[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>1️⃣1️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
क्या रावण ज्योतिष विद्या भी जानता है ? मेरे इस प्रश्न पर त्रिजटा बहुत हँसी …….ज्योतिष ? रावण की अपनी संहिता है ज्योतिष के ऊपर ……और प्रामाणिक है…….ऋषि भृगु नें भी रावण के ज्योतिष का आदर किया है……..त्रिजटा और भी कुछ बता रही थी …पर मुझे नही सुनना अब रावण के बारे में ……..मैं आज बहुत प्रसन्न थी ………क्यों की मुझे लेनें के लिये मेरे श्रीराम समुद्र के उस पास आचुके थे ।
और कुछ सूचना है तेरे पास त्रिजटा ? मुझे और सुनना था समुद्र के किनारे मेरे श्रीराम कहाँ रुक रहे हैं…….और उनकी सेना कैसे ठहरी है……..त्रिजटा से ये सब मैं जानना चाहती थी ……..त्रिजटा नें मुझे बताया भी …….जितनी जानकारी उसके पास थी ।
सागर तट में अब पैर रखनें की जगह भी नही है………समूचा समुद्र का किनारा वानरों से भर गया था ……..।
वानर पूँछ पटक पटक कर गर्जना कर रहे हैं…….बारबार जयनाद कर रहे हैं……….आकाश पूरा गूँज उठता है …..जब करोड़ों वानर एक साथ …”जय श्रीराम” ……का उदघोष करते हैं ।
आस पास में जो भी वन्य पशु थे वो सब भाग गए वहाँ से ………पक्षी अपनें जलाशय छोड़कर भागे ……..क्यों की वानर लोग कूदकूद कर नहा रहे थे उन छोटे छोटे जलाशयों में ।
शिविर लगा लिए गए हैं सागर किनारे …………हे रामप्रिया ! और सेना का दायित्व अभी महाराज सुग्रीव नें नल नील नामक दो वानरों को दिया है …..वही सबकी व्यवस्था देख रहे हैं …………..
त्रिजटा बोले जा रही थी, मैं सुन रही थी …….बड़ी प्रसन्नता से ।
श्रीराम के साथ लक्ष्मण हैं….और वही वानर जो लंका जलाकर गया था…..मैने ही त्रिजटा को बताया….हनुमान , हनुमान नाम है उसका ।
मेरे श्रीराम क्या सोच रहे होंगें ? मेरे कारण वो इतना दुःख पा रहे हैं !
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!
✨✨✨ जय श्री राम ✨✨✨
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-39”
( “लायौ पिल्ला घेर”- ऊधमी कन्हैया )
मैं मधुमंगल…..
अहीर जात कौ है कन्हैया …अहीर जात के लोगन की एक विशेषता होवे ….ये जाकूँ अपनौं कहें बु अपनौ….फिर बाके मित्र हमारे मित्र , बा के शत्रु हमारे शत्रु । कोई तर्क नही , कोई कुतर्क नही । कन्हैया कौ स्वभाव यही है …..याके भक्तन के अपने , याके अपने , याके भक्तन कौ द्रोही याकौ द्रोही । ना , कन्हैया कछु नाँय सुनेगौ तुम्हारी …..तुमने कैसे याके भक्तन कूँ गारी दई ! अब देखौ ना , ब्राह्मण हे ऋषि दुर्वासा ….और क्षत्रिय हो बु अम्बरीश ….लेकिन अम्बरीष ने याकूँ अपनौ मान्यौ तौ अपने कन्हैया ने हूँ अपनौ कह दियौ ……और जब अम्बरीष कूँ मारवे के काजे दुर्वासा ने कृत्या राक्षसी प्रकट करी …सोई या अहीर के छोरा कूँ क्रोध आय गो ……और फिर दौड़ायौ याने दुर्वासा कूँ ……बेचारे दुर्वासा कह रहे ….मैंने तुम्हारौ अपराध थोड़े ही कियौ है …फिर तुम मोकूँ काहे भगाय रहे हो ? लेकिन कन्हैया कन्हैया है …”आख़िर जात अहीर” तर्क को कोई मतलब ही नही है …..अम्बरीश अपनौ है …दुर्वासा अपनौ नही है । चौं ? पूछो याते …तौ कन्हैया कहेगौ …..क्यों की अपनौं मानें अम्बरीष मोकूँ …..तौ मेरौ अम्बरीश भयौ ….और मेरे अपने कूँ कोई हाथ नही लगाएगौ , और लगाय गयौ तौ बु मेरौ परम द्रोही है । लो कर लो बात ! अब कछु मत बोलो । ये ऐसौ ही है । बेचारे ऋषि दुर्वासा बोलते रहे ….मैं ब्राह्मण हूँ …..तौ कन्हैया बोलो …मैं अपनौ परायौ देखूँ …जे ब्राह्मण और क्षत्रिय मेरी दृष्टि में नही हैं । अब का कहोगे याते ? कहनौं नही है …या अहीर के पाँव पूजने हैं ……बोलो ….देखौ बृज की गोपियाँ यही तौ गाती हैं …..
। अईयौ रे अहीर के तू मेरी गली , चन्दन छिरकूँगी लाला तेरी पगरी ।
कन्हैया ऊधमी बहुत है गयौ है ….और याकौ ऊधम रुकवे कौ नाम नही लै रह्यो है !
( ये लिखते हुए मधुमंगल बहुत हँसते हैं , आज कुछ अधिक ही हँस रहे हैं )
चल दारिके ! अब मोकूँ अपनी जनेऊ बदलनी पड़ेगी ……बा दिन मैं ग़ुस्सा है गयो हो ।
मैनै का करी ? कन्हैया हूँ हँसतौ भयौ बोलो । का करी ? ब्राह्मण के हाथन ते कुत्ता पकड़वाए दिए तैनैं । कुत्ता नही हे ..पिल्ला हे ….ये कहके कन्हैया हंस रो ।
सच में तू नन्द कौ छोरा बड़ौ ही ऊधमी है गयौ है ….मैंने बाते कही तौ हँसवे लगो ….फिर मेरे पीठ में हाथ मारतौ भयौ बोलो ….सत्यनारायण भगवान । फिर हंस्यो । मैं भी हँसतौ भयौ बाके साथ नन्द भवन की ओर आरह्यो हो ।
बा दिना कन्हैया ….मोकूँ लै कै गयौ “चंदावती” ग्वालिन के पास ….मैंने कही …कहाँ जानौं है ? तौ बोलो …चल ना ! न्यौतौ दैकै गयी है चन्द्रावती , हमारी मैया कूँ…. कि आज सत्यनारायण की कथा है आप कथा सुनवे अईयौं । तौ तू चौं जाय रो है ? मैया जावेगी ….अरे रहन दै मैया शाम कूँ जावेगी …हम पहले चलें ..तौ कछु खायवै कूँ मिलैगौ । कन्हैया बोलो ….तो मैंने ही कही …चल ।
अब हम दोनों है कै गए चन्द्रावती के घर में ….चन्द्रावती घर में घुसते ही मिल गयी ….गोबर ते आँगन लीप रही ही । सोई पहुँच गए हम दोनों ।
भाभी ! राम राम ! कन्हैया ही बोलो ।
हाँ , राम राम राम राम …..कैसे आए ? सत्यनारायण की कथा तौ शाम कूँ होवेगी । चन्द्रावती बोली । अरे , शाम कूँ हूँ आजाएँगे ….अभी भी आय गये …..कन्हैया इतनौं कहके चारों ओर देखवे लगो …..याके आँखन में ही सबरी चंचलता भरी पड़ी है …..अब मोहे डर लगरौ की जे कहा ऊधम मचावैगौ !
माखन नही है …….चंदावती ने ये कहके कन्हैया कूँ चिढ़ाय दियौ ।
कन्हैया ने इधर देख्यो …फिर बोलो …कोई बात नही भाभी ! हम खायवे नही आए हैं …ये कहके चार कदम घर के भीतर कन्हैया गयौ ….फिर बोलो …भाभी ! सत्यनारायण भगवान कौ सिंहासन कहा है ? चन्द्रावती बोली …..सामने …लेकिन जानौं नही ….कान काट दैं भगवान । ना भाभी ! ना …दूर तै प्रणाम करेंगे । अब मोहे चिंता है रही सत्यनारायण भगवान की ….
बड़ौ सौ सिंहासन है …….पीरौ रेशमी वस्त्र बिछायौ भयौ हो ……
कन्हैया गयो सिंहासन के पास ….फिर इधर उधर देखवे लग्यो …….
का बात है , आयी ! चन्द्रावती कूँ काहू ग्वालिन ने बुलायौ तौ बु नेक देर के लिए बाहर गयी ….तभी कन्हैया बाहर गयौ , इधर उधर देखी …और मोते बोलो …मधुमंगल! बा पिल्ला कूँ पकड़ लै अईयौ …..मैंने कही पागल है ….मैं वामन कौ छोरा …..जा ! मेरी बात कहाँ सुने जे नन्द कौ ….मोकूँ जानौं ही पड़ो …..फिर मेरे हाथ ते लै कै ….पिल्ला भी खुश …..की कन्हैया ने मोकूँ गोद में धर लियौ …..अब तौ ………..
भाभी ! भाभी ! कन्हैया ने मेरौ हाथ पकड़ो और ……
का बात है ? चन्द्रावती बोली ।
नेक भीतर आय के अपने सत्यनारायण में दर्शन करियौ ?
कन्हैया पेट पकड़ के हँस रो …और भाभी ते कह रो ….
चन्द्रावती आयी …..और जैसे ही बाने सिंहासन देख्यो ….बु कुत्ता कौ पिल्ला सिंहासन में बैठाय दिए हे ……और अब कन्हैया भगौ …….मेरे हाथ कूँ पकड़ते भए भगौ । और कहतौ भयौ भगौ …की भाभी ! तेरे सत्यनारायण भगवान । ( मधुमंगल यहाँ बहुत हँसते हैं …और इतना हंसते हैं कि आज उनसे इससे अधिक लिखा नही जाएगा )
अब कल लिखूँगौ । ( मधुमंगल हँसते हुए कहते हैं )।
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (139)
सुंदर कथा ९२ (श्री भक्तमाल – श्री कृष्णदास जी ) भाग 01
श्री गोवर्धनधारी भगवान् श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर श्री कृष्णदास को अपने नाम मे हिस्सा दिया । श्री कृष्ण दासजी श्री गुरु वल्लभाचार्य जी के द्वारा दिये गये भजन भाव के समुद्र एवं समस्त शुभ गुणों की खानि थे । आपके द्वारा रची गयी कविताएं बडी ही अनोखी एवं काव्यदोष से रहित होती थी । आप ठाकुर श्री श्रीनाथजी की सेवा में बड़े चतुर थे । श्री गिरिधर गोपाल जी के मंगलमय सुयश से विभूषित आपकी वाणी की विद्वान जन भी सराहना करते थे । आप श्री व्रज की रज ( धूल ) को अपना परम आराध्य मानते थे । चित्त मे उसी को सर्वस्व मानकर शरीर मे एवं सिर-माथेपर धारण करते थे तथा चित्त मे चिन्तन भी करते थे । आप सदा – सर्वदा श्री हरिदासवर्य श्री गोवर्धन जी के समीप बने रहते थे एवं सदा बड़े-बड़े सन्तो के सानिध्य मे रहते थे । आपने श्री राधा-माधव युगल की सेवा का दृढ व्रत ले रखा था ।
१. जलेबियों का भोग –
श्री कृष्णदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे । महाप्रभु ने ठाकुर श्री श्रीनाथजी की सेवा का सम्पूर्ण भार इन्हे सौपा था । एक बार आप श्री ठाकुरजी के सेवाकार्य के लिये दिल्ली गये हुए थे । वहाँ बाजार मे कडाही से निकलती हुई गरमागरम जलेबियों को देखकर , जैसे ही उसकी सुवास अंदर गयी वैसे ही आपने सोचा कि यदि इस जलेबी को हमारे श्रीनाथ जी पाते , तो उन्हें कैसा अद्भुत आनंद आता । उस बाजार में खड़े खड़े मानसी-सेवा मे (मन ही मन) ही कृष्णदास जी उन जलेबियों को स्वर्ण थाल में रखकर श्री श्रीनाथजी को भोग लगाया, भाववश्य भगवान ने उसे स्वीकार कर लिया ।
वृन्दावन के एक संत कहा करते थे – जब संसार की कोई उत्कृष्ट वस्तु , उत्कृष्ट खाद्य सामग्री को जीव देखता है तो उसके मन मे दो भाव ही आ सकते है – १. पहला की इसका संग्रह मेरे पास होना चाहिए, इस वस्तु का मैं भोग कर लूं । २. दूसरा की यदि यह वस्तु मेरे प्रभु की सेवा में उपस्थित हो जाये तो उन्हें कैसा सुख होगा । संत के हृदय में सदा यह दूसरा भाव ही आता है ।
उधर जब आरती करने से पहले मंदिर मे गुसाई जी ने भोग उसारा तो उन्होंने जो देखा उससे उन्हें अद्भुत आश्चर्य हुआ । श्रीनाथ जी ने विविध भोग सामग्रियों को एक ओर कर दिया है और जलेबीयों से भरा एक स्वर्ण का थाल मध्य में चमचमा रहा है । श्रीनाथ जी मंद मंद मुसकरा रहे थे और उनके हाथ में भी जलेबी प्रत्यक्ष मौजूद पायी गयी । गुसाई जी समझ गए कि आज किसी भक्त ने भाव के बल से इस सेवा का अधिकार प्राप्त कर लिया है ।
२. वेश्या पर कृपा –
एक बार आप आगरा गये थे । वहाँ एक दिन संध्या के समय कृष्णदास जी के कान में अत्यंत मधुर स्वर आया । जैसे जैसे उस स्वर का अनुसरण करते करते उसकी दिशा में चलने लगे । जैसे ही कुछ निकट आये तो घुंघरुओं की ध्वनि भी आने लगी । वहां उन्होंने देखा कि एक वेश्या अत्यन्त मधुर राग-स्वर से गायन कर रही है और नृत्य करके संसारी पुरुषों को रिझा रही है ।
कृष्ण दास जी ने सोचा कि यह वेश्या तो गान और नृत्य में बड़ी पारंगत है , बड़ा सुंदर रूप पाया है जिसने । परंतु इन संसारी पुरुषों को रिझाने में लगी है – इसे तो मेरे प्रभु की सेवा में होना चाहिए । श्री कृष्णदास जी ने उस वेश्या को कुछ स्वर्ण अशर्फियाँ (धन) दिए और कहा कि अमुक स्थान और हमसे मिलने आना । वैश्या ने सोच की केवल मिलने के लिये जो व्यक्ति इतना धन दे गया , यदि उसे रिझा लुंगी तो न जाने कितना धन प्राप्त होगा । लोभवश वह वेश्या श्रृंगार करके समय से पहले वहाँ पहुंच गई । श्री कृष्णदास जी ने उससे कहा कि मैने तुम्हे अपने लिए यहां नही बुलाया है , मैं तो अपने स्वामी का एक तुच्छ सा दास हूं – तुम्हे तो मेरे स्वामी को प्रसन्न करना है ।
वैश्या ने सोचा कि जिसके दास का ऐसा वैभव है , उसके स्वामी का कैसा वैभव होगा । कृष्णदास जी ने पूछा- क्या तू हमारे स्वामी के यहाँ चलकर गाना सुना सकती है ? वह गोवर्धन में निवास करते है। मै सत्य कहता हूं कि यदि तुमने उन्हें रिझा लिया तब तुम्हे जीवन मे किसी को रिझाने की आवश्यकता नही होगी । उस धन की लोभी वैश्या ने तत्काल इनके साथ चलने की स्वीकृति दे दी । फिर तो ये भी लोक-लाज को सर्वथा दूरकर उसे साथ लेकर चल दिये । आगरा से अपनी बैलगाड़ी मे वैश्या को साथ लेकर गिवर्धन की ओर चल दिये ।
शेष भाग कड़ी संख्या 140 में देखें
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.64
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सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः |
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् || ६४ ||
सर्व-गुह्य-तमम् – सबों में अत्यन्त गुह्य; भूयः – पुनः; शृणु – सुनो; मे – मुझसे; परमम् – परम; वचः – आदेश; इष्टःअसि – तुमप्रिय हो; मे – मेरे, मुझको; दृढम् – अत्यन्त;इति – इस प्रकार; ततः – अतएव; वक्ष्यामि – कह रहा हूँ; ते – तुम्हारे; हितम् -लाभ के लिए |
भावार्थ
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चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधिक गुह्यज्ञान है, बता रहा हूँ |इसे अपने हित के लिए सुनो |
तात्पर्य
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अर्जुन को गुह्यज्ञान (ब्रह्मज्ञान) तथा गुह्यतरज्ञान (परमात्मा ज्ञान) प्रदान करने के बाद भगवान् अब उसे गुह्यतमज्ञान प्रदान करने जा रहे हैं – यह है भगवान् के शरणागत होने का ज्ञान | नवें अध्याय में उन्होंने कहा था – मन्मनाः – सदैवमेरा चिन्तन करो | उसी आदेश को यहाँ पर भगवद्गीता के सार के रूप में जोर देने के लिए दुहराया जा रहा है, यह सार सामान्यजन की समझ में नहीं आता | लेकिन जो कृष्ण को सचमुच अत्यन्त प्रिय है, कृष्ण का शुद्धभक्त है, वह समझ लेता है | सारे वैदिक साहित्य में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आदेश है | इस प्रसंग में जो कुछ कृष्ण कहते हैं,वह ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है और इसका पालन न केवल अर्जुन द्वारा होना चाहिए, अपितु समस्त जीवों द्वारा होना चाहिए |


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