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August 7, 2025 10:40 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 136 भाग 3″ श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा -88″, (साधकों के लिए) भाग-9 तथा श्रीभगवन्नाम स्मरण (पोस्ट 8) : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣3️⃣6️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

पर श्रीराम रुके नही ………वो बाण चलाते ही रहे …………रावण के सिर कट रहे थे बार बार ……….भुजाएं कट रही थीं ………पर इसका परिणाम अच्छा नही हुआ ……………हवाओं में उड़नें लगे थे रावण के मस्तक …………हजारों मस्तक …………हजारों भुजाएं ……..।

श्रीराम को अब ये दूसरी दिक्कत शुरू हो गयी ………….उन भुजाओं को भी काटकर उन्हें पृथ्वी पर डालना था ………श्रीराम नें यही किया ….पर समर भूमि तो रावण के मस्तक और भुजाओं से पट गयी थी ।

अब रावण का भय जाता रहा ……उसे लगा मुझे कोई नही मार सकता ………मेरा मस्तक कितना भी काटे ये राम …….पर मैं अब मरणधर्मा नही हूँ …….मैं अमर हूँ ।

वो खुश हो गया …………वो चिल्लाया ……..राम ! तुम क्या….. मेरा तो विधाता भी कुछ नही बिगाड़ सकते ।

प्रभु ! आप ब्रह्मास्त्र क्यों नही चलाते ……..हनुमान नें आकर कहा ।

जिस बाण से ताड़का को मारा …..जिस बाण से बाली को मारा ….जिस बाण से खरदूषण को मारा …….उसी से इसे भी मारिये ना ।

हनुमान अपनी बात कहकर वहाँ से चले गए ।

प्रभु श्रीराम नें देखा मेरे पिता विभीषण की ओर ………..

तीस बाण फिर लगाये धनुष पर……….पर मेरे पिता की ओर ही देख रहे हैं ……..मानों आँखों से पूछ रहे हैं ………इन बाणों से मस्तक कटेंगे दशानन के तो फिर तो नही उगेंगे ?

त्रिजटा बोली – मेरे पिता तुरन्त गए श्रीराम के रथ के पास …….और धीरे से बोले …………….ऐसे नही मरेगा ये रावण …….हे श्रीराम ! इसके नाभि में अमृत है ……………….

तभी रावण नें देखा मेरे पिता विभीषण श्रीराम को नाभि अमृत के बारे में समझा रहे हैं ………………..

कुलद्रोहि विभीषण ! रावण चिल्लाया …………और एक बाण मारा मेरे पिता के ऊपर …….पर मेरे पिता वहाँ से शीघ्र हट गए ……और रावण का वो बाण व्यर्थ गया ।

श्रीराम समझ गए थे……….उन्होंने इस बार इकत्तीस बाण एक साथ निकाले ……….एक नाभि में ……..और बीस भुजाएं दस मस्तक ……….रावण नें देखा ……..वो अब समझ गया था………

कुत्ते सियार रोनें लगे ……..रावण के रथ पर आकर सैकड़ों गिद्ध बैठ गए …………रावण तलवार से उन्हें काटता है ……पर एक गिद्ध मरता है तो उसी में से सैकड़ों फिर निकल आते हैं …..।

रथ में जुते घोड़े गिरनें लगे …………ठोकर खा कर ।

श्रीराम नें एक साथ इकत्तीस बाण का सन्धान किया …………

वो बाण तीव्रता से छूटे ……………….

उन बाणों के छूटते ही सागर में खलबली मच गयी …………..राक्षसों में हाहाकार मच गया ………पर देवताओं की दुन्दुभि अपनें आप बज उठी थी ……………।

एक बाण जाकर लगा राक्षसराज रावण के नाभि में ………….रावण रथ से गिरा नीचे ………दस बाणों नें उसके मस्तक का छेदन कर दिया ….और बीस बाणों नें उसकी बीस भुजाएं काट दीं ।

गिरा रावण ……….सागर उछलनें लगा …………….मन्दोदरी नें जो दीया जलाया था वो बुझ गया ……………….

आकाश से फूल बरसनें लगे ……………श्रीराम के ऊपर ……….

वानर सेना जयजयकार कर रही थी ….।

मैं आनन्दित हो उठी …………..मैं झूम उठी ……..मैनें त्रिजटा को पकड़ कर अपनें हृदय से लगा लिया ………..

मैनें गगन में देखा ……………देवता खड़े हैं ……और बोल रहे हैं …….

“अमित विक्रम श्रीराम की जय जय जय !

“दशमुख दर्प दलन श्रीराम की जय जय जय !

पूरी सृष्टि आज आनन्दित थी ………!

क्यों की दशानन का आतंक समाप्त हो गया था ।

शेष चरित्र कल ………!!!!!

🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-88”

( ब्रह्मा कूँ हूँ बनायवे वारौ है कन्हैया…)


कल ते आगे कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……..

व्याकुल हो उठे ब्रह्मा …उनकी बुद्धि जबाब दै गयी …कन्हैया के बाल्यलीला का दर्शन करके सुध बुध सब खो चुके हे ब्रह्मा । अहंकार सब गल गयौ ……परब्रह्म बालक के रूप में सामने खड्यो हो ……कितनौं सुन्दर कितनौं प्यारौ ……लेकिन मैंने इनकी बाल्यलीला में विक्षेप डाल दियौ ……ब्रह्मा के मन में जैसे ही जे विचार आयौ …..सोई सामने ते कन्हैया अन्तर्ध्यान है गए ।

कहाँ हैं नन्दनन्दन ! कहाँ ! ब्रह्मा चारों ओर देखवे लगे ….लेकिन कन्हैया नहीं हैं । हँसारूढ है कै ब्रह्मा फिर अपने ब्रह्मलोक में आये …..लेकिन यहाँ तौ ….”आप भीतर नही जा सकते” लो जी द्वारपाल ने फिर रोक दियौ ब्रह्मा जी कूँ …..अपने ही यहाँ दो दो बार अपमानित ! और वो भी अपने ही सेवकों द्वारा । ब्रह्मा कूँ झुँझलाहट भई ……फिर शान्त भाव ते बोले …..”मैं तुम्हारौ स्वामी हूँ”…..द्वारपाल बोले ….हमारे स्वामी बोलके गए हैं …कोई मेरे जैसौ आए तौ भीतर घुसने मत देना …आज कल बहुरूपिया बहुत डोल रहे हैं ।

ब्रह्मा के कछु समझ में नाँय आय रो…. कि जे हे का रह्यो है ! का तुम अपने स्वामी के दर्शन मोकूँ करा सकौ ? ब्रह्मा ने अपने ही द्वारपालों ते पूछी । रुको ! द्वारपाल बोले …और भीतर गए ……फिर बाहर आय के बोले …जाओ …मेरे स्वामी ने कह्यो है …..भेज दो । ब्रह्मा अपने ही महल में गए ….भीतर गए …ब्रह्मा के सिंहासन में कोई बैठौ है ……ब्रह्मा ने ध्यान ते देख्यो …..तौ श्याम सुन्दर हैं ये तौ । मुस्कुराय के बैठे हैं सिंहासन में …….तबहीं दृष्य बदल गयौ ….श्याम सुन्दर के आस पास भगवान शिव हैं …..तौ भवानी भी हैं …इन्द्र हैं तौ उनकी पत्नी शचि भी हैं …….कुबेर , वरूण आदि तौ सेवा में लगे हैं ……ब्रह्मा ने देख्यो …..ये नन्द नन्दन तौ परब्रह्म हैं …..इनके तौ रोम रोम में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं ….अनन्त ब्रह्माण्ड हैं तौ ब्रह्मा भी अनन्त हैं ……सृष्टि अनन्त हैं ….तौ सृष्टिकर्ता हूँ अनन्त हैं …..लेकिन ये कन्हैया तौ ….अनन्त ब्रह्मांडन कौ हूँ अधिपति है ….ब्रह्मांडन कूँ बनायवे वारौ है …..फिर ब्रह्मा कूँ बनायवे वारौ कौन !

कन्हैया ! ब्रह्मा मन ही मन बोले ….कन्हैया ही सबकूँ बनावै है और बिगाड़े भी है ……

फिर मैं कौन ? ब्रह्मा शान्त हैं ……वो समझ गए हैं …..कि मेरे जैसे ब्रह्मा तौ या अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त हैं अनन्त ।

ब्रह्मा अपने ब्रह्म लोक ते फिर नीचे की ओर चले ……या बार अपने संग ग्वाल बालन कूँ और बछड़न कूँ हूँ लेके ये श्रीवृन्दावन पधारे हैं ।

दूर कन्हैया हैं …..वो वेणु नाद कर रहे हैं ……कोई नही है उनके पास ….वो अकेले हैं …अकेले अपने में मग्न हैं …….स्वयं से स्वयं ही मोहित हो रहे हैं ……..श्याम वरण …पिताम्बर …..भाल में केशर का सुन्दर तिलक …..गले में झूलती माला ……..ब्रह्मा ने सखाओं को छोड़ दिया …बछड़ो को छोड़ दिया …..और स्वयं हंस को छोड़कर दौड़े श्याम सुन्दर की ओर ……क्षमा , क्षमा नाथ ! क्षमा ………………

क्रमशः…..

Hari sharan
[] Niru Ashra: || श्री हरि: ||
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श्रीभगवन्नाम – स्मरण
( पोस्ट 8 )
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गत पोस्ट से आगे …….
गोपियाँ हर समय सब कुछ श्याममय ही देखती थीं | इस सम्बन्ध में एक प्रसंग है | एक बार कई गोपियाँ मिलकर बैठीं | उस समय यह प्रशन हुआ कि श्रीकृष्ण श्याम क्यों हैं ? माता यशोदा और बाबा नन्द दोनों ही गौरवर्ण हैं | बलदेवजी भी गौरवर्ण हैं, फिर ये साँवले क्यों हुए ? इस पर किसी ने कुछ कहा और किसी ने कुछ | अन्त में एक व्रजनागरी बोली –
कजरारी अँखियान में, बसो रहत दिन-रात |
प्रीतम प्यारो हे सखी, ताते साँवर गात ||
‘अहो ! आठों पहर काजल भरी आँखों में रहने के कारण ही वह काला हो गया है | कितना ऊँचा सिद्धान्त है ? ऐसे महात्मा को गीता भी परम दुर्लभ बतलाती है – ‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ||’ किन्तु यहाँ तो वह सिद्धान्त ही नहीं, प्रत्यक्ष प्रकट स्वरूप था | गोपियों की आँखों में श्याम के सिवा और किसी का प्रतिबिम्ब ही नहीं पड़ता था | उनकी आँखों के सामने आते ही सब कुछ साकार श्यामस्वरूप हो जाता था |
बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाँडि निहारति गोरो |
गोपियों का भगवान् के प्रति प्रियतमभाव था | उनसे बढ़कर ‘मच्चिता मद्गतप्राणा:’ और कौन हो सकता है ? चित भगवन्मय हो जाय, उस पर भगवान् का स्वत्व हो जाय | यह नहीं कि हम उसके द्वारा भगवान् का भजन करें | उस पर भगवान् का ही पूरा अधिकार हो जाना चाहिये | ऐसी स्थिति उन व्रजसुन्दरियों को ही प्राप्त हुई थी | इसी से उद्धव को गोपिकाओं के पास भेजते समय भगवान् उनसे कहते हैं —
ता मन्मनस्का मत्प्राना मदर्थे त्यक्तदैहिका: |
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभमर्यहम ||
वे करती क्या थीं ? वे जहाँ बैठतीं अपने प्रियतम भगवान् की ही चर्चा किया करती थीं | उसी का गान करती थीं, उसी में संतुष्ट रहती थीं और एकमात्र उसी में रमती थीं |
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शेष आगामी पोस्ट में ……
[] Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-9

प्रिय ! सब घट मेरा साईंयाँ…
(श्री कबीर दास )

मित्रों ! मेरे एक मित्र साधू ने मुझे कल बताया
कि वृन्दावन की परिक्रमा लगाओ तो यमुना जी के
किनारे एक घाट पड़ता है… केसी घाट… उसी
केसी घाट में एक हनुमान जी का मन्दिर है
…जिसमें एक वयोवृद्ध 104 वर्ष के सिद्ध
महात्मा रहते हैं… किसी से बात नही करते पर
जिससे बात करलें… वो निहाल हो गया ।
मुझे ऐसे सन्तों के दर्शन करने का नशा सा है
…उन
सन्तों में मेरी कोई रूचि नही है…जिनका
आश्रम करोड़ों का है… या लाखों रूपये की
सम्पत्ति है…पर भजन के नाम पर शून्य हैं
…आध्यात्मिक तेज़ के नाम पर जो ज़ीरो हैं ।
मुझे आनंद आया…मौसम भी अच्छा हो गया था
…काले काले बादल भी छा गये थे… मेरे
पागलबाबा कहते हैं जब बारिश हो ..तो उस समय
भींगते हुये धीरे धीरे परिक्रमा दी जाए तो
वो साधना तुम्हारे चित्त को छूती है… ।
मैं बिना समय गवाएं निकल गया वृन्दावन की
परिक्रमा में…अकेला ही था… आनंद से
झोली माला हाथ में लिए चला जा रहा था…।

मेरा मन क्या होगया है आज कल ?…सन्तों
से मिलने जाऊँ तो ऐसा लगता है कि मैंने बहुत
बड़ा काम कर दिया । कल एक मेरे मित्र हैं
कथावाचक हैं… वो मुझे दिखा रहे थे कि
देखिये ये मुख्यमंत्री के साथ मेरा फ़ोटो, फ़लाने
मंत्री के साथ मेरा फ़ोटो… ये रतन टाटा
हैं इनके साथ मेरा फ़ोटो…मैं बोर हो
गया… मन में आया कि कह दूँ इन विषयी
पुरुषों
के साथ फ़ोटो खिंचाकर आप ने क्या पा लिया ?
…इन अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्तियों के साथ
चिपक कर आपको क्या ऊर्जा मिली ? पर कल बहस
करने का मूड नही था… इसलिए शान्त ही रहा और
उन नेताओं के फ़ोटो देखता रहा… और वो
दिखाने वाले भागवत जी की कथा कहते हैं
…”भागवत” जैसे परमहंस की संहिता कहने
वाले की महत्वबुद्धि अगर इन तुच्छ
राजनीतिज्ञों में
होगी तो भगवान के प्रति महत्वबुद्धि कहाँ रही ?
ख़ैर ! मैं अपने को देखता हुआ चला
जा रहा था… कि मैं कैसा हो गया हूँ आज कल ?
… पागलबाबा ने मुझे कैसा बना दिया कि बस
सत्संग और साधना के सिवाय कुछ और सूझता ही नही
है ..।… मैं
जमुना जी के किनारे केसी घाट में पहुँचा
… हनुमान जी का एक मन्दिर है घाट में ही
… मैंने हनुमान जी को प्रणाम किया और
भीतर मन्दिर में गया तो एक बूढ़े महात्मा जी
बैठे हुये थे… उनका तेज़ फैल रहा था… ।
मुख मण्डल में प्रसन्नता थी… शान्त थे ।
मैंने उन्हें प्रणाम किया…वो मुस्कुराये
… मैंने ही विनम्र होकर कहा… महाराज जी !
“मुझे भगवान के प्रति समर्पित कर दीजिये” । मैंने
कहा आप कर सकते हैं… मुझे भगवान की शरण
में लगा दीजिये । वो मेरी बात सुनकर
मुस्कुराये फिर थोड़ी देर के बाद में बोले
… सुनो ! एक बात मुझे बताओ , सोच विचार
कर बताना… आज नही तो कल या परसों जब
ठीक
समझो आजाना और मुझे ये बता देना कि… “कौन
सी ऐसी वस्तु है जो भगवान की शरण में नही है”
… वो महात्मा जी बोले… देखने वाला भी
वही है दिखाने वाला भी वही है… दीखने वाला
भी वही है । वो महात्मा जी बोले
… अध्यात्म में अच्छी स्थिति लग रही है
तुम्हारी… इसलिए मैं तुम से पूछ रहा
हूँ… अभी आजाना… कल आजाना
…पर इसका ज़बाब लेकर आना कि “कौन सी ऐसी
वस्तु है इस जगत में जो भगवान की शरण में न हो” ।

मैं प्रणाम करके निकल गया… परिक्रमा में
चलते चलते
यही सोच रहा था कि ये क्या ! इन महात्मा जी ने
मुझ से ही प्रतिप्रश्न कर दिया ?… मैं घर
पहुँचा… घर में जाकर अपने रूम में बन्द हो
गया… सोचता रहा… सोचता रहा… कौन
सी वस्तु है ऐसी जो भगवान की शरण में नही है ।
मैं सोचने लगा पृथ्वी तो भगवान की है
… तो भगवान की शरण में ही हुई… फिर
पृथ्वी जब भगवान की शरण में हुयी तो मिट्टी
भी भगवान की हुई… ओह ! फिर तो अन्न भी
भगवान का ही हुआ… मुझे आनंद आने लगा
… फिर तो सोना चाँदी ये भी तो पृथ्वी से
ही निकलते हैं तो ये भी भगवान के ही हुये
… मुझे “आनंदअतिरेकता” की स्थिति होने
लगी… मेरे नेत्रों से अश्रु बहने लगे
…मेरा घर , मेरा मकान , मेरी गाड़ी , मेरा
सामान , सब भगवान का ही है… ओह ! मेरा
शरीर भी तो भगवान का ही हुआ… क्यों कि शरीर
तो मिट्टी से ही बना है… और मिट्टी पृथ्वी का
विकार है… और पृथ्वी तो भगवान की है ।
मेरी सोच बढ़ने लगी… पानी भी भगवान का ही
हुआ… तो हमारे अंदर दौड़ने वाला खून भी भगवान
का हुआ… क्यों कि पानी से ही तो खून बनता है ।
… ये उन महात्मा जी ने मुझे क्या कह
दिया ..कि मेरे अंदर एक विवेक की ज्योति ही
जगा दी । मेरी दीदी ने दरवाजा खटखटाया
…भोजन प्रसाद पा लो… मैंने कहा
…पेट दर्द ठीक नही हुआ है… अब कल पा
लूँगा । मैं फिर सोचने लगा… पैसे में
भी तो
मिट्टी है… तो पैसा भी भगवान का ।
सूर्य उसी का चन्द्रमा उसी का… तो आग भी
उसी
की… हवा भी उसी की… मैंने सोचा जब हवा
उसी
की…तो स्वांस हमारी कैसे ?…वायु उसकी
तो स्वांस हमारी हो… ये कैसे ? आकाश उसका तो
नाक के अंदर का छेद , मुँह के अंदर का छेद, रोम
रोम का छेद ये हमारा कैसे हो सकता है फिर ?
…जब आकाश उसका तो जहाँ जहाँ आकाश है वो जगह
भी उसी की ।
मैं सच कह रहा हूँ… मित्रों ! ये विचार करते
करते रात्रि के 10 बज गये…अब तो मन में
आया कि अभी ही चला जाए उन महात्मा जी के
पास… मैं घर वालों को बिना कुछ बताये
चुपके से निकल गया… चलते हुये मुझे
11 बज गये… वो महात्मा जी तो रात्रि में
बाहर टहल रहे थे… आनंद से । मुझे
देखा उन्होंने तो फिर मुस्कुराये… मैं
उनके चरण वन्दन करके उनके साथ ही टहलने लगा ।
वो बोले… कहो ! क्या विचार करके आये हो ?
… मैंने कहा… महाराज जी ! मुझे ऐसी
कोई वस्तु नही मिली जो भगवान की न हो… भगवान
में समर्पित न हो… सब कुछ उसी का है
…ये जल , ये पृथ्वी, ये वायु, ये आकाश
…ये तेज़ सब कुछ उसी का है… और ये सब
उसी की शरण में ही हैं । मेरे मुख से ये
सुनते हुये उन
महात्मा जी के मुख मण्डल में एक आभा फैल गयी थी ।
वो बोले – देखो! “मैं ईश्वर का नही हूँ”
“मैं ईश्वर की शरण में नही हूँ” यही सोच
अज्ञानता है… अज्ञानी जीव वही है… ।
देखो ! ईश्वर की शरण में होना नही है
…बल्कि “मैं ईश्वर की शरण में नही हूँ”
इस अज्ञान से भरे सोच को ही हटाना है… ।
वो महात्मा जी बोले देखो ! शरणागति कोई
क्रिया नही है कि हाथ जोड़ लिये और हो गये शरण
में… शरणागति कोई शब्द नही है कि हमने
कोई शब्द दोहरा दिए और हम शरणागत हो गये । वो
महात्मा जी वास्तव में सिद्ध थे… बोले
शरणागति कोई भावना भी नही है कि हमने भाव किया
और हम शरणागत हो गये । मैंने कहा… भगवन् !
फिर शरणागति क्या है ?… वो महात्मा जी
बोले… शरणागति “तत्व” है… शरणागति “बोध”
है
…शरणागति सत्य है… शरणागति यथार्थ
है… हम है हीं उसकी शरण में… उसके
सिवा और है ही क्या ?… मैंने कहा
…फिर भगवन् ! हमें तो कुछ करने की आवश्यकता
ही नही है… साधना क्यों करें ?… वो
महात्मा जी हँसे और बोले… अज्ञान को तो
मिटाना है… इस अज्ञान को तो हटाना पड़ेगा कि
हम शरण में नही हैं… हमें शरणागति लेनी है
…ये अज्ञान है… अविद्या है… इसे
हटाओ… बस इसके हटते ही तुम जो हो… वही
प्रकट हो जाओगे.. इसी अज्ञानता को हटाने के लिए
ही साधना है ।
वो इतना बोल कर शान्त हो गये… और मौन हो
कर ध्यानस्थ हो गये… मैंने भी कुछ समय
बैठकर उस ध्यान रस का
आस्वादन किया फिर चल दिया अपने घर की ओर ।

प्रेम से भर दिया था उन महात्मा जी ने ।
रात्रि के 12 बज रहे थे… तभी पीछे से
एक गाड़ी का हॉर्न बजा… उस गाड़ी में वही
कथावाचक बैठे थे… मुझे देखकर बोले… आप
अकेले कहाँ से आरहे हैं ?… मैंने स्वयं ही
उनसे प्रतिप्रश्न कर दिया… आप कहाँ जा रहे
हैं… उन्होंने गर्व से कहा…फ़्लाइट है
मेरी 5 बजे की दिल्ली से… मैं लखनऊ जा रहा
हूँ… मुख्यमंत्री जी से मिलने
…मैंने कहा… वाह ! जाइए,
सुनिये ! फ़ोटो जरूर लाना खींचकर… वो मेरी
बात सुनकर खुश हो गये । उनकी गाड़ी चली गयी
…मैं सोचने लगा व्यक्ति किस किसके पीछे
भागता रहता है… और भागते भागते एक दिन
ख़त्म ही हो जाता है… पर मूल तत्व को नही समझ
पाता ।

“राधाबल्लभ भजत भज, भली भली सब होय”

Harisharan

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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