[29/05, 19:07] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣3️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
रावण नें बाणों की वर्षा शुरू कर दी थी अब श्रीराम के ऊपर ।
पर श्रीराम नें उन सारे बाणों को क्षण में ही काट दिया था ।
रावण श्रीराम के रथ की ध्वजा को काटना चाहता था ……पर मातलि इस कौशलता से रथ चलाता ………कि ध्वजा को रावण के बाण छू ही नही सकते थे ।
रावण नें अब गदा, मुदगल , मूषल, पर्वत एक साथ श्रीराम के ऊपर फेंकें …..क्यों की रावण के दसों धनुषों को श्रीराम नें काट दिया था ।
श्रीराम नें रावण के सभी अस्त्रों को काट दिया …… वो सब अस्त्र अंतरिक्ष में चले गए थे ।
पर रावण का युद्ध कौशल भी कोई कमजोर नही है रामप्रिया !……वो अविराम शस्त्र श्रीराम के ऊपर फेंके जा रहा है ………
ओह ! चकित भाव से मेरी ओर देखा त्रिजटा नें ……
क्या हुआ त्रिजटा ?
रामप्रिया ! रावण के द्वारा किये जा रहे युद्ध को देखकर श्रीराम खुश ही रहे हैं ……वो कभी कभी धनुष को छोड़कर तालियाँ भी बजा रहे थे ……रावण ! साधू ……साधू …………..और कभी कभी चिल्लाकर कहते ……रावण ! उत्साह से लडो ………पूरी शक्ति से ……इस तरह रावण का मनोबल भी बढ़ा रहे थे मेरे श्रीराम ।
पर रावण के सारथि और श्रीराम के सारथि इन दोनों का भी रथ सञ्चालन अद्भुत था…….ये सारथि अपनें रथी को अवसर देनें के लिए ……..या उनकी रक्षा करनें के लिए …..कभी आगे ..कभी पीछे …..दाहिनें या बाएं या मण्डलाकार घुमा रहे थे पूरे वेग से ।
ओह ! ये क्या ! रावण छुप गया है अंतरिक्ष में जाकर ……और वहीं से बाणों की वर्षा करनें लगा है फिर से ।
समुद्र क्रुद्ध हो उठा ………धरती काँप रही है ………ये सब देखकर ऋषि मुनि भयभीत हो उठे …….”राम विजयी हों”……….यही आशीर्वाद सबके मुख से निकलनें लगा था ।
अब श्रीराम नें एक साथ तीस बाण मारे …………….दस मस्तक …और बीस भुजा ………………
बाण लगे ………दसो मस्तक कट गए रावण के …….और बीस भुजाएं भी…….श्रीराम नें अब जब लम्बी साँस ली – “प्रभु ! देखो”
मातलि चिल्लाया ….।
जैसे केशों को काटो तो वो बढ़ जाते हैं फिर से ………पर केशों को बढ़नें में तो समय लगता है ….पर रावण के मस्तक और भुजाएं ……..ये तो कटते ही नए उग रहे थे ….।
पर श्रीराम रुके नही ………वो बाण चलाते ही रहे …………रावण के सिर कट रहे थे बार बार ……….भुजाएं कट रही थीं ………पर इसका परिणाम अच्छा नही हुआ ……………हवाओं में उड़नें लगे थे रावण के मस्तक …………हजारों मस्तक …………हजारों भुजाएं ……..।
क्रमशः.....
शेष चरित्र कल ………!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
[29/05, 19:07] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-87”
( जब जगत्सृष्टा चकित भये…)
कल ते आगे कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
चतुर्मुख ब्रह्मा के ताईं काल की गणना कोई महत्व नही रखे है ……सतयुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग …इन चार युगन की एक चतुर्युगी होवे है । ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीत जाए तब ब्रह्मा कौ एक दिन होवे है । ऐसे ही एक हजार चतुर्युगी होवे में एक ब्रह्मा की रात्रि होवे है …..अब ऐसे ब्रह्मा के ताईं काल की गणना कौ कोई महत्व होयगौ ?
ब्रह्मा अहंकार ग्रस्त है गये कि …..मैं ही सृष्टिकर्ता हूँ ….मेरे सिवा और कोई है नही ।
ऐसे ब्रह्मा ने जब कन्हैया की लीला आदि देखी ….तौ उनकूँ लगवे लग्यो कि …अहीर के बालकन कौ जूठौ खायवे बारौ कैसे भगवान है सके ? लेकिन देवता ऋषि तौ सब कह रहे हैं ….ब्रह्मा के समझ में नही आए कन्हैया ….तौ इन्ने आयके बछड़े और ग्वाल बालकन कूँ चुराय के लै गये ब्रह्म लोक ….और हाँ …केवल श्रीवृन्दावन ते ले गए हैं बछड़े और ग्वाल सखान कूँ ….लै जायके रख दियौ है …..फिर लौटके श्रीवृन्दावन आए हैं ….बस इतने समय में ही पृथ्वी में एक वर्ष बीत गयौ । ब्रह्म लोक के मात्र एक क्षण बीते हैं ….और यहाँ पूरौ एक वर्ष बीत गयौ ।
भयौ ये ……….कि ब्रह्मा अपने लोक के एक भाग में ग्वाल वत्सन कूँ रख के जैसे ही अपने सिंहद्वार पे आए और अपने महल की ओर बढ़े …….तभी द्वारपालन ने ब्रह्मा कूँ रोक दियौ ।
अपमान ! इतनौं बड़ौ अपमान ! सेवक ने स्वामी कूँ रोक दियौ ।
ब्रह्मा कछु कहते बाते पहले ही द्वारपाल बोले …..आप हमारे स्वामी नही हैं ……ब्रह्मा चकित है गए ये सुनके । तौ कहाँ हैं तुम्हारे स्वामी ? वो तौ भीतर हैं …..अभी अभी नारद जी गए हैं उनके पास ……अब भगवान शिव जाने वाले हैं ……वहाँ आज श्रीकृष्ण कथा हो रही हैं …..बड़े बड़े ऋषि मुनि आज यहाँ आयेंगे ……..फिर द्वारपाल ब्रह्मा की ओर ध्यान से देखते हुए बोले …..लेकिन तुमने हमारे स्वामी का भेष क्यों धारण किया है ? अच्छा ! तो तुम बहरूपिया हो …..लेकिन यहाँ से जाओ …..नही तौ हमें तुम्हें धक्के मारना पड़ेगा । ब्रह्मा अपने द्वारपाल के मुख ते जे सब सुनके तुरन्त अपने हंस की ओर दौड़े ………वो कुछ कुछ समझ रहे थे ….कि मुझ से परब्रह्म श्रीकृष्ण का अपराध बन गया है …….वो हंस में बैठके तुरन्त श्रीवृन्दावन में आए …..जब यहाँ आए तौ क्या देखते हैं ……..सामने से बछड़े आरहे हैं ……उन अनगिनत बछड़ो के मध्य में सुन्दरतम श्रीकृष्ण …..पीताम्बर धारण किए हुए …मोर का पंख सिर में खोंसे …..कटि में फेंट कसा हुआ …उसमें बाँसुरी और दूसरी ओर शृंगी । गले में झूलती हुई एक सुन्दर सी वनमाला ……और इन सुन्दर गोपाल के पीछे अनेक ग्वाल सखा सब चले आरहे हैं ।
ब्रह्मा चकित हैं …..क्यों कि बछड़े तौ ये चुराकर ले गए थे ब्रह्म लोक …और वहीं रखकर आए हैं ….फिर ये कौन हैं ? पीछे ग्वाल बाल भी हैं …लेकिन ये सब तो ब्रह्म लोक में हैं …मैं ही इन्हें रखके आया हूँ …….ओह ! सिर चकराया सृष्टिकर्ता का । तभी कन्हैया मुस्कुराए ……ब्रह्मा फिर हंस में बैठे और गए अपने ब्रह्म लोक में …….ब्रह्म लोक में बछड़े भी हैं और वही ग्वाल बाल भी हैं …….ब्रह्मा सोचने लगे …फिर वो कौन थे ? ब्रह्मा का देह शिथिल होने लगा …….उनके समझ में नही आरहा कि ये हो क्या रहा है ! सुधी ने अपनी सुध खो दी थी ।
क्रमशः …..
Hari sharan
[29/05, 19:07] Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-8
प्रिय ! प्रेम पन्थ अति ही कठिन…
(सन्त वाणी)
मित्रों ! कल दोपहर के 2 बजे गया था मैं गौरांगी के यहाँ… न पंखा, न कूलर, न एसी… फिर भी उसका वह घर शीतल था… उसके कक्ष में प्रवेश करते ही… सुगन्ध का झोंका आरहा था… वो पाठ कर रही थी… पीला लहंगा और पीली अंगिया… पीला ही चादर सिर में ओढ़े
हुये, भक्तमाल जी का पाठ कर रही थी… उसका गौर वर्ण वस्त्रों के बीच बीच में से झाँक रहा था… । उसकी वह प्रेमपूर्ण आवाज़ और हृदयस्पर्शी उसका भाव…भक्तमाल जी का पाठ… बिना उसकी साधना को विघ्न पहुंचाएं मैं शान्त भाव से बैठ गया… वो इतनी भाव में भरी हुई थी कि उसको पता भी नही चला कि मैं उसके घर में आ चुका हूँ ।
पाठ ?… एक होता है… पढ़ना… और एक होता है पाठ… । हमारे यहाँ शास्त्रों को पढ़ा नही जाता… “पाठ” किया जाता है… हमारे यहाँ श्री रामचरितमानस को पढ़ते नही हैं… भागवत जी को पढ़ते नही हैं.. पाठ करते हैं…”पढ़ने” में वो रस नही है… क्यों कि पढ़ा बुद्धि से जाता है… पर पाठ बुद्धि से नही की जाती , पाठ तो हृदय से की जाती है… पाठ तो हृदय की विषय वस्तु है ।
पाठ में श्रद्धा है… पाठ में प्रेम है… पाठ में भाव है । कवि जयदेव के चरित्र का पाठ कर रही थी गौरांगी भक्तमाल से ।
मैं सुनता रहा… गीतगोविन्द को गाया गौरांगी ने… और गाते हुये उसके अश्रु बह रहे थे… और आँखों का काजल बह कर उसके गोरे गालों में एक काली सी रेख बना दी थी । मैं सुनता रहा… मेरी भी आँखें गीली हो गयी ।… अब विश्राम किया पाठ का… 4 बज गये हैं… उसने अपने आँसुओं को पोंछा… फिर भक्तमाल को प्रणाम करके उसे रख दिया । पीछे जब देखा तो मैं था… वो खुश हो गयी… हरि जी ! आयी और बड़े प्रेम से
मुझे गले से लगा लिया । विशुद्ध है इस का हृदय… मुझे देखती हुयी बोली…
हरि जी ! प्रेम क्या है ?
मैंने हँसते हुये कहा… प्रेम… मिलन और विरह का मिश्रण है । उसने बड़ी मासूमियत से पूछा – कैसे ?… मैंने कहा… गौरांगी ! प्रेम का उच्चारण करो… “प्रेम”… बोलो… पहले प्रेम के उच्चारण में होंठ जुड़ते हैं… फिर
अलग होते हैं… फिर जुड़ते हैं… बस यही प्रेम है… मिलना फिर बिछुड़ना…फिर मिलना…। गीत गोविन्द का पाठ किया तो तेने… उसमें वर्णन नही आया… कि राधा से श्री कृष्ण मिलते हैं… फिर बिछुड़ते हैं… तब ऐसा लगता है कि श्री राधा के प्राण ही निकल गये… फिर मिलन… ।
हरि जी ! प्रेम में विरह क्या
आवश्यक है ?… वियोग क्या जरुरी है ?…
मैंने कहा… विरह के बिना प्रेम कहाँ ?…वियोग के बिना… प्रेम की कीमत कहाँ ?…ये होता ही है… गौरांगी ! विश्व में हमारे श्री बाँके बिहारी जी का मन्दिर ही एक ऐसा मन्दिर है जिसमें पर्दा लगता है… फिर उठता है… फिर लगता है… एक एक मिनट में दर्शन और विरह… ये प्रतीक है प्रेम का… इसके बिना रस कहाँ ?… इसके बिना प्रेम का उत्साह और उत्सव कहाँ ?… । मेरा हाथ पकड़ के मुझे बैठाया गौरांगी ने …और बोली ! प्रेम की साधना क्या है ?
मैंने कहा… मिट जाना यही प्रेम की साधना है । अपने आप को फ़ना कर देना… अपने आपको पिया के रंग में रंग देना… यही प्रेम की साधना है… अपने वज़ूद को
मिटा देना… अपने “मैं” भाव को मिटा देना… यही है प्रेम की साधना । गौरांगी ! अनुराग की लालिमा तभी तो उभरेगी जब सब कुछ पीसा जाएगा… अनुराग की लाली तभी दीखेगी जब… मैंने बीच में रुकते हुये गौरांगी को कहा… गौरांगी ! पान होता है ना… उसकी लालिमा होठों में तब रचती है… जब पान अपने आप को मिटा देता है… सुपारी अपने आपको मिटा देती है… चूना
अपने आप को मिटा देता है… तब जाकर लालिमा प्रकट होती है… ऐसे ही… हम भी जब अपने प्रियतम के लिए अपने को मिटा दें… अपने मन को , अपने तन को , अपनी बुद्धि को , अपने चित्त को, और अपने अहँकार को… तब जाकर अनुराग की लालिमा झलकेगी…ओह !…गौरांगी ! प्रेम का धुँआ जब हिय में उठता है ना…उफ़ ! उसे कौन देख सकता है ?… या तो वो देख सकता है जिसके हिय में वो आग सुलग रही हो… या वो देख सकता है… जिसने सुलगाई हो…अरे ! गौरांगी ! सच्चा प्रेम तो वह है… सच्ची प्रेम की साधना तो वह है… कि भीतर भीतर आग लगती रहे… पर बाहर किसी को कानों कान खबर तक न हो… अरे ! जिसने कह दिया कि “मैं तुम से प्यार करता हूँ”… बस उसका प्यार तो उड़ गया… उसके प्यार की खुश्बू तो उड़ गयी… गौरांगी ! नही… बोलना नही है… किसी से नही बोलना है… ये प्रेम की साधना जितनी गुप्त रहे उतनी ही बढ़िया है ।
… अपने आँसुओं को पोंछते हुये गौरांगी बोली – हरि जी ! मीरा जी ने कहा है… “जो मैं ऐसा जानती प्रीत किये दुःख होय” क्या प्रीत में भी दुःख होता है ?… मैंने कहा… गौरांगी ! एक दुःख होता है “दुःख” का
और एक दुःख होता है… आनंद का… असीम आनंद का… क्यों कि उस आनंद को वह सम्भाल नही पा रहा है… उस आनंद की उच्चावस्था को उसका हृदय झेल नही पा रहा है… आनंद के इतने अश्रु बह रहे हैं कि अब क्या करें ? …ऐसा लगता है कि इतने असीम आंनद को कहाँ रखें… लगता है हृदय फट जाएगा ।
मैंने कहा… गौरांगी ! वह प्रेमी का रोना हमारी तरह
थोड़े ही है… वह तो आनंद का सरोवर इतना गहरा है कि डूब गये तो… “गये” फिर तुम निकल नही पाओगे… फिर तुम भी खो जाओगे… फिर तुम भी अपने आप को पहचान न पाओगे… क्यों कि गौरांगी ! ये प्रेम है कमजोर साधक इस प्रेम के पन्थ में न आयें… जो अपने घर को फूंकने की हिम्मत न रखते हों… वो इस प्रेम साधना में न आयें… जो अपनी बर्बादी का ज़श्न न मना सकें… वो इस प्रेम मार्ग में न आये… हाँ वो आयें जो सच में ही दीवाने हैं… वो आयें जिन्हें न स्वर्ग की आस है , न नर्क का त्रास… जिसे कुछ नही चाहिए बस अपने प्रियतम के सिवाय… वो आयें । अब मैं चुप हो गया… क्यों कि अब गौरांगी की हिलकियाँ ही सुनाई दे रही थीं।
“मैं गिरधर के घर जाऊँ
जहाँ बैठावें तित ही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊँ”
Harisharan
[29/05, 19:07] Niru Ashra: || श्री हरि: ||
— :: x :: —श्रीभगवन्नाम – स्मरण
( पोस्ट 7 )
— :: x :: —
गत पोस्ट से आगे …….
इन गोपियों के माहात्मय को कौन कह सकता है, जो निरन्तर चितचोर की श्यामसुन्दर-मूर्ति की झाँकी के लिये उत्सुक रहती थीं और पलकों का अदर्शन असहय होने के कारण पलक बनाने वाले ब्रह्माजी को कोसा करती थीं | गोपियों के इस प्रेमनिष्ठा के विषय में श्रीमद्भागवत (१०/४४/१५) में कहा है –
या दोहनेअवह्नने मथनोपलेप –
प्रेखेखनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ |
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोअश्रुकन्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्याना: ||
‘जो व्रजयुवतियाँ गौओं को दूहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों का पालना झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में झाड़ू देते समय प्रेमपूर्ण मन से आँखों में आँसू भरकर गदगद वाणी से श्रीकृष्ण का नाम-गुणगान किया करती हैं उन श्रीकृष्ण में चित निवेशित करने वाली गोपरमणियों को धन्य है |’
इस प्रकार गोपियों का चित हर समय श्यामसुन्दर में ही लगा रहता था | घर के सारे धंधों को करते हुए भी उन्हें अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की एक क्षण को भी विस्मृति नहीं होती थी | उद्धव ने जब गोपियों को योग की शिक्षा दी, तब उस समय उन्होंने उद्धव से यही कहा कि आप उन्हें योग सिखाइये | जिन्हें वियोग हो, हमारा तो श्रीश्यामसुन्दर के साथ नित्यसंयोग है | वे बोलीं —
स्याम तन, स्याम मन, स्याम है हमारो धन,
आठों जाम ऊधो हमें स्याम ही सो काम है |
स्याम हिये, स्याम जिए, स्याम बिनु नाहिं तिये,
आँधेकी-सी लाकरी आधार स्याम नाम है ||
स्याम गति, स्याम मति, स्याम ही है प्रानपति,
स्याम सुखदाई सो भलाई सोभाधाम है |
ऊधो तुम भये बौरे, पाती लैके आये दौरे,
जोग कहाँ राखैं, यहाँ रोम-रोम स्याम है ||
— :: x :: — — :: x :: —
शेष आगामी पोस्ट में …..


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