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July 31, 2025 4:11 pm

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 124(1), “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-63”: श्री भक्तमाल (164) तथा !! गृहस्थ की समस्या !! ; नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣2️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

त्रिविक्रम के समान आकाश छूता हुआ था वो महाकाय…….कुम्भकर्ण ।

मायामयीदृष्टि से सब कुछ देख लिया था त्रिजटा नें ।

हजारों घट सुरा का पान करके आया है ये कुम्भकर्ण ।

ये रावण का प्रिय भाई है ……..रामप्रिया ! ये बड़ा वीर है ………शायद रावण से भी बड़ा ……..युद्ध में इसनें यमराज को जीता है ……और इन्द्र तो इससे डरकर समर भूमि को ही छोड़ भागा था ………त्रिजटा जब ये सब बता रही थी ……….तब मेरा ध्यान आकाश की ओर था …….वो दैत्याकार बड़ा भीषण लग रहा था देखनें में ।

त्रिजटा बोली……..ये छ महिनें सोता है ……और केवल एक दिन जागता है …….पर हे रामप्रिया ! ये एक दिन में ही हजारों पशु , और हजारों घट मदिरा के पी जाता है ……………।

मैं आकाश में कुम्भकर्ण को ही देख रही थी …………..वो साँस भी ले रहा था तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे आँधी चल रही हो ।

रामप्रिया ! इसके छ महिनें पूरे नही हुये हैं…..इसे रावण नें जगाया है …….और जागनें के बाद इसनें रावण को काफी ज्ञान भी दिया है ।

त्रिजटा की बात सुनकर मैं चौंकी ………ज्ञान क्या दिया होगा ?

आपको क्या लगता है ……ये सब महर्षि विश्वश्रवा के पुत्र हैं ……….महाज्ञानी हैं रामप्रिया !

अच्छा क्या ज्ञान दिया ?

रामप्रिया ! इसनें स्पष्ट कहा है दशानन से…..सीता ब्रह्म की आद्य शक्ति हैं …..और श्रीराम स्वयं ब्रह्म हैं……तुम मेरी बात मानों भैया ! सीता को लौटा कर श्रीराम की शरण में चले जाओ ।

तब रावण हँसा …….और उसनें अपनें भाई कुम्भकर्ण से कहा ……….मदिरा का पान करो …. भूख लग रही होगी …….हजारों बलिष्ठ महिष का माँस तुम्हारे लिए मैने तैयार किये हैं …खाओ ………।

रामप्रिया ! मदिरा सात्विक सोच को बुझा देती है……….

किसको मारना है ?
चिल्लाया था कुम्भकर्ण माँसाहार और मदिरा का भक्षण कर ।

रावण खुश हुआ बोला ….”राम को मारना है”

मैं मसल दूँगा राम को !

इतना कहकर वो युद्ध भूमि की ओर बढ़ रहा है…..देखो ! रामप्रिया ! वो जा रहा है ।

मैं आकाश में ही देख रही थी……..उस विशाल राक्षस को ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌷 जय श्री राम 🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-63”

( गोकुल में सभा जुटी – सब बोले – चलौ श्रीवृन्दावन )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……

मैया ! मैया ! चलौ बृजराज बाबा बुला रहे हैं । मैंनैं मैया यशोदा तै आयके कही ।

मोकूँ देखके मैया बोलीं ……सब ठीक तौ है ना मधुमंगल ! मैंने कही …..मैया, विशाल सभा जुटी है ….बृज के सब लोग हैं ….और अध्यक्षता कर रहे हैं बृजराज बाबा के बड़े भैया उपनन्द जी ।

मैया लाला कूँ अब जल्दी जल्दी रोटी खवाय रही है ……तब मोते पूछ रही ।

अरे मैया ! बड़े बाबा उपनन्द जी तौ अत्यन्त रोष में हैं ….एक दो ग्वालन कूँ तौ उन्ने डाँट हूँ दियौ ।

मेरी बात सुनके मैया बोलीं ….चौं ? ऐसौ का भयौ है ? और बड़े भैया कहा चाह रहे हैं ।

मैंने कही …..मैया ! वो चाह रहे हैं …हम सब गोकुल छोड़ दैं । जे बात सुनके मैया ने फिर अपनौं माथौ पकड़ लियौ …..आख़िर गोकुल छोड़ के जाँगे कहाँ ?

जेई बात तौ सब कह रहे हैं ……तब रोष में आय गए बड़े बाबा …..बोले …..हमारौ कहा है …हम तौ मरवे वारे हैं …..बुढ़ापौ आय गयौ है ….लेकिन बृजवासियों ! कम से कम अपने बालकन कौ भविष्य तौ विचार करौ । तौ अपनौं गाँव हम त्याग दें ? दो चार ग्वाले बोले हे । लेकिन मैया ! बड़े बाबा कौ कहनौं हो …..हम लोग वनवासी हैं …..कृषक हैं ….हमें कहा अन्तर पड़े …..धरित्री ते हमें कहाँ चहिए हम अपने आप प्राप्त कर लैंगे । हम जहां जाँगे वहीं सुन्दर गाँव बन जावैगौ ।

मैया यशोदा मेरी बात कूँ बड़े ध्यान ते सुन रहीं और उनके माथे में चिंता की रेख स्पष्ट देखी जा सके है ।

मधुमंगल ! फिर ? मैया पूछ रही हैं ।

कारण का है गोकुल छोड़वे कौ ? हम इतने सुंदर गाँव कूँ चौं छोड़ें ? मैया ! एक वृद्ध ग्वाल पूछ रहे …..तब अपने बाबा नन्द जी बोले ….भैयाओ ! मेरी बात ध्यान ते सुनौं ! हमारे बालकन के ऊपर संकट पल पल में आय रहे हैं ……हमारे यहाँ कन्हैया कौ जन्म भयौ ….छ दिना ही तौ भए हे ….राक्षसी पूतना आय गयी …..फिर शकटासुर आय गयौ….और अब तौ वृक्ष हूँ गिरवे लगे ।

बृजराज बाबा के बिच में ही फिर बड़े बाबा उपनंद जी बोल पड़े ……देखौ बृजवासियों ! बात हमारे बालक की या तुम्हारे बालक की नही है …..हमारे बालक में संकट है तौ वो संकट तुम्हारे बालक में हूँ आय सके है …..बात मुख्य है …कि हमारी बाल पीढ़ी संकट में है ।

मैं मैया तै बोलो ……मैया ! बड़े बाबा आक्रोश में बोल रहे । मैया की चिंता अब बढ़ती जा रही है ……..मैया मोते पूछवे लगी ……फिर कहा भयौ ?

मैया ! फिर ? फिर तौ लोग कहवे लगे ….आप ठीक कह रहे हो …लेकिन हम जाँगे कहाँ ?

मैया बोली ….वही तौ …….रोटी खाय लियौ है लाला ने ….फिर लाला मोते पूछवे लग्यो ….मधुमंगल ! हम लोग कहाँ जाँगे ? मैंने कही पतौ नही । फिर कन्हैया मैया ते बोलो …मैया ! हम जाँगे ।

कहाँ ? मैया ने पूछ्यो । तौ कन्हैया बोलो ….श्रीवृन्दावन ।

मैया ने जे नाम पहली बार सुन्यो हो ।

मैया ! अब चलो सभा में ….बाबा बुलाय रहे हैं ….तब मैया ने रोहिणी मैया कूँ बुलायौ और दाऊ कूँ हूँ लैकै सभा की ओर सब चल दिए हे । कन्हैया तौ आज बड़ौ ही प्रसन्न दीख रो ।


सभा में बृजरानी मैया और रोहिणी मैया ग़ोपियन के मध्य जायके बैठ गयीं हैं ।

सभा अब पूर्णरूप ते बड़े बाबा उपनन्द के पक्ष में ही चली गयी है । अब सब मान रहे हे …कि हम सब बड़ेन कौ जे कर्तव्य है कि….अपने बालकन की सुरक्षा के ताँईं …हम गोकुल गाँव कूँ छोड़ दें ।

बड़ी बड़ी बात है गयीं हीं …..ऋषि शांडिल्य हूँ विराजे है …..तभी मेरी माता जी पौर्णमासी लठिया टेकती भई आय गयीं ……मेरी माता के आते ही सब लोग उठके खड़े भए …ऋषि शांडिल्य ने हूँ प्रणाम कियौ …….कन्हैया मोकूँ नोंचते भए कह रो ….देख ! तेरी माता जी ।

अब खड़े भए बाबा बृजराज बाबा ……और बोले …..गोकुल गाँव छोड़के हम कहाँ जायें ? अब सुधी जन इसका निर्णय करें । सब देखवे लगे ऋषि शांडिल्य की ओर …लेकिन ऋषि शांडिल्य देख रहे हैं मेरी माता जी की ओर …..मेरी माता ने कही …ऋषि ! आप ही निर्णय दो । तब ऋषि बोले ….आप भगवती हैं …..हे पौर्णमासी ! आप लीला के रहस्यों कौ भली प्रकार से जानती हो…. या लिए आप ही बताओ कि कन्हैया की लीला अब कहाँ होगी ? तब मेरी माता पौर्णमासी ने अपने नेत्र बन्द लिए …..और शान्त भाव ते बोलीं ….श्रीवृन्दावन । छोटौ सौ कन्हैया खडौ है गयौ …और ताली बजायवे लगो …….सब लोग आपस में पूछवे लगे …कहाँ है श्रीवृन्दावन ? तब ऋषि शांडिल्य उठके बोले ….आहा ! बहुत सुंदर वन है ….नाना प्रकार के वृक्ष लताएँ हैं ….यमुना बा श्रीवन की परिक्रमा लगामें हैं ……गिरिराज गोवर्धन श्रीवन में ही हैं …..हे बृजवासियों ! तुम लोग धन्य हो …ऋषि कह रहे हैं ….कि श्रीवृन्दावन देवों कौ भी अतिदुर्लभ है …..वहाँ के पक्षी दिव्य हैं …वहाँ की लताएँ दिव्य हैं …..अरे ! उस श्रीवन की माटी तक दिव्य है । ऋषि तौ गदगद भाव ते श्रीवृन्दावन की महिमान कौ गान करवे लगे हे….फिर अन्त में यही बोले ……अब हम लोग वहीं रहेंगे इससे कंस अत्याचार से बचने में तुम्हें सहायता मिलेगी । जे कहके ऋषि ने अपनी वाणी विराम दई …फिर कन्हैया की ओर देख्यो ……कन्हैया अकेले ….ताली बजाय रहे …..अब तौ सब प्रसन्न है गए …..प्रेम ते भरे जे बृजवासी अब श्रीवन जायवे की तैयारी में जुट गए हे । लेकिन सब उत्साह ते भर गए …..बड़े बाबा उपनंद जी ने मेरी माता जी कूँ प्रणाम करके उनकूँ धन्यवाद कही ही ।

क्रमशः…..
Hari Sharan Upadhyay
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (164)


कड़ी संख्या 163 का शेष ………….

महर्षि च्यवन की अद्भुत गौ भक्ति और गौ माता का श्रेष्ठत्व ।(भाग-03)

मुनिकी संकटमय स्थिति जानकर राजा नहुष अपने मंत्री और पुरोहित को साथ लेकर तुरंत वहाँ गये । पवित्र-भावसे हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिको अपना परिचय दिया और उनकी विधिवत् पूजा करके कहा- ‘द्विजोत्तम ! आज्ञा कीजिये, मैं आपका कौंन-सा प्रिय कार्य करूँ ?प्रजा का अपराध राजा को लगता है। इन मल्लाहों द्वारा अपराध हुआ है।

महर्षि च्यवन ने कहा- राजन्! इन मस्तन्होंने आज बड़ा भारी परिश्रम किया है । यह तो इनका रोजगार ही है। इन्होंने परिश्रम करके मुझे प्राप्त किया है अत: आप इनको मेरा और मछलियों का मूल्य चुका दीजिये । राजा नहुषने तुरंत ही मल्लाहों को एक हजार स्वर्णमुद्रा देने के लिये पुरोहित से कहा । इसपर महर्षि च्यवन बोले-एक हजार स्वर्णमुद्रा मेरा उचित मूल्य नहीं है । आप सोचकर इन्हें उचित मूल्य दीजिये ।

इसपर राजाने एक लाख स्वर्णमुद्रासे बढते हुए एक करोड़, अपना आधा राज्य और अन्तमें समूचा राज्य देनेकी जात कह दी; परंतु च्यवन ऋषि राजी नहीं हुए । उन्होंने कहा-आपका आधा या समूचा राज्य मेरा उचित मूल्य है, ऐसा मैं नहीं समझता । आप ऋषियोंके साथ विचार कीजिये और फिर जो मेरे योग्य हो, वही मूल्य दीजिये ।

महर्षि का वचन सुनकर राजा नहुष को बडा खेद हुआ । वे अपने मन्त्रीऔर पुरोहितसे सलाह करने लगे । इतने ही में गायके पेटसे उत्पन्न एक फलाहारी वनवासी मुनि जिनका नाम गोजाति था, राजाके समीप आकर उनसे कहने लगे- महाराज ! ये ऋषि जिस उपायों से संतुष्ट होंगे, वह मुझे ज्ञात है ।

नहुष ने कहा -ऋषिवर ! आप महर्षि च्यवन का उचित मूल्य बतलाकर मेरे राज्य और कुल की रक्षा कीजिये । मैं अगाध दुख के समुद्र में डूबा जा रहा हूँ । आप नौका बनकर मुझे बचाइये । नहुष की बात सुनकर मुनि ने उन लोगो को प्रसन्न करते हुए कहा- महाराज ! ब्राह्मण सब वर्णोमे उत्तम हैं । अत: इनका कोई मूल्य नहीं आँका जा सकता। ठीक इसी प्रकार गौ माताओ का भी कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता । अतएव इनकी कीमत में आप एक गौ माता दे दीजिये ।

महर्षि की बात सुनकर राजा को बडी प्रसन्नता हईं और उन्होंने उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षि च्यवन के पास जाकर कहा- महर्षे ! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया है । अब आप उठने की कृपा कीजिये और अपनी तपस्या में पुनः कृपा कर के लग जाइये । मैंने आपका यही उचित मूल्य समझा है । महर्षि च्यवन ने कहा- राजेन्द्र ! अब मैं उठता हूं । आपने मुझे उचित मूल्य से भी अधिक देकर खरीद मुझे खरीद लिया है । मैं इस संसारमे गौओ केे समान दूसरा कोई धन नहीं समझता ।

गायो के नाम और गुणों का कीर्तन करना सुनना, गायो का दान देना और उनके दर्शन करना बहुत प्रशंसनीय समझा जाता है । ऐसा करने से पापोंका नाश और परम कल्याणकी प्राप्ति होती है । गायें लक्ष्मी की मूल हैं उनमें पाप का लेश भी नहीं है । वे मनुष्यों को अन्न और देवताओ को उत्तम हविष्य देती हैं । स्वाहा और वषट्कार नित्य गायों मे ही प्रतिष्ठित हैं । गौएँ ही यज्ञका संचालन करनेवाली और उसकी मुखरूपा हैं । गायें विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दूहनेपर अमृत ही प्रदान करती हैं । वे अमृत की आधार हैं । समस्त लोक उनको नमस्कार करते हैं । इस पृथिवीपर गायें अपने तेज और शरीर में अग्नि के समान हैं ।

वे महान् तेजीमयी और समस्त प्राणियों की सुख देनेवाली हैं । गौओंका समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयता से सांस लेता है वह स्थान चमक उठता है और वहांका सारा पाप नष्ट हो जाता है । गायें स्वर्ग की सीढी हैं और स्वर्ग में भी उनका पूजन होता है । वे समस्त कामनाओ को पूर्ण करनेवाली देवियों हैं । उनसे बढकर और कोई भी नहीं है । राजन्! यह जो मैंने गायोंका माहात्म्य कहा है सो केवल उनके गुणोंके एक अंशका दिग्दर्शनमात्र है । गौओ के सम्पूर्ण गुणो के वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता ।

तदनन्तर मल्लाहो ने मुनि से दी हुई गौ माता को स्वीकार करने के लिये कातर प्रार्थना की । मुनिने गौ माता स्वीकार करके कहा- मल्लाहों ! इस गोदान के प्रभाव से तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये ।अब तुम इन जलमे उत्पन्न हुई मछलियोंके साथ स्वर्ग जाओ ।

देखते ही देखते महर्षि च्यवन के आशीर्वाद से वे मल्लाह तुरंत मछलियों के साथ स्वर्ग को चले गये । उनको इस प्रकार स्वर्ग को जाते देख राजा नहुष की बडा आश्चर्य हुआ । तदनन्तर राजा नहुष ने महर्षि च्यवन और गोजाति की पूजा की एवं उनसे धर्ममें स्थित रहने का वरदान प्राप्त किया ।फिर राजा अपने नगर को लौट आये और महर्षि अपने आश्रम को चले गये । (महाभारत, अनुशासनपर्व )

पञ्च भूतो की अपेक्षा चेतना युक्त जीव – वृक्ष आदि वे अधिक श्रेष्ठ है , उनसे श्रेष्ठ चलने ,रेंगने वाले जीव श्रेष्ठ है,उनमे भी बहुत पैर वाले श्रेष्ठ है, उनसे भी श्रेष्ठ चार पैर वाले है ,उनमे से श्रेष्ठ मनुष्य है, उससे श्रेष्ठ प्रमथ गण है, उनसे श्रेष्ठ सिद्ध, चारण ,गन्धर्व है । उनकी अपेक्षा देव गण श्रेष्ठ है ,देवताओ में इंद्र श्रेष्ठ है ,उससे श्रेष्ठ मनु, प्रजापति है।

उनसे श्रेष्ठ महादेव है, फिर ब्रह्मा जी और सबसे अंत में श्रीमन्नारायण ( शिव और विष्णु एक ही है, यह सृष्टि क्रम भागवत पुराण का होने के कारण इसमें विष्णु श्रेष्ठ बताये गए है ।शिव पुराण के क्रम अनुसार सृष्टि शिव से आरम्भ है ।) भगवान् श्रीमन्नारायण से भी श्रेष्ठ संत, ब्राह्मण है ऐसे कई ग्रंथो में प्रमाण है ।उन ब्राह्मणों में भी जो जन्म से कुलीन ब्राह्मण हो, उसमे तप और शास्त्र का ज्ञान हो वे ब्राह्मण ऋषि कहलाते है , ऋषियो में भी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि , महर्षि कोटि के जो ऋषि है ,वे सबसे श्रेष्ठ है ।

उसी ब्रह्मर्षि कोटि के महात्मा ,श्री च्यवन जी कह रहे है की हमसे अधिक श्रेष्ठ एक गौ माता है । जैसे राजर्षि दिलीप जी के चरित्र से ज्ञात होता है की एक सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट से अभी अधिक मूल्यवान एक गौ माता है उसी तरह इस चरित्र से ज्ञात होता है की एक महान ब्रह्मर्षि से भी अधिक महत्व एवं मूल्य एक गौ माता का है।


[] Niru Ashra: ("प्रश्नोपनिषद्" - द्वितीय )

!! गृहस्थ की समस्या !!


( साधकों ! लोगों के प्रश्नों को पढ़कर सोचता रहा रात भर… संसार दुःख का दूसरा नाम है… पर याद रहे… हमारे द्वारा निर्मित संसार दुःख है… पर परमात्मा के द्वारा बनाया गया संसार सुन्दर है… आनंदपूर्ण है… देखो ! वृक्ष हैं… नदी है… आकाश है… तरह तरह के रँग बिरंगे लोग है… कितना दिव्य है… ये भगवान ने बनाया है… और हमने जो संसार बनाया है… ये मेरा, ये पराया… जहाँ मेरा है… वहाँ राग है… जहाँ राग है वहाँ भेद भाव है… और जिससे राग नही है… उससे द्वेष है… जहाँ द्वेष है… वहाँ शत्रुता है… जहाँ शत्रुता है… वहाँ शान्ति कहाँ ? स्वार्थ है… लोभ है… ईर्ष्या है… जल रहे हैं हम लोग एक दूसरे से ईर्ष्या करके… ये हमारा बनाया गया संसार है… इस बात को गहराई से समझें ।

चार दिन की जिंदगी है… राग द्वेष को मन में रखकर क्यों जिन्दगी को बर्बाद करने में तुले हैं हम लोग… सब से प्रेमपूर्ण क्यों नही रह सकते हम ? । चलिये लोगों के प्रश्नों को लेते हैं )


प्रश्न – हम पति पत्नी में पटती नही हैं… महाराज ! हम दोनों की विचारधारा शुरू से ही नही मिली… जिसके कारण दुःखी हैं… क्या करें ?

उत्तर – जब तक पति पत्नी में से कोई एक भी “विवेकवान” न हो… तब तक परिवार में देखा गया है कि… दुःख आना ही है… क्यों कि दोनों ही अगर “ईगो” को लेकर चलते हैं… एक भी झुकने को तैयार नही है… तो कलह होगा ही… ये देखा गया है… और ऐसा ही है ।

“पत्नी से पटती नही है”… इस बात को लेकर दुःखी होना छोड़ दो… किसी की नही पटती… पटाना पड़ता है… इसलिये विवेक रखो… जहाँ लगे कि मेरे ये कहने से कलह बढ़ेगा… झगड़ा होगा… घर का माहौल खराब होगा… वहाँ चुप हो जाओ ।

देखो ! मैं एक बात कहता हूँ… बिजली का तार नंगा है… और तुमको पता है कि छूएंगे तो करेंट लगेगा… तो छूना क्यों ?

जब पता है कि पत्नी ऐसी है… पति ऐसा है… हम ये कहेंगे तो झगड़ा होगा ही… तो ऐसा काम करना ही क्यों ? चुप रहो ।

देखो शान्ति मुख्य है… जीवन में शान्ति को महत्त्व दो… झगड़े में ज्यादा पड़ो मत ।

प्रश्न – मैं भी चाहता हूँ परिवार में शान्ति हो, पर पत्नी का अपना अहंकार है… जिसके कारण अशान्ति बनी रहती है… बच्चों को भी मेरे खिलाफ भड़काती रहती है… मैं क्या करूँ ?

उत्तर – देखो ! कुछ चीजें हमें भाग्यवश मिलती हैं… पत्नी पति ये सब प्रारब्ध वश हमें मिलते हैं… इसलिये अब जो भी मिली है तुम्हें उसे ही प्रसन्नता से मुस्कुराते हुये स्वीकार करो… और कोई उपाय नही है… ये याद रखो… और एक बात कहूँ… प्रारब्ध को या तो हँसते हुए भोग लो… या रोते हुए… इसलिये बुद्धिमान पुरुष हँसते हुए प्रारब्ध को भोगता है… और मूर्ख लोग रोते हुए… जिसके कारण अशान्ति बनी रहती है… इसलिये बुद्धिमान बनो… खुश रहो… अब जो भी है… उसी में हँसना सीखो ।

प्रश्न – मेरे पति शराब पीते हैं… और फिर घर में आकर मुझ पर क्रोध करते हैं… मैं क्या करूँ बहुत दुःखी हूँ ।

उत्तर – बहन ! एक बात कहता हूँ… शराब पीना बुरा है… हमारे आध्यात्मिक संस्कारों को ये जला देते हैं… इसलिये बुरा है… ।

मुझे एक बात लगती है… और मैं सही हूँ जहाँ तक है कि… पत्नियाँ चाहे तो कुछ भी कर सकती है… बस वो ठानती नही हैं… पुरुष कमजोर होता है… ये याद रहे… पुरुष में आत्मबल की कमी होती है… इसलिये वो शराब इत्यादि का सेवन करके जबरदस्ती आत्मबल पैदा करने की कोशिश करता है… पर पत्नियों में आत्मबल अद्भुत होता है… सहन करने की क्षमता भी अद्भुत होती है ।

इसलिये देखा होगा… पत्नियों को ज्यादा पति की जरूरत नही होती… और देखा गया है… पत्नी के मर जाने पर बेचारे पति की बड़ी दुर्दशा होती है घर में… वैसी दुर्दशा पति के मरने के बाद पत्नी की नही होती… पत्नी बहुओं के साथ बेटों के साथ सामन्जस्य बिठाकर आनन्द से रह लेती है… पर पत्नी के मर जाने के बाद पति बहुत दुखदायी स्थिति में पहुँच जाता है ।

कारण ये है कि… पत्नियों में आत्मबल बहुत है… पर पतियों में नही है… होता नही है… इसलिये बहन ! ये शराब पीना… मारपीट करना पत्नियों से… ये सब जबरदस्ती का मामला है कि… “हम कुछ हैं”… पति ये जताने के चक्कर में ये सब करता है… पर पत्नी चाहे तो कुछ भी कर सकती है… आप छुड़ाओ उनकी ये शराब… आप बदल दो उन्हें… लगाओ अध्यात्म में… ये आप कर सकती हो… हाँ… कुछ दिक्कत आएगी… पर दिक्कतों से पत्नियाँ डरी कहाँ हैं ।

प्रश्न – मैं गृहस्थ में हूँ मेरी पत्नी है… , पर परिवार के कारण बहुत दुःखी हूँ , मन में है कि बाबा जी बन जाऊँ… आप आज्ञा दें ।

उत्तर – देखो ! मेरे पागलबाबा के पास तुम्हारे जैसा एक युवक गया था… उसने भी यही प्रश्न किया… तो बाबा ने उनसे पूछा… बाबा जी बनकर करोगे क्या ? तो उसने उत्तर दिया… नाम जप करूंगा… खूब नाम जप करूँगा… बाबा हँसे… और बोले… तो अभी सुबह के दस बज रहे हैं… बारह बजे ठाकुर जी का भोग लगेगा… तब तक माला लो… और “राधा राधा राधा” नाम जपो… वो खुश हो गया… जपने लगा… मुश्किल से 20 मिनट ही जप पाया था कि… कहने लगा… मैं बोर हो रहा हूँ… मुझे कोई और काम बताओ ।

तब मेरे पागलबाबा ने हँसते हुये कहा… देखो ! ये “मर्कट वैराग्य” को लेकर बाबा जी कभी मत बनना… इससे लाभ तो तुम्हें होगा ही नही… बल्कि दुर्दशा और हो जायेगी… और तुम्हारे जैसों के कारण सच्चे बाबा जी बदनाम हो जायेंगे… इसलिये तुम ये सब मत सोचो… जो 20 मिनट में बोर हो गया… नाम जपते हुये… इसका मतलब – तुम्हारा मन घोर रजोगुणी है ।

मेरे पागलबाबा ने उसे समझा बुझा कर भेज दिया वापस उसकी पत्नी के पास ।

तो भैया ! मैं भी यही कहता हूँ… प्रबल वैराग्य के बिना कभी भी बाबा जी नही बनना चाहिये… और गृहस्थ आश्रम में सहन करते हुए रहो… गृहस्थ में रहते हुए बाबा जी बनों… देखो !

एक मेरे साधक है… महाराष्ट्र के हैं… पत्नी से झगड़ते रहते हैं… और जब झगड़ा बढ़ जाता है… तब भाग जाते हैं कहीं गाड़ी लेकर… एक बार महाराष्ट्र से भाग कर श्री धाम वृन्दावन आगये… मेरे यहाँ नही रुके… क्यों कि पत्नी को पता चल जाएगा… वो भी मेरी साधिका है ।

अब मेरे पास रात में आये… वो भी दस मिनट के लिये… कहने लगे “मैं बाबा जी बनूंगा”… पर मेरी पत्नी को मत बताना कि मैं वृन्दावन में हूँ… अब कल आऊँगा इतना कहकर वो गए ।

पत्नी का फोन आया मेरे पास उसी रात… मैं झूठ क्यों बोलूं… मैंने सच बता दिया… पत्नी फ्लाईट पकड़ कर दूसरे ही दिन आगयी… और अपने साथ लेकर गयी… पति को पकड़ कर ले गयी… बाबा जी बनने का भूत उतार दिया ।

तो जब तक लोगों के मन उथल पुथल है… प्रबल वैराग्य का अभाव है… और रजोगुण की मात्रा ज्यादा है… तब तक बाबा जी नही बनना चाहिये…

घर में रहो… सहन करो… भजन करो ।

“प्रश्नोपनिषद्” क्रमशः –

Harisharan

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