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May 8, 2025 6:16 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग124(2), “श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा-64”:श्री भक्तमाल (165) तथा !! गृहस्थकी समस्या !! ; नीरु आशरा

🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣2️⃣4️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

रावण खुश हुआ बोला ….”राम को मारना है”

मैं मसल दूँगा राम को !

इतना कहकर वो युद्ध भूमि की ओर बढ़ रहा है…..देखो ! रामप्रिया ! वो जा रहा है ।

मैं आकाश में ही देख रही थी……..उस विशाल राक्षस को ।


वो खानें लगा है हजारों वानरों को उठाकर ……….वो जहाँ अपनें पैर रख रहा है ………वहीँ सैकड़ों वानर दब कर मर रहे हैं ।

रामप्रिया ! युद्ध भूमि में त्राहि त्राहि मचा दिया है कुम्भकर्ण नें ।

मेरे पिता विभीषण श्रीराम को कुम्भकर्ण का परिचय दे रहे हैं ।

पर ये क्या ! खा रहा है ये तो वानरों को…….. हजारों वानरों को एक साथ ………..

इस तरह से तो घड़ी दो घड़ी में ही वानर सेना खतम हो जायेगी ।

तभी…….. कुम्भकर्ण के ऊपर एक विशाल पर्वत मारा सुग्रीव नें ।

पर उसका असर कुम्भकर्ण के देह पर कुछ नही हुआ …………..।

पर कुम्भकर्ण झपटा सुग्रीव के ऊपर ……………सुग्रीव भागनें लगे थे कि पकड़ा कुम्भकर्ण नें और अपनी काँख में दबा कर राज भवन रावण के पास जानें लगा ………और चिल्लाता हुआ जा रहा था …..”तुम्हारा सेनापति मैने पकड़ लिया है” ………….।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌷 जय श्री राम 🌷

“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-64”

( श्रीवृन्दावन यात्रा की तैयारी )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल……….

तैयारी शीघ्र करनी है अब श्रीवृन्दावन जायवे की …..प्रसन्नता और अति उत्साहित बृजराज बाबा तब भए जब बरसाने के अधिपति श्रीवृषभान जी ने श्रीवृन्दावन कौ सबरौ भार अपने ऊपर लै लियौ । ऋषि शांडिल्य बोले …श्रीवृन्दावन श्रीवृषभान जी के ही क्षेत्र में पड़े है । जे सुनके बृजराज बाबा अपने मित्र वृषभान जी ते सहज में बोले ….मित्र ! का तुम अपनी भूमि में हमें रहन दोगे ? आगे बढ़के वृषभान जी ने बाबा बृजराज कूँ हृदय ते लगाय लियौ हो । मैं संग चलूँगौ ….बाबा ते वृषभान जी बोले हे ।

लेकिन । ऋषि शांडिल्य ने कही …..हमें या बात कूँ गोकुल ते बाहर नही जान दै नौ चहिए ……क्यों कि राजा कंस तक खबर पहुँच गयी तौ फिर उत्पात की आशंका रहेगी ।

तौ कैसे करें ? सबने ऋषि ते पूछी । तौ ऋषि शांडिल्य बोले …..शान्त भाव ते अधिक यात्रा की चर्चा न करके अपने अपने शकट में सब एक लेन ते चलौ …….

ऋषि की बात कौ अनुमोदन बड़े बाबा उपनन्द ने हूँ कियौ ।

तौ बस …..सब तैयारी में लगे ………

ऋषि ने आगे कही …..कल ब्रह्म मुहूर्त में भगवान कौ नाम लैकै ….सब अपनी अपनी सामग्रिन कूँ शकट में धर के …….श्रीवृन्दावन की ओर चलौ । बात स्पष्ट है गयी अब ।

अब सबकूँ उत्साह भी आय गयौ ……अब तक जो सोचनीय यात्रा ही …..वो यात्रा अतिउल्लासमयी है गयी । सब आपस में कहवे लगे …..”गोकुल में राजा कंस के राक्षसन कौ भय हो …लेकिन श्रीवृन्दावन में कोई भय नही”……या प्रकार तै सब आपस में चर्चा करते भए घर की ओर लौट चले ……लेकिन आज घर में जायके नींद नही लेनी है …..शकट तैयार करनौं है ….सामग्री शकट में रखनी है । और बाबा ! शकट कूँ सजानौं हूँ तौ है ……सब अपने बालक अपने पिता जी ते कह रहे हैं । उनके पिता अपने बालक के सिर में हाथ धरके पूछ रहे हैं ….वत्स ! का तुम्हें गोकुल छोड़वे कौ कष्ट नही है ? तौ बालक उत्तर दे रहे हैं ….ना , ना बाबा ! हमें कोई कष्ट नही है ….चौं कि हमारौ सखा कन्हैया हमारे साथ रहेगौ ना ! या लिए बाबा ! हम तौ यात्रा की सोचके ही अति आनंदित हैं ।

आहा ! यही बात है , जो इन बृजवासियन कूँ सबरे महाभागवतन में उच्च दिखावै ।

कितनौं प्रेम है विचार करौ ……कन्हैया के लिए इन बृजवासिन ने अपनौं गाम , अपनौं घर वास सब त्याग दियौ ….त्यागवे में तनिक भी देर नाँय करी । ऐसे ही श्रीकृष्ण प्रेमी कोई कैसे बन सके ? इन बृजवासिन कौ प्रेम में त्याग तौ देखौ ।


रात्रि में शकट तैयार कर रहे हैं समस्त गोकुलवासी …….

नन्दभवन के ही शत शकट हैं ….सारे सामग्री भर दिए गए हैं बाही में । उनमें ते पाँच शकट जो विशेष हैं …एक ….जामें बृजराज बाबा और उनके भाई बैठेंगे । एक शकट है जामें मैया बृजरानी मैया रोहिणी और दाऊ और कन्हैया बैठेंगे …..और हाँ मैं हूँ बैठूँगौ । अन्य सखान के अपने अपने शकट हैं ….लेकिन मोकूँ पतौ है सबरे सखा यही शकट में आयवे वारे हैं ।

मैया यशोदा अब प्रसन्न हैं ..श्रीवृन्दावन यात्रा कूँ लै कै उत्साहित हूँ हैं । इनकूँ जे बात की प्रसन्नता है कि …अब उनकौ लाड़लौ कन्हैया निर्भय है कै खेलेगौ …और मैं हूँ निश्चिंत है जाऊँगी ।

बाही समय रोहिणी मैया आय गयीं ….तौ मैया यशोदा ने रोहिणी जी ते कही …रोहिणी ! अब गोकुल छोड़वे में दुःख नही है रह्यो ।

“नाहिन गोकुल वास हमारौ ।
बैरी कंस बसत सिर ऊपर , नित उठ करै खगारौ “।।

रोहिणी ! आज की रात्रि है बस या गोकुल में …अब तौ यहाँ हमारौ वास नही है …शत्रु कंस कौ डर बन्यो रहतौ ……कितने राक्षस भेजे वाने ……मैया यशोदा रोहिणी जी कूँ बता रही हैं । पूतना आयी शकट असुर आयौ …..फिर तौ वृक्ष ही गिरवे लगे ……

मैया के मुख ते जे बातें सुनके रोहिणी जी बोलीं ……जीजी ! लेकिन हमें गोकुल ते जायवे में सावधानी बरतनी चहिए ……चौं कि राजा कंस कूँ अगर खबर परी तौ वो उत्पात मचाय देगौ ।

रोहिणी मैया की बात साँची निकली …मैंने देखी कि एक अज्ञात व्यक्ति नन्द भवन के चारों ओर घूम रह्यो हो …और वो सबकी बातन कूँ सुन रह्यो हो । मैं तुरन्त उठ्यो …..और बाके पीछे जायवे लग्यो ….तौ वा अज्ञात पुरुष ने अपनौं मोहडौ ढ़क लियौ और चल दियौ …मैं हूँ बाके पीछे गयौ …लेकिन वो यमुना में कूद गयौ …..हाँ , कंस कौ ही असुर हो वो । मैंने जे बात जायके अपनी माता जी ते कही ….मैं वाही समय अपनी माता जी की कुटिया में गयौ …मोकूँ पतौ है मेरी माता रात्रि में सोमें नही हैं ….मैं गयौ …तौ माता ने मोते पूछी – कहा बात है वत्स मधुमंगल ! तुम इतने चिन्ता में क्यों हो ? तौ मैंने सारी बात बताय दई ….कि माता ! राजा कंस कौ एक असुर अभी मोकूँ दीखो नन्द भवन के पास में ….माता ! मोकूँ देखके वो भगौ और यमुना जी में कूद गयौ । मेरी बात सुनके मेरी माता जी मुसकुराईं ….फिर बोलीं ..वत्स ! कन्हैया कौ सखा है कै चिन्ता तोकूँ शोभा नही देय है …अरे ! लीला है बालकृष्ण की …आनन्द लै वत्स ! मैं समझ गयौ …तौ उठो और जायवे लग्यो तौ फिर मुड़के मैंने पूछी ….माता ! तुम हूँ तौ जाओगी श्रीवृन्दावन ? तब मेरी माता हँस पड़ीं ….बिना कन्हैया के मैं चौं रहूँगी यहाँ ? मैं भी जा रही हूँ श्रीवृन्दावन ……बृजरानी ने मेरे लिए शकट की व्यवस्था भी बना दी है । मैंने हँसते हुए कहा ….माता ! श्रीवृन्दावन में आनन्द आएगा । मेरी माता बोलीं …बाल लीला गोकुल में खिली है वत्स ! अब आगे कैशोर लीला कन्हैया की श्रीवृन्दावन में खिलेगी । मैं हूँ आनन्द में झूम उठ्यो ….अपनी माता की बातन कूँ सुनके ………..फिर प्रणाम करके मैं चल पड्यो हो ।

क्रमशः…..
Hari sharan

श्री भक्तमाल (165)


श्री गणेश द्वारा चंद्र देव को श्राप । (भाग-०१)

श्री गणेष द्वारा चंद्र को श्राप देने की कथा गणेशपुराण की यह कथा संक्षेप में इस प्रकार है –

एक बारकी बात है, कैंलास के शिव सदन में लोक पितामह ब्रह्मा करपुरगौर शिव के समीप बैठे थे । उसी समय वहां देवर्षि नारद पहुंचे । उनके पास एक अतिशय सुन्दर और स्वादिष्ट अपूर्व फल था । उस फल को देवर्षि ने करुणामय उमानाथ शंकर के कर कमलों में अर्पित कर दिया ।

उस अदभुत और सुन्दर फल को पिता के हाथमें देखकर गणेश और कुमार दोनों बालक उसे आग्रहपूर्वक माँगने लगे । तब शिव ने ब्रह्मासे पूछा- ब्रह्मन्! देवर्षि प्रदत्त यह अपूर्व फल एक ही है और इसे गणेश एवं कुमार दोनों चाहते हैं अब आप बतायें, इसे किसको दूं?

ब्रह्मा ने उत्तर दिया- प्रभो ! गणेश छोटे होने के कारण इस एकमात्र फल के अधिकारी तो षडानन (कार्तिकेय) ही हैं । शंकर जी ने फल कुमार(कार्तिकेय) को दे दिया । किंतु पार्वती नन्दन गणेश सृष्टिकर्ता ब्रह्मापर कुपित हो गये ।
लोक पितामह ने अपने भवन पहुंचकर सृष्टि रचना का प्रयत्न किया तो गणेश ने अदभुत विघ्न उत्पन्न कर दिया ।

वे अत्यन्त उग्ररूप में विधाता के सम्मुख प्रकट हुए । विघ्नेश्वर के भयानकतम स्वरूप को देखकर विधाता भयभीत होकर कांपने लगे । गजानन की विकट मूर्ति ,विचित्र रूप एवं ब्रह्माका भय और कम्प देखकर चन्द्र देव अपने गणों के साथ हँस पड़े ।

** हर कल्प में भगवान् के अनेकों अवतार होते रहते है और भगवान् अवतार ग्रहण कर लीलाएं करते है। 4 युग (सत्य, त्रेता ,द्वापर ,कलि )= 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं) ,1000 महायुग= 1 कल्प
कल्प भेद अनुसार कुछ कथाएँ और भी है –

१.कथा ऐसी भी कही जाती है की एक बार श्री गणेश अपने वाहन मूषक पर भ्रमण करते करते चंद्रलोक गए। वहाँ अचानक श्री गणेश मूषक से गिर पड़े, यह देख कर चंद्र अभिमानवश हंसा ।

२.एक बार कुबेर जी ने भगवान शंकर तथा माता पार्वती के पास भोजन का आमंत्रण लेकर कैलाश पर्वत पहुंचे। वे चाहते थे कि शिव तथा पार्वती उनके महल आकर उनके यहां भोजन करें लेकिन शिव जी कुबेर के आमंत्रण का कारण समझ गए । वे जानते थे कि कुबेर केवल अपनी धन-संपत्ति का दिखावा करने के लिए उन्हें महल में आमंत्रित कर रहे हैं । इसीलिए उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त होने का कारण बताते हुए आने से मना कर दिया।

पार्वती जी ने भी कहा की यदि उनके स्वामी नहीं जा रहे तो हम भी अकेले नहीं आ सकते । ऐसे में कुबेर दुखी हो गए और भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। तब शिवजी मुस्कुरा कर बोले कि यदि आपको हमारी सेवा ही करनी है तो आप मेरे पुत्र गणेश को ले जाएं।

गणेश आपको सेवा का पूर्ण मौका देंगे। अंत में कुबेर गणेश को ही ले जाने के लिए राज़ी हो गए। गणेशजी ने कुबेर के महल में पेट भरकर भोजन किया। कुबेर में गणेश जी को खूब मिष्ठान्न पवाये लेकिन इतनी मिठाइयां खाने के बाद भी उनका मन नहीं भरा और वे सोचने लगे कि यहां से निकलते समय वे कुछ मिठाइयां अपने ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय के लिए ले जाएंगे और कुछ स्वयं भी खा लेंगे।

गणेश जी ने बहुत सी मिठाइयों को अपनी गोद में रखा और अपने मूषक पर सवार होकर चलने लगे । तभी गणेशजी के मूषक ने मार्ग में एक सर्प देखा और वह भय से उछल पड़ा ।
इस कारण गणेशजी अपना संतुलन खो बैठे और नीचे गिर पड़े। परिणामस्वरूप उनकी सारी मिठाइयां भी धरती पर बिखर गईं। गणेश जी अपनी मिठाइयों को एकत्रित कर ही रहे थे कि उन्हें हंसने की आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने यहाँ वहाँ देखा तो उन्हें कोई ना दिखा। लेकिन जैसे ही उनकी आंखें आकाश पर पड़ीं तो उन्होंने चंद्रमा को हंसते हुए देखा ।गणेश जी विचार करने लगे कि उनकी मदद करने के स्थान पर चंद्रमा उनका मजाक बना रहा है।

शेष कड़ी 166 में देखें ……………

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Author: admin

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