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July 31, 2025 8:26 pm

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 114 (2) ” श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’की आत्मकथा-36″, श्री भक्तमाल (136) तथाश्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>1️⃣1️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मेरी बात सुनकर हनुमान मुस्कुराये थे ……….माँ ! मैं विभीषण जी से मिल चुका हूँ……..उनका वो श्रीराम भक्ति से ओतप्रोत हृदय भी टटोल चुका हूँ …….उनका भवन उनके आँगन में लगी तुलसी, और उस तुलसी का सुगन्ध भी मुझे आनन्दित कर गया है ।

माँ ! मैं उनको कैसे भूल सकता हूँ ………..अगर वो लंका में नही होते तो ये हनुमान आपके पास बड़ी मुश्किल से ही पहुँच पाता ।

विभीषण जी से जब मैने आपका पता पूछा तो उन्होंने सहजता से मुझे “भाई” कहा …………मैने उनकी ओर आश्चर्य से देखा था……तो वो बोले हाँ हम दोनों भाई है ……..पर मैं एक ऐसा भाई हूँ ….जिसनें माँ को तो देखा है ……पिता जी को नही देखा ………..और आप ऐसे भाई हैं जिन्होनें पिता जी को देखा है पर माँ को नही देखा ………..

भैया हनुमान जी ! मुझे विभीषण जी नें कहा था माँ ! कि मैं आज आपको माँ के दर्शन तो करा दूँगा …….पर मुझे एक वचन देना होगा …..आपको भी पिता श्रीराम के दर्शन करानें होंगें ………।

माँ ! मैने वचन दिया है विभीषण जी को कि मैं उन्हें प्रभु श्रीराम से मिलाऊँगा …………………।

मुझे हनुमान की बातें सुनकर बहुत आनन्द आया ।

फिर एकाएक मेरा मन दुःखी हो गया था ………………

हनुमान ! कहना मेरे श्रीराम से कि उन- सा नाथ पाकर भी आज मैं अनाथा की तरह हो गयी हूँ ………..क्या इन राक्षसों के वध के लिये उनके त्रोंण में बाण नही रहे ? मैं व्याकुल हो उठी थी ।

सुरासुर, यक्ष किन्नर नाग किसी में इतना सामर्थ्य नही जो मेरे श्रीराम के रोष का सामना भी कर सके ……………फिर क्यों ? मेरे नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ।

मैं शपथ खाकर कहता हूँ माँ ! कि प्रभु नें आपको विस्मृत नही किया ।

आप अब निश्चिन्त हो जाएँ – प्रभु आवेंगे ………..शीघ्र आवेंगे ।

क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ……!!!!!!

🌹जय श्री राम🌹

Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-36”

“मधुमंगल की आत्मकथा क्यों लिख रहे हो ?”


साधकों ! बचपन से ही श्रीकृष्ण की बाल लीला ने मेरे मन को अपनी ओर खींचा ….कहना ही होगा कि इसमें “श्रीवृन्दावन की रासलीला” का ही योगदान है । मेरा जहाँ जन्म हुआ मोतीझील , वहाँ “श्रीअखण्डानन्द जी का आश्रम” था …जो मेरे घर के अत्यन्त निकट था । पूज्य स्वामी जी जब तक शरीर में रहे और बाद में भी …उनके आश्रम में “रास बिहारी सरकार की रासलीला” नित्य होती थी , मुझे स्मरण है ..कि स्वामी प्रभात कुमार लेखराज जी की मण्डली थी …उनकी ही लीला नित्य देखना और उसी लीला जगत में खो जाना ।

श्रीकृष्ण लीला में श्रीकृष्ण तो प्राण थे ही मेरे …लेकिन मनसुख ( मधुमंगल ) ये मुझे बड़े ही प्यारे लगते थे …ये पात्र मेरे हृदय के अत्यन्त करीब था । कह दूँ ….मैं बाल्यावस्था से ही रासलीला का प्रेमी रहा ….श्रीवृन्दावन की सभी रासमण्डली की लीलाएँ मैंने देखी हैं …और सबका अपना भाव है ..सबकी अपनी दिव्यता है । लेकिन …श्रीकृष्ण की बाल लीला में “मधुमंगल” का पात्र स्वामी श्रीलेखराज के समान करने वाला श्रीवृन्दावन में कोई दूसरा मुझे नही मिला ।

बचपन की वो छाप …फिर चौरासी कोस बृज यात्रा करते हुए मुझे वो स्थान भी मिला , नन्दगाँव के पास , जहाँ मधुमंगल की माता पौर्णमासी जी की कुटिया थी । वहाँ मैंने ध्यान किया ….तो वहीं मुझे श्रीमधुमंगल लाल जी के दर्शन हुए । उसके बाद क्या हुआ मैं बताऊँगा नही , नही तो आप कहेंगे ‘सिद्ध’ बनता है । तब से मेरे मन में इच्छा थी की मैं “मधुमंगल” जी के ऊपर कुछ लिखूँ । फिर एक दिन मन में आया “आत्मकथा” ही लिखी जाये ।

“मधुमंगल की आत्मकथा” लिखने का उद्देश्य क्या है ?

ये प्रश्न इन दिनों मेरे पास अधिक आरहे हैं । कारण ये है कि “मिथिला के भक्त” मैंने पूर्ण नही किया , और प्रयागराज में मैंने ये लिखा था कि “मिथिला के भक्त” को मैं श्रीवृन्दावन में जाकर आगे लिखूँगा ….मेरे कतिपय साधक “मिथिला के भक्त” पढ़ना चाहते थे ……लेकिन प्रयागराज से आने के बाद मैं “भक्तमाली जी” के संग नन्दगाँव चला गया तो वहाँ …”मधुमंगल लाल” ने ऐसा पकड़ा कि अपनी आत्मकथा ही लिखवा दी …मैं क्या करूँ ? लेकिन “मिथिला के भक्त” मैं लिखूँगा …और मिथिला में ही कुछ दिन वास करके लिखूँगा ।

अब आत्मकथा लिखने का उद्देश्य ? तो सुनो – कन्हैया के लीला करने का क्या उद्देश्य है ? आनन्द की अभिव्यक्ति बस यही ना ! ऐसे ही मधुमंगल जी ….एक सख्य रस के परमाचार्य …’सखा’ में ही अपनी पूर्णता मान लेना । कभी कभी बात न मानने पर कन्हैया को पीट भी देना …हारने पर स्वयं घोड़ा बनना और जीतने पर कन्हैया को घोड़ा बनाना । ये अद्भुत सख्य रस किसी अन्य रस से कम नही है ।

“मान लौ ना बाकूँ सखा”….मधुमंगल कहें …कन्हैया तौ मान ही रह्यो है …अनादि काल तै मान रह्यो है ….लेकिन बात तौ तब बनेगी ना जब तुम मानौगे ।

साधकों ! या प्रेमी मधुमंगल की बात कब से मान रहे हो ?

मान लोगे तो शीघ्र ही कन्हैया तुम्हारे कन्धे में हाथ धरके बोलेगौ ….चल दारिके ! तैनैं विषय भोग के कृत्रिम मिष्ठान्न बहुत खाय लियौ , अब प्रेम कौ नवनीत चख ।

कल मुझ से गौरांगी कह रही थी ….हरि जी ! इसको जल्दबाज़ी में मत लिखना …विस्तार से लिखना …कहीं जाना आना तो है नही ….ये एक अद्भुत कृति बनेगी । मैंने कहा था …गौरांगी ! मैं तो अपने आनन्द के लिए लिखता हूँ ….कृति मेरी नही …मेरे मधुमंगल जी की है …उन्हीं की प्रेरणा , वही लिखवा रहे हैं …और बृजभाषा में ? मुझे हँसी आती है ।

आज ये सब लिखने का कारण था …मेरे कई साधक मुझ से पूछ रहे थे ….कि मधुमंगल को ही क्यों चुना ? मधुमंगल मेरे आत्मीय हैं ….मेरे अपने ..बचपन से ही । और लिखने का सबसे बड़ा लाभ कन्हैया का चिन्तन हो रहा है …साधकों ! इससे बड़ा लाभ और क्या चाहिए ?

आपका भी ‘कन्हैया’ चिन्तन का विषय बने …इसी कामना से लिख रहा हूँ ।

शेष आत्मकथा बृजभाषा में मधुमंगल जी कल से लिखेंगे ।

क्रमशः…..
Hari sharan


[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.61
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ईश्र्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया || ६१ |

ईश्र्वरः– भगवान्; सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के; हृत्-देशे– हृदय में; अर्जुन– हे अर्जुन; तिष्ठति– वास करता है; भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ; सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को; यन्त्र– यन्त्र में; आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर |

भावार्थ
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हे अर्जुन! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं |

तात्पर्य
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अर्जुन परम ज्ञाता न था और लड़ने या न लड़ने का उसका निर्णय उसके क्षुद्र विवेक तक सीमित था | भगवान् कृष्ण ने उपदेश दिया कि जीवात्मा (व्यक्ति) ही सर्वेसर्वा नहीं है | भगवान् या स्वयं कृष्ण अन्तर्यामी परमात्मा रूप में हृदय में स्थित होकर जीव को निर्देश देते हैं | शरीर-परिवर्तन होते ही जीव अपने विगत कर्मों को भूल जाता है, लेकिन परमात्मा जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता है, उसके समस्त कार्यों का साक्षी रहता है | अतएव जीवों के सभी कार्यों का संचालन इसी परमात्मा द्वारा होता है | जीव जितना योग्य होता है उतना ही पाता है और उस भौतिक शरीर द्वारा वहन किया जाता है, जो परमात्मा के निर्देश में भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न किया जाता है | ज्योंही जीव को किसी विशेष प्रकार के शरीर में स्थापित कर दिया जाता है, वह शारीरिक अवस्था के अन्तर्गत कार्य करना प्रारम्भ कर देता है | अत्यधिक तेज मोटरकार में बैठा व्यक्ति कम तेज कार में बैठे व्यक्ति से अधिक तेज जाता है, भले ही जीव अर्थात् चालक एक ही क्यों न हो | इसी प्रकार परमात्मा के आदेश से भौतिक प्रकृति एक विशेष प्रकार के जीव के लिए एक विशेष शरीर का निर्माण करती है, जिससे वह अपनी पूर्व इच्छाओं के अनुसार कर्म कर सके | जीव स्वतन्त्र नहीं होता | मनुष्य हो यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भगवान् से स्वतन्त्र है | व्यक्ति तो सदैव भगवान् के नियन्त्रण में रहता है | अतएव उसका कर्तव्य है कि वह शरणागत हो और अगले श्लोक का यही आदेश है।
[] Niru Ashra:

श्री भक्तमाल (136)


सुंदर कथा ८९ (श्री भक्तमाल – श्री पूर्णसिंह जी )

श्री पूर्णसिंह जी परम सदाचारी , वीर एवं महान भगवद्भक्त थे । श्री कृष्ण प्रभु इनके इष्टदेव थे । ये आमेर नरेश श्री पृथ्वीराज जी के पुत्र थे । उनकी माता का नाम पदारथ देवी था । कविहृदय, परम भागवत श्री पूर्णसिंह जी नित्य नूतन सुंदर सुंदर पद रचकर अपने श्री ठाकुर जी को सुनाते । श्री ठाकुर जी को भी इनके पदों को सुनने मे बडा सुख मिलता । यदि कभी किसी कार्यविशेष की व्यस्तता में श्री पूर्णसिंह जी पद नही सुना पाते तो श्री ठाकुर जी स्वप्न मे इनसे पद सुनाने का अनुरोध करते । ऐसे दीवाने हो गए थे ठाकुर जी इनके पदों के । एक दो बार इस प्रक्रार का प्रसंग प्राप्त होनेपर इन्होंने दृढ नियम बना लिया की अब मै हर दिन भगवान को पद सुनाऊँगा । बहुत समय तक नियम अक्षुष्ण रूप से चलता रहा । परंतु एक बार किसी राज्यकार्यवश इन्हें पद सुनाने का ध्यान नही रहा ।

जब कार्य से फुरसत मिली तो श्री ठाकुर जी का दर्शन करने मंदिर मे गये । परंतु वहाँ इन्हे श्री ठाकुर जी का श्री विग्रह ही नही दिखायी पड़ा । पुजारी से पूछा – श्री ठाकुर जी की प्रतिमा कहाँ गयी ? पुजारी जी ने कहा – प्रतिमा तो सिंहासन पर ही विराजमान है । श्री पूर्णसिंह जी की समझ मे नहीं आ रहा था कि आखिर मुझे क्यो नहीं दर्शन हो रहा है ? बहुत विचार करने के बाद याद आयी कि मैंने श्री ठाकुर जी को आज पद नही सुनाया । फिर तत्काल पद सुनाने लगे तो श्री ठाकुर जी भी मन्द मन्द मुसकराते हुए इन्हे दर्शन देने लगे । भक्ति मार्ग पर यदि भक्त कोई नित्य नियम निश्चित कर लें तो समय समय पर उसके नियम की परीक्षा होती है । श्री भगवान भी भक्त के नित्य नियम की प्रतीक्षा करते रहते है अतः संसार के कार्यो से पहले नियम को प्रधानता देनी चाहिए यह शिक्षा इस चरित्र से प्राप्त होती है ।

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