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July 31, 2025 3:02 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 116(3) श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 42″, श्री भक्तमाल (142)तथा श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>1️⃣1️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं,
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।
भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं,
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मेघनाद ! तुम मेरे सामनें बालक हो …………मुझे सम्मति देंनें योग्य बुद्धि तुममें है नही ……….तुम जो राय दे रहे हो अपनें पिता को , ये उपयुक्त नही है………तुम स्वयं विचार करो………किसी की पत्नी का हरण कहाँ वीर व्यक्ति को शोभा देता है ?

“मैं आपका छोटा भाई हूँ”………रावण की और मुड़े विभीषण , मैं आपके सामनें हाथ जोड़कर ये प्रार्थना कर रहा हूँ भैया ! आप सीता को लौटा दें श्रीराम को…….मेरी इतनी बात मान लें ……भैया रावण ! सीता को ससम्मान धन रत्न मणि इत्यादि देकर श्रीराम को लौटा दें ।

ये सुनकर क्रोध से काँप उठा था रावण ……………….वि भी ष ण !

त्रैलोक विजयी रावण एक तपस्वी से डरकर, उसे पत्नी सहित धन धान्य भी देकर सन्धि करे ? क्रोध से अपनें सिंहासन से उठ खड़ा हो गया था रावण ।

भय के मारे सभी मन्त्री सभासद खड़े हो गए ………..लाल आँखों से देख रहा था विभीषण को रावण ।

ये विभीषण ! घर का सर्प है ……….कभी भी सर्प को घर में पालना नही चाहिये ………….क्रोध से काँप रहा था रावण ।

मै दशानन रावण एक बात जानता हूँ …………अपनें घर का कोई सदस्य अगर शत्रु से मिला हुआ हो तो उस घर के विनाश में देरी नही लगती ।

ये विभीषण , मेरे शत्रु से मिला हुआ है ……बता ! मिला है की नही ? मेरी लंका में रहता है ….और नाम मेरे शत्रु “राम” का लेता है !

रावण का क्रोध से काँपता रूप देखकर सब डर गए थे ।

भैया रावण ! चाहे आप कुछ भी कहो …….पर आपका हृदय भी यही कहेगा कि मैं गलत नही कह रहा……आपका हित इसी में है….

तो बता वो वानर तुझ से मिला था की नही ? रावण चिल्लाया ।

बता तेनें उस वानर को अशोक वाटिका का पता बताया था की नही ?

विभीषण शान्त भाव से रावण की ओर बढ़ रहे थे ………….

ये विभीषण हमारे कुल का कलंक है ……………रावण की आँखें अग्नि उगल रही थीं ………….।

विभीषण नें रावण के पैर पकड़ लिए …………….भैया ! मेरी बात मानों …………………

रावण फिर चीखा ……….और ये कहते हुये विभीषण की छाती में जोर से अपनें पैर का प्रहार किया…….”मुझे तो तुझ कुल द्रोही को पहले हटाना है ……..जा ! यहाँ से कुल द्रोही” !

मेरे पिता विभीषण गिर गए …….पर दूसरे ही क्षण वो उठकर आकाश मार्ग से चल पड़े थे श्रीराम की ओर…….उनके साथ चार मन्त्री भी चल दिए थे । हे राम प्रिया ! मैं बहुत उदास हूँ ……क्या श्रीराम मेरे पिता विभीषण को अपना बनायेगें ?

बना लिया है त्रिजटा ! मेरे श्रीराम नें तुम्हारे पिता विभीषण को कब का अपना बना लिया है । और वो तो शरणागत वत्सल भी हैं ……..

पर त्रिजटा आज रो रही थी….मैने उसे हृदय से लगाया……सम्भाला ।

शेष चरित्र कल ….!!!!

🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹

Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-42”

( “मैया ! तहाँ न देखे हाऊ”- अवतार प्रसंग )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल …….

याही तै कहें लीला ….और लीला भी – पूर्ण माधुर्य लीला । मैया यशोदा कन्हैया कूँ डराय रही हैं …ताकि कन्हैया इधर उधर न जाये …..दूर न जाए …..आज कन्हैया दूर यमुना जी के किनारे खेलवे आय गयौ हो…..तौ मैया डर रही हैं ….गोद में लै कै अपने भवन माहूँ आय रही हैं ….

“हाऊ” आय जाएगौ लाला ! दूर मत आयौ कर ।

हाऊ के नाम ते कन्हैया डर गए हैं और दाऊ कूँ पीछे देखते भए बोले हैं….दाऊ भैया ! मैया की गोद में आजा नही तौ हाऊ खाय जाएगौ ।

लेकिन आज दाऊ भैया कूँ का भयौ ! उनके मुख मंडल में एक अद्भुत तेज प्रकट है गयौ है….उनके चारौ ओर तै प्रकाश की अद्भुत रश्मियाँ प्रकट है रही हैं । आज दाऊ की वाणी में ओज समन्वित है …..अधरन में एक व्यंग हँसी फैल गयी है । तेज चाल ते चलते भए दाऊ भैया कन्हैया के पास आये ….कन्हैया मैया की गोद में हैं ….और मैया चल रही है …..अब नन्द भवन आयवे ही बारौ है ।

तब दाऊ विचित्र हँसी हँसते भए बोले …..कन्हैया ! कहाँ कही ? कौन खायगौ ? कन्हैया बोले ….भैया ! हाऊ खाएगौ । किन्तु लाला ! ये हाऊ कौन है ? दाऊ ने जब कन्हैया ते पूछी …तो दोनों छोटे छोटे करन कूँ ‘नही में’ कन्हैया ने घुमाये दियौ । यानि मोकूँ पतौ नही है ।

दाऊ भैया मुस्कुरा रहे हैं …व्यंग में मुस्कुरा रहे हैं । “हाऊ”……वो कह रहे हैं ।

फिर कहा सोची दाऊ भैया ने और कन्हैया ते पूछवे लगे …लाला ! हाँ , भैया !

लाला ! जब महाप्रलय आयौ हो और तू विशाल मछली बन्यौ हौ ….तेरे सींग हे ….सुवर्ण के सींग …वो महाप्रलय की वेला ही …..लेकिन तब तौ कोई ‘हाऊ’ वहाँ नाँय मिल्यो । दाऊ ने जैसे ही ये बात कही ….चौंक के मैया ने दाऊ की ओर देख्यो कि ….जे कहा कह रह्यो है ? फिर कन्हैया कूँ नीचे उतारा …..लेकिन दाऊ भैया आवेश में हैं ।

कन्हैया ! देवासुर संग्राम है रह्यो हो ….मंदराचल पर्वत की डूबवे की तैयारी ही …देवगन और असुरन में हाहाकार मच गयौ …..तब कन्हैया तू कछुआ बन्यौ ……दाऊ के मुख ते ये सुनते ही यशोदा मैया चौंक गयीं …..मैया कूँ लग्यो ….कहीं स्वास्थ तौ ठीक है दाऊ कौ !

लेकिन दाऊ तौ बोलतौ ही जाय रो ……लाला ! तू जब कछुआ बन्यो …और पर्वत कूँ तैनैं धारण कियौ तब समुद्र मंथन भयौ ……तब तौ बा जल में तोकूँ “हाऊ” नाँय दीखौ …..फिर ये हाऊ कौन है ?

दाऊ भैया की बातें अब सब सुन रहे हैं …लाला कन्हैया अपने भैया की एक एक बात सुन रो है ..और हाँ ना में हूँ सिर हिला रो है ।

कन्हैया रे ! वराह अवतार हूँ तौ तेने ही धारण किये …..पृथ्वी कूँ लै गयौ हिरण्याक्ष तब तू वराह बन्यौ ….और पृथ्वी के संग तैनैं विहार किए ….लाला ! तब तौ कोई हाऊ वहाँ दिखौ नही ।

दाऊ भैया आज बोलते जा रहे हैं …..उनके मुख में अद्भुत तेज फैलतौ जाय रो है । कन्हैया अपने भैया की बातन कूँ …बड़े ध्यान तै सुन रहे हैं ।

लाला ! तैनैं तौ नरसिंह रूप हूँ धारण कियौ है …..नरसिंह …ओहो ! कितनौं विकराल रूप …..हिरण्यकशिपु कूँ मारवे के काजे ….तू अर्ध नर वन्यौ और अर्ध सिंह बन्यौ ….और बा असुर कौ पेट तैनैं फाड़ दियौ …..तब बड़े बड़े देव तेरी स्तुति कर रहे हे ….लेकिन लाला ! वहाँ हूँ कोई हाऊ तौ मिल्यो नही …..फिर ये हाऊ कौन है ? दाऊ फिर पूछ रहे हैं ।

अरे अरे ! कन्हैया ! तू तौ वामन हूँ बन्यौ हो ना ! दाऊ आज बोलते जा रहे हैं ….राजा बलि के यहाँ तू दान लैवै गयौ ना ! लेकिन फिर तू विराट बन्यौ …..विराट बनके का तोकूँ अखिल ब्रह्माण्ड में का हाऊ दीखौ ?

दाऊ पूछते गए …..

ओहो हो ! लाला ! तू तौ परशुराम हूँ बन्यौ हो ….. तैनैं दुष्ट क्षत्रियन के मुण्ड काट के फेंकनौं आरम्भ कियौ ….लाला ! सच बता …वहाँ का तोकूँ कही हाऊ दीखौ ?

लेकिन इतने में ही दाऊ भैया चुप कहाँ भए ………

लाला ! तू फिर रघुकुल में नयनाभिराम श्रीराम के रूप में आयौ ….कितनौं अद्भुत रूप हो तेरो ….तेरी आल्हादिनी सीता कूँ चुराय लै गयौ असुर रावण …तौ तैनैं सागर में सेतु बाँध के रावण सहित बाके पूरे कुल कौ संहार कियौ …तब तौ कोई हाऊ ‘लंका’ में दिखौ नही …..अब दाऊ भैया हंसे …ये हाऊ कहा बला है …कहाँ रहे हैं ? कन्हैया ! राम के रूप में तू वन वन भटक्यौ …कहाँ हाऊ मिल्यौ का ?

दाऊ के मुख तै जे सब सुनके, मैया यशोदा तौ डर गयीं ….उन्हें लग्यो कि ऋषि शांडिल्य के मुख ते कथा आदि में दाऊ ने नारायण भगवान की कथाएँ सुन लई होंगी ….या लिए ये सब बोल रह्यो है …ऐसौ विचार करके मैया दाऊ के पास गयीं …और शीतल जल तै बाकौ मुँह धोय दियौ ..फिर अपने आँचल ते मुँह पोंछ के मैया बोलीं …तू अधिक मत सोचे कर दाऊ ! नही तौ बीमार पड़ जावैगौ । ये कहके दाऊ कूँ मैया ने सुलाय दियौ है …..मोकूँ हँसी आय रही ….मैया सबकी ईश्वरता की ऐसी की तैसी कर के रख देय है । दाऊ अब सो गए हैं ।

क्रमशः….

Hari sharan


Niru Ashra: श्री भक्तमाल (142)


सुंदर कथा ९४ (श्री भक्तमाल – श्री केशवभट्ट काश्मीरी जी )

श्री केशवभट्ट जी मनुष्यों मे मुकुटमणि हुए । जिनकी महा महिमा सारे संसार मे फैल गयी । आपके नाम के साथ ‘काश्मीरी’ यह विशेषण अति प्रसिद्ध हो गया था । आप पापों एवं पापरूप लोगों को ताप देने वाले तथा जगत के आभूषण स्वरूप थे । आप परम सुदृढ श्री हरिभक्तिरूपी कुठार से पाखण्ड धर्मरूपी वृक्षो का समूलोच्छेद करनेवाले हुए । आपने मथुरापुरी में यवनों के बढते हुए आतंक को देखकर उनसे वाद विवादकर उन परम उद्दण्ड यवनों को बलपूर्वक हराया । अनेकों अजेय काजी आपकी सिद्धि का चमत्कार देखकर एकदम भयभीत हो गये । आपका उपर्युक्त सुयश सारे संसार मे प्रसिद्ध है, सब सन्त इनके साक्षी है ।

आपका जन्म काश्मीरी ब्राह्मण कुल मे बारहवी शताब्दी के लगभग हुआ माना जाता है । कुछ इतिहासवेत्ताओं का कथन है कि काशी मे श्री रामानन्द जी और नदिया मे श्री चैतन्यदेव जी से आपका सत्संग हुआ था । एक बार दिग्विजय (देश के सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराते हुए यात्रा करना ) निमित्त पर्यटन करते हुए आप नवद्वीप (बंगाल) मे आये । वहाँ का विद्वद्वर्ग आपसे भयभीत हो गया । तब श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यवर्ग को साथ लेकर श्री गंगाजी के परम सुखद पुलिनपर जाकर बैठ गये और बालकों को पढाते हुए शास्त्रचर्चा करने लगे । उसी समय टहलते हुए श्री केशवभट्ट जी भी आकर आपके समीप बैठ गये । तब श्रीमहाप्रभुजी अत्यन्त नम्रतापूर्वक बोले -सारे संसार में आपका सुयश छा रहा है, अत: मेरे मन मे यह अभिलाषा हो रही है कि मै भी आपके श्री मुख से कुछ शास्त्र सम्बन्धी चर्चा सुनूँ ।

श्री कृष्णचैतन्य के इन वचनों को सुनकर श्री केशवभट्ट जी बोले कि तुम तो अभी बालक हो और बालकों के साथ पढते हो, परंतु बातें बडोंक्री तरह बहुत बडी बडी करते हो । परंतु तुम्हारी नम्रता सुशीलता आदि देखकर मैं बहुत प्रसन्न दूं अत: तुम्हारा जो भी सुनने का आग्रह हो वह कहो, हम वही सुनायेंगे । श्री महाप्रभु जी ने कहा – आप श्री गंगाजी का स्वरूप वर्णन करिये । तब श्री केशवभट्ट जी ने तत्काल स्वरचित नवीन सौ श्लोक धाराप्रवाह कह सुनाये । उन्हें सुनकर श्री महाप्रभुजी की बुद्धि भाव विभोर हो गयी । तत्पश्चात उन्ही सौ श्लोको में से एक श्लोक कणठस्थ करके श्री महाप्रभुजी ने भी श्री केशवभट्ट जी को सुनाया और निवेदन किया कि इस एक व्याख्या एवं दोष और गुणों का भी वर्णन करिये। सुनकर श्री केशवभट्टजीने कहा कि भला मेरी रचना मे दोष कहां ? श्री महाप्रभुजी ने कहा – काव्य रचना मे दोष का लेश रहना स्वाभाविक ही है । यदि आप मुझे आज्ञा दे तो मै इसके दोष गुण कह सुनाऊँ।

तब आपने कहा – अच्छा, तुम्ही कहो । तब श्री महाप्रभुजी ने उस श्लोक की गुण – दोषमयी एक नवीन व्याख्या कर दी । श्री केशवभट्ट जी ने कहा – अच्छा, अब हम प्रातःकाल तुमसे फिर मिलेंगे और इसपर अपना विचार व्यक्त करेंगे । ऐसा कहकर आप अपने निवास स्थानपर चले आये और एकांत मे श्री सरस्वती जी का ध्यान किया । केश्वभट्ट जी को सरस्वती सिद्ध थी । श्री सरस्वती जी तत्काल एक बालिका के रूप में इनके सम्मुख आ उपस्थित हुई । आपने उपालम्भ भरे स्वर मे कहा कि सारे संसार को जितवा करके आपने एक बालक से मुझे हरा दिया ।

श्री सरस्वती जी ने कहा- वे बालक नहीं है, वे तो साक्षात् लोकपालक भगवान श्रीकृष्ण है और मेरे स्वामी है । भला मेरी सामर्थ्य ही कितनी है जो मै उनके सम्मुख खडी होकर वाद विवाद कर सकूं ! श्री सरस्वती जी की यह सुख स्त्रोततमयी वाणी सुनकर श्री केशवभट्ट जी मन में बड़े हर्षित हुए और वाद विवाद के भाव का परित्याग करके श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभुजी के पास आये तथा बहुत प्रकार से विनय प्रार्थना की । तब श्री महाप्रभुजी ने कृपापूर्वक कहा कि वाद विवादके प्रपंच को छोड़कर फलस्वरूपा भक्ति का रसास्वादन कीजिये, अब आज से किसी को भूलकर भी नही हराइये । श्री केशवभट्ट जी ने श्रीमहाप्रभु जी की यह बात हृदय मे धारण कर ली और शास्त्रार्थ तथा दिग्विजय छोडकर एकांतिक भक्ति सुख मे निमग्न रहने लगे ।

आपके समय मे दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी था, उसके उग्र स्वभाव से हिन्दू प्रजा ऊब उठी थी। उसने घोषणा की कि सारे हिन्दू मन्दिर तोड़ दिये जायँ । उस समय मथुरा के सूबेदार के आदेशानुसार एक फ़कीर ने लाल दरवाजेपर एव यन्त्र टाँगा, जिसके प्रभाव से जो भी हिन्दू उस दरवाजे से निकलता वह मुसलमान बन जाता और दूसरे लोग जबरन उसे अपने धर्म मे शामिल कर लेते । इस महान् विपत्ति से बचने के लिये सभी ब्रजवासी श्री केशव भट्टजी के पास पहुँचे । श्रीआचार्यदेव स्वयं शिष्यसमूह को साथ ले उस स्थानपर गये और उनके वैष्णव तेज से वह यन्त्र निष्फल हो गया। इस तरह आपने धर्म की रक्षा की ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
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श्लोक 18.67
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इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |

न चाश्रुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति || ६७ ||

इदम् – यह; ते – तुम्हारे द्वारा; न – कभी नहीं; अतपस्काय – असंयमी के लिए; न – कभी नहीं; अभक्ताय – अभक्त के लिए;कदाचन – किसी समय; न – कभी नहीं; च – भी; अशुश्रूष्वे – जो भक्ति में रत नहीं है; वाच्यम् – कहने के लिए; न – कभी नहीं; च – भी; माम् – मेरे प्रति; यः – जो; अभ्यसूयति – द्वेष करता है |

भावार्थ
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यह गुह्यज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत हैं, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो |

तात्पर्य
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जिन लोगों ने तपस्यामय धार्मिक अनुष्ठान नहीं किये, जिन्होंने कृष्णभावनामृत में भक्ति का कभी प्रयत्न नहीं किया, जिन्होंने किसी शुद्धभक्त की सेवा नहीं की तथा विशेषतया जो लोग कृष्ण को केवल ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं, या जो कृष्ण की महानता से द्वेष रखते हैं, उन्हें यह परम गुह्यज्ञान नहीं बताना चाहिए | लेकिन कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्ण से द्वेष रखने वाले आसुरी पुरुष भीकृष्ण की पूजा भिन्न प्रकार से करते हैं और व्यवसाय चलाने के लिए भगवद्गीता का प्रवचन करने का धंधा अपना लेते हैं |लेकिन जो सचमुच कृष्ण को जानने का इच्छुक हो उसे भगवद्गीता के ऐसे भाष्यों से बचना चाहिए | वास्तव में कामी लोग भगवद्गीता के प्रयोजन को नहीं समझ पाते | यदि कोई कामी भी न हो और वैदिक शास्त्रों द्वारा आदिष्ट नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करता हो, लेकिन यदि वह भक्त नहीं है, तो वह कृष्ण को नहीं समझ सकता | और यदि वह अपने को कृष्णभक्त बताता है, लेकिन कृष्णभावनाभावित कार्यकलापों में रत नहीं रहता, तब भी वह कृष्ण को नहीं समझ पाता | ऐसे बहुत से लोग हैं, जो भगवान् से इसलिए द्वेष रखते हैं, क्योंकि उन्होंनेभगवद्गीता में कहा है कि वे परम हैं और कोई न तो उनसे बढ़कर, न उनके समान है | ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं, जो कृष्ण से द्वेषरखते हैं | ऐसे लोगों को भगवद्गीता नहीं सुनाना चाहिए, क्योंकि वे उसे समझ नहीं पाते | श्रद्धाविहीन लोग भगवद्गीतातथा कृष्ण को नहीं समझ पाएँगे | शुद्धभक्त से कृष्ण को समझे बिना किसी को भगवद्गीता की टीका करने का साहस नहीं करना चाहिए |

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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