[] Niru Ashra: ("प्रश्नोपनिषद" - प्रथम)
!! गृहस्थ की समस्या !!भाग 1
( साधकों ! कई महीनों से मेरे पास लगातार प्रश्न आते रहे हैं… “लीला चिन्तन” की गहराई ने मुझे पूर्ण अंतर्मुखी बना दिया था… उसके चलते उन प्रश्नों के उत्तर मैं नही देता था… कल मेरी दीदी ने मुझे कहा… दो सौ से ज्यादा प्रश्न साधक पूछ चुके हैं… वाट्सप और नेट में सब भरे पड़े हैं… तुमको उत्तर देना चाहिये… मुझे बात सही लगी… दीदी का तर्क था… सब इतनी सहजता से “लीला चिन्तन” में नही लग सकते… सबकी अपनी अपनी समस्याएं हैं… गृहस्थ हैं… किसी के घर में क्लेश है… लड़ाई झगड़ा है… किसी का बेटा बिगड़ा हुआ है… और विशुद्ध आध्यात्मिक साधकों की भी तो समस्याएं हैं… देखो ! कुछ दिन इनको दो… इन प्रश्नों को पढ़ों… इनका उत्तर दो… फिर उसके बाद “लीला चिन्तन” के माध्यम से साधकों को आगे बढ़ाना… पहले इन समस्याओं का तो समाधान करो । मैंने कल रात्रि में उन सभी प्रश्नों को बड़े ध्यान से पढ़ा… तब लगा सही में संसार में लोग नाना प्रकार से उलझे हुए हैं… ओह । साधकों ! मैं “प्रश्नोपनिषद्” नाम से उन प्रश्नों को ले रहा हूँ… जो सच में समस्या के रूप में हमारे सामने हैं… शुरुआत – “गृहस्थ की समस्या” इनसे कर रहा हूँ… जिन्होंने प्रश्न किया है… उनका नाम नही लिख रहा… बस उनके प्रश्न लिख रहा हूँ और मेरा समाधान )
प्रश्न – परिवार में प्रेम कैसे हो ?
उत्तर – मित्र ! जब तक स्वार्थ रहेगा तब तक परिवार में प्रेम हो ही नही सकता… मोह होगा… और मोह आपसे स्वार्थ रखेगा… और जब स्वार्थ की पूर्ति नही होगी… तब क्लेश , दुःख ये सब आयेंगे ही ।
इसलिये सबसे पहले “निःश्वार्थ” बनों… किसी से भी पति से पत्नी, पत्नी से पति… स्वार्थ रहित हो जाए… बस प्रेम करे… प्रेम का अर्थ होता है… हमें देना है… हमें सुख देना है सामने वाले को… उससे सुख चाहना नही है… पुत्र को भी ऐसे ही… भाई को भी… बहन को भी… सबके प्रति स्वार्थ रहित हो जाओ… फिर देखो… परिवार में सच्चा प्रेम प्रकट होगा… ।
प्रश्न – हम तो हो जाएँ , पर सामने वाला नही होता निःस्वार्थ… तब क्या करें ?
उत्तर – मैं तुम्हारी बात कर रहा हूँ… सामने वाले को छोड़ो… तुम तो हो जाओ… पत्नी कैसी है… वो छोड़ो… तुम तो निःस्वार्थ हो जाओ… पति कैसा है वो बात छोड़ो… अपने कर्तव्य का पालन तुम तो करो… और करे या न करे,… पहले तुम तो करो ।
शुरुआत तुम करो… अपने पास जो वस्तु है… वो सबके लिये खुली रखो… और दूसरे की बात का भी आदर करो… जो बात सही हो उसका आदर करो… अपने कर्म का अभिमान मत करो… सच्ची बात भले ही तुम्हारा पाँच वर्ष का बालक कह रहा है… उसकी बात भी मानो ।
मैं कह रहा हूँ , अपने को निःस्वार्थ बनाओ… इसी से शान्ति आएगी ।
प्रश्न – मेरे पिता जी का परिवार है… मेरे भाई चार हैं… अब उनमें आपस में कलह शुरू हो गया है सम्पत्ति को लेकर… क्या करें ?
उत्तर – मेरे स्पष्ट मत से… चारों भाइयों को अलग हो जाना चाहिये… आपके पिता जी को चाहिये… कि प्रेम से, सम्पत्ति का बंटवारा बिना किसी भेद भाव के… कर दें… यही उचित है… क्यों कि इससे प्रेम बना रहेगा… देखो ! छोटा सा जीवन है शान्ति से जीयो… ये कलह , क्लेश जहाँ होता है… वहाँ बस दुःख ही दुःख है… इसलिये अपने पिता जी से कहो… “अगर कलह ज्यादा ही हो रहा है तो”… सम्पत्ति का बंटवारा कर दें… और प्रेम पूर्वक सब जाते आते रहें… इससे प्रेम बना रहेगा ।
प्रश्न – मेरे पति को किसी दूसरी लड़की ने फाँस लिया है… मैं रात रात भर रोती हूँ… बहुत दुःखी हूँ… क्या करूँ ?
उत्तर – प्रेम से पति को समझाओ… इससे कोई लाभ नही है ये समझाओ… हानि बहुत है… हानि इतनी है कि… ये लोक भी बिगड़ गया… और परलोक भी बिगड़ जाएगा… विचार करो… कितना गलत काम है… पति को ही कहो… कि आप ये सब छोड़िये… और अगर नही मानते हैं… तो कुछ तेजी दिखाओ… गलत मार्ग से हटाने के लिये थोड़ी कड़क बनो… हो सके तो डर भी दिखाओ… ये आवश्यक है… “धर्म पत्नी” कहा जाता है हमारे यहाँ, इसलिये आपका ये काम है… पति को सही मार्ग में लगाना… ये आपका कर्तव्य है… आप को ये करना ही चाहिये ।
“प्रश्नोपनिषद” क्रमशः –
Harisharan
Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>> 1️⃣2️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही ।
टूट गया रावण !………….उसनें अपना रथ श्रीराम की ओर दौड़ाया ………..मेरे पिता विभीषण श्रीराम से कह रहे हैं ……रावण का ये प्रिय था …………बचपन से ही दोनों साथ में रहे हैं ………इसलिये प्रभु ! अब रावण का पागलपन चरम पर होगा………हमें सावधान रहनें की जरूरत है ।
तभी रावण का रथ तीव्रता से आगया………राम ! तुमनें आज मेरे प्रहस्त को मार कर अच्छा नही किया………….
त्रिजटा ! तू मुस्कुरा क्यों रही है ? बोल ना क्या कहा मेरे श्रीराम नें ?
मेरी बात सुनकर त्रिजटा फिर हँसी ………और बोली …..श्रीराम अपनें भाई लक्ष्मण से कह रहे हैं ……………रावण में तेज़ बहुत है ……देखो ! लक्ष्मण ! कुछ भी हो रावण वीर तो है …………….इसका मुख मण्डल अन्य राक्षसों की तरह नही है ………ये एक तेजस्वी ब्राह्मण स्पष्ट लगता है ………….।
मेरे श्रीराम इस समय रावण की प्रशंसा कर रहे हैं ?
मुझे भी आश्चर्य हो रहा था ।
राम ! मुझ से युद्ध करो………रावण नें ललकारा श्रीराम को ।
पर रावण नें लक्ष्मण के ऊपर बाण का प्रहार किया राम के ऊपर नहीं ……हे राम प्रिया ! लक्ष्मण मूर्छित हो गए हैं । त्रिजटा के मुख में भी चिन्ता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दीं ।
अब क्या हुआ ? मैने घबडा कर त्रिजटा से पूछा ।
अब ? अब तो अपनी मायावी शक्ति से रावण आकाश में चला गया है ……और वहीँ से बाणों को चला रहा है ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!!
🌷🌷 जय श्री राम 🌷🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-61”

( “खेल में कन्हैया की हार” – एक अद्भुत प्रसंग )
कल से आगे का प्रसंग –
मैं मधुमंगल …..
कल खेल में कन्हैया हार गयौ । जीतौ कौन ? मैं । मधुमंगल ! ‘मैं’ तौ अहंकार है ? लेकिन भैया ! या ‘मैं’ में कन्हैया ही है …हाँ अहंकार है ..लेकिन कन्हैया ही है या अहंकार के मूल में ….या लिए या अहंकार ते पतन नही होय …न , या अहंकार कूँ कन्हैया बुरौ मानें ….और या बात कूँ हम सखा ही समझें हैं ….या लिए जे अहंकार हमने जानबूझ के धारण कर राखो है …नही तौ हमें का पड़ी है अहंकार रखवे की ….जा वस्तु कूँ कन्हैया अप्रिय समझे , बाते तौ हम सौ कोस दूर ही रहें भैया !
मैं जीतो । कन्हैया कूँ अच्छों लगे अपने सखान कूँ जितानौं । बड़ौ ही भोलो भण्डारी है कन्हैया ..अपने संगी साथिन कौ बड़ौ ही ख़याल रखे है ..स्वयं हार जावेगौ लेकिन हमें जितावेगौ । बात मेरी ही नही है …जो याते प्रेम करे …जो या कन्हैया कूँ अपनौं समझे …फिर तौ बाके काजे जे कछु भी कर देयगौ । जी हाँ …कछु भी ।
अब सुनौ का भयौ बा दिना ………….
जब ते अर्जुन वृक्ष गिरे हैं कन्हैया के ऊपर, तब ते मैया ने कन्हैया कूँ डाँटनौं हूँ छोड़ दियौ है ।
या लिए कन्हैया कौ उपद्रव हूँ अब बढ़तौ जाय रह्यो है ……कन्हैया इन दिनों सबेरे निकल जावे यमुना तट के बा सुन्दर वन में । जे स्थान कन्हैया कौ प्रिय है । हम तौ हैं हीं कन्हैया के चेला …..जहां कन्हैया वहाँ हम । मैंने बताई नांईं …..कि चोरी कौ गुरुमन्त्र हमें याही कन्हैया ने तौ दियौ है ….तौ जहां गुरु वहाँ हम चेला । लेकिन आज गुरु हार गयो ….. यहाँ मधुमंगल खूब हँसते हैं )
कहा खेलैगौ कन्हैया ? हम सब पहुँच गए हैं यमुना तट पे , कन्हैया वन की शोभा देखके मुग्ध है …….फिर मैंने ही कन्हैया ते कही – आज नयौ खेल खेलेंगे – “कबड्डी”।
कबड्डी ? कन्हैया कूँ जे नाम बढ़ियाँ लग्यो ।
हाँ …यामें कन्हैया …….मैंने आगे बढ़के मध्य में एक लम्बी रेखा खींच दई ….फिर मैंने कही ….अब एक ओर कन्हैया तू और तेरे साथ के रहेंगे …और दूसरी ओर …..मैं रहूँगौ ……और मेरे साथ के ।
फिर “कबड्डी कबड्डी” बोलते भए आनौं है ….ना , साँस नही टूटनी चहिए …..और छूके आनौं है …बा समय अगर पकड़ लियौ और साँस टूट गयी….तौ तुम हार गये ।
कन्हैया मेरी बात सुनके मुस्कुरायौ – बोलो …हाँ …जे खेल बढ़िया है ।
तौ हे जाऔ एक तरफ ……मैंने कही ……….
कन्हैया के संग ….श्रीदामा , तोक , सुबल ।
मेरे संग ….अर्जुन , भद्र , उज्ज्वल ।
तौ है गए खेलवे कूँ तैयार हम सब …कन्हैया के काजे जे नयौ खेल है …या लिए जे कछू अधिक ही उत्साहित है ।
खेल खेलनौं अब आरम्भ ही हे रह्यो हो …तौ कन्हैया अपनी लकुट टेक के बोल्यो …..जौ जीतेगौ बाकू का मिलेगौ ? मैंने कन्हैया ते कही ….खेल है ….मिलनौं कहा है …खेल में आनन्द आवै कन्हैया ! आनन्द के तांईं तौ खेल होवै । कन्हैया सोचवे लग्यो …फिर बोलो …देख मधुमंगल ! बात ऐसी है ….जो हारेगौ वो घोड़ा बनैगौ । और जीतेगौ वो बाके ऊपर बैठेगौ …जे मैंने कही ।
हाँ ….कन्हैया जोर ते हँसतौ भयौ बोलो ……..टिक टिक टिक टिक …चल मेरे घोड़े ……फिर कन्हैया बोलो ….अब तौ तोकूँ घोड़ा बनाऊँगौ मधुमंगल ! चल मोकूँ बनाएगौ घोड़ा …..अरे ! बड़े घर कौ है तौं का तू ही जीतैगौ ? हम जीतेंगे…मैंने ताल ठोकी ….कन्हैया तौ मोते हूँ आगे निकस्यो …..वाने ताल ठोकते भए कही …..दारिके मधुमंगल ! घोड़ा तौ तू ही बनेगौ ।
अब हम दोनोंन में खेल शुरू भयौ …..जोर कौ खेल शुरू भयौ ।
पहले कन्हैया आयौ …..”कबड्डी कबड्डी कबड्डी” । कन्हैया नेक सौ सौ तौ है ….छट्ट ते छू के निकल जावै …..मेरे सब साथी हार गये । कन्हैया नाचवे लग्यो ….कहवे लग्यो ….अब मेरौ मधुमंगल घोड़ा बनेगौ । मैं घोड़ा बन्यो …कन्हैया मेरे ऊपर ….चल मेरे घोड़े , टिक टिक टिक ….मेरे ऊपर कन्हैया …उछलतौ भयौ बोल रो है ।
चलौ अब दूसरी बार खेल फिर शुरू भयौ । या बार मैं गयौ …”कबड्डी कबड्डी कबड्डी” कहते भए ….लेकिन कन्हैया तौ बड़ौ ही चतुर है …मेरे टांग कूँ पकड़ के गिराय दिए ….लेकिन मेरी साँस नही टूटी ….कबड्डी कबड्डी बोलतौ रह्यो …लेकिन कब तक …कन्हैया तौ मेरे पेट में बैठके मोकूँ गुलगुली लगाय रो ।
मैं फिर घोड़ा बन्यो …कन्हैया मेरे ऊपर …….चल मेरे घोड़े …टिक टिक टिक ।
खेल तीसरी बार कौ आरम्भ भयौ ………
कन्हैया ! कन्हैया । रोहिणी माता आयीं हैं । वो बुला रही हैं ।
मैं अभै नही आऊँगौ …….कन्हैया ने साफ शब्दन में कह दियौ है ।
और तीसरी बार खेल फिर शुरू ………….
अब कन्हैया आयौ ………कबड्डी कबड्डी कबड्डी ……..मैं समझ गयौ हो …..कि या बार मोकूँ कन्हैया के सीधे पाँम पकड़ने हैं । मैंने वही कियौ ….कन्हैया के पाँम मेरे हाथ में ……कबड्डी कबड्डी कबड्डी …..बोल रो लेकिन मैंने बाकूँ कोमल बालुका देखके आराम ते बामें गिराय दियौ । साँस टूट गयी कन्हैया की …..मैं उछल्यो ….खूब उछल्यो ….अब तौ कन्हैया ! घोड़ा बन ।
मधुमंगल ! सुन ना ! रोहिणी मैया बुलाय रहीं ….पतौ नाँय का बात है गयी है ? मैं जाय रो हूँ …
अरे ! कन्हैया तौ जायवे लग्यो ……मैंने कही ….ओ नन्द के सपूत ! कहाँ जाय रो है ?
रोहिणी मैया बुला रहीं ना ! कन्हैया बड़ौ ही चतुर बने ।
चौं रे ! मेरौ दांव कौन देगौ ? मैंने कही ।
कैसौ दांव ? कन्हैया बोलो । तू हार गयौ है दारिके ! दांव दे….यानि घोड़ा बन ।
लेकिन जे कहा….कन्हैया तौ घर की ओर भागवे लग्यो …..
मैंने भी दौड़ के पकड़ लियौ कन्हैया कूँ ……..और …चल घोड़ा बन …..कन्हैया का करतौ ….घोड़ा बन्यो …….मैं बाके ऊपर बैठ्यो ….मेरे कन्हैया के ऊपर बैठते ही ….नभ ते पुष्प बरसवे लगे …..मेरे ऊपर देव गण पुष्प बरसाय रहे हैं…..मेरे भाग की सराहना देवराज कर रहे हैं….लेकिन भगवान विश्वनाथ कह रहे …..धन्य है कन्हैया और याके सखा …जो प्रेम की सर्वोच्च स्थिति में पहुँच गए हैं । भगवान विश्वनाथ नाच उठे हे मेरे कन्हैया की या लीला कूँ देख के ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (162)
महर्षि च्यवन की अद्भुत गौ भक्ति और गौ माता का श्रेष्ठत्व । (भाग-01)
श्री च्यवन ऋषि महर्षि भृगु एवं देवी पुलोमा के पुत्र थे । उन्होंने अपने जीवन का बहुत बडा भाग नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के साथ उग्र तपमें बिताया था । परम पावनी वितस्ता नदी के सुरम्य तटपर आहार विहार छोड़कर एक आसन से बैठकर उन्होंने बहुत बर्षोंतक कठिन तपस्या की थी । उनके शरीरपर वामी जम गयी और उसके ऊपर घास उग गयी थी । बहुत समय व्यतीत होने के कारण वह मिट्टीके टीले के समान प्रतीत होने लगा । दैववश उनकी चमकती हुई आंखो के आगे चीटेयों ने छेद कर दिया था ।
एक बार परम धर्मात्मा राजा शर्याति अपनी रानियों तथा अपनी सुकन्या को अपने साथ लेकर सेना के साथ उसी जंगल में विहार करने लगे । सुकन्या अपनी सखियों के साथ इधर उधर घूमती हुई उसी वामी के संनिकट जा पहुंची । वह बड़े कुतूहल के साथ उसे देखने लगी । देखते देखते उसकी दृष्टि महर्षि च्यवन की आंखोपर जा पडी जो कि चीटियो के बनाये छिद्रो से चमक रही थीं । सुकन्या ने परीक्षा के लियएक कांटे से उन नेत्रोंमे छेद कर दिया । छेद करते ही वहां से रक्त की धारा बह निकली । सब भयभीत होकर यह से चल दिए।
इस महान् अपराध के कारण शर्यातिके सैन्य बल तथा अन्य सभी का मल मूत्रावरोध, मल मूत्र बंद होने के कारण सब बीमार से हो गए और समस्त सेना में हलचल मच गयी । राजा इम बातसे बहुत दुखित हुए ।राजा ने सोचा, यहाँ श्री च्यवन ऋषि का आश्रम है,कही कुछ अपराध तो नहीं हो गया? उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति से पूछा कि किसीने कोई अपराध तो नहीं किया है तब सुकन्या ने अपने पिता को दुखित देखकर वामी से रक्त निकल ने की घटना सुनायी ।
समाचार पाकर राजा दौड़े हुए उस वामी के समीप गये और मिट्टी हटायी । मिट्टी हटाते ही तेजोमूर्ति महर्षि च्यवन दिखायी पड़े । शर्याति साष्टाङ्ग प्रणाम कर कहने लगे -महाराज़ ! इस बालिका ने अज्ञान से आप को कष्ट पहुंचाया है । इसके लिये आप क्षमा करे ।
च्यवन ऋषि बोले – मै इस अपराध को तभी क्षमा कर सकता हूँ ,जब तुम्हारी कन्या मुझे पतिरूप में स्वीकार करे । राजा जानता था की सुकन्या हमारी आज्ञा को सर्वदा स्वीकार करेगी अतः राजा ने कहा – इस कन्या को मैं आपकी सेवा में अर्पण करता हूँ । इसे आप भार्या के रूपमें स्वीकार करे । यह प्रेम से आपकी सेवा करेगी । परम दयालु महर्षि च्यवन ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपराध क्षमा कर दिया । ऋषि के प्रसन्न होते ही सब संकट टल गए और राजा अपनी प्रजा सहित राज़धानी को चले गये । इधर सुकन्या भी अनन्य मनसे महर्षि की सेवामे लग गयी ।
उन्हीं दिनों रुग्ण मानवो की खोज में दोनों अश्विनीकुमार पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे । संयोग से वे च्यवन ऋषि के आश्रम की ओरसे जा रहे थे । उस समय सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम की ओर लौट रही थी । तप और नियम का पालन करके सुकन्या में अद्भुत तेज आ गया था । तेजस्वी सुकन्या को देखकर अश्विनीकुमारो को बहुत विस्मय हुआ । उन्होने उससे पूछा – तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हो ? सुकन्या ने अपने पिता और पति का नाम बताया, फिर अपना नाम भी बता दिया ।
अन्तमें कहा -मैं अपने पतिदेव के प्रति निष्ठा रखती हूँ । अश्विनी कुमारो ने परीक्षा की दृष्टि से कहा सुकन्या ! तुम अप्रतिम रूपवती हो, तुम्हारी तुलना किसी से नहीं की जा सकती । ऐसी स्थिति मे उस वृद्ध पति की उपासना कैसे करती हो, जो काम-भोग से शून्य है ? अत: च्यवन ऋषि को छोडकर हम दोनो मे से किसी एक को अपना पति चुन लो । सुकन्या ने नम्रता से कहा – महानुभावो ! आप मेरे विषय मेअनुचित आशंका न करें, मैं अपने पति में पूर्ण अनुराग रखती हूँ । प्रेम आदान नहीं, प्रदान चाहता है । पतिका सुख ही मेरा सुख है ।
सुकन्या परीक्षाएँ उत्तीर्ण हो चुकी थी । दोनों देव वैद्यो को इससे बहुत संतोष हुआ । वे बोले हम दोनों देवताओं के श्रेष्ट वैद्य हैं । अभी एक और अंतिम परीक्षा होनी रह गयी थी । अश्विनीकुमारों ने कहा – तुम्हारे पति को हम अपने जैसा तरुण और सुंन्दर बना देंगे, उस स्थिति मे तुम हम तीनोमे से किसी एक को अपना पति बना लेना । यदि यह शर्त तुझे स्वीकार हो तो तुम अपने पति को बुला लो । सुकन्या को अपने पातिव्रत्य पर पूर्ण विश्वास था अतः वह च्यवन ऋषि के पास गयी ।
सुकन्या ने जब च्यवन ऋषि से इस घटना को सुनाया तो सुन्दरता और यौवन पाने के लिये वे ललचा उठे , यद्यपि च्यवन ऋषि महान सिद्ध थे और तपोबल से यौवन प्राप्त कर सकते थे परंतु वे अपने तप को भौतिक कार्यो के लिए खर्च नहीं करना चाहते थे । च्यवन ऋषि अश्विनीकुमारो के अद्भुत चमत्कारो से भी अवगत थे, अत: सुकन्या के साथ वे अश्विनीकुमारो के पास पहुंचे ।
अश्विनीकुमारो ने सरोवर में कुछ औषधियां दाल दी और पहले तो च्यवन ऋषि को जलमें उतारा । थोडी देर बाद वे स्वयं भी उसी जलमे प्रवेश कर गये । एक मुहूर्ततक जलके अंदर अश्विनीकुमारो ने च्यवन ऋषि की चिकित्सा की और इसके बाद वे तीनों जब जलसे बाहर निकले तो तीनो के रूप रंग एवं अवस्था एक ही जैसी थी । उन तीनो ने सुकन्या से एक साथ ही कहा – हम तीनोमे से किसी एक को अपनी रुचि के अनुसार अपना पति बना लो और उसके गले में माला डाल दो।
उसका पति कौन है, वह समझ नहीं पा रही थी ।अन्तमें उसके पातिव्रत्य धर्म ने उसका साथ दिया । सुकन्या ने कहा – यदि हमने स्वप्न में भी श्री च्यवन जी के अतिरिक्त किसी भी पुरुष का पुरुषभाव से स्मरण किया हो तो मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो । ऐसा कहते ही उसको अपने पति दिखाई पद गए और उसने अपने पति को पहचान कर माला पहना दी।
च्यवन मुनिने तरुण अवस्था, मनोवञ्चित रूप और पतिव्रता पत्नी को पाकर बहुत ही हर्षका अनुभव किया । वे देववैद्य अश्विनीकुमारो का आभार मानने लगे । ऋषि ने कहा – आप दोनों इस सेवा के बदले क्या चाहते हो ?यदि हम आपकी किसी प्रकार सहायता कर सके तो हमें प्रसन्नता होगी।
तब अश्विनी कुमारो ने महर्षि से कहा की आप ही ऐसे समर्थ तेजस्वी ब्रह्मर्षि है जो हमें हमारा अधिकार पुनः प्राप्त करवा सकते है। इंद्र के श्रौत यज्ञ में सोमरस का निर्माण होता है और मंत्रोच्चारण द्वारा प्रधान द्ववताओ को सोमरस अर्पित किया जाता है। इंद्र हमें अपनी पंक्ति में नहीं बैठने देते, हमें चिकित्सक समझ कर पंक्ति में नहीं बैठने दिया जाता।
महर्षि च्यवन ने दोनों देवो से कहा – आप दोनो ने मुझे उपकार के बोझसे लाद दिया है, यह तभी हलका होगा, जब मैं आप दोनो को यज्ञमें देवराज इन्द्र के सामने ही सोमपान का अधिकारी बना दूंगा ।
जर्जर बूढे का जवान हो जाना और देवताओ मे सबसे सुन्दर अश्चिनीकुमारों की सुन्दरता का उस शरीरमें उतर जाना- ये दोनों बातें ऐसी विलक्षण थीं कि बात ही बात मे सारी दुनिया में फैल गयीं । राजा शर्याति ने जब यह शुभ समाचार सुना तो उन्हे वह सुख मिला, जो सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य मिल जाने से ही हो सकता है । सुकन्या की माता तो प्रसन्नता से रो पडी । राजा पत्नी और सेनाके साथ महर्षि च्यवन के आश्रमपर आये ।
वहाँ च्यवन और सुकन्या की जोडी को सुखी देखकर पत्नीसहित शर्याति को इतना हर्ष हुआ कि वह रोमावलियों से फूट पडा । च्यवन ऋषिने आये हुए लोगोका अत्यधिक आदर किया । राजा और रानी के समीप बैठकर सुन्दर सुन्दर कथाएँ सुनायी । अन्त में च्यवन ने कहा -राजन् ! मैं आपसे यज्ञ कराऊँगा, आप तैयारी करें । महर्षि च्यवन के इस प्रस्ताव से राजा शर्याति बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने महर्षि च्यवन के कथन का बहुत सम्मान किया ।
कथा का शेष भाग कड़ी संख्या 163 में देखें ……………

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