Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣2️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा य: ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ।।1।
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जिनके हृदय में सीताजी रहती हैं तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्रि की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापस लौटे।
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
अश्रु भरे नेत्रों से हनुमान की ओर देखा श्रीराम नें …………पूछ रहे थे क्या हुआ ? ये सब कैसे हुआ ?
प्रभु ! मेघनाद नें शक्ति मारी है लक्ष्मण जी के ऊपर ………..
हनुमान नें बताया ।
तभी सब वानर वहाँ आगये …….सुग्रीव , जामवन्त, अंगद और मेरे पिता विभीषण और अन्य भी ।
देखो ना ! विभीषण ! ये क्या हो गया मेरे भाई को……….
सुग्रीव ! आप देखो ना ….. मेरा भाई अपनी आँखें ही नही खोल रहा ……….लक्ष्मण ! आँखें खोल ना !
भाई ! आज क्यों सो गया तू ? मै तुझे कितना कहता था ……..सो जा …..सो जा ….पर तू उस समय तो सोता नही था…….अब आज क्या हुआ ? उठ भाई ! …उठ !
सब रो रहे हैं रामप्रिया !
त्रिजटा ! मेरे देवर लक्ष्मण को कुछ तो नही होगा ना ?
बता ना ! अगर कुछ हो गया तो ! मेरी बहन उर्मिला ? ओह !
क्या कहूँगी मैं उसे ? तेरे सुहाग को उजाड़नें वाली तेरी बहन ही है ।
त्रिजटा ! मेरे श्रीराम रो रहे हैं …………ओह ! धिक्कार है मुझे ……..सब मेरे कारण है ……..मैं मर ही जाती तो अच्छा होता ।
जामवन्त ! देखो ना ! कोई जड़ी बूटी मंगवाओ ……मेरे भाई लक्ष्मण को ठीक करो ।
फिर रोनें लगे श्रीराम………..लोग क्या कहेगें !
कितना स्त्री लम्पट है राम ……अपनी स्त्री के लिये अपनें भाई को !
हनुमान ! मेरा हृदय काँप रहा है……कहीं लक्ष्मण को कुछ हो गया तो !
बिना लक्ष्मण के मैं अयोध्या जाऊँगा ..? और वहाँ मुझे मिलेगी उर्मिला ………….तब मैं क्या कहूँगा ? कि तेरे सुहाग को उजाड़नें वाला यही राम है ……….!
वो बेचारी उर्मिला कुछ बोलेगी तो नही ………….पर उसका सर्वस्व तो मैने छीन ही लिया ना ?
हनुमान ! इधर आओ ……….रामप्रिया ! हनुमान को लेकर गए हैं मेरे पिता विभीषण एकान्त में ।
सुनो हनुमान ! लंका में एक वैद्य हैं……….सुषेण …………..उनको लेकर आओ ……….वो बहुत अच्छे वैद्य हैं …………जल्दी जाओ ………..कहीं देर न हो जाए ।
रामप्रिया ! हनुमान चल पड़े हैं वैद्य सुषेण को लानें ।
कैसे वैद्य हैं ये ?
मैने सिसकियाँ भरते हुए पूछा ।
बहुत श्रेष्ठ वैद्य हैं …………रावण के अपनें राज वैद्य हैं ।
हनुमान उड़ चले थे ………………..लंका नगर की ओर ।
शेष चरित्र कल ……..!!!!!
🌹🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-71”
( “जब मैं बुरौ फँस्यो”- मधुमंगल ने बतायौ )
कल से आगे का प्रसंग …….
मैं मधुमंगल –
नही , कान पकड़ लिये मैंने बा दिना ते । अनुकरण नही करुंगौ …वैसे भी काहू कौ अनुकरण करनौं नही चहिए ….और कन्हैया कौ तौ बिल्कुल नही । मैंने करी ….तौ मैं फ़स्यो । अब आप पूछोगे कहा भयौ पण्डित मधुमंगल ?
तौ सुनो ….
कन्हैया जब तै श्रीवृन्दावन आयौ है तब ते यानै नित ही बाँसुरी बजानौं आरम्भ कर दियौ है …..अब कब बजावैगौ जे पतौ नही …..सुबह , शाम या रात्रि में । और जब जे बाँसुरी बजावै ना ……स्थावर जंगम की बात अभी नही है रही । बेचारी गोपियाँ बाबरी है जायें ….सुन्दर सुन्दर गोपियाँ या नन्द के छोरा के पीछे बाबरी है रही हैं । अच्छा एक बात सुनौ ……गोकुल में कन्हैया नटखट तौ हो लेकिन इतनौं नही … श्रीवृन्दावन आयके तौ जे कछु अधिक ही है गयौ है ।
मटके कछु अधिक है , किशोरावस्था कौ है रह्यो है या लिए निखर गयौ है ….पीताम्बर धारण करके जब चले है जे ….मोर मुकुट शीश पे ….और हाँ आज कल तौ बाँसुरी फेंट में धरवे लग गयो है …बस ….पागल बनायेवे कूँ जे पर्याप्त है …..सब पागल है गये हैं या कन्हैया के पीछे ।
आज कल तौ जब कन्हैया बाँसुरी बजावै , गोपियाँ वहीं भगी आयेवे लगीं हैं । और इनकूँ देखके जब बाँसुरी बजानौं रोक देय कन्हैया …तब मनुहार करें ….हे यशोदा के सुत ! बाँसुरी बजाऔ …..हमारे मन कूँ बाँसुरी ते ही आराम मिलै है ।
मैं जे सब कन्हैया की लीलान कूँ देखतौ रहतौ …और मन ही मन सोचतौ ….वाह रे नन्द के …का भाग पायौ है तैनैं ….स्वर्ग की लुगाइयन ते हूँ सुन्दर हैं यहाँ की गोपियाँ …..और जे गोपी हैं अपने कन्हैया के पीछे पागल । सबकूँ या प्रकार ते कन्हैया ने पागल बना राखो है ।
बा दिना कन्हैया बाँसुरी बजाय रो …..और एक लता कुँज में बैठ के ….निरे एकांत में बाँसुरी बज रही बा की । तभी …..मैं वहाँ पहुँच गयौ ….तौ मोते बाँसुरी धर के बोलो कन्हाई…..मधुमंगल ! मैं आऊँ यमुना जल पान करके …तू यहीं रहियौ …..इतनौं कहके कन्हैया ने अपनी पिताम्बर धरी …..फिर बाँसुरी मोकूँ दई …और जाते जाते अपनौं मोर मुकुट हूँ धर गयौ ।
अब कन्हैया तौ गयौ यमुना में ……तब मैंने सोची …आज होगी सो देखी जाएगी ….कन्हैया कौ रूप धारण करौ ……आहा ! पिताम्बर ……मैंने धारण करी …..बड़ौ ही सुंदर लग रह्यो हूँ मैं तौ ……..फिर मैंने मोरमुकुट धारण कीयौ …….अब तौ मैं हूँ आँखन कूँ बन्द करके कन्हैया की तरह बाँसुरी बजायवे कौ स्वाँग करवे लग्यो । तभी गोपियाँ आय गयीं कन्हैया कूँ खोजते भए …..मोकूँ देखके गोपियाँ बोलीं ….हे गोविन्द ! बाँसुरी बजाओ …..मैंने गोपियन कूँ देख्यो …..मन में बड़ी प्रसन्नता भई ….कि मोकूँ जे बृजसुन्दरी कन्हैया समझ रही हैं …..मेरे मन ही मन में लड्डू फूटवे लगे ……..मैं कछु कहतौ ……बाते पहले ही गोपियाँ बोलीं …..आज कैसे बदले से लग रहे हो कन्हैया । मैं कछु नही बोलो ….क्यों कि मैं बोलतौ तौ मेरी पोल पट्टी खुल जाती …..मोकूँ कह रहीं बाँसुरी बजाओ …..मैं तौ फूंक मारके सिटी सौ बजा सकूँ ….बाँसुरी कहाँ मोपे आवै ।
तभी ……एक विशाल आदमी आयौ मेरे पास ….कारौ हो …….बाके आँखन में आग सी जल रही …..गोपियाँ तौ बाकू देखके भाग गयीं …..मैंने कही …अरे ! तुम कहाँ जाय रही हो …आओ …..लेकिन गोपियाँ तौ भाग गयीं ……जब भागती भई गोपिन कूँ मैंने देख्यो …तब मोकूँ लग्यो …अरे ! मेरे सामने तौ राक्षस है ……राजा कंस कौ राक्षस ।
अब मेरे प्राण सूख गए ..वो तौ सीधे मेरे पास आयौ और मोकूँ उठाय के लै चल्यो मथुरा की ओर ।
मैं कहाँ करूँ …….मैं बाते कह रो …बार बार कह रो …भैया ! मैं कन्हैया नही हूँ …..लेकिन वो राक्षस मेरे मुकुट की ओर देखे …फिर मेरी पिताम्बर । मैंने कही …जे सब मेरे नही हैं …जे सब कन्हैया के ही हैं ……लेकिन वो तौ हँसवे लग्यो । तब मेरी दृष्टि गयी नीचे …यमुना के तट में ….कन्हैया वहीं हो ….यमुना में अपने पामन्ने धोय रह्यो । मैं पुकारवे लग्यो …कन्हैया, बचा ….तू समझे के मोकूँ , जे राक्षस लै जाय रह्यो है मथुरा । कन्हैया ने ऊपर देख्यो …..फिर हँसते भए जोर ते बोलो ……मधुमंगल ! मेरौ मुकुट चौं पहन लियौ तैनैं ? अरे लाला ! गलती है गयी …..अब मोकूँ बचा । मैंने जब प्रार्थना करी ….तब वो राक्षस मोते संकेत में पूछवे लग्यो …..वो कौन ? मैंने कही ….कंस कौ काल …..मोकूँ छोड़ और बाकूँ पकड़ …..मेरी सुनते ही बा राक्षस ने मोकूँ यमुना जी में फेंक दियौ ….और कन्हैया के पास जैसे ही गयौ …बस एक ही मुष्टिका ते कन्हैया ने बाकौ बध कर दियौ । हे भगवान ! मेरी तौ रक्षा है गयी …मैंने लम्बी साँस लई । कछु देर बाद मैंने कन्हैया ते कही …….आज तौ मर ही जातौ जे वामन कौ छोरा ।
कन्हैया मेरी बातन पे बहुत हँस्यो ………
क्रमशः….
Hari sharan
[] Niru Ashra: ("प्रश्नोपनिषद"- दशम )
!! कर्म – प्रारब्ध !!
( साधकों ! पुण्य सलिला माँ भागीरथी के तट पर मैं कल पहुँचा… ऋषिकेश में गीता भवन पूज्य भाई श्री पोद्दार बाबा के पावन कक्ष पर बैठ कर ध्यान किया… माँ गंगा के किनारे सुबह ही सुबह… आहा !
मैं यहीं दो दिन और रहूंगा… नही नही… मैं कही और नही जा रहा ।
क्या भाग्य – प्रारब्ध में परिवर्तन हो सकता है ?
गंगा किनारे चलते हुये मेरी बहन ने मुझ से पूछा था ।
मेरी एक साधिका ने नेट के माध्यम से पूछा… “मुझे लगता है… धन अगर होता तो खूब भण्डारा साधू सेवा ठाकुर जी के उत्सव इत्यादि करते… क्या ऐसी मनःस्थिति सही है ?
“हो सकता है भाग्य- प्रारब्ध में परिवर्तन”
मैंने अपनी बहन से कहा ।
फिर क्यों गीता जी में लिखा गया कि “कर्म का फल भोगना ही पड़ता है” ?
ये मेरी बहन का दूसरा प्रश्न था…
मैंने गंगा किनारे टहलते हुये कहा… भाग्य – प्रारब्ध कर्म से ही तो बनते हैं ? या नही ?
“हाँ”… बहन ने स्वीकार किया ।
तीव्र कर्म, तीव्र भाग्य-प्रारब्ध का निर्माण कर देता है ।
मेरी बहन की बात समझ में आगयी थी… मैंने बहन को कई उदाहरण दिए… जिनको मैं नीचे प्रश्नो के उत्तर में उल्लेख करने जा रहा हूँ ।
धन अगर होता तो… सेवा में लगाते… उत्सव करते…
ये साधिका का प्रश्न ।
ये भावना अत्यन्त सुन्दर है… किन्तु “मैं मेरा नाम हो”… मैं यश पाऊँ… ये भावना है… तो ये पुण्य कार्य है… अत्यन्त पुण्य का कार्य… पर याद रहे… पुण्य नाशवान है… ये भी याद रहे ।
किन्तु ठाकुर जी के लिये… उनके प्रिय सन्तों के लिये ठाकुर जी के उत्सव के लिये ही… ये भावना है… तो “ठाकुर जी पूरी करेंगे”… और नही भी किये तो चिन्ता होनी भी नही चाहिये… क्यों कि ठाकुर जी का काम है… वो जैसा चाहें… और जो है उसी में आनन्द लो… सौ रुपये हैं… तो पचास रुपये में भी उत्सव हो सकता है… उसी में उत्सव मनाओ… “उत्सव तो मन का आनन्द है ना… कहने का मेरा अभिप्राय “सब ठाकुर जी पर छोड़ना ही उचित है”… ये उच्च कोटि की बात है ।
बाकी पुण्य और पाप से परे विशुद्ध भक्ति ही श्रेष्ठ है ।
किन्तु “मैं मेरा” जब तक है… कर्ताभाव जब तक है… तब तक आप पाप पुण्य के चक्कर में ही हो… ये भी याद रहे ।
“हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको न भूलूँ “… ओह ! ये मन्त्र स्वामी श्री रामसुखदास जी का है… और वो कहते थे हर पाँच मिनट में बोलो… ये भी मन्त्र अच्छा है… कर्ताभाव को मिटाने के लिये… क्यों कि हम हार कर उनसे कह रहे हैं… मैंने गीता भवन की दीवारों में लिखे इन वाक्यों की ओर अपनी बहन का ध्यान आकर्षित किया । चलो ! प्रश्नों को लेता हूँ )
प्रश्न – क्या भाग्य- प्रारब्ध को मिटाया जा सकता है ?
उत्तर – परिवर्तन किया जा सकता है… किन्तु ये बात भी सत्य है कि कर्म का फल भोगना ही पड़ता है… पर हमारे शास्त्र ये भी मानते हैं और सत्य है कि “मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है”… इसलिये प्रबल या उग्र कर्म के द्वारा वो नवीन भाग्य – प्रारब्ध बना सकता है… फिर उस नवीन बने प्रारब्ध भाग्य के द्वारा पुराने कर्मों के फल को सहजता में भुगता लेता है… ऐसा है ।
प्रश्न – आप इस बात को और स्पष्ट करेंगे कि कैसे मिटाया जा सकता है पुराने भाग्य -प्रारब्ध को ?
उत्तर – हाँ… कुछ ऐसा अगर मनुष्य करे तो कैसे भी भाग्य प्रारब्ध हों उसे मनुष्य मिटा सकता है… जैसे –
1 ) सविधि अनुष्ठान, तीव्रता से मनुष्य करे ।
हमारे यहाँ ऐसे बहुत अनुष्ठान है… आप को रोग है… आपको रोग दुःख देगा… पर आप हनुमान जी की आराधना करें… या देवी भगवती को मनाएं… उनकी उग्र साधना करें… तो भाग्य-प्रारब्ध बदल सकता है ।
2 ) मनुष्य द्वारा अपने पुण्य की अस्वीकृति ।
… इससे भी प्रारब्ध बदलता है… जैसे – आपको पाप का फल “दुःख” भोगना आपकी मजबूरी है… पर पुण्य का फल “सुख”भोगना आपकी कोई मजबूरी नही है… इस बात को ऐसे समझें… जैसे – आप ने कोई चोरी की… आपको कारावास हुआ… उसे आप अस्वीकार नही कर सकते… पर कोई आप का सम्मान करना चाहता है… तो उसे आप मना कर सकते हो… ऐसे ही आप पुण्य के फल भोग को इनकार करके… तप करते हुए… सुख भोगों का तिरस्कार करते हुये… आप बदल सकते हैं आने वाले पाप के फल, दुःख को… ये होता है ।
3 ) तीव्र भक्ति के द्वारा भी भाग्य प्रारब्ध बदलता है ।
… बहुत उदाहरण हैं ऐसे… क्यों कि मैं पहले ही कह चुका हूँ… कि “भगवान गोविन्द की शरण लेने वाला अपने सारे दुःख रूप प्रारब्धो को मिटा देता है”… ये बात भागवत जी में लिखी है… तो तीव्र भक्ति से… जैसे रो कर भगवान के सामने… हृदय से… पुकार मचा दो… तो प्रारब्ध मिट जाते हैं ।
4 ) कोई अन्य सामर्थ्यवान सन्त साधू आपके प्रारब्ध को ले ले ।
जैसे – कैन्सर के रोग से पीड़ित हो गए थे श्री राम कृष्ण देव… स्वामी विवेकानन्द ने पूछा… आप इतने बड़े सन्त हैं… माँ काली के उपासक हैं… फिर आपको ये रोग ? तब परमहंस जी ने कहा था… विवेक !
मैंने फलाने का रोग अपने में लिया है… वो बहुत कह रहा था… रो रहा था गिड़गिड़ा रहा था… मुझ से रहा नही गया ।
तो ऐसा भी होता है… कोई आपका प्रारब्ध ले भी सकता है… पर वो साधू होना चाहिये सामर्थ्यवान ।
5 ) किसी सिद्ध सन्त के आशीर्वाद से या श्राप से भी प्रारब्ध बदल सकता है… प्रारब्ध में पाप ..पुण्य दोनों है ना !
प्रश्न – उग्र कर्म से कितने समय में भाग्य प्रारब्ध बदलता है… इसका कुछ नियम है ?
उत्तर – हाँ है… शास्त्र में लिखा है… आपके “उग्र कर्म तीव्र कर्म” का फल… तीन दिन या तीन पक्ष , या तीन महीना , या तीन वर्ष में आपको मिलता ही है… और प्रारब्ध कटते हैं ।
प्रश्न – महामृत्युंजय के सविधि अनुष्ठान से बड़े बड़े रोग मिटते हैं… ऐसा हमने सुना है… क्या ये सत्य है ?
उत्तर – बिलकुल सत्य है… प्रारब्ध मिटते हैं… मैंने अभी कहा ना… कि आप सविधि अनुष्ठान करें… मृत्यु को कुछ समय के लिये आप टाल भी सकते हैं… महामृत्युजंय ही नही… किसी भी अनुष्ठान उपासना के द्वारा प्रारब्ध बदल जाता है… हमने देखा है ।
“गोपाल सहस्रनाम” का हमने गिरिराज जी में एक चमत्कार देखा… एक साधू ने एक मृत्यु में पड़े बालक को जीवित कर दिया था… ऐसा होता है ।
प्रश्न – क्या हमारे भाग्य प्रारब्ध को कोई ले सकता है ?
उत्तर – बिलकुल ले सकता है… जैसे – आपके भाग्य में पुत्र का योग नही है… सात जन्मों तक भी नही है… पर सन्त ने कृपा की… और पुत्र हो गया… ऐसे बहुत उदाहरण हैं ।
“प्रश्नोपनिषद”- क्रमशः
Harisharan


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