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May 17, 2025 4:01 pm

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 123(3),”श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा – 62″ !! ,गृहस्थ की समस्या !! तथा श्री भक्तमाल (163) : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>> 1️⃣2️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही ।

मेरे श्रीराम इस समय रावण की प्रशंसा कर रहे हैं ?

मुझे भी आश्चर्य हो रहा था ।

राम ! मुझ से युद्ध करो………रावण नें ललकारा श्रीराम को ।

पर रावण नें लक्ष्मण के ऊपर बाण का प्रहार किया राम के ऊपर नहीं ……हे राम प्रिया ! लक्ष्मण मूर्छित हो गए हैं । त्रिजटा के मुख में भी चिन्ता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दीं ।

अब क्या हुआ ? मैने घबडा कर त्रिजटा से पूछा ।

अब ? अब तो अपनी मायावी शक्ति से रावण आकाश में चला गया है ……और वहीँ से बाणों को चला रहा है ।

लक्ष्मण का क्या हुआ ? मैने पूछा ।

लक्ष्मण को जामवन्त लेगये और बूटी सुंघाई है ……..लक्ष्मण उठ गए हैं ………त्रिजटा प्रसन्न हो गयी ये कहते हुए ………….।

लक्ष्मण के स्वस्थ होनें की बात से मैं भी प्रसन्न हो गयी थी ।

अब आगे हनुमान श्रीराम के पास गए हैं …..और उन्होंने श्रीराम से कहा है……..मायवी से इस तरह नही युद्ध होता भगवन् ! आप मुझे गरुण बनाएं और मेरी पीठ पर बैठें ……….फिर युद्ध करें ।

रामप्रिया ! श्रीराम को ये बात ठीक लगी है ……………..

श्रीराम बैठ गए हैं हनुमान की पीठ पर …………….

एक ही बाण से रावण रथ सहित नीचे गिर गया………….उसकी मायवी शक्ति को नष्ट कर दिया श्रीराम नें ।

दूसरे बाण से रावण के धनुष को तोड़ दिया …….तीसरे बाण से रावण के सारथि को मार दिया …….और चौथे बाण से रथ की ध्वजा काट दी ।

रावण दीन हीन सा होगया है ……….त्रिजटा नें बताया ।

श्रीराम नें रावण को कहा युद्ध भूमि में ………रावण ! हम थके हारे योद्धा पर शस्त्र नही उठाते ……..जाओ …….विश्राम करो ।

इतना कहकर श्रीराम हनुमान को लेकर लक्ष्मण के पास चल दिए हैं ।

रावण टूट गया है रामप्रिया !

हूँ ………….मैं कुछ बोली नही ……………………..

त्रिजटा भी चुप हो गयी …………..क्यों की रावण लौट गया था वापस …………अंदर से टूटा हुआ रावण ………….।

एक घड़ी तक हम दोनों कुछ नही बोले …………

तभी ……..त्रिजटा ! मैने आकाश में त्रिजटा को कुछ दिखाया…….

एक विशाल देहधारी ………..जिसके केश बादलों से टकरा रहे थे …….और छिन्न भिन्न हो रहे थे ……..उसका रूप भयानक था ।

ये तो कुम्भकर्ण है ……….पर 6 महिंने अभी पूरे हुए नही है …..ये कैसे जाग गया ? ………….त्रिजटा के माथे में चिन्ता की लकीरें थीं ।

मैं उसे देख रही थी……रावण के भाई कुम्भकर्ण को ……”ये रावण से ज्यादा शक्तिशाली है”……….त्रिजटा नें ही मुझे बताया था ।

रामप्रिया ! लगता है…….मानसिक रूप से टूटा रावण ……क्या करता ……अपनें भाई कुम्भकर्ण को ही जगा दिया ……..त्रिजटा नें कहा ।

शेष चरित्र कल ……!!!!!

🌷🌷 जय श्री राम 🌷🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-62”

( “अब ‘श्रीवन’ जायवे की बात” – गवाक्ष से )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल…..

पतौ नही , अब गोकुल ते मन उचट सौ गयौ है बृजराज बाबा कौ और मैया कौ हूँ ।

और कल हमारी माता पौर्णमासी जी ने आयके जे और कह दियौ कि …यशोदा ! मोकूँ तौ लगे …या गोकुल गाँव कौ अधिदैव ही चलौ गयौ है ……तौ का माता ! वो वृक्ष का देवता हे ? मैया ने मेरी माता जी ते पूछी ही ।

हाँ , मेरी माता जे सब चौं कह रहीं मेरी समझ में नही आय रो ….मोकूँ अच्छो हूँ नही लग रह्यो हो ….लेकिन माता जी कहती जा रहीं । लेकिन काहे कूँ कह रहीं ? गोकुल कूँ छोड़ के जे बृजवासी कहाँ जाँगे ? और अपनौं घर बार छोड़नौं कोई आसान काम तौ है नाँय ।

लेकिन ……देखो बृजरानी ! आज वृक्ष गिरे हैं ….जे तौ भगवान की परम कृपा है तुमपे कि तुम्हारे लाला कूँ कछु नही भयौ …………

नेत्रन ते अश्रु झर रहे मैया के …अपने लाला के अनिष्ट की कल्पना ते हूँ मैया कूँ जूडी चढ़ जाये है । मेरी माता जी कछु देर तक बैठीं ….और बस यही चर्चा करती रहीं ….कि गोकुल कूँ अब तुम सब छोड़ देओ और काहू अन्य सुरक्षित स्थान देखौ ।

मेरी माता जी अब कन्हैया कूँ निहार के जानौं चाहें …जे कन्हैया कूँ ही देखवे आमें नन्द भवन । वैसे दो दिना पहले मोते कह रहीं माता जी ….कि मनसुख ! पतौ नही मैं तौ धीरे धीरे गृहस्थ सी हेती जा रही हूँ ….मैंने पूछी …कैसे माता ? तौ बोलीं …अब तौ मेरे ध्यान में हूँ बृजरानी और बृजराज आमें …..मोकूँ आज तक चिन्ता नहीं भई …वत्स मधुमंगल ! तेरे पिता स्वर्ग सिधार गये तब भी मैं विचलित नही भई …..भाग कौ लेखौ जान के मैंने चिन्ता कियौ ही नही ।

लेकिन …कन्हैया कूँ बृजरानी ने बाँध दियौ …केवल या बात ने मोकूँ अपार चिंता में डाल दियौ ….मेरी माता मोकूँ कह रहीं …..वत्स ! फिर मन कूँ मैंने शान्त कियौ तौ बात मन में जे आयी ….कि कन्हैया तौ परब्रह्म है …..अब चिंता कन्हैया की छूटी और चिंता हे वे लगी …बृजरानी की कि बेचारी कितनी दुखी है रही होगी ….मन में अपराध बोध है रह्यो होगौ कि मैंने फूल से कोमल कन्हैया कूँ बाँध दियौ …..बस दो दिन तै मैं याही चिन्ता तै घिरी भई हूँ । वत्स मधुमंगल ! मैं पूरी गृहस्थ ही बन गयी हूँ …..इतनौं कहके माता जी आज थोड़ौ सौ हँसीं ।

तभी कन्हैया आय गयौ ……सारे , मधुमंगल दारिके ! मोकूँ देखते ही बोल्यो ….कहाँ गयौ हो तू ? मैंने संकेत करी मेरी माता जी बैठीं हैं ….लेकिन कन्हैया तौ ……तू कहाँ गयौ हो ? मेरी फेंट पकड़ लई । तभी कन्हैया कौ ध्यान गयौ मेरी माता पौर्णमासी की ओर ….बस बो तौ हाथ जोड़वे लग्यो मेरी माता कूँ …फिर मोते धीरे ते बोलो …तैनैं बताई चौं नही ? फिर मैया के कहवे तै कन्हैया ने मेरी माता जी के पाम छूये ….लेकिन मेरी माता ने छून ना दिए …….अपने हृदय ते लगाय लियौ ….और बहुत देर तक कन्हैया कूँ हृदय ते लगाय राखो…….फिर मुस्कुराती भई , मैया ते बतरामती चली गयीं …..मैया और हम द्वार तक छोड़ के आए …लेकिन जाते जाते हूँ कहके गयीं …..अब कोई और स्थान देखो …..लाला गोकुल में सुरक्षित नही है ……मैं मन में सोच रो …जे कहवे की आवश्यकता का ही मेरी माता जी कूँ ।


साँझ की वेला भई है ……मैया ने कई दीप लिए और तुलसी उपवन में गयीं …..तुलसी एक दो तौ हैं नहीं ….एक पूरौ क्षेत्र ही है तुलसी कौ ….उपवन है । नित्य मैया साँझ में यहाँ दीप जलामें । आज जब गयीं तौ अकेले नही ….साथ में कन्हैया हूँ है …..आँचल पकड़ के चल रह्यो हो अपनी मैया के ।

तभी उधर तै हज़ारन गौएं चर के आयीं …….उन गौअन के साथ ग्वाले हे …जो बड़ी बड़ी लकुट लै कै गैयन कूँ हाँकते भए आय रहे । कन्हैया तौ इकटक देखतौ रह्यो …..बृजराज बाबा की आवाज़ खिरक ते स्पष्ट आय रही ….गैयन कूँ यहाँ बांधो …और बछिया कूँ इनके पास …बैल आदि हैं उनकूँ उधर ……कन्हैया देख रहे हैं ।

अब कुछ गैया कन्हैया की ओर बढ़ती हैं ….और कन्हैया गैया की ओर ……ग्वाले कन्हैया के पास आन ना दे रहे गैयन कूँ ….उन्हें लग रह्यो है …गैया कन्हैया कूँ सींग ते मार देगी । एक गैया उछलती भई आयी और कन्हैया के हाथ चाटवे लगी …..कन्हैया हँस रहे हैं ….तभी ….अरे ! लाला, मारेगी गैया । जे कहते भए मैया ने कन्हैया कूँ खींच लियौ ।

अब तौ कन्हैया हठ करवे लगे ….मैया ! मैं हूँ जाऊँगौ …गाय चराऊँगौ …..

कहाँ जावैगौ ? मैया गोद में लेती भई पूछती हैं ….श्रीवन में आऊँगौ ….अब कन्हैया कौ रोनौं बन्द ….सुन्दर वन है मैया ! वो …बहुत सुंदर वन है । बा श्रीवन में मोर हैं …हँस हैं ….वृक्ष हैं …सुन्दर सुन्दर लताएँ हैं …मैया ! और तौ और पुष्प अनन्त खिले हैं बा वन में । चलेंगे लाला ! मैया बोली । नही मैया ! वहीं रहेंगे …..तौ या गोकुल में ? मैया ने पूछी । मैया ! गोकुल की लीला है गयी अब ……बड़े गम्भीर हे के कन्हैया बोले ।

गोकुल की लीला है गयी अब ? मैया सोचती रहीं …..वहीं खड़ी खड़ी सोच रही हैं ……माता पौर्णमासी भी बोल के गयीं कि गोकुल छोड़ दो …और कन्हैया भी कह रह्यो है …कहीं सच में वो वृक्ष , या गोकुल के अधिदैव तौ ना हे ? मैया सोच में डूब गयीं हैं ।

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: ("प्रश्नोपनिषद" - प्रथम)

!! गृहस्थ की समस्या !!


( साधकों ! कई महीनों से मेरे पास लगातार प्रश्न आते रहे हैं… “लीला चिन्तन” की गहराई ने मुझे पूर्ण अंतर्मुखी बना दिया था… उसके चलते उन प्रश्नों के उत्तर मैं नही देता था… कल मेरी दीदी ने मुझे कहा… दो सौ से ज्यादा प्रश्न साधक पूछ चुके हैं… वाट्सप और नेट में सब भरे पड़े हैं… तुमको उत्तर देना चाहिये… मुझे बात सही लगी… दीदी का तर्क था… सब इतनी सहजता से “लीला चिन्तन” में नही लग सकते… सबकी अपनी अपनी समस्याएं हैं… गृहस्थ हैं… किसी के घर में क्लेश है… लड़ाई झगड़ा है… किसी का बेटा बिगड़ा हुआ है… और विशुद्ध आध्यात्मिक साधकों की भी तो समस्याएं हैं… देखो ! कुछ दिन इनको दो… इन प्रश्नों को पढ़ों… इनका उत्तर दो… फिर उसके बाद “लीला चिन्तन” के माध्यम से साधकों को आगे बढ़ाना… पहले इन समस्याओं का तो समाधान करो । मैंने कल रात्रि में उन सभी प्रश्नों को बड़े ध्यान से पढ़ा… तब लगा सही में संसार में लोग नाना प्रकार से उलझे हुए हैं… ओह । साधकों ! मैं “प्रश्नोपनिषद्” नाम से उन प्रश्नों को ले रहा हूँ… जो सच में समस्या के रूप में हमारे सामने हैं… शुरुआत – “गृहस्थ की समस्या” इनसे कर रहा हूँ… जिन्होंने प्रश्न किया है… उनका नाम नही लिख रहा… बस उनके प्रश्न लिख रहा हूँ और मेरा समाधान )


प्रश्न – मेरे पति को किसी दूसरी लड़की ने फाँस लिया है… मैं रात रात भर रोती हूँ… बहुत दुःखी हूँ… क्या करूँ ?

उत्तर – प्रेम से पति को समझाओ… इससे कोई लाभ नही है ये समझाओ… हानि बहुत है… हानि इतनी है कि… ये लोक भी बिगड़ गया… और परलोक भी बिगड़ जाएगा… विचार करो… कितना गलत काम है… पति को ही कहो… कि आप ये सब छोड़िये… और अगर नही मानते हैं… तो कुछ तेजी दिखाओ… गलत मार्ग से हटाने के लिये थोड़ी कड़क बनो… हो सके तो डर भी दिखाओ… ये आवश्यक है… “धर्म पत्नी” कहा जाता है हमारे यहाँ, इसलिये आपका ये काम है… पति को सही मार्ग में लगाना… ये आपका कर्तव्य है… आप को ये करना ही चाहिये ।

प्रश्न – मेरी पत्नी, आपके बताये साधना -ध्यान करने से रोकती है… साफ़ मना तो नही करती… पर नाक भौं सिकोड़ती है… उस समय मेरा मन उदास हो जाता है… क्या करूँ ?

उत्तर – मैं कोई “व्यक्ति पूजा” की साधना तो बताता नही हूँ… न मैं ये कहता हूँ कि मेरी पूजा करो… मैं तो “नाम जप” करने को कहता हूँ… मेरा आग्रह है कि भगवान का नाम जप करने से आपका मंगल होगा… ये मेरा अनुभव भी है… आपका ही नही आपके परिवार का भी परम मंगल होगा, इतना ही नही, इस जगत का भी मंगल होगा… अच्छा ! सुनो ! अपनी पत्नी को कहो… तनाव में रहोगी तो कुरूप हो जाओगी… और ये बात मनोचिकित्सक भी कहते ही है… मन का प्रभाव शरीर पर पड़ता है… तो कहो पत्नी से… “टेंशन में रहोगी तो मानसिक रोग हो जाएगा… इसका ये सरल उपाय है… “नाम जप” करो… और सुनो… तुम स्वयं नाम जप करते समय भगवान से प्रार्थना करो… कि मेरी पत्नी को अपनी और लगा लें… भगवान मंगल करेंगे ।

प्रश्न – क्या पति का आधा पुण्य या पाप पत्नी को, और पत्नी का पति को मिलता ही है ? ये बात सही है ?

उत्तर – नही… जब तक दोनों की सहमति न हो… तब तक ऐसा नही होता… पुण्य में सहमति हो अगर दोनों की… ऐसे ही पाप में सहमति हो अगर दोनों की, तब फल भोगना पड़ता है… अन्यथा… नही… अकेले अकेले किया गया कर्म अकेले ही भोगता है ।

प्रश्न – मेरा बेटा बिगड़ गया है… बहुत बिगड़ गया है… क्या बताऊँ… सारे गलत काम करता है… मैं कुछ समझाऊँ… तो उल्टा चिल्लाता है… हाथ भी उठाता है… क्या करूँ बहुत दुःखी हूँ… पति भी सुनते नही है… कहते हैं… आज कल सब चलता है… तू टोका मत कर बेटे को ।

उत्तर – छोड़ो, मन से निकाल दो उस लड़के को… और प्रसन्न रहो… ठाकुर जी का नाम लो… खूब लो… और आनन्द में रहो… कोई लाभ नही है चिन्ता करने से… जब वो तुम्हारी बात ही नही मानता , अपमान करता है… माँ के ऊपर हाथ भी उठाने लगता है… तो बेकार में उसको लेकर दुःखी होती हो !… विचार करो ! चिन्ता से शरीर में कोई रोग हो गया… तो क्या होगा तुम्हारा ।

मत सोचो ज्यादा कि – हमारी सन्तान है… सन्तान तो तुम्हारे सिर में पैदा होने वाले जूं भी हैं… वो भी तुमसे ही पैदा हुए हैं… वो भी तुम्हारे बालक हैं… इस बेटे को जूं के बराबर समझो और मस्त रहो ।

प्रश्न – परिवार में जन्मने पर मरने पर, गृहस्थ को सूतक क्यों लगता है ?

उत्तर – क्यों कि उस जन्मने वाले और मरने वाले से हमारा भावनात्मक जुड़ाव होता है… और रिश्ता जितना नजदीक हो… सूतक का प्रभाव भी उतना ही गहरा होता है… क्यों कि नजदीक रिश्ते के साथ जुड़ाव भी नजदीक ही होता है ना ! इसलिये गृहस्थ को इन सूतक इत्यादि को मानना चाहिये ।

प्रश्न – मेरे पुत्र की छोटी उम्र में ही मृत्यु हो गयी थी… पर स्वप्न में वो दिखाई देता है… क्या कारण है ?

उत्तर – नाम जप करो… सोलह अक्षरों वाला महामन्त्र (हरे कृष्ण) का सवा लाख जाप करो… और उन नाम जप को पुत्र के उद्धार के लिये अर्पित कर दो… श्राद्ध कर्म तो किया होगा… नही किया है तो उसे पहले करके… फिर नाम जाप करो… उसका उद्धार नही हुआ है इसलिये स्वप्न में दिखाई देता है ।

प्रश्न – साधना और व्यापार में कैसे समन्वय करें ? मैं एक व्यापारी हूँ… झूठ सच तो बोलना पड़ता है… ऐसे में, मैं क्या करूँ ?

उत्तर – ग्राहक ठाकुर जी हैं… उनमें ठाकुर जी को देखो… और वस्तु एक रूपये में आपने खरीदी है तो स्वाभाविक है… लाभ तो लोगे ही… दुकान खोल कर बैठे हो… उस चीज को लेने के लिये भाग दौड़ की है… तो एक रूपये की वस्तु का अगर दो रूपये या तीन रूपये ले रहे हो… लो… इसमें गलत नही है… पर वस्तु में मिलावट करना… वस्तु खराब देना… ये गलत है… इसका फल भोगना पड़ेगा… वस्तु अच्छी दो… ठाकुर जी आपकी दुकान में ग्राहक बनकर आये हैं… आहा ! आनन्दित हो जाओ… वस्तु अच्छी दो… हाँ लाभ लो… उसमें कुछ गलत नही है ।

“प्रश्नोपनिषद” क्रमशः –

Harisharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (163)


कड़ी संख्या 162 का शेष ………….

महर्षि च्यवन की अद्भुत गौ भक्ति और गौ माता का श्रेष्ठत्व ।(भाग-02)

समय से यज्ञ प्रारम्भ हो गया । महर्षि च्यवन ने दोनो अश्विनीकुमारो को देनेके लिये हाथ मे सोमरस लिया । देवराज इन्द्र वही बैठे थै, उन्होने मुनि को मना किया और कहा कि मेरा मत यह है कि वैद्यवृत्ति के कारण इन्हें यज्ञमें सोमपान का अधिकार नहीं रह गया है ।

च्यवन ने कहा – देवराज ! ये अश्विनी कुमार भी देवता ही हैं, इनमे उत्साह और बुद्धिमत्ता- ये दोनों भरे हुए हैं । रूपमें सब देवताओ से ये बढ़ चढकर हैं । इन्होने मुझे देवताओं के समान दिव्य रूप से युक्त और अजर बनाया है । फिर इन्हें यज्ञ में सोमरस का अधिकर कैसे नहीं ?

इन्द्र ने उत्तर देते हुए कहा – ये दोनों चिकित्सा का कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके मनुष्य लोक में भी विचरण करते हैं, ऐसी स्थिति में इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे रह सकता है ?

इन्द्र इस बात को बार बार दोहराने लगे । तब समर्थ महर्षि च्यवन ने इन्द्र के बातो की अवहेलना करके अश्विनीकुमारो को देने के लिये सोमरस उठा लिया । इन्द्र ने कहा – महर्षि च्यवन ! यदि तुम इन्हें सोमरस दोगे तो मैं तुमपर वज्र से प्रहार करुंगा । महर्षि मुसकराये और अश्विनीकुमारो को देने के लिये सोमरस हाथमे ले लिया । देवराज इन्द्र ने प्रहार करने के लिये वज्र उठा लिया । तब महर्षि च्यवन ने एक हुंकार करके इन्द्र की भुजा को ही स्तम्भित कर दिया और मंत्रो का उच्चारण कर अश्विनीकुमारो के लिये अग्नि में सोमरस की आहुति दे दी ।

इसके बाद इन्द्र को मारने के लिये च्यवन ऋषि ने अपने तपोबल से एक कृत्या प्रकट कर दी। वह कृत्या बहुत ही भयानक थी । उसका नीचे का ओठ धरतीपर लगा हुआ था और दूसरा स्वर्गलोक तक पहुँच गया था । भयंकर गर्जना कर वह कृत्या इन्द्र को खानेके लिये दौडी, इन्द्र घबड़ा गये । उन्होने महर्षि च्यवन से कहा -आप मुझपर प्रसन्न हों, ये दोनों अश्विनीकुमार आजसे सोमपान के अधिकारी होंगे । इस कृत्या को आप हटा दें । मैने तो यह कार्य इस उद्देश्य से किया है, जिस से आपकी शक्ति अधिक से अधिक प्रकाश में आये तथा विश्व में सुकन्या और उसके पिता की कीर्तिका विस्तार हो । यह सुनकर महर्षि च्यवन का क्रोध शान्त हो गया, उन्होने देवेन्द्र के सब कष्टो को हटा लिया ।

**अन्य कल्पो की कथा अनुसार एक और कथा प्रचलित है -यौवन और सुन्दर रूप पाकर च्यवन ऋषि परम आनंदित हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मै देव वैद्य अश्विनीकुमारो को यज्ञ में भाग दिलाऊँगा ।च्यवनमुनि के इस निश्चय से इन्द्र बहुत असंतुष्ट हुए और उन्होंने उनसे उनके दुराग्रह को छोड़ देनेके लिये कहा और ऐसा न करनेपर वज्र प्रहार भय भी दिखाया । पर च्यवनमुनि अडिग रहे । उन्होंने विचार किया कि जिन महेश्वर की सेवा में इन्द्र, वरुण आदि देवता निरत रहते है उन्ही की आज्ञासे सभी देवता अपना अपना कार्य करते हैं, जो सृष्टि, संरक्षण और संहार में सर्वथा समर्थ हैं मुझे उन्ही देवाधिदेव भगवान् शंकर की आराधना करनी चाहिये । इसीसे अभीष्ट सिद्धि होगी । ऐसा निश्चय करके महर्षि च्यवन महाकाल वनमें गये ।

वहां शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् का पूजन करने लगे । उनका हठ देखकर इन्द्र कुपित हुए और उनको मारने के लिये वज्र चलाया, पर भगवान शिव ने पहलेही से इन्हें अभय कर दिया था, इसलिये इन्द्र की बाहुका स्तम्भन हो गया और च्यवन ऋषि के ऊपर वज्र चल न सका । इसी बीच उस लिङ्गमे से एक ज्योति निकली, जिसकी ज्वाला से त्रैलोक्य जलने लगा ।

उससे यब देवता संतप्त हो गये, वे सभी इन्द्र से अषिवनीकुमारों को यज्ञाभागी बनाने की प्रार्थना करने लगे । देवो के कहने पर भयभीत इन्द्रने च्यवन ऋषि को प्रणाम करते हुए कहा कि महर्षे ! आज से अश्विनी कुमारों को यज्ञका भाग मिलेगा और वे सोमपान भी कर सकेंगे । इस शिवलिङ्ग का नाम अब से ‘च्यबनेश्वर’ होगा और इसके दर्शनसे क्षणभरमे जन्म जमान्तर के पाप नष्ट हो जायेगे । मनको दुर्लभ कामनाएं भी इनकी आराधना से पूर्ण हो जायेगी । इतना कहकर इन्द्र सब देवों के साथ लेकर स्वर्ग को चले गये ।

अब महर्षि च्यवन ने तप करने का निश्चय किया । महर्षि च्यवन अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोक का त्याग करके महान् व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए बारह वर्षतक प्रयाग में गंगा जमुना जलके अंदर रहे । जल-जन्तु से उनका बड़ा प्रेम हो गया था और वे उनके आस पास बड़े सुख से रहते थे । एक बार कुछ मल्लाहों ने जल मे जाल बिछाया। जब जाल खींचा गया, तब उसमें जल-जन्तुओं-से घिरे हुए महर्षि च्यवन भी खिच आये । जाल में महर्षि च्यवन को देखकर मल्लाह डर ये और उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करने लगे ।

जालके बाहर खिंचने से स्थलका स्पर्श होनेसे और त्रास पहुँचने से बहुत से मत्स्य तडपने और मरने लगे । इस प्रकार मत्स्यों का बुरा हाल देखकर ऋषि को बडी दया आयी और वे बारंबार लंबी साँस लेने लगे । मल्लाहों के पूछनेपर मुनिने कहा – यदी ये मत्स्य जीवित रहेंगे, तो मैं भी रहूँगा, अन्यथा इनके साथ ही मर जाऊँगा । मैं इन्हें त्याग नहीं सकता । मुनि की बात सुनकर मल्लाह डर गये और उन्होंने काँपते हुए प्रतिष्ठानपुर पहुँचे(वर्तमान समय में झुंसि कहा जाता है)। उस समय चंद्रवंशी चक्रवर्ती सम्राट महाराज नहुष का शासन था । जाकर सारा समाचार महाराज नहुष को मल्लाहों ने सुनाया ।

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