] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>1️⃣1️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
मुझे हनुमान की बातें सुनकर बहुत आनन्द आया ।
फिर एकाएक मेरा मन दुःखी हो गया था ………………
हनुमान ! कहना मेरे श्रीराम से कि उन- सा नाथ पाकर भी आज मैं अनाथा की तरह हो गयी हूँ ………..क्या इन राक्षसों के वध के लिये उनके त्रोंण में बाण नही रहे ? मैं व्याकुल हो उठी थी ।
सुरासुर, यक्ष किन्नर नाग किसी में इतना सामर्थ्य नही जो मेरे श्रीराम के रोष का सामना भी कर सके ……………फिर क्यों ? मेरे नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ।
मैं शपथ खाकर कहता हूँ माँ ! कि प्रभु नें आपको विस्मृत नही किया ।
आप अब निश्चिन्त हो जाएँ – प्रभु आवेंगे ………..शीघ्र आवेंगे ।
हनुमान उठ कर खड़े हो गए थे ……………………
पर मेरे अश्रु अब रुकते ही नही ……कारण – मुझे सुमित्रानन्दन की याद आगयी थी ………हनुमान ! मेरी और से श्रीराघवेंद्र सरकार के चरणों में सिर रखकर प्रणाम करना ………..और सुनो हनुमान !
उन परमोदार श्रीरामानुज सुमित्रानन्दन लक्ष्मण को भी मेरी ओर से …………इतना ही कह पाई थी मैं कि मेरी हिलकियाँ बंध गयीं ……।
क्या मुझ कटुभाषिणी दीना, विपत्ति मैं पड़ी हुयी इस सीता को वो क्षमा करेंगें ? उन लखन भैया से कहना ………मैने उनका बहुत बड़ा अपराध किया है ………….मैने उनसे क्या नही कहा …………कहना हनुमान ! उन लक्ष्मण से कि उनके अपराध का दण्ड पा रही हूँ मैं ।
इतना कहते हुये मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ……….।
हनुमान !
कुछ देर बाद मैने अपनें आपको सम्भाला फिर हनुमान को अपनी चूडामणि उतार कर दे दी ।………..वही मेरे सौभाग्य हैं …….मेरा जीवन अब उन्हीं के हाथों में है ।
हनुमान नें आगे बढ़कर अँजली बाँधे चूडामणि अपनें हाथों में ले ली ।
हनुमान ! तुम आये मुझे तो ऐसा लगा जैसे शुष्क धरती में बारिश हो गयी हो….पर अब कहना मेरे श्रीराम से….एक मास का समय दिया है रावण नें….अगर एक मास में वो नही आये तो सीता देह त्याग देगी ।
माँ ! ऐसा मत कहिये …….प्रभु आयेंगें ………अवश्य आयेंगें ।
मैं देखती रही ….. हनुमान नें मुझे प्रणाम किया ……मैने उसे भूरि भूरि आशीष दिया ………….वो तो देखते ही देखते उड़ गया था ।
शेष चरित्र कल ……!!!!!!
🌹जय श्री राम🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-37”
( गोपी की “मोतिन माला” जब कन्हैया ने तोड़ दई )
मैं मधुमंगल…..
बा दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी ही …देव उठनी एकादशी । शास्त्रन में बड़ौ ही महत्व है या एकादशी कौ । वैसे मैं एकादशी कौ व्रत नाँय करूँ हूँ । मोकूँ भूख अधिक लगे है …वैसे भी कन्हैया मोकूँ एकादशी करन नाँय देय । अब या कन्हैया कौ जूठौ खाय के का एकादशी होयगी ? और जे तौ एकादशी करे ही नाँय …और हम सखा और मैया याहे एकदशी करन भी नाँय दें । कोमल है लाला ..बड़ौ ही कोमल है , याकूँ काहे की एकादशी ? वैसे तौ भैया ! मोकूँ तौ कन्हैया कौ जूठौ ही अच्छों लगे …..याके जूठे के आगे तौ कोटिन एकादशी न्यौछावर ।
अब बा दिना बड़ी एकादशी ही …..तौ मैंने एकादशी कौ व्रत धर लियौ हो …चौं कि नन्दभवन में कीर्तन हो ….और अखण्ड कीर्तन हो ….सबरे गोकुल वासी आज यहीं आए है । सब मिल जुल रहे हैं…..सबने कीर्तन की शुरुआत करी ….ब्रजराज बाबा नाच रहे ….कभी मैया बृजरानी कूँ सब उठाय देते तौ बु हूँ नाच देतीं । कन्हैया तौ नाच ही रो …मोते कह रो तू भी नाच ! अब मैं ब्राह्मण कौ बेटा मोहे कहा नाचवौ आवै । लेकिन कन्हैया जिद्द कर रो तौ मैं हूँ मटक दियौ । कन्हैया खूब हस्यो …और भीतर तै बेसन के लड्डू लै आयौ …और मोते बोलो ..मुँह खोल …मैंने मुँह खोली तौ मेरे मुँह में लड्डू डाल दियौ …और ताली बजाय के हँसवे लग्यो …”मधुमंगल कौ व्रत टूट गो”।
मैं मन में सोच रो …लाला ! तू राजी रहे …तू जामें राजी वाही में हम राजी । पाप लगेगौ …हाय ! कन्हैया कह रो …..मैंने अब कही …लाला ! पाप की हिम्मत नाँय कि तेरे सखा कूँ छु भी लेगौ ….और रही व्रत टूटवे की बात तौ हम तेरे काजे व्रत रखें ….तू तोड़ेंवे में राजी है तौ हम तेरी राजी में राजी हैं । मेरी बात सुनके कन्हैया ने मोकूँ हृदय ते लगाय लियौ हो ।
मैं तौ लाला के स्पर्श तै ही प्रसन्न है गयौ ….लेकिन लाला तौ , कीर्तन में भीड़ में काहू कूँ खोज रो ….थोड़ी देर के बाद मैंने देखी ….लाला कन्हैया वहाँ तै चलौ गयौ हो ।
‘प्रभा’……हाँ यही नाम है बाँ ग्वालिन कौ । सब आए हे नन्द भवन में , लेकिन प्रभा नही आयी ही ।
और ये प्रभा …दो वर्ष पहले याकौ ब्याह भयौ हो ….अब गौना कराये के लै कै आयौ हो याकौ पति ….बड़ी सुन्दर ही प्रभा …छोटे क़द की ही …अत्यन्त गौर वरण की ही …दुबली पतली …होगी तेरह या चौदह वर्ष की …बस याही तै नैंन मटक्का करगौ कन्हैया । ( मधुमंगल यहाँ पै बहुत हंसते हैं ) “जार शिरोमणि” तौ है ही अपनौ कन्हैया ।
आज एकादशी में ‘प्रभा’ नही आयी ….खसम आयौ , सास आयी , ननद आयी , ससुर हूँ आयौ …लेकिन प्रभा नही आयी ।
अपनौं कन्हैया बाही प्रभा के यहाँ चलौ गयौ …..खुश है कै गयौ ….कि चलौ अब तौ अपनी प्रभा ही मिलेगी …..कोई नही है घर में ।
जब जे गयौ …तौ आँखन कूँ मूँद के प्रभा बैठी है , घर के भीतर …..घी कौ दीयौ जल रह्यो है …और जे ध्यान कर रही है …नही नही , कर नाँय रही …याकौ ध्यान लग गयौ ।
और ध्यान में ?
अजी ! या बृज कौ ध्यान कोई ऋषि पतंजलि कौ ध्यान थोड़े ही है …..यहाँ तौ सबरे कन्हैया कौ ही ध्यान करें ……
तभी रुनझुन करते भए कन्हैया पहुँच गए गोपी प्रभा के पास ….अब नूपुर की रुनझुन भई तौ प्रभा कौ ध्यान टूट्यो । आहा ! अपने सामने कन्हैया कूँ जब देख्यो प्रभा ने ……पहले तौ प्रभा कूँ लग्यो कि ….मेरौ ध्यान ही है …ध्यान में ही कन्हैया आए हैं …लेकिन जब पास में कन्हैया गए …और गोपी के कपोल ते अपनौं कपोल जोड़ दियौ ….सोई प्रभा कूँ रोमांच भयौ ….तौ प्रभा उठी ..प्रभा उठी तौ कन्हैया भगे ….अब कन्हैया भगते …प्रभा ने दौड़ लगाय के पकड़ लियौ कन्हैया कूँ ….अब तौ कन्हैया अपने कूँ छुड़वामें …लेकिन प्रभा नही छोड़ रही …बाकूँ तौ परमानन्द की प्राप्ति है गयी …..बाकी साँस तेज चलवे लगी …..कन्हैया ने सोची अब कैसे बचें ? या प्रभा तै कैसे बच्यो जाये ? तभी कन्हैया ने एक हाथ ते प्रभा कै हृदय में झूल रही मोतिन की माला तोड़ दई …..अब माला टूटी तौ मोती बिखरे ….प्रभा ने कन्हैया कौ हाथ छोड़ दियौ …और बिखरे मोती समेटवे लगी …लेकिन बाही समय कन्हैया भग गए । जब प्रभा ने देख्यो कि कन्हैया तौ भग गये ….तौ प्रभा हूँ मोतिन कूँ बीननौं छोड़ के कन्हैया के ही पीछे भगी ।
कन्हैया भागते भए नन्द भवन में …रात्रि है गयी ही …सब कीर्तन में लगे है ।
मैंने देखी कन्हैया भगौ आयौ है …तौ मैंने पूछी ..चौं रे दारिके ! कहाँ गयौ हो तू ।
कन्हैया साँस लेते हूँ बोल रहे , और छोड़ते हूँ बोल रहे ।
तभी प्रभा आय गयी …..अब तौ सब देख रहे हैं …प्रभा ने कन्हैया की सीधे फेंट पकड़ लई ….और बोली …”मोती दै” । वहीं हैं मोती । कन्हैया बोलो । नाँय तेरे पास हैं मोती ..तू मोती की माला कूँ तोड़ के मोती लै आयौ है ….प्रभा की बात सुनके कन्हैया बोले …झूठी ! हट्ट ! । लेकिन प्रभा भी आज अपने में आय गयी है …अब तौ कीर्तन बंद है गयौ है….सब उठके आए गए ….मैया बृजरानी आईं और बात सम्भालते भए बोलीं ….कोई बात नही अब माला टूट गयी तौ टूट गयी । चल कन्हैया , दै मोती! मैया कहवे लगी । मेरे पास कहाँ है मोती ? मैया भीतर गयी और मोती लै कै आयी और कन्हैया ते बोली …दै । अब कन्हैया हाथन में भर के प्रभा कूँ मोती दै रहे हैं । मैं देख रो ….वहाँ प्रत्येक गोपी के मन में प्रभा के प्रति ईर्ष्या जाग गयी ही …आहा ! या नई नवेली ग्वालिन के कितने बड़े भाग हैं कि कन्हैया याकूँ अपने हाथन ते मोती दै रो है । हे भगवान ! हमकूँ भी कभी मोती या कन्हैया के कोमल हाथन ते दिवाऔ ।
प्रभा तौ मटकती भई मोतिन कूँ लै कै चली गयी अपने घर ….सास ससुर खसम ननद सब देखती रहीं । बदनामी करवाय दई है या प्रभा ने …सास बोली …तौ सब गोपी बोलीं …हाय ! ऐसी बदनामी हमारी भी है जाये । कन्हैया सबकी बातन्ने सुन रह्यो है और मुस्कुरा रह्यो है ।
क्रमशः….
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (137)
सुंदर कथा ९० (श्री भक्तमाल – श्री श्वपच वाल्मीकि जी )
श्वपच वाल्मीकि नामक एक भगवान् के बड़े भारी भक्त थे, वे अपनी भक्ति को गुप्त ही रखते थे। एक बार की बात है, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमेंइतने ऋषि-महर्षि पधारे कि सम्पूर्ण यज्ञ स्थल भर गया भगवान् श्रीकृष्ण ने वहां एक शंख स्थापित किया और कहा कि यज्ञ के सांगोपांग पूर्ण हो जाने पर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा। यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञ में अभी कुछ त्रुटि है, यज्ञ पूरा नही हुआ। वही बात हुई। पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मण भोजन, दान-दक्षिणादि सभी कर्म विधिसमेत सम्पन्न हो गये, परंतु वह शंख नहीं बजा। तब सबको बड़ी चिन्ता हुई कि इतने श्रम के बाद भी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ। सभी लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास आकर कहा कि प्रभो ! आप कृपा करके बताइये कि यज्ञ में कौन-सी कमी रह गयी है। भगवान् श्री कृष्ण बोले-शंख न बजने का रहस्य सुनिये –
यद्यपि ऋषियों के समूह से चारों दिशाएँ, सम्पूर्ण भूमि भर गयी है और सभी ने भोजन किया है, परंतु किसी रसिक वैष्णव सन्त ने भोजन नहीं किया है,यदि आप लोग यह कहें कि इन ऋषियोंमें क्या कोई भक्त नहीं है तो मैं ‘नही ’ कैसे कहूँ, अवश्य इन ऋषियों में बहुत उत्तम-उत्तम भक्त हैं, फिर भी मेरे हृदय की एक गुप्त बात यह है कि मैं सर्वश्रेष्ठ रसिक वैष्णव भक्त उसे मानता हूँ, जिसे अपनी जाति, विद्या, ज्ञान आदि का अहंकार बिल्कुल न हो और अपने जो दासों का दास मानता हो, यदि यज्ञ पूर्ण करने की इच्छा है तो ऐसे भक्त को लाकर जिमाइये।
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा – प्रभो ! सत्य है, पर ऐसा भगवद्भक्त हमारे नगर के आस-पास कहीं भी दिखायी नहीं देता है। जिसमें अहंकार की गन्ध न हो-ऐसा भक्त तो किसी दूसरे लोक में भले ही मिले। भगवान् ने कहा – नहीं, तुम्हारे नगर में ही रहता है। दिन-रात, प्रातः-सायं तुम्हारे यहाँ आता-जाता भी है, पर उस कोई जानता नहीं है और वह स्वयं अपने को प्रकट भी नहीं करता है। यह सुनकर सभी आश्चर्य से चैंक उठे और बोले-प्रभो ! कृपया शीघ्र ही बताइये, उनका क्या नाम है और कहाँ स्थान है? जहाँ जाकर हम उनका दर्शन करके अपने को सौभाग्यशाली बनाये।भगवान् ने कहा – श्वपच भक्त वाल्मीकि के घर को चले जाओ, वे सर्वविकार रहित सच्चे साधु हैं।
अर्जुन और भीमसेन दोनों ही भक्त वाल्मीकि जी को निमन्त्रण देने के लिये उनके घर जाने को तैयार हुए। जब भगवान् ने उन्हें सतर्क करते हुए हृदय की बात खोलकर कही- जाते तो हो पर सावधान रहना, भक्तों की भक्ति का भाव अत्यन्त दुर्लभ और गम्भीर है, उनको देखकर मन में किसी प्रकार का विकार न लाना, अन्यथा तुम्हारी भक्ति में दोष आ जायगा। दोनों ने भक्त वाल्मीकि के घर पहुँचकर उसके चारों ओर घूमकर उसकी प्रदक्षिणा की। आनन्द से झूमते हुए पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया । भीतर जाकर देखा तो उनका उपासना गृह बड़ा सुन्दर था। वाल्मीकिजी ने जब दोनों राज-राजाओं को आया देख तो उन्होंने सब काम छोड़ दिये। लज्जा एवं संकोच वश काँपने लगे, उनका मन विह्नल हो गया। अर्जुन और भीमसेन ने सविनय निवेदन किया – भक्तवर ! कल आप हमारे घर पर पधारिये और वहाँ अपनी जूठन गिराकर हमारे पापग्रहों को दूर कीजिये। हम सबको परम भाग्यशाली बनाइये।
दोनों को निमन्त्रण देते तथा अपनी बड़ाई करते हुए सुनकर वाल्मीकि जी कहने लगे – अजी ! हम तो सदा से आपकी जूठन उठाते हैं और आपके द्वार पर झाडू लगाते हैं। मेरा निमन्त्रण कैसा? पहले आप भोग भोजन कीजियेगा, फिर पीछे से हमें अपनी जूठन दीजियेगा। अर्जुन-भीमसेन ने कहा – आप यह क्या कह रहे हैं? पहले आप भोजन कीजियेगा, फिर पीछे से हमें कराइयेगा। बिना आपको खिलाये हम लोग नहीं खायेंगे। दूसरी बात भूलकर भी मन में न सोचिये। वाल्मीकि जी ने कहा-बहुत अच्छी बात, यदि आपके मन में ऐसा है तो ऐसा ही होगा।
अर्जुन और भीमसेन ने लौटकर राजा युधिष्ठिर से वाल्मीकि की सब बात कही, सुनकर युधिष्ठिर को श्वपच भक्त के प्रति बड़ा प्रेम हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अच्छी प्रकार से सिखाया कि तुम सभी प्रकार के षट्रस व्यंजनों को अच्छी प्रकार से बनाओ। तुम्हारे हाथों की सफलता आज इसी में है कि भक्त के लिये सुन्दर रसोई तैयार करो। रसोई तैयार हो चुकने पर राजा युधिष्ठिर जाकर वाल्मीकि को लिवा लाये। उन्होंने कहा कि हमें बाहर ही बैठाकर भोजन करा दो। श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा – हे युधिष्ठिर ! ये तो तुम्हारे भाई हैं, इन्हें सादर गोद में उठाकर स्वयं ले आओ। इस प्रकार उन्हें पाकशाला में लाकर बैठाया गया और उनके सामने सभी प्रकार के व्यंजन परोसे गये। रसमय प्रसाद का कौर लेते ही शंख बज उठा, परंतु थोड़ी देर बजकर फिर बन्द हो गया, तब भगवान् ने शंख को एक छड़ी लगायी।
भगवान् ने शंख से पूछा – तुम भक्त के भोजन करने पर ठीक से क्यों नहीं बज रहे हो? घबड़ाकर शंख बोला – आप द्रौपदी के पास जाकर उनसे पूछिये, आप मन से यह मान लीजिये कि मेरा कुछ भी दोष नहीं है। जब द्रौपदी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि शंख का कथन सत्य है। भक्त जी खट्टे-मीठे आदि रसों के सभी व्यंजनों को एक में मिलाकर खा रहे हैं, इससे मेरी रसोई करने की चतुरता धूल में मिल गयी। अपनी पाकविद्या का निरादर देखकर मेरे मन में यह भाव आया कि आखिर हैं तो ये श्वपच जाति के ही, ये भला व्यंजनों का स्वाद लेना क्या जाने? तब भगवान् ने सब पदार्थों को एक में मिलाकर खाने का कारण पूछा।
भक्त श्वपच वाल्मीकि ने कहा कि इनका भोग तो आप पहले ही लगा चुके है, अतः पदार्थ बुद्धि से अलग-अलग स्वाद कैसे लूँ? पदार्थ तो एक के बाद दूसरे रुचिकर और अरुचिकर लगेंगे। फिर इसमें प्रसाद बुद्धि कहां रहेगी? मै तो प्रसाद का सेवन कर रहा हूँ, व्यंजनों को नहीं खा रहा हूँ। यह सुनकर भक्त वाल्मीकि में द्रौपदी का अपार सद्भाव हुआ। शंख जोरों से बजने लगा। लोग भक्त की जय-जयकार करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण हुआ और भक्त वाल्मीकि जी की महिमा का सबको पता चल गया।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.62
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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्र्वतम् || ६२ ||
तम् – उसकी; एव – निश्चय ही; शरणम् गच्छ – शरण में जाओ; सर्व-भावेन – सभी प्रकार से; भारत – हे भरतपुत्र; तत्-प्रसादात् – उसकी कृपा से; पराम् – दिव्य;शान्तिम् – शान्ति को; स्थानम् – धाम को; प्राप्स्यसि – प्राप्त करोगे; शाश्र्वतम् – शाश्र्वत |
भावार्थ
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हे भारत! सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ | उसकी कृपा से तुम परम शान्ति को तथा परम नित्यधाम को प्राप्त करोगे |
तात्पर्य
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अतएव जीव को चाहिए कि प्रत्येक हृदय में स्थित भगवान् की शरण ले | इससे इस संसार के समस्त प्रकार के दुखों से छुटकारा मिल जाएगा | ऐसी शरण पाने से मनुष्य न केवल इस जीवन के सारे कष्टों से छुटकारा पा सकेगा, अपितु अन्त में वह परमेश्र्वर के पास पहुँच जाएगा | वैदिक साहित्य में (ऋग्वेद १.२२.२०) दिव्य जगत् तद्बिष्णोः परमं पदम् के रूप में वर्णित है |चूँकि सारी सृष्टि ईश्र्वर का राज्य है, अतएव इसकी प्रत्येक भौतिक वास्तु वास्तव में आध्यात्मिक है, लेकिन परमं पदम् विशेषतया नित्यधाम को बताता है,जो आध्यात्मिक आकाश या वैकुण्ठ कहलाता है |
भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहा गया है – सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः – भगवान् प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं |अतएव इस कथन कि मनुष्य अन्तःस्थित परमात्मा की शरण ले, का अर्थ है कि वह भगवान् कृष्ण की शरण ले | कृष्ण को पहले ही अर्जुन ने परम स्वीकार कर लिया है | दसवें अध्याय में उन्हें परम ब्रह्म परम धाम के रूप में स्वीकार किया जा चुका है |अर्जुन ने कृष्ण को भगवान् तथा समस्त जीवों के परम धाम के रूप में स्वीकार कर रखा है, इसलिए नहीं कि यह उसका निजी अनुभव है, वरन् इसलिए भी कि नारद, असित, देवल, व्यास जैसे महापुरुष इसके प्रमाण हैं |


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