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April 30, 2025 7:55 am

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हरि शरण जी द्वारा लिखित- “भोरी सखी जी का चरित्र”: Kusuma Giridhar

हरि शरण जी द्वारा लिखित- “भोरी सखी जी का चरित्र”

“तुमने आज लौं बात न पूछी , को द्वारे चिल्लात न पूछी ।
जीवन बीत्यो गोद पसारे , कहा लोभ लालच न पूछी ।
मैं नित हौंस भरी कहिवे की , हंसी कबहूँ कुसलात न पूछी ।
कोटि उपाय किए पै तुमने , का सोचत दिन रात न पूछी ।
कैसे कटत दिवस निसि तेरे , का दुःख सूखत गात न पूछी ।
“भोरी” दीन दुखी आरत सौं , विहँसी ह्रदय की बात न पूछी ।”

यमुना जी के युगल घाट में श्रीवृन्दावन के लोग इस सखी को रोते हुये नित्य देखते थे ……रोते तो सब हैं इस जगत में , कौन नही रोता ….कोई पत्नी के लिए तो कोई पति के लिए कोई परिवार के लिए तो कोई धन आदि के लिए पर इस रुदन की विशेषता ये थी कि ये रुदन संसार के लिए न होकर अपनी “श्रीजी” के लिए था ….पदों की रचना फिर उनका गायन …किसी को सुनाने के लिए नही …..किसी के लिए नही सिर्फ अपनी लाड़ली श्रीजी के लिए ।

लोग देखते थे ….अपने ऊपर एक नीली चुनरी ओढ़ें दूर यमुना के किनारे बैठी ये सखी रोती रहती ……पदों को उसी समय बनाती और गाती । कठोर से कठोर हृदय भी पिघल जाता …क्यों की गायन ही हृदय को बेधने वाला था ।

इस सखी की यही साधना थी , रोना , रोना सिर्फ रोना ।
अजी , इससे बड़ी कोई साधना हो सकती है ?


मध्यप्रदेश में “भेलसा” नामक स्थान पर एक परिवार था जो भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था …उस परिवार के मुखिया थे छेदालाल जी …इनकी संतान हुयी नही…अवस्था बढ़ती ही जा रही थी ।

अमावस्या का दिन था कोई ब्राह्मण द्वार पर आए थे …भिक्षा माँगी तो छेदा लाल जी की धर्मपत्नी जब भिक्षा लेकर आयीं तो ब्राह्मण ने पूछ लिया – आपके सन्तान ? परम भक्त छेदा लाल जी की पत्नी ने कह दिया …हे प्रभो ! मेरे कोई पुत्र नही है …ब्राह्मण बिना भिक्षा लिये आगे बढ़ गये ।

उस दिन बहुत दुःख हुआ छेदालाल की पत्नी को , पति देव समझाते रहे पर सन्तानहीन रहना ये अब इन्हें असह्य हो रहा था । रात भर रोती रहीं ये …..पतिदेव श्रीधाम वृन्दावन के प्रति अनुराग से भरे थे ….पत्नी का मन बहल जाएगा और श्रीराधाबल्लभ लाल जू की कृपा भी हो जाएगी …ये सोचकर मध्यप्रदेश के भेलसा स्थान से श्रीधाम के लिए ये दोनों चल दिये थे ।

श्रीवृन्दावन में जब पहुँचे ….तब इनकी पत्नी को दिव्य दिव्य सकुन होने लगे……इनके कुल में श्रीराधाबल्लभ जू की ही उपासना थी इसलिए बाँके बिहारी जी के दर्शन करके ये श्रीराधाबल्लभ जी ही पहुँचे ….पर वहाँ जाते ही इनकी पत्नी को पता नही क्या भाव उठा इन्होंने रोना शुरू कर दिया ….”बयालीस लीला” श्रीध्रुवदास जी द्वारा विरचित इस वाणी जी का पाठ और वहाँ के गोस्वामी जी इनकी रसमय व्याख्या करके बता रहे थे ।

छेदा लाल जी की पत्नी अपने अश्रुओं को पोंछ कर वहीं बैठ गयीं …….

“मान कुँज में श्रीजी मान कर गयीं हैं ….प्यारे श्याम सुंदर मना रहे हैं …अपने पलकों को प्यारी के चरणों से छुवा रहे हैं ….हा हा खा रहे हैं …..मान जाओ ना प्यारी ! पर श्रीजी मान नही रही हैं ।

कुछ ही देर में श्याम सुन्दर अन्तर्ध्यान हो गये …श्रीजी की व्याकुलता बढ़ गयी ….

इस लीला को सुनते ही छेदालाल की पत्नी मूर्छित हो कर गिर गयीं थीं …..उन्हें देह सुध भी ना रही थी …..दो दिन तक इनकी ऐसी ही स्थिति रही ….तीसरे दिन जैसे तैसे इनको कुछ होश आया था …..पर भीतर ही भीतर ही इनकी श्रीराधाबल्लभ लाल से प्रीति और प्रगाढ़ हो गयी थी ।


हम जड़ राज्य में रहते हैं इसलिये चिन्मय राज्य के बारे में सोच नही पाते …..चिन्मय राज्य में जड़ जैसा कुछ है ही नही ….वहाँ तो सब चैतन्य है ….सब चैतन्य ।

राधाबल्लभ घेरा में नित्य प्रवचन होता था राधाबल्लभीय वाणियों पर ….एक गोस्वामी जी “हित चौरासी” पर बोल रहे थे ……रसिक लोग सुन रहे थे ।

श्रीजी अत्यन्त सुन्दरी हैं …..श्याम सुन्दर उन्हें निरन्तर निहारते हुए भी अघाते नही हैं …..युगों युगों से निहार रहे हैं …ये चन्द्र और सूरज कितनी बार मिटे और बनें हैं पर श्याम सुन्दर निहार ही रहे हैं ….किन्तु इतना निहारते हुये भी ये अघाते नही हैं ।

क्यों प्यारी जू ! आपके नेत्रों से ये अश्रु बिन्दु क्यों ? श्रीजी के नेत्रों से अश्रु का एक बूँद गिरा …..उसे श्याम सुन्दर ने अपनी हथेली में रख लिया ।

प्यारे ! तुम कभी छोड़ोगे तो नही ? ये कहते हुये श्याम सुन्दर के हृदय से लग गयीं थीं श्रीजी ।

पर ऐसा क्यों कह रही हो आप ? इसका कोई उत्तर नही था श्रीजी के पास …..क्यों की प्रेम में ऐसे विचार आते जाते रहते हैं …अज्ञात से प्रेमी डरा रहता है ….कहीं वियोग न हो जाये ।

छेदा लाल की पत्नी सुन रही हैं हित चौरासी की चर्चा ….”कोई जड़ नही है निकुँज में …सब चैतन्य है “…..तभी छेदालाल की पत्नी भाव जगत में चली गयीं ..उन्हें कुछ भान नही है ….वो उस भाव जगत में देख रही हैं …..श्यामसुन्दर ने अपनी हथेली में रखे श्रीजी के अश्रुओं को छेदालाल की पत्नी की ओर फेंका ….ओह ! वो अश्रु उदर में प्रविष्ट हो गया ….छेदा लाल की पत्नी भाव विभोर हो गयीं ….वो कुछ भी समझने की स्थिति में नही थी …वो बस अत्यन्त कातर होकर श्रीजी को पुकारने लगीं …..और उसी से समय आने पर “भोरी सखी” का जन्म हुआ था ।

ये पुरुष थे ……पर सखी भाव की उच्चावस्था के कारण इन्हें “सखी”ही कहा गया ।🚩

“मैं भोरी मेरी भोरी किशोरी ।
मैं भोरी सी विनती लाई , तुम रीझन में भोरी ।।
छोटे मुख बड़ विनय लाड़ली, विहँसि वेगि पुजवौ री ।
भोरी स्वामिनी भोरी चेरी , नातो नेह भलौ री ।
“भोरी हित” हरिवंश कृपा बल , सत सम्बन्ध जुरौ री ।।”

रोना , इतना रोना भी क्या सम्भव है ? जी , सब सम्भव है …प्रेम में सब सम्भव है ….असम्भव तो वहाँ है जहां प्रेम की पीर जागी नही है …जब ये पीर उठती है …..तब ये सब कुछ करवा देती है …रात की नींद ग़ायब ….दिन में चैन नही ….प्रेम के लिए पहाड़ों को लांघ जायें ….सागर में कूद जायें …महाप्रभु श्रीचैतन्य कूदे तो थे जगन्नाथ पुरी के सागर में ….उन्हें वो नीला समुद्र श्रीकृष्ण की याद दिला रहा था …..बस यही भावना जब घनी हो उठी तो श्रीकृष्ण सागर के रूप में ही मुस्कुरा दिये ….फिर क्या था ….कूद गये श्रीचैतन्य महाप्रभु ।

पर इतना रोना ? हाँ रात रात भर लोग रोते हैं …खूब रोते हैं ….पर इसकी क़ीमत क्या ? भोरी सखी का यहाँ गायन इसलिये हो रहा है कि ये अपनी स्वामिनी श्रीराधिका जु के लिए रोई हैं ….रोना बड़ी बात नही है ….पर किसके लिए रो रहे हो ! नेति नेति कहते हुये थकते नही है जो वेद ….ये उन्हीं वेदों का प्रतिपाद्य विषय है – श्रीकृष्ण …और उन्हीं श्रीकृष्ण की आह्लाद हैं श्रीराधा । अजी , श्रीकृष्ण की आत्मा ही तो हैं ये श्रीराधा । ये भोरी सखी उन्हीं के लिए रोती है …..पर ……आप किसके लिये रोते हैं ?


श्रीधाम वृन्दावन से मध्यप्रदेश छेदालाल अपनी पत्नी को लेकर लौट आये थे …सगर्भा हो गयीं थीं …मधुर और शुभ स्वप्न आते थे छेदालाल की पत्नी को ….पर एक दिक्कत शुरू हो गयी इन दिनों …इनको रोना बहुत आता …कोई इनके पास दुखी होता तो उनका दुःख देखकर ही इन्हें रोना आजाता ….समय बीतता गया ….सम्वत् 1947 आषाढ़ मास की कृष्णा षष्ठी को छेदालाल के यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया था । उस दिन बहुत वर्षा हुई …..दो वर्ष से इस क्षेत्र ने वर्षा देखी ही नही थी ….अकाल सा पड़ रहा था ….पर ये क्या था ……भक्त का जब जन्म होता है …तब चारों दिशाओं में मंगल ही मंगल छा जाता है , यही हुआ ….ज़मींदार थे छेदालाल ….खूब लुटाया …..गाँव वालों के साथ साथ ब्राह्मणों को भी खूब दान दक्षिणा दिया …..और पुत्र का नाम रखा भोलानाथ । कहते हैं पूरे दो महीने तक सूर्य नारायण के दर्शन नही हुये थे …वर्षा इतनी हुयी कि भूमि झूम उठी …वृक्ष लहरा रहे थे …….कृषक के लिए ये शुभ था …अरे ! कृषक के लिए जो शुभ होगा वह सम्पूर्ण जनमानस के लिए भी तो होगा ही ना ।

नही नही , बालक एक ही नही हुए …..
कुछ समय बाद एक और बालक हुआ ….इनका नाम रखा शम्भुनाथ ।

भोला नाथ को कुछ प्रिय नही लगता था …इनके गाँव में श्रीराधाकृष्ण का एक मन्दिर था उस मन्दिर में जाने के लिए ये बालक भोला रोता रहता …….और तब तक रोता जब तक इसकी माता वहाँ न ले जाये …..और वहाँ जाते ही ये दौड़ता श्रीविग्रह को छूने के लिये ….पुजारी मना करते तो फिर ये रोता ….खूब रोता । पुजारी बालक को गोद में लेकर विग्रह छुवाते ….तो ये विग्रह के नेत्रों को छूता कपोल को …अधरों को ….फिर हँसता …खिलखिलाता ।

अब भोला नाथ ग्यारह वर्ष का हो गया था , समय की तो अपनी गति है ही ना ।

पर एक दिन ……..


ऐ लड़के ! कौन है तू ? कहाँ से आया है ?

सिपाही आगये थे और लाठी फटकार कर भोला नाथ से पूछ रहे थे ।

नरसिंह पुर जिले का घोर जंगल प्रसिद्ध था ….भोला नाथ को गुरु की तलाश थी ….किसी ने कह दिया था कि गुरु बिना भगवान थोड़े ही मिलते हैं ….और बात सही भी थी । भोला नाथ को भगवान को पाने की जिद्द सवार ….और वो भगवान मिलने वाले थे गुरु के माध्यम से ।

गुरु कहाँ मिलते हैं ? “भोला” नाम ही है तो “भोला” ही था ये …अपने मित्रों से पूछा ।

मित्र भी तो बालक ही हैं ….कह दिये गुरु यानि महात्मा , अब महात्मा तो जंगल में ही मिलेंगे ।

“भोला ! गुरु जंगल में मिलेंगे” …बस फिर क्या था …”सुन ! जंगल भी घोर जंगल वहाँ सन्त ऋषि महात्मा बहुत हैं”……दूसरे दिन ही घर से भाग गया था भोला गुरु को खोजने ….जंगल में जाकर बैठा था ….ध्यान में तल्लीन हो गया …तभी किसी ने कठोर आवाज में पूछा ।

ऐ लड़के ! कहाँ से आया है तू ? सिपाही थे ।

वन किसी के अधिकार में नही होता यहाँ तो कोई भी तप आदि कर सकता है …फिर मुझे क्यों नही …मैं तपस्या करने आया हूँ …निर्भीक होकर भोला कह रहा था ।

पर सिपाहियों ने सरलता से पूछा …और भोला को उसके बताए ठिकाने पर छुड़वा दिया ।

भोला की माता का रो रोकर बुरा हाल था …उनके पिता दो दिन से परेशान थे ….भाई शम्भूनाथ तो अभी दस वर्ष का ही था …पर भोला को जब आया हुआ देखा तो माता के मानों निष्प्राण देह में प्राण आगये । “ये बालक नरसिंह पुर के जंगलों में था …सम्भालकर रखिये इसे नही तो कोई बाघ आदि भोजन कर जाएगा “। सिपाही ये सब समझाकर चले गये थे ।

माता जी अब परेशान रहने लगीं …..क्यों की भोला सामान्य नही था …..ये संसार की बातों को जल्दी सीखता नही था ….इसकी रुचि ही नही थी ….शिक्षा आदि से इसे उचाट होने लगता ….इसे बस …कोई “कृष्ण” कह दे या इससे भी ज़्यादा प्रसन्नता भोला को तब होती जब कोई “राधा या राधे” कहता …..ये नाम उस क्षेत्र में ज़्यादा प्रचलित नही था …..पर भोला को यही नाम प्रिय था …इसने स्वयं से ही श्रीराधा , श्रीराधा … आरम्भ कर दिया था ।

श्रीराधाकृष्ण मन्दिर में भागवत की कथा होने वाली है पुजारी जी ने कहा ….बस फिर क्या था भोला सब कुछ छोड़कर मन्दिर की व्यवस्था में ही लग गया …….भागवत कथा में ये मग्न हो जाता ….लोग इसे देखते तो मन ही मन इसे प्रणाम करते ….आँखें बन्दकर के ये भागवत सुनता …नयनों के कोरों से अश्रु निरन्तर बहते रहते ……भोला , ये नाचता , ये गाता ….ये रोता ….राधा राधा राधा …इस दिव्य मधुर नाम को भोला ने गाँव वालों के मुख में चढ़ा दिया था ।
इस भागवत कथा ने भोला के निश्छल भक्ति को और हवा दे दी थी ।

बड़ा होता गया भोला …युवा हो गया था। …इसका भाई शम्भु नाथ पढ़ाई पूरी करके शिवपुरी में अब नौकरी भी कर रहा था ….माता पिता ने भोला को वहीं कुछ दिन घूम आने को कहा ।
❤️“जहि विधि तोहि प्यारी लागौं ।
तैसी मोहि कीजिये प्यारी , बार बार यह मांगौं ।।
और नही कछु काज काहु सौं, तुम ही सौं अनुरागौं ।
“भोरी” तेरी रीझी लहन कौ, त्रिभुवन तृण सम त्यागौं ।।”

उफ़ ! ये पीर , प्रेम की पीर ….पर रुकिये ? किसी प्रेमी को रोते बिलखते देख किसी निर्णय पर मत पहुँचिये ….ये दुखी है , बेचारा रोता रहता है ….ना , जिसे प्रेम की पीर ने पकड़ लिया जकड़ लिया वो बेचारा कहाँ है ! बेचारे तो तुम हो …जो नश्वर के पीछे पगलाये डोलते हो …कभी पत्नी के लिए आँसु बहाते हो कभी पति के लिए कभी बालकों के लिए ….हाय हाय …..कभी धन के लिए तुम्हारी हाय हाय चालू ही रहती है …..कभी पद के लिए चीखते और चिल्लाते हो …इन सबको तुम से कोई मतलब नही है …न पति न पत्नी , न बेटा न बेटी , न पद , न घर ….किसी को नही …किसी को नही । पर जिसे तुमसे मतलब है उसके लिए कभी रोये हो ? उस रसिया के लिये जो बेचारा तुम्हारे द्वार पर खड़ा है …युगों युगों से ….दरवाज़े की सांकर खटखटा रहा है …पर तुम क्यों सुनोगे ! वो तुम्हारी और देखता है ….वो ललचाई आँखों से देखकर सोचता है मेरे लिए भी रो लो …एक बार तो रो लो ….वो चिल्लाता है …पर तुम कहाँ सुनोगे ! वो कहता है इतने क़ीमती आँसु न बहाओ इनके लिये , ये स्वार्थी हैं ….पर जीव कहाँ मानता है देखो आश्चर्य !


शिवपुरी में वकील थे भोलानाथ के भाई …ये उनके यहाँ ही आगये …अब भोला नाथ को भाव का आवेश आने लगा था …ये इनके समझ में नही आरहा था ….भाई शम्भुनाथ ने देखा इनके भैया की स्थिति कुछ ज़्यादा ही भावपूर्ण है तो वो इनको शिवपुरी के श्रीगोपाल मन्दिर में ले गये ।

वहाँ जाकर इन्हें बहुत सुखद अनुभूति हुयी ….इस मन्दिर के महाराज जी पण्डित गोपीलाल जी श्री राधाबल्लभ सम्प्रदाय के थे …..रसिक उपासना थी …इसी ने भोला नाथ का मार्ग प्रशस्त कर दिया ….इनको अब मार्ग दिखाई दे गया …कैसे चलना है इस रसिक सम्प्रदाय में वो भी इन्हीं से शिक्षा प्राप्त हो गयी ….भोला नाथ ने इन्हीं को अपना गुरु बना लिया और अपना सर्वस्व इनके चरणों समर्पित कर दिया ……पूर्ण शरणागति ले ली …पर गुरुदेव ने आज्ञा दे दी कि तुम विद्याध्ययन करो …..अभी पढ़ने की आयु है तुम्हारी – पढ़ो ।

गुरु की आज्ञा ! झोंक दिया अपने को विद्याध्ययन में ….भाई पूरा साथ दे रहा था ।

भोला नाम था ….पर मेधा अद्भुत , स्मरण शक्ति विलक्षण ….जो एक बार ये पढ़ लेते उसे फिर दोहराने की आवश्यकता नही पड़ती । ये हाई स्कूल पास करते हुये ये बड़ी शीघ्रता से शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले गये ….अब ये बी . ए . की पढ़ाई कर रहे थे ।

सब प्यार करते थे इनको ….एक बार छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह शिवपुरी आये तो एक प्रतियोगिता रखी गयी…..निबन्ध की प्रतियोगिता ….ये राजा साहित्य के प्रेमी थे ….इसलिये विद्यालय प्रशासन ने छतरपुर नरेश की प्रसन्नता के लिये इस निबन्ध का आयोजन रखा था ……भगवान श्रीराम के ऊपर सभी छात्रों को एक निबन्ध लिखना था …और छतरपुर के राजा इसकी अध्यक्षता कर रहे थे ….दो घण्टे का समय दिया गया था …..पर एक बालक उठा और उसने मात्र दस मिनट में ही निबन्ध सौंप कर सहजता से बाहर ग्राउण्ड में जाकर बैठ गया ।

राजा साहब ने उस निबन्ध को देखना चाहा तो …तो वो चकित रह गये थे …भगवान श्रीराम को प्रेमपूर्ण दर्शाने वाला ये निबन्ध था …भगवान श्रीराम का मातु वैदेही के साथ प्रेम , वो अनिर्वचनीय था …धनुष भंग से लेकर , विवाह फिर वनवास रावण वध और फिर उत्तर में मातु वैदेही का परित्याग ये भी दिव्य प्रेम के कारण ही हुआ था ….”भगवान श्रीराम का प्रेम स्वरूप” ।

इसी निबन्ध ने भोला नाथ की लेखनी को ऊँचाई दी ……

छतरपुर के राजा इतने प्रभावित हुये भोलेनाथ से कि उन्होंने छतरपुर में ही चलने का आग्रह किया …भोला नाथ भोले तो थे …ये प्रेम को ही महत्व देते थे ….इसलिये ये भी चल दिये ।

राजा विश्वनाथ सिंह भोला नाथ के साथ समय व्यतीत करते …अपनी समृद्ध पुस्तकालय का अध्यक्ष भोलानाथ को बना दिया था …पुस्तकालय में भक्ति से सम्बन्धित ग्रन्थ बहुत थे …भोलानाथ को यही तो चाहिए था ….वो पढ़ने लगा भक्ति ग्रन्थों को ….उसे रस आरहा था ….अभी तो मुख्य रस बाकी ही था ….भक्ति ग्रन्थों को पढ़ते हुये जब भोला नाथ रसोपासना में प्रवेश करने लगा और उसके हाथों में आए श्रीहित चौरासी, श्रीराधासुधानिधि , बयालीस लीला ..गीतगोविन्द , आहा ! भोला नाथ के भीतर जो प्रेम की पीर थी वो उभरने लगी । उसे अज्ञात से प्रेम होने लगा …..बचपन में स्थिति ऐसी इसकी हुई थी ….पर वो बचपन था …पर बड़े होने के बाद , शिक्षा के प्रतिस्पर्धा में उतरा ….उत्तीर्ण होता गया ….दिन रात एक करके विद्याध्यन करता रहा ….इन सबके चलते उसके हृदय का भाव कहीं दब गया था । पर आज ! भोला नाथ रसोपासना के ग्रन्थों को पढ़ते हुये “सखी भाव” पर रुक गये थे…..सखी भाव , भोला नाथ के देह में सिहरन सी उठने लगी ….सहचरी ! ये वो भाव है जहां कुछ नही चाहिए …तुम भी नही …अद्भुत , अनुपम , अभी तक ये गोपी भाव को सर्वोच्च मान रहा था पर वृन्दावन के रसोपासना ने एक अद्भुत भाव दे दिया था …सहचरी भाव।

स्वसुख का पूर्ण त्याग ….तुम हमें भी न मिलो पर जिससे मिलकर तुम्हें अच्छा लगे उससे तुम मिलो …उससे मिलकर तुम प्रसन्न रहो । विचार करता रहा श्रीराधासुधानिधि का पढ़ते हुए भोला नाथ ….गोपियों की कामना ये तो है कि प्यारे ! तुम मुझे आलिंगन करो ….पर सखी भाव इस को भी स्वसुख मानती हैं इसलिए इसका भी त्याग है ।

भोला विद्वान था , अब परमविद्वान …..चिन्तन करता …गहन दृष्टि थी उसकी ……

स्वर्ग लोक फिर सत्य लोक फिर ब्रह्मलोक , फिर वैकुण्ठ लोक उसी के आस पास गोलोक और साकेत …उससे ऊपर निकुँज …..दिव्य निकुँज ….वो भोला नाथ भावना में चला जाता निकुँज …..पर वहाँ तो प्रवेश नही है पुरुष का …..भोला नाथ रुक जाता । क्या यहाँ प्रवेश के लिए मुझे भी सखी बनना पड़ेगा ! वो विचलित सा हुआ …उसे कुछ समझ में नही आरहा था ….पर पुरुष तो एक मात्र श्रीकृष्ण हैं ….भोला शास्त्र के मर्म को समझने का प्रयास करता है ।

हम समस्त जीव उसकी सखियाँ ही तो हैं …..भोला आनंदित होता ….पर अभी भी ये “रस” की उपासना से दूर था ….ये पढ़ता , इसने रस की उपासना के समस्त ग्रन्थों को पढ़ लिया …श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की वाणियाँ , श्रीस्वामी हरिदास जी की वाणियाँ , इन सबके साथ श्रीराधाबल्लभ सम्प्रदाय की वाणियों की समालोचना करने लगा तो दो दिन दो रात तक ये सोया नही ….पुस्तकालय में ही बैठा रहा …पढ़ता रहा पढ़ता रहा …..सखी भाव क्या है ? रसोपासना क्या है ? रस क्या है ? रस , रास कैसे बनता है ? उस रस की प्राप्ति कैसे होगी ? ऐसे अनन्त प्रश्न उठ ही रहे थे कि सिर दूखने लगा भोला नाथ का ….ग्रन्थों को रखते हुए उसने अंगड़ाई ली और जैसे ही उसके मुख से निकला ….रा धा ……उसके देह में कम्पन होने लगा ….वो फिर बोला …राधा ….उसे बहुत अच्छा लगा ….राधा …राधा ……….

राजा विश्वनाथ सिंह आये ….और आकर बोले ….भोला ! जो चीज “प्रयास” से नही मिलती वो “प्रसाद” से मिलेगी …..तुम अपने को छोड़ दो उसके हाथों …बुद्धि का प्रयोग अब बन्द ।
राजा ने हाथ पकड़ कर उठाया भोला नाथ को …..वो उठा ….अपने कक्ष में गया ….गर्मी है आज …इसलिए छत में चला गया …हवा अच्छी है ……सोया भी तो नही था दो दिनों से ये ।
इसे झपकी तुरन्त आगयी ……तभी – एक सुकुमारी , गौर वदनी , चन्द्रानना…..प्रकट हो गयीं थीं ….भोरी सखी ! मेरी प्यारी भोरी ! मन्द हास्य करते हुये वो चली गयीं ।

भोला उठा ….इधर उधर देखा कोई नही है ….नेत्रों से अश्रु बह चले भोला के ….कौन हो ? बताओ कौन हो ? वो चिल्लाया …..

श्रीराधा श्रीराधा ……….भोला के हृदय में ये नाम गूंजा ।

तभी लेखनी चल पड़ी भोला की ………

श्रीराधा इक आस हमारी ।
समरथ तैर चले भव सागर, पोचन को तोहि सोच सदा री ।।
भाग्यवान निज भाग्य सराहत, भाग्य हीन को आस तिहारी ।।
पुण्य करत सो शुभ फल पावत , पतितन को तू पावन प्यारी ।।
“भोरी” भाग्यहीन अति खोटी, सबल स्वामिनी सिर पर प्यारी ।

ये लिखते हुये हिलकियों से भोला नाथ रोता जा रहा था ।
🚩
“सब नातौ मैं तुम सौं मानत ।
इतनी कबहूँ कहौ हंसि तुमहू, हौं कि नहीं मोहि जानत ।
कबहूँ मैं गुन बरनत तुमरे , कबहूँ बिनती ठानत ।
“भोरी” की सुधि तुम्हहूँ करति हौं, निज चेरी करि मानत ।।”

छतरपुर की पहाडियों में बैठ कर भोला, अब भाव जगत में निकुँज चले जाते ।

*देखो प्यारी ! ये है श्रीवृन्दावन , या की शोभा कितनी दिव्य है …उधर देखो ! वो मोर , नही नही वा माहुं देखो – मोर को नृत्य ….वा लतान में कितने फूल खिल रहे हैं …..प्यारी जू ! फूलन के भार सौं लताहू झुकी जाय रही है । श्याम सुन्दर बोल रहे हैं …अपनी प्राण प्रिया को एकान्त में श्रीवन की शोभा दिखा रहे हैं …..पर ये क्या ! श्रीराधा जी का ध्यान नही है श्याम सुन्दर की बातों में ….न आज उनकी रुचि है …वो कुछ अनमनी सी हैं …कभी रुक कर चारों ओर देखती हैं ….फिर श्याम सुन्दर के साथ चल देती हैं …..पर श्याम सुन्दर अतिप्रसन्न हैं ….उनके मुखमण्डल में वो अति प्रसन्नता आज स्पष्ट दिखाई दे रही है । वो छुपाना चाहते हैं पर छुपा नही पा रहे …..अहो ! मैं आपसौं बतिया रह्यों हूँ पर आप मेरी बातन में ध्यान न देके …चारों ओर कहा देख रही हो ? श्याम सुन्दर ने अब श्रीजी से पूछ ही लिया ।

सखियाँ कहाँ हैं ? श्रीराधा रानी ने जानना चाहा ।

श्याम सुन्दर को अब स्पष्ट बात कहनी पड़ी ….”मैंने ही सखियन कूं कहीं ओर भेज दियो ।”

क्यों ? गम्भीर मुखमुद्रा बनाकर श्रीजी ने पूछा ।

क्यों की मैं एकान्त में आप के साथ विहार करनौं चाहूँ , प्यारी जू ! जा लिये मैंने सखियन कुँ भेज दियो कहूँ और ….पर प्यारी ! आप चलो …हम दोनों ही हैं ..आनन्द आय रह्यो है …चलो ।

श्याम सुन्दर जब श्रीराधा जी का हाथ पकड़ कर आगे ले चले तब श्रीराधिका जी बैठ गयीं वहीं ….उनके नेत्रों से अश्रुधार बहने लगे…ये सब एकाएक हुआ था इसलिए श्यामसुन्दर भी समझ नही पाये …वो बैठ गये श्रीजी के चरणों में …और …क्या हुआ ! प्यारी ! क्यों इतनी अधीर हो रही हो …

प्रियतम ! हमारी सखियाँ हम से कितना प्रेम करती हैं …एक क्षण को भी हम से दूर नही रहतीं ….प्यारे ! रात्रि में हम दोनों सो जाते हैं पर वो नही सोतीं ….कुँज के रंध्रन से सोते हुये हम दोनों को निहारती रहती हैं ….हमें क्या प्रिय है क्या अप्रिय इसका सावधानी से पालन करती हैं …..हमारे लिए अपने प्राणों को वार कर सेवा में अपने को न्योछावर कर देती हैं ……ऐसी मेरी प्यारी सखियाँ हैं उनके बिना मैं कैसे रहूँ ! उनका जब मेरे बिना जीवन नही है तो मेरा भी उनके बिना कैसे जीवन हो सकता है ।


ये भोला का भाव जगत था ….सत्य था ? अजी ! परम सत्य । उसकी ये लीला चिन्तन की धारा बह चली थी …वो निकुँज में था ….ये सब उसके सामने ही हो रहा था …..उसके नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े ….ओह ! “श्याम” से ज़्यादा “स्वामिनी” करुणामयी हैं …श्याम सुन्दर को सखियों से या जीवों से मतलब नही है …पर स्वामिनी तो ….भोला को अब “रसोपासना” स्पष्ट होता जा रहा था ….श्रीजी की कृपादृष्टि उसपर बरस पड़ी थी ।


लाड़ली रोती ही जा रही हैं …..उन्हें सखियाँ चाहिए ….सखियों को लेकर द्रवित हृदया हो गयीं थीं प्रिया जू ….पर ये क्या ! तभी जितने श्रीवन के वृक्ष थे उसमें से ही सखियाँ प्रकट हो गयीं …..लताओं से ललिता विशाखा आदि सब प्रकट हो गयीं ….और हंसते हुये बोलीं ….स्वामिनी ! आपको क्या लगा हम आपसे दूर चली गयीं हैं ….हम तो यहीं थीं …लताओं के रूप में …हम कहीं नही जा सकती आपको छोड़कर …..ये कहते हुये सब सखियाँ अपनी स्वामिनी के चरणों में गिरने लगीं ….तो तुरन्त स्वामिनी किशोरी जू ने सखियों को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ।


भोला नाथ रो रहे हैं …आहा ! ब्रह्म में करुणा नही है …करुणा तो उनकी आल्हादिनी में है ..ब्रह्म नीरस है …सरस तो आल्हादिनी के संग होने पर होता है ….रस ब्रह्म में जो प्रकट है वो आल्हादिनी के कारण ही है …तो करुणा दया कृपा सब आल्हादिनी ही हैं….फिर ब्रह्म में क्या है ? कुछ भी तो नही ….भोला नाथ पुकार उठे …..हे स्वामिनी ! हे राधिके ! हे करुणामयी ।

भोला उठो तुम !

तभी छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह आगये थे उनको सूचना मिल गयी थी कि भोला पहाड़ी में जाकर बैठा है और प्रातः से ही गया है ….अब सन्ध्या होने को आयी है ।

कवित्व शक्ति अपूर्व है, मेधा प्रवल व्यक्तित्व भोला के प्रतिभा को नरेश समझ गये थे ।

भोला कुछ देर में उठा …..चलो अब भोला ! कल से तुम्हें वकालत की तैयारी करनी है …

आदेश था नरेश का …भोला कुछ नही बोले ..अभी तर्क आदि करने की इच्छा भी नही ….सिर झुकाए निकुँज रस में भिंगे ये बस चल रहे थे ।

“इतनी बात कृपा करि दीजै ।
मिलन चटपटी हिय में लागै , विरह ताप तन छीजै ।
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“अब मोहि कछु ऐसी जान परै ।
हौं जु पतित सब भाँति अभागी , स्वामिनी निज नही ढ़रनि ढरे ।।
काँपत देह त्रास हिय भारी , अब न चित्त छिन धीर धरै ।
साधन नेम न ठौर ठिकानौ, व्याकुल द्वार पे दीन रटै ।
कहौ कृपा करिके अलबेली , “भोरी” शठ कित जाइ मरै ।।”

भोला ! तुम इतने भावुक क्यों हो रहे हो ….मैं तुम्हें देख रहा हूँ …तुम्हारे आँखों में अश्रु ही रहते हैं …अरे ! तुम बुद्धिमान हो तार्किक हो …फिर इतने भावुक क्यों ? राजा विश्वनाथ सिंह महल में आकर भोला को फिर समझा रहे थे । भोला ने सजल नेत्रों से कहा ….कुछ नही राजन्! बस प्रेम पन्थ में चल पडा , प्रेम जब तत्व के रूप में प्रकट हुआ …तब उन्माद सा उठ गया ….इतना ही कहा भोला ने ….इससे ज़्यादा कहना वो चाहता भी नही था ।

तुम्हें वकालत की पढ़ाई करनी है ….ये मेरी आज्ञा है । फिर राजा ने भोला के कन्धे में हाथ रखकर कहा …तुम श्रेष्ठ वकील बन सकते हो ….तुम्हारे अन्दर मैंने तर्क देखा है । पर अब सारे तर्क बह चुके हैं….राजन् ! अब कोई तर्क नही है …बस स्वीकार है …भोला नाथ ने कहा ।

पर तुम्हारी प्रतिभा मैं व्यर्थ नही जाने दूँगा तुम्हें वकालत करनी ही पड़ेगी । राजा ने फिर कहा ।

हे नरेश ! मैं अपने गाँव जाना चाहता हूँ …मेरे माता पिता वृद्ध हो गये हैं भाई शिवपुरी में रहता है …मैं एक बार जाकर मिलकर आजाऊँगा ।

छतरपुर महाराज का अपना तो कोई स्वार्थ था नही ……ये तो बहुत भले आदमी थे …बस इतना ही है कि भोला की प्रतिभा को ये आगे ले जाना चाहते थे ….इसलिये इनकी जिद्द थी …पर भोला को कोई अज्ञात अपनी ओर खींच रहा था …ये कहाँ वकालत करने जाते ।

बहाना बनाकर अपने गाँव आगये …माता पिता बहुत प्रसन्न हुये ….माता ने आग्रह किया विशेष आग्रह माता का ये टाल न सके …..आग्रह विवाह का था …..कर लिया विवाह ….सुन्दर सुशील पत्नी मिलीं भोला को …..भोला प्रेमी थे ही पत्नी से उनके सम्बन्ध प्रेमपूर्ण रहे …..पर माता जी का देहान्त हो गया ….माता के शोक में पिता जी भी चल बसे । भोला समझ ही नही पा रहा था कि ये एक साथ कैसे विपदा के पहाड़ टूट गये । चलो ! एक वर्ष बाद इस घर में एक खुशी की आहट तो आयी ….भोला के बालक हो गया …पुत्र , पुत्रप्राप्ति भोला को हो गयी थी । ये बहुत खुश था …अपनी पत्नी को बहुत प्यार लुटा रहा था ….अपने पुत्र के ऊपर तो इसने सर्वस्व वार दिया था …कितना प्रसन्न था ये , गाँव में इसने बहुत उत्सव आदि किये पुत्र जन्म की खुशी में ……

पर “स्वामिनी” कुछ ओर चाहती थीं …अपनी “भोरी” को ये पराये हाथों कैसे जाने देतीं ।

उस दिन बहुत वर्षा हुई गाँव में …रात में कुछ पता ही नही चला …एक महाव्याल विषधर कोटर से आया और लपलपाती जीभ से पुत्र और माँ को डस कर चला गया ।

ये क्या हुआ था भोला के साथ …जगत शून्य हो गया भोला का …सब कुछ सुन्दर था सब कुछ अच्छा था फिर ये कुरूप चित्र किसने खींच दी थी ! कुछ समझ में नही आरहा भोला के ।

भोला का भाई आया और आकर शिवपुरी ले गया ….वो वकालत करता था ..वकील था शम्भुनाथ ….ये वहाँ रहने लगा ….भोला को शम्भुनाथ ने कहा ….भैया ! तुम पढ़ाई क्यों नही कर लेते ? अब भोला को छतरपुर के नरेश याद आये ….ये अपने भाई शम्भुनाथ से कहकर छतरपुर फिर आगया । पर इन दिनों राजा अस्वस्थ हैं ….भोला ने जाकर राजा को प्रणाम किया ….राजा ने उसे पहचान लिया था इसलिए बहुत खुश हुआ ….भोला ने अपने साथ घटी सारी घटना सुना दी थी ….राजा बहुत दुखी हुये ….भोला से कहा …अब क्या तुम मेरी बात मानोगे ?

आपकी ही बात मानूँगा मैं भगवन्! भोला ने स्पष्ट कह दिया ।
तो वकालत करो …राजा फिर बोले ।

जी , सिर झुकाकर भोला ने राजा की आज्ञा मान ली ….

और वहीं पुस्तकालय में वो जाकर बैठ गया …..फिर वही श्रीराधासुधानिधि , हित चौरासी , स्फुटवाणी …संसार के राग रंग में ये सब ढँक गये थे अब फिर उभर आए ….”वो प्रेम की पीर”…..ये ठाकुर और ठकुरानी हैं ….याद रहे – जिसे अपना मान लेती हैं उसे छोड़ती नही हैं ….फिर ये तो “भोरी सखी” थी ….खींच लिया था अपनी ओर ….इस बार जोर से खींचा था ….अब इधर उधर भटकने की कोई आस नही है भोला की ।


वकालत में फेल करा दिया स्वामिनी जू ने …..जो जो करने कि कोशिश कर रहा था भोला …उसी में असफलता इसे मिल रही थी ….यही तो कृपा थी …..श्रीजी जिसे अपना बना लें उसे अन्य आश्रयों से हटा देती हैं या उन आश्रयों को ही हटा देंगी । पर भोला बहुत प्रसन्न है ….उसने नरेश को सूचना दी और क्षमा माँगी …अपने भाई को बता दिया कि मैं अब तुम लोगों के लायक़ नही रहा ….मुझे मेरा लक्ष्य मिले यही प्रार्थना करना , मैं श्रीधाम वृन्दावन जा रहा हूँ ।

“दीजै मोहि वास ब्रज माहीं ।
युगल नाम कौ भजन निरन्तर , और कदम्ब की छाईं।।
बृजवासिन के जूठन टूका, अरु यमुनाकौ पानी ।
रसिकन की सत्संगति दीजै , सुनिवौ रसभरी बानी ।।”

भोला विरह में डूबा ….चल पड़ा था श्रीधाम वृन्दावन की ओर …..कोई साधन नही …अब साधन की आवश्यकता ही क्या …श्रीवृन्दावन ….श्रीवृन्दावन । श्रीराधा नाम मुख में और दृष्टि श्रीवृन्दावन की ओर …यही तो श्रेष्ठ साधन था …और साध्य भी ।
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“कबहूँ बढ़ै विरह दिन दूनौ ।
बिनु भरि नयन माधुरी देखे , सब जग लागै सूनौ ।
मिलिबौ हंसिबौ कहिबौ सुनिबौ , चित्त कछू न सुहावै ।
सब सौं जाइ बैठियत न्यारे , बात करत घबरावै ।
कहत सुनत तेरो नाम किशोरी , उमगि नयन भरि आवै ।
लीला ललित विचारत जब जब , हियरा टूटत जावै ।
विष सम लगै विषय सुख जे तौ , मुक्ति स्वर्ग नही चाहै ।
मुँदे नयन पुलक तन पुनि-पुनि, लै लै नाम कराहै ।
“भोरी” की अभिलाषा इतनी, बार बार सोई माँगे ।
कौन भाग्य सौं कुंवर किशोरी , प्रीत हृदय में जागै !!”

ओह ! श्रीधाम वृन्दावन में जब पहुँचा ये भोला …उन्माद छा गया इसपर ….ये दौड़कर श्रीराधाबल्लभ लाल के दर्शन करके आया ….पर आया युगलघाट …यही इसका ठौर था ….या सेवाकुँज था….और काम ? काम बस रोना …युगलघाट में रोने की जो आवाज आती वो इस भोला की ही होती ….या सेवा कुँज में सोहनी करते हुये इसकी हिलकियाँ बंध जातीं ।

कहाँ खाना ? क्या पहनना ?
और माँगना प्रिय था नही क्यों की ….किशोरी जी की सखी माँगेगी ?

यही ठसक हृदय में …पर शिवपुरी में रह रहे भाई शम्भुनाथ को अपने भैया भोला नाथ के प्रति बहुत आदर भाव था ….माता पिता तो अब थे नही जो भी हैं यही हैं ….भोला नाथ ….इसलिए शिवपुरी से शम्भु नाथ अपने भैया को देखने के लिए श्रीवृन्दावन आगये …अपने भैया की ऐसी स्थिति देखकर उन्होंने तुरन्त श्रीराधाबल्लभ घेरा में किराये पर एक कमरा ले दिया …और मकान मालिक से कह दिया मैं पैसा भेजता रहूँगा …मेरे भाई को भोजन आदि की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिये ….मकान मालिक खुश हो गया …और भोला नाथ को कमरे में बैठाकर सारी बातें समझाकर शम्भुनाथ शिवपुरी भी चले गये ….पर इन्हें कमरे से और भोजन से कोई प्रयोजन थोड़े ही था ये तो बस अपनी स्वामिनी में पूर्ण समर्पित हो चुके थे । वहीं युगल घाट में जाकर बैठना यही इन्हें प्रिय था ।

इनकी प्रार्थना यही थी कि – विरह दो …तुम मिलो न मिलो स्वामिनी ! पर चित्त मेरा तुममें ही डूब जाये …और कुछ समझे नही, जाने नहीं …ये प्रार्थना करते भोला …पर अब ये भोला रह कहाँ गये थे ….ये तो भोरी सखी थे …भोरी …और इस भोरी की स्वामिनी थीं श्रीराधा ये किसी से कुछ नही कहते …ये जो भी कहते अपनी स्वामिनी से ….पर इनकी स्वामिनी सुन नही रही थीं ।

“अब तो प्रत्यक्ष दर्शन करके ही मानूँगी “! अब ये नई जिद्द पकड़ ली थी भोरी ने ।

भोरी सखी पुकारती , ये बिलखती …हा किशोरी ! कहते हुये जब अपने कलेजे के पीर को उघारती तब तो कठोर पत्थर भी पिघल जाता ….ओह !

कैसी हो तुम स्वामिनी !
तुम्हारे द्वार पर खडी तुम्हारी भोरी चिल्ला रही है और तुम्हें मतलब नही ?

अरे ! ये क्या माँग रही है ! ये तो सुन लो ….डरो मत …कुछ नही चाहिए बस अपने दर्शन दे दो ….एक बार मेरे सामने आकर पूछ तो लो कि मैं कैसी हूँ ? ये तुम्हारा कर्तव्य है ….मैं तुम पर आश्रित हूँ …अपने आश्रित के बारे में कुछ तो सोचो । ये शिकायत थी भोरी सखी की अपनी स्वामिनी से ।

पर स्वामिनी ने एक ओर लीला की ……….

संसार का एक मात्र आश्रय जो था भोला का …उसका भाई शम्भुनाथ ….वो भी चल बसा …पैसा वही भेजता था मकान मालिक को जिससे वो भोला को कमरा और भोजन मिला हुआ था ….पर शम्भु नाथ ही स्वर्गवासी हो गये …पैसा आना बन्द हो गया …..जब पैसा आना बन्द हो गया …..कमरा से निकाल दिया इसे…….अब कहाँ जाए ये भोरी ?

पर इसे ये दुःख नही था कि उसका भाई चला गया या कमरे से निकाल दिया …इसकी पीर तो वही थी …..वही …की स्वामिनी दर्शन क्यों नही दे रहीं ! क्या हुआ ? भोरी दिन भर सेवाकुँज में रहती ….खायेगी क्या अब ये ? तो इसने उपाय निकाला ….सेवाकुँज में बन्दरों के लिए लोग चने डालते थे …बन्दर चने खा जाते और उसका छिलका फेंक देते …..भोरी ने उसी को उठाकर खाना शुरू किया ….ये चने के छिलके खाती ….और रोती रहती ।

अब तो श्रीराधा रानी से भोरी का दुःख देखा नही गया ….ये भी तड़फ उठीं …दोपहर की वेला थी गर्मी चरम पर ……युगल घाट में खड़ी आज भोरी फिर पुकार मचाने लगी …रोने और बिलखने लगी ….भूखा पेट …उस पर ये रोना ….बिलखना उफ़ ! श्रीराधाबल्लभ जू ने गोसाईं जी को प्रेरणा दी …..और कहा …आज की राजभोग की थाली युगल घाट में बैठी भोरी रो रही है …उसे देकर आओ । गोसाईं जी गये …भोरी रो रही है ….हिलकियों से रो रही है । भोरी ! ले तेरे लिए श्रीजी ने भोग भिजवाया है , गोसाईं जी ने कहा । पर ये क्या ? भोरी सखी ने सूजी हुयी आँखों से गोसाईं जी को देखा फिर उस भोग की थाल पर गुस्से से उठी …और थाल लेकर प्रसाद को यमुना जी में फेंक दिया और चिल्लाती हुई बोली – स्वामिनी को कह देना – मुझे इन प्रसादों को देकर वो बहला रही हैं ….पर मैं इस तरह बहलने वाली नही हूँ …..अब तो भोरी मरेगी या स्वामिनी के प्रत्यक्ष दर्शन करेगी । मेरी भी जिद्द है …मैं भी उन्हीं की सेविका हूँ ….इसलिये उनके दर्शन बिना अब मैं कुछ नही चाहती …..फिर भोरी हंसने लगी …..मुझे प्रसाद देकर टरकाना चाहती थीं ….पर मैं इतनी भोरी भी नही ….मैं सब समझती हूँ ….आप आओ मुझे दर्शन दो ।

इतना कहकर भोरी मूर्छित हो गयी थी ।
🚩
“जौ पे जिवावौ तो ऐसे जियावौ ।
करुणाधाम कृपाल कृपानिधि , सन्मुख मृदु मुसकावौ ।।
मोहन प्राण जीवनधन सरबस , सो मो हृदय समावौ ।
मुदित सम्हारत कच मुख छुटे, कर गहि हृदय जुडावौ ।।
तुम बिन और लखौं नही काहू, दृग छबि में अटकावौ ।
“भोरी” दीन दुखारी श्रीहित , चरणन सुबस बसावौ ।।”

प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है …पूर्ण होते भी अपूर्णता का भान होता है …तृप्ति होते भी अतृप्ति बनी रहती है …भोरी सखी के साथ भी कुछ ऐसा ही था ….कृपा थी स्वामिनी जु की …पर जिद्द थी इस भोरी की भी कि श्रीराधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन हों …वो मेरे सामने आएँ और दर्शन दें …नही तो ? भोरी अश्रुप्रवाहित करते हुए हंसती ….”कहौ कृपा करिके अलबेली , भोरी शठ कित जाइ मरे” ।

प्रेम अपना रंग दिखा रहा था …..

तड़फ भोरी की बढ़ती जा रही थी …इसे दर्शन चाहिये थे …जैसे भी हो …अगर नही दिये दर्शन तो मर जाऊँगी । ओह ऐसी प्रतिज्ञा ! पूरा श्रीवृन्दावन श्रीराधाबल्लभ जी में जाकर प्रार्थना कर रहा था – आप भोरी को दर्शन दें ….नही तो वो मर जाएगी ।

प्रिया जू ने भी जब सुना कि भोरी ने अब जल भी त्याग दिया है …वो करुणामयी काँप गयीं ….अन्न न खाये तो बहुत दिन हो गये …पर आज उसने जल भी त्याग दिया ! पर भोरी हंसती है …कल को वायु का भी त्याग कर दूँगी ….ये क्या कह रही थी । लोगों ने समझाना शुरू किया ….दो दिन हो गये …जल का भी पूर्ण त्याग …बस रोना और पुकारना ।

श्रीराधाबल्लभ जी के गोसाईं जी आए और आकर समझाने लगे ….भोरी ! ये प्रेम की रीत नही है ….तू समझती है …ऐसे हठ मत कर …..उनके सुख में अपना सुख समझना यही प्रेम का सिद्धांत है …इसलिये तू जिद्द छोड़ दे ….तब भोरी का रुदन और बढ़ गया ….गोसाईं वर्ग हतप्रभ रह गया था …ये क्या हुआ फिर ? चुप कराने आये थे पर ये तो और रोने लगी थी ।

तब भोरी ने कहा ……जीवन भी दो तो ऐसे दो कि तुम्हारे दर्शन हों ……जिवावौ तो ऐसे ….तुम मुस्कुराओ ….मैं तुम्हें देखूँ ! नित नव रंग तुम्हारे प्रकट होते रहें और मैं इन नयनों के दोनें से रूप रस को भरकर पीती रहूँ …..आहा ! प्यारी ! तुम्हारी भोरी बहुत दुखी है….आओ सम्भालो …अद्भुत दृश्य था भोरी सीधे ऊपर की ओर देखकर बातें कर रही थीं ….वो श्रीजी को कह रही थी …वो श्रीजी को पुकार रही थी ….वो रोने लगी …और रोते रोते मूर्छित ही हो गयी ।


भोरी ! उठ भोरी ! देख मैं आगयी तेरे पास ।

रात्रि की वेला …मूर्छित पड़ी है भोरी….उसके सामने तप्त कांचन गौरांगी खड़ी थीं ।

वो उठी …उसने देखा …तुरन्त चरणों में गिर गयी …नेत्रों से अश्रु बहने लगे भोरी के …अश्रुओं से चरणों को भिंगो दिया …अब नही मरेगी ना ? श्रीजी ने उसके मुखमण्डल में अपने सुकोमल कर रखे …उसके अश्रुओं को पोंछा । नही स्वामिनी ! अब मुझे मत छोड़ो …भोरी बिलख उठी….मैं यहाँ नही रहूँगी …मेरा कोई नही है यहाँ ….मुझे ले चलो …अपने साथ ही रखो …..मैं तुम्हारी सेवा करूँगी …नही आता मुझे कुछ तो मैं सीख लुंगी अन्य सखियों से …..पर अब ये भोरी थक गयी है अपने चरणों से इसे दूर मत करो …..फिर बरसात अश्रुओं की ….फिर । वो रोती रही …श्रीजी से सहन नही हुआ अब ….”चल ! चल भोरी ! मेरे साथ” ….कहकर भोरी की बाँह पकड़ निकुँज की ओर चल दीं स्वामिनी …..आहा ! वो नाचती गाती निकुँज में प्रवेश करती है ।

युगलघाट में …..लोगों की भीड़ जुट गयी ….और बात हवा की तरह फैली …कि वो रोने वाली सखी का शरीर शान्त हो गया । पूरा श्रीवृन्दावन रो उठा था भोरी की याद में ।
हरिशरण जी।
जय श्री कृष्ण जी।
🙏🌹🙏🌹🙏❤️

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