट भरनौं …लेकिन हमारौ जो कन्हैया है ना …स्वार्थी नही हैं …माखन पहले अपने सखान कूँ खिलाएगौ ….फिर बन्दरन कूँ खिलाएगौ …तब स्वयं खावैगौ ….मैया सहज में बोलीं ….मेरे लाला तै कछु सीख ल्यो ।
अब कहा कहें ….गोपियन की सबरी बातन्ने मैया बृजरानी ने काट दियौ हो ।
तब एक और गोपी आगे आयी और बोली ….मैया ! मटकी फोड़ देय है तेरौ लाला ।
अब मटकी कूँ ऊँचे छीके में रखो ……मैया ने कही ….देखौ बालकन के हाथ में मटकी जायेंगी तौ टूटेंगी । मैया बोलीं ।
अरे ! कितनौं हूँ ऊँचे में रखे ….तेरौ लाला पहुँच ही जावे मैया ।
मैया बोलीं …..और ऊँचे में रखो ।
एक प्रोढ़ गोपी आगे आयी और अपनी घटना सुनाएवे लगी ………..
बृजरानी ! मेरे घर के आँगन में बरगद कौ बड़ौ ही पुरानौं वृक्ष है …..एक दिना मैंने बा वृक्ष में ही माखन की मटकी टांग दई । बड़ौ ऊँचौ वृक्ष है । अब मैं सोचवे लगी…कन्हैया यातै तौ मटकी नाँय निकाल पावैगौ …..तभी कन्हैया की ग्वार मण्डली आय गयी । अब जब कन्हैया ने मटकी देखी वृक्ष में लटकी भई है ….तौ सोचवे लग्यो ….भाभी ! नैं तौ ऊँचे में लटकाय दियौ है मटकी कूँ ….तौ कन्हैया आज माखन नही मिलैगौ ….सखा पूछवे लगे … कन्हैया तुरन्त बोलो ….ना , मैं भी नन्द कौ छोरा नही …जो याही मटकी तै माखन नही खायौ तौ । ऐसौ कहके कन्हैया कहीं तै बीस हाथ लंबौ बाँस लै आयो । और मटकी के नीचे बाँस लगाय के बोल्यो …..’ओप’ लगाय ल्यो …सब ने ओप लगाय लिये …..बृजरानी ! तेरे लाल ने नेक हूँ नही छोड़ो बा मटकी में माखन । अब बताओ कितने ऊँचे में रखे मटकी कूँ ? मैया कछु कहतीं …तौ वही गोपी आगे बोलवे लगी …फिर भी हम कछु नही कहें यातै यशोदा रानी ! तौ तेरौ छोरा मूँछन में तांव दैकै जावै ….और कहे ….”नन्द कौ छोरा चोरी करके जाय रो है काहूँ में हिम्मत होय तौ रोक लियौं “। इतनौं सुनते ही कन्हैया खिलखिलाये …जोर ते हँस दिए ….कन्हैया कूँ या प्रकार तै हँसते देख …सब गोपियाँ मुग्ध है गयीं ….सब भूल गयीं …उलाहनौं दैनौ हूँ भूल गयीं …..सामने विश्व विमोहन नन्द किशोर खड़े हैं….आहा !
“भूली री उराहनौं दैबौ ।
परि गयी दृष्टि श्यामघन सुन्दर , चकित भई चितैबौ ।।
चित्र लिखि सी ठाढी ग्वालिन, को समुझै समुझैबौ ।।”
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (135)
सुंदर कथा ८८ (श्री भक्तमाल – श्री भूगर्भगुसाई जी )
श्री भूगर्भगेसाईं जी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के कृपापात्र श्री गदाधर पण्डित जी के शिष्य थे । आप श्री लोकनाथ गोस्वामी जी के साथ वृन्दावन आये थे और फिर वृन्दावन मे ही रह गये, वृन्दावन से बाहर कही नहीं गये । ये संसार से परम विरक्त एवं भगवान की रूपमाधुरी मे अत्यन्त अनुरक्त थे । रसिक भक्तजनो के साथ मिलकर आप उसी रूप माधुरी का आस्वादन करते रहते । भगवान का मानसी चिन्तन, मानसी अर्चन वन्दन ही आपके जीवन का आधार था । भगवान की मानसी मूर्ति को निरन्तर निहारा करते थे । आपके मन की वृत्ति सदा उसी युगलस्वरूप के चिन्तन मे लगी रहती थी ।
श्री गोवर्धन जी की नित्य परिक्रमा करना आपकी दैनिकचर्या का अंग था । एक दिन आप प्रेम मे बेसुध हुए परिक्रमा कर रहे थे कि एक शिला से आपका पैर टकरा गया । पैर से रक्त की धारा बहने लगी थी, पीडा अधिक होने से चलना दूभर हो गया था । किसी प्रकार ‘ हा कृष्ण हा कृष्ण ‘ करते दिन कटा, शाम होने को आयी, अब आपको और क्लेश होने लगा कि ठाकुरजी की सायंकाम की पूजा आरती कैसे होगी ? भक्तवत्सल भगवान से अपने भक्त का कष्ट न देखा गया, वे एक बलिष्ठ शरीर वाले साधु के रूप मे आपके पास आये और आपके मना करने के बावजूद आपको कन्धेपर बिठाकर कुटीतक छोड़ गये । जब आपने उन्हे धन्यवाद देना चाहा तो वे अन्तर्धान हो चुके थे ।
अब आपको यह समझने मे देर न लगी कि मेरे आराध्य श्री ठाकुर जी ही साधु के वेश मे मुझे कन्धेपर बैठाकर यहाँ तक लाये थे । अब तो आपके दुःखका पारावार न रहा । आप यह सोच-सोचकर रोने लगे कि मुझसे तो श्री ठाकुर जी की सेवा हो न सकी, उल्टे मैने ही उनसे सेवा करा ली । उनकी इस व्याकुलता को देखकर श्री ठाकुर जी ने उनसे स्वप्न मे कहा- गुसाईं जी ! भक्तों का दुख मुझ से देखा नही जाता । जबतक मै उनका दुख दूरकर उन्हे सुखी नही कर देता, तबतक मेरे मन को विश्राम नही मिलता, अत: आप व्यर्थ संकुचित न हो । भगवान की इस प्रकार की अमृतमयी वाणी सुनकर और उनकी भक्तवत्सलता देखकर आप गद्गद हो उठे । ऐसे भगवत्कृपा पात्र थे श्रीभूगर्भ गोसाई जी ।
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⁰Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.60
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स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || ६० ||
स्वभाव-जेन – अपने स्वभाव से उत्पन्न;कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; निबद्धः – बद्ध; स्वेन – तुम अपने; कर्मणा – कार्यकलापों से; कर्तुम् – करने के लिए; न – नहीं; इच्छसि – इच्छा करते हो; यत् – जो; मोहात् – मोह से; करिष्यसि – करोगे; अवशः – अनिच्छा से; अपि – भी; तत् – वह ।
भावार्थ
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इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो । लेकिन हे कुन्तीपुत्र! तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे
तात्पर्य
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यदि कोई परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कर्म करने से मना करता है, तो वह उन गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य होता है, जिनमें वह स्थित होता है । प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के विशेष संयोग के वशीभूत है और तदानुसार कर्म करता है | किन्तु जो स्वेच्छा से परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कार्यरत रहता है, वही गौरवान्वित होता है |


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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877