🌺अथ श्रीमहाभारत आदि पर्व 🌺
💐 हिडिम्बवध पर्व 💐
2️⃣
[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>1️⃣3️⃣8️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
मेरे श्रीराम नें गम्भीर होकर कह दिया हनुमान को कि …..”जाओ और वैदेही को ले आओ” ………पर उन राजिव नयन के नेत्र भर आये ……कितना दुःख पाई है उस बेचारी नें ……..हाँ ………मैं श्रीराम की अर्धांगिनी हूँ …………..मैं समझती हूँ !
पर – वो फिर गम्भीर हो गए थे ………….पर अब वैदेही को स्वीकार करनें में लोकापवाद है …….! ओह ! क्यों की राम अब कोई व्यक्ति नही रहा ……….अपनें ही व्यक्तित्व को लेकर विचार करनें का अब उसे अधिकार नही है ………….नही है ……….।
अब अयोध्या जाकर पूर्वजों का महान सिंहासन स्वीकार करना है ….प्रजा के लिए जीना है अब ? क्या राम की अपनी निजी कुछ नही ……….सब प्रजा के लिये ..?…..लोक जन के लिये ?
पर – अब मेरा कर्तव्य क्या ? श्रीराम सिर झुकाये यही सोचते रहे !
हाँ……………..।
विभीषण आये …………..हनुमान आये ……….मुझे बुलाया है मेरे श्रीराम नें ………….इन सबनें बताया ।
मेरा हृदय आनन्द के हिलोरे ले रहा था ……….मेरे राजिव नयन को मैं देखूंगी !……….वो मेरे सामनें होंगें !…………मैं दौड़ कर ……..नही वही दौड़े आयेंगें और मुझे अपनें हृदय से लगा लेंगें ……….।
मैं आनन्दित हो गयी थी ।
पर हम आपको ऐसे नही जानें देंगी राघवी !
विभीषण की पत्नी सरमा नें जिद्द करते हुए कहा ........।
पर क्या ?
हँसते हुए विभीषण नें कहा …….आपको अपनें भक्तों का ख्याल तो रखना ही चाहिये !
क्यों हनुमान ! आप क्या कहते हैं ।
हनुमान सिर झुकाकर प्रसन्न हो रहे थे ।
पर क्या त्रिजटा !
हम सब आपको सजावेंगी रामप्रिया ! ……..त्रिजटा नें आँखें मटकाते हुए कहा ………।
नही ! नही ……….मैं ऐसे ही जाऊँगी ……………मैने जिद्द की ।
पर – त्रिजटा और उसकी माता और यहाँ तक की स्वयं मन्दोदरी भी आयी……………सबनें मुझे सजाया ।
मेरे केश खोले………मेरी जटायें सुलझाईं ……उवटन लगाकर मुझे स्नान कराया……सुन्दर साडी …….आभूषणों से लदी ।
सुवर्ण की पालकी में स्वयं त्रिजटा उसकी माँ मन्दोदरी…….ये सब लगी हुयीं थीं मुझे उठानें में …..चारों ओर से फूल बरसाए जा रहे थे ।
पर …………………………..
“वैदेही आयीं हैं ……..पालकी में हैं “
मुझे थोड़ी दूरी पर रोककर विभीषण गए थे ………..श्रीराम के पास ।
पालकी में आनें की क्या आवश्यकता ?
गम्भीर श्रीराम नें विभीषण को कहा ……………..
पर्दे में रहनें से कोई नारी पवित्र नही होती ……….वो पवित्र तो स्वयं के शासन से ही रहेगी ।
हे विभीषण ! वैदेही को कहो ……….वो पैदल चलकर आये ।
ये वानर लोग उनका दर्शन करना चाहते हैं ………..।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!!!
🌷🌷🌷 जय श्री राम 🌷🌷🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-92”
( रामलीला और पूँछरी कौ लौंठा )
कल ते आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……..
समस्त बृजजन एक मात्र कन्हैया कूँ ही प्रेम करें हैं ….बृजनारी तौ अपने पति , अपने पुत्र, सम्बन्धी आदि ते हूँ अधिक कन्हैया कूँ ही अपनौं प्राण समझें हैं । मैं देख रह्यो हूँ – समस्त बृजजनन कौ स्नेह एक मात्र नन्दनन्दन के प्रति ही बह रह्यो है ।
वैसे मेरी माता पौर्णमासी कहें …..जितने जीव या संसार में हैं ……उन सबकौ प्रेम श्रीकृष्ण की ओर ही प्रवाहित होवै है । भले ही प्रेम करवे बारे कूँ लगे कि हम तौ बा स्त्री ते प्रेम करे हैं …..नही , तुम कूँ पतौ नही है ….स्त्री के माध्यम ते तुम श्रीकृष्ण ते ही प्रेम करौ हो । मेरी माता पौर्णमासी कल ही कह रहीं ……मूल रूप ते अहंकारास्पद आत्मा के प्रति हमारौ जो प्रेम होवे है ….वो प्रेम ममतास्पद वस्तु ….स्त्री , पुत्र , धन , घर आदि के प्रति नही होवे है ……..मूल में सब अपनी आत्मा ते ही प्यार करें …..कन्हैया तौ सबकी आत्मा कौ हूँ आत्मा है …..या लिए गम्भीरता के संग विचार करौ कि हमारौ प्यार का पत्नी में है ? तौ सम्बन्ध बिच्छेद चौं है जाए ? पुत्र ते प्यार है लेकिन पुत्र अगर तुम्हारी बात नही मानें तौ तुम का अपने सम्पत्ति ते अपने पुत्र कूँ अलग नही कर दोगे ?
देखौ ! मूल बात है …हमारे सारे सम्बन्ध आत्मा की अनुकूलता के लिए है …..आत्मा के प्रतिकूल पत्नी है तौ पत्नी ते सम्बन्ध बिच्छेद होने ही हैं ……पुत्र अगर हमारी आत्मा के प्रतिकूल है तौ पुत्र कूँ भी त्याग दियौ जाए है । यानि आत्मा ही हमारे लिए सब कुछ है ….और आत्मा कौन है ? अपनौं कन्हैया ।
प्रेम कौ सागर है कन्हैया ……दुनिया में जो तुम्हें प्रेम दिखाई देय ना ….वो सब कन्हैया ते ही आय रह्यो है ……याही लिए मैं कह रो हूँ ……प्रेम कौ सागर है कन्हैया ।
( मधुमंगल यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं )
गोवर्धन में कल रामलीला होयगी । कन्हैया ने नन्दगाँव में सबकूँ बताय दियौ ।
विशेष, अपने बृजराज बाबा ते कन्हैया ने कही …..बृजराज बाबा हँसते भए बोले ….कौन करेगौ राम लीला ? कन्हैया बोले …मैं राम ….जे हनुमान ….मोकूँ हनुमान बनाय दियौ । श्रीदामा सीता , लक्ष्मण सुबल सखा और सब पात्र तैयार ही हैं ।
नही , जे मत सोचो कि रामलीला की एक ही दिना में तैयारी है गयी …नहीं …हम लोग तौ कई दिनान ते राम लीला कौ अभ्यास कर रहे हैं । कन्हैया ही सिखाय रह्यो है …..राम यही तौ है ……और लीला में हूँ राम बन रह्यो है ।
बृजराज बाबा बोले ..लालन ! हम अवश्य आयेंगे । अपने बाबा की गोद में बैठते भए कन्हैया बोले …बाबा ! आप सबकूँ लै कै आओ । बृजराज बाबा हँसते भए बोले …पूरौ नन्दगाँव चलेगौ ।
कन्हैया अब मैया के पास आए और बोले …मैया ! तोकुं हमारे राम लीला में आनौं पड़ेगौ ….और चाची , ताई , पड़ोस की प्रभावती गोपी ….सब कूँ लै कै आ मैया । हाँ हाँ , आऊँगी , मैया प्रसन्नता पूर्वक इतनौं ही बोली । और कन्हैया वहाँ से अब चले गये ।
रात में खूब अभ्यास किया इन ग्वालों ने …..कल तौ राम लीला है ।
गोवर्धन में सब बृजवासी बैल गाड़ी ते पहुँचे हैं …..गिरिराज गोवर्धन में ही विशाल मंच सजा है ..सामने बैठवे की सबकी व्यवस्था है । मैया यशोदा कूँ हँसी आय रही है ।
परदा नेक हटाय के राम बने कन्हैया अपनी मैया कूँ देख रहे हैं …मैया ने जब देख्यो तब कन्हैया ने हाथ हिलायौ ….मैया सबकूँ बतायेवे लगीं ……बृजराजबाबा भी अपने परिकरन के संग आय गये हैं ….कन्हैया बृजराज बाबा कूँ हूँ हाथ हिलाय के उछल रहे हैं ।
राम लीला आरम्भ भई है ……..सीधे विवाह प्रसंग के बाद ते ।
कन्हैया राम के रूप में कितनौं सुन्दर लग रह्यो है, मैया तौ अपने लाल कूँ देखके ही मुग्ध है रही है ।
हे पिता जी ! आप चिन्ता न करें …बस चौदह वर्ष की ही तौ बात है ….मैं जाकर आजाऊँगा ।
कन्हैया जे कहते भए दशरथ बने पात्र के सामने झुक गये ।
बृजरानी मैया के तौ अश्रु ही नाँय रुक रहे …..रोहिणी माता हूँ रो रही हैं ….अब तौ …….
नाथ ! मैं भी जाऊँगी …….सीता बन्यो है श्रीदामा ….वो आयौ ….और कन्हैया के सामने झुक के बोल्यो …..नाथ ! मैं भी जाऊँगी ….अगर आप नही ले गए तौ मैं यहीं प्राण त्याग दूँगी ।
सबने अपने अश्रु पोंछते हुये करतल ध्वनि करी ।
सुबल सखा आयौ ……..भैया ! भैया ! मैं भी जाऊँगा आपके संग ।
नही लक्ष्मण ! नही ……कन्हैया अपने अभिनय प्राण डाल रहे हैं ……वैसे हूँ इनके समान अभिनय विश्व ब्रह्माण्ड में कोई कर सके का ?
ओह ! सीता हरण ………
अब तौ कन्हैया का रो रोके बुरा हाल ……….
हे सीते , हे मृगनैनीं ! हे कोकिल वैनी ! तुम कहाँ गयीं । तुम्हारे बिना तुम्हारा राम अधूरा है ।
वाह ! कन्हैया ने सच में सबकूँ रूलाय दियौ ।
तभी आय गयौ ….मैं …….मैं परदे के पीछे ते सबकूँ देख रो ……अपनी वारी की प्रतीक्षा कर रो ….तभी मेरौ समय आय गयौ ….और मैं …..जय श्रीराम …..बोलतौ भयौ आयौ ……मोकूँ देखके सब हँसवे लगे ……मैं हनुमान बन्यो हो । मैंने पूँछ हूँ लगाई ….मुख में लाल सिन्दूर पोत लियौ हो और हाथ में गदा ।
जय श्रीराम ।
या बार मैंने कछु तेज आवाज में कही । कछु तेज आवाज नही …..बहुत तेज ….पूरौ बृजमण्डल काँप गयौ ….एक बार तौ कन्हैया ने हूँ मोकूँ गम्भीरता ते देख्यो …..लेकिन मोकूँ अब कछु पतौ नही …..मेरी आवाज़ इतनी तेज कहाँ है ! अरे ! मेरे देह में हल चल है वै लगी ……मेरौ देह अपार शक्ति ते भर गयौ । मैंने फिर हुंकार भरी ….और कन्हैया कूँ उठाय लियौ मैंने …..मैंने ? नही ….मेरे भीतर हनुमान जी आय गए हे । मैंने तुरन्त कन्हैया कूँ कन्धे में बिठायौ और आकाश में उड़ चल्यो । सब लोग जे सोच रहे जे हूँ लीला कौ ही कोई अंश होयगौ …….लेकिन मधुमंगल उड़ तौ नही सके ।
हे नाथ ! मैं हनुमान हूँ …आपका हनुमान ! हनुमान जी चरणों में गिर पड़े हैं कन्हैया के ।
कहो ! कैसे हो हनुमान ! कन्हैया ने पूछी ।
बड़े दिनान ते आपके दर्शन की इच्छा ही …मैंने आज अवसर देख्यो तौ नाथ ! इच्छा पूरी है गयी ।
हनुमान जी ने चरण सहलाते हुये कहा ।
आपके चरण सेवा का अवसर मिलेगा ? हनुमान जी की बात सुनकर कन्हैया हंसे ….फिर बोले …..तुम्हें यहाँ चरण सेवा की पड़ी है उधर गोवर्धन में हाहाकार मच गया होगा ।
लेकिन कन्हैया की इन बातों को ध्यान नही दिया हनुमान ने …..हनुमान का ध्यान मात्र चरणों में था ……मुझे आपका धनुर्धारी स्वरूप प्रिय लगता है ….आज आपने वही रूप धारण किया है ….सजल नेत्र हो रहे हैं हनुमान के ……लेकिन कन्हैया को तौ अपनी मैया बाबा सखा प्रेमी लोग …सबको देखना है ……कन्हैया बोले – हनुमान ! अब हमें वापस वहीं पहुँचा दो ।
हनुमान जी ने जी भरके कन्हैया को देखा ……फिर प्रणाम करते हुए कन्धे में बिठाकर आकाश मार्ग से ले चले थे ।
हा हाकार मच गया था इधर गोवर्धन में ……मैया यशोदा तौ कन्हैया के खो जाने पर रो रही हैं …..सब ग्वाले इधर उधर भाग रहे हैं कन्हैया कौ खोजने । कौन था वो ? एक पूछता है तौ दूसरा उत्तर देता है …था तौ मधुमंगल ….लेकिन मधुमंगल उड़ तौ नही सकता । आपस में सब बातें कर रहे हैं ….खोज रहे हैं …भाग दौड़ मची है ……तभी आकाश मार्ग से …..
कन्हैया आय गयौ …कन्हैया आय गयौ ……सब बृजवासिन के देह में मानौं प्राणन कौ संचार है गयौ …….मैया तौ उछलवे लगी ….कन्हैया गिरीयो मत । सावधानी ते ।
कन्हैया नीचे आय …..एक हनुमान जी कौ रूप वहीं स्थिर है गयौ ……सुन्दर मुस्कुरातौ भयौ
रूप ……
कन्हैया तुरन्त बोले …..देखो बृजवासियों ! ये दिव्य देवता हैं …इनकूँ भोग लगाओ ….इन्ने ही मोकूँ बचायौ ……जे तौ लौठा सौ पड्यो है …..कैसे पडौ भयौ है । एक बृजवासी बोलो ।
दूसरौ बोलो …कन्हैया ! गिरिराज शैल की जो पूँछ है ….वहीं याकूँ विराजमान कर दैं?
कन्हैया ने कही – कर दो ……और बड़े धूमधाम ते वा देवता कूँ विराजमान कर दियौ । अब याकौ नाम कहाँ है ? सब सोचवे लगे ….,तौ मैया यशोदा बोलीं …पूँछरी कौ लोठा ।
मधुमंगल खूब हस्यो …..जे रूप हनुमान जी कौ है तौ एक प्रकार ते मेरौ हूँ हैं …क्यों कि हनुमान मैं बन्यो हो ….लेकिन मेरे मैं हनुमान जी आय गये हे ।
कन्हैया ने अब राम लीला पूरी करी ……रावण कूँ मारके सीता कूँ लै आए …….
मैया यशोदा दौड़ीं अपने लाला के पास और कपोल कूँ चूमते भए बोलीं ….कन्हैया ! कहाँ ते सीखी तैनैं श्रीरघुनन्दन जी की पावन लीला ? कन्हैया बस मुस्कुराए ।
लेकिन चर्चा कौ विषय बन गयौ हो …..जे पूछँरी कौ लोठा ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-13
प्रिय ! आज वन नीको रास बनाओ…
(श्री हित हरिवंश )
मित्रों ! मन को चारों ओर से घेरो…मन को
पवित्र बनाने का प्रयास निरन्तर करते रहो
…मन जल्दी बोर हो जाता है… इसलिए विविध
उपायों से इसे निरन्तर सम्भालने का प्रयास करते
रहो… ये याद रहे हमारी साधना मन के लिए ही है
…”भगवत् कृपा” तो मन के पवित्र होने पर
ही…अनुभव में आती है ।
पागलबाबा के कुञ्ज में आज शाम को रास लीला है
…बाबा बोले… भगवन् नाम का जप निरन्तर
करते रहो… और नाम से बोर हो गए… तो
थोड़ा ध्यान में प्रवेश करो… ध्यान का रस लो
…ध्यान में डूब जाओ…और अब मन ध्यान
से भी ऊबने लगा… क्यों कि 2 घण्टे हो गए
…तो भगवद लीला का चिंतन करो… ये
सब लीला ही चल रही है… ये सब जो हो रहा
है… वो सब मेरे प्रियतम का ही लीला विलास है
…यही रास है… यही महारास है । अब
कुछ देर के लिए ठहर जाओ… तुम जहाँ हो वो
“धाम” है क्यों कि भगवत् लीला “धाम” में ही
होती है… और जहाँ भगवान हमारे हृदय में
स्फुरित हो गए…तो हमारा हृदय ही “धाम” हो
गया…”अवध तहाँ जहाँ राम निवासु”
हम जहाँ है… वो धाम है… हमारा हृदय ही
वृन्दावन है… हमारा हृदय ही अवध है
…हमारा हृदय ही मिथिला है ..हरिद्वार है ।
बाबा बोले… यही प्रेमपूर्ण सोच हमारे मन को
पवित्र बना देगी ।
चारों ओर साधक शाम की तैयारी में लगे हैं
…कोई फूलों का बंगला तैयार कर रहा है
…कोई बन्दनवार लगा रहा है… कोई कुञ्ज
की भूमि को गोबर से लीप रहा है… कोई
चादनी टांग रहा है… सुबह से ही गौरांगी
कार्यों में व्यस्त है… सब अपने अपने
सेवा में लीन हैं…मैंने अनुभव किया कि
सेवा ही सर्वोत्तम साधना है… सेवा करते
हुये भगवत् स्मरण… यही तो कर रही है
गौरांगी… पद गा रही है… मधुर मधुर राग में,
और फूलों की पच्चीकारी कर रही है… इत्र
की सेवा बाबा ने मुझे दी है… मैं इत्र लेकर
आगया । गुलाब का इत्र… कदम्ब का इत्र
…केवड़ा खस… मोगरा और वेला… इन
सबका इत्र बाबा ने मंगवाया था… ।
मेरा मन आंनद से झूम उठा… जीवन यही तो
है…उत्सव , आनन्द…बेचारा मन चाहे
तो भी इस “प्रेम साधना” को छोड़कर कहीं जा भी नही सकता… क्यों कि मन भी तो प्रेम का ही भूखा
है… मन को भी तो प्रेम सरोवर की तलाश है
…हाँ इस “प्रेम साधना” में मन मछली की तरह
प्रेम के जाल में फंस ही जाता है… मेरे
नेत्रों से अश्रु बहने लगे… ओह ! तो ये
उत्सव भी साधना है… हाँ उत्सव भी
साधना है । मेरे बाबा कितने दयालु हैं
…जो हम लोगों को पूर्ण साधक बना रहे
हैं… और “नित्य निकुँज” की ओर निरन्तर ले जा
रहे हैं । कल दोपहर 11 बजे तक सबने सेवा की
…और प्रसाद पा कर सब अपनी अपनी कुटिया
में चले आये ।
रात को 8 बजे से लीला शुरू हुयी… रास लीला
…बाबा ने रास लीला करने वाले स्वामी जी
से कहा… मैंने बनारस में ऊखल बन्धन लीला
देखी थी… जिसमें श्री बालकृष्ण माखन की
मटकी फोड़ देते हैं… तो उनकी मैया उन्हें
ऊखल से बांध देती हैं… बाबा विनम्र होकर
बोले… स्वामी जी वही लीला दिखाइये ।
हम सब आनन्दित हो रहे थे… गौरांगी तो बस
इत्र का फोहा लेकर सब साधक और लीला के
दर्शकों को, वो इत्र प्रसादी बाँट रही थी
…चारों ओर गुलाब जल, छोटी सी पिचकारी से
छींटा गया था… कुञ्जों के हर वृक्ष में
पीली पताका बांधी गयी थी ।
लीला की शुरुआत हुई… बाबा ने स्वयं ही
लीला में बने श्री कृष्ण और श्री किशोरी जी की
आरती की… साष्टांग दण्डवत् किया
…लीला की शुरुआत… ।
मचल गए श्री बाल कृष्ण अपनी मैया से, माखन दे
…पर ब्रह्म की माँ यशोदा तो वात्सल्य में
भींगी… अपने ही लाल के लिए माखन निकाल रही हैं… पर ज़िद्दी बालकृष्ण नही माने… और
मटकी फोड़ दी… यशोदा मैया ने देखा मटकी
फोड़ दी… मैया गुस्से में हाथ में छड़ी
लेकर भागीं… पर कन्हैया तो आगे निकल गए
…मैया पकड़ ही नही पायी… बैठ गयी ।
… सब लीला को देखने आये दर्शक रस में
डूबे हुये थे…बाबा तो देह सुध ही बिसर गए थे ।
… तभी मैया ने बाल कृष्ण को झट्ट
से जाकर पकड़ लिया… और उस जगत पिता
ब्रह्म को पकड़ कर ले गयी… छड़ी
दिखाने लगी…बाबा रो गए…ओह !
तू कैसी है मैया… इतने फूल से कोमल लाला को
पीट रही है… और इन ब्रह्म की लीला तो देखो
…इसी प्रेम को पाने के लिए तो वह निराकार ,
आकार लेकर आया है । बाबा रो रहे हैं
…बाल कृष्ण को बांधने के लिए यशोदा
रस्सी लेकर आयी… और बांधने लगी
…बाबा जोर से चिल्लाये… “लग जायेगी
बहुत कोमल है मेरा ये प्यारा”… मैया तो बाँधे जा रही है… बालकृष्ण रो रहे हैं… बाबा भी रो रहे हैं
…मेरे भी अश्रु बह चले… गौरांगी रो
रही है… पूरा दर्शक समाज रो रहा है… ।
बाबा को एकाएक आवेश आगया… और बाबा मंच पर चढ़ गए… यशोदा बने पात्र के चरण पकड़ कर
बाबा बोले… मैया खोल दे रस्सी… मेरा
लाला अत्यंत कोमल है… उसके हाथ दूख रहे
होंगे…मैया खोल दे .।…रास लीला
का सञ्चालन करने वाले स्वामी जी ने
मेरी ओर देखा… और इशारे में कहा… ये
क्या है ?… मैंने अपनी असमर्थता जताई
…बाबा को भावावेश आ गया है… प्रेम का
आवेश हो गया है… ।
बाबा रोये जा रहे हैं… अरी ! कठोर यशोदा ! खोल
दे… रस्सी खोल दे मेरे लाला के लग जायेगी
…लग रही है… खोल दे ।
इतना रो रहे थे बाबा कि यशोदा को रस्सी खोलनी ही पड़ी ।
…बाबा उठे और बाल कृष्ण के हाथ देखने
लगे… सहलाने लगे… पर जैसे ही बाबा
ने बालकृष्ण के हाथों में रस्सी के निशाँ देखे
…जोर से बाबा की चीख निकली…और बाबा
मूर्च्छित हो गए । सब साधक दौड़े… बाबा के पसीने बह रहे थे… साँस तेजी से चल रही थी… “श्री कृष्ण हे कृष्ण” यही बस मुँह से निकल रहा था…
मुझे ही आरती करनी पड़ी रास लीला के समाप्ति पर…पर
बाबा की मूर्च्छावस्था गयी नही… बाबा को
गौरांगी ने चरणामृत पिलाया… तब मैंने
सब लोगों से कहा… ऐसे परेशान होकर बाबा को
घेरने की अपेक्षा सब उच्च स्वर में महामन्त्र
का गान करो ।… और सभी लोग नाचते गाते
उस भाव देश में प्रवेश कर गए… बाबा
को अब थोड़ा देह भान हुआ… ।… बाबा अब हम सबको देख कर मुस्कुराये… पूरा समाज कल की
रात नाचता ही रहा… । मुझे एकाएक हँसी आयी… मन में विचार आया… कि सच में प्रेम छुआछूत का रोग है… ये फैलता है… ये प्रेमी के छूने से ही फैलता है… बाबा ने फैला दिया है । कल की रात भूले नही भूलेगी ।
“आज हमें नींद नही आएगी, सुना है तेरी महफ़िल में रात जगी है”
Harisharan
Niru Ashra: 🌺अथ श्रीमहाभारत आदि पर्व 🌺
💐 हिडिम्बवध पर्व 💐
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भीमसेन बोले – राक्षसी ! ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, जो मेरे लिये परम सम्माननीय गुरु हैं; इन्होंने अभी तक विवाह नहीं किया है, ऐसी दशा में मैं तुझसे विवाह करके किसी प्रकार परिवेत्ता नहीं बनना चाहता। कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो इस जगत् में सामर्थ्यशाली होते हुए भी, सुखपूर्वक सोये हुए इन बन्धुओं को, माता को तथा बड़े भ्राता को भी किसी प्रकार अरक्षित छोड़कर जा सके ?
जो निर्दोष बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए ही अपना विवाह कर लेता है, वह ‘परिवेत्ता’ कहलाता है। शास्त्रों में वह निन्दनीय माना गया है।
मुझ जैसा कौन पुरुष कामपीड़ित की भाँति इन सोये हुए भाइयों और माता को राक्षस का भोजन बनाकर (अन्यत्र) जा सकता है ?
राक्षसी ने कहा – आपको जो प्रिय लगे, मैं वही करूँगी। आप इन सब लोगों को जगा दीजिये। मैं इच्छानुसार उस मनुष्यभक्षी राक्षस से इन सबको छुड़ा लूँगी।
भीमसेन ने कहा – राक्षसी ! मेरे भाई और माता इस वन में सुखपूर्वक सो रहे हैं, तुम्हारे दुरात्मा भाई के भय से मैं इन्हें जगाऊँगा नहीं। भीरु ! सुलोचने ! मेरे पराक्रम को राक्षस, मनुष्य, गन्धर्व तथा यक्ष भी नहीं सह सकते हैं।
अतः भद्रे ! तुम जाओ या रहो; अथवा तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वही करो। तन्वंगि! अथवा यदि तुम चाहो तो अपने नरमांसभक्षी भाई को ही भेज दो।
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! तब यह सोचकर कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी, राक्षसराज हिडिम्ब उस वृक्ष से उतरा और शीघ्र ही पाण्डवों के पास आ गया।
उसकी आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं, भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, केश ऊपर को उठे हुए थे और विशाल मुख था। उसके शरीर का रंग ऐसा काला था, मानो मेघों की काली घटा छा रही हो। तीखे दाढ़ों वाला वह राक्षस बड़ा भयंकर जान पड़ता था।
देखने में विकराल उस राक्षस हिडिम्ब को आते देखकर ही हिडिम्बा भय से थर्रा उठी और भीमसेन से इस प्रकार बोली –
‘(देखिये,) यह दुष्टात्मा नरभक्षी राक्षस क्रोध में भरा हुआ इधर ही आ रहा है, अतः मैं भाइयों सहित आपसे जो कहती हूँ, वैसा कीजिये। ‘वीर! मैं इच्छानुसार चल सकती हूँ, मुझमें राक्षसों का सम्पूर्ण बल है। आप मेरे इस कटिप्रदेश या पीठ पर बैठ जाइये। मैं आपको आकाशमार्ग से ले चलूँगी। ‘परंतप ! आप इन सोये हुए भाइयों और माताजी को भी जगा दीजिये। मैं आप सब लोगों को लेकर आकाशमार्ग से उड़ चलूँगी’
भीमसेन बोले – सुन्दरी ! तुम डरो मत, मेरे सामने यह राक्षस कुछ भी नहीं है। सुमध्यमे ! मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे मार डालूँगा। भीरु ! यह नीच राक्षस युद्ध में मेरे आक्रमण का वेग सह सके, ऐसा बलवान् नहीं है। ये अथवा सम्पूर्ण राक्षस भी मेरा सामना नहीं कर सकत। हाथी की सूँड़-जैसी मोटी और सुन्दर गोलाकार मेरी इन दोनों भुजाओं की ओर देखो। मेरी ये जाँचें परिघ के समान हैं और मेरा विशाल वक्षःस्थल भी सुदृढ़ एवं सुगठित है। शोभने ! मेरा पराक्रम (भी) इन्द्र के समान है, जिसे तुम अभी देखोगी। विशाल नितम्बों वाली राक्षसी ! तुम मुझे मनुष्य समझकर यहाँ मेरा तिरस्कार न करो।
हिडिम्बा ने कहा- नरश्रेष्ठ ! आपका स्वरूप तो देवताओं के समान है ही। मैं आपका तिरस्कार नहीं करती। मैं तो इसलिये कहती थी कि मनुष्यों पर ही इस राक्षस का प्रभाव मैं (कई बार) देख चुकी हूँ।
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस नरभक्षी राक्षस हिडिम्ब ने क्रोध में भरकर भीमसेन की कही हुई उपर्युक्त बातें सुनीं। (तत्पश्चात् ) उसने अपनी बहिन के मनुष्योचित रूप की ओर दृष्टिपात किया। उसने अपनी चोटी में फूलों के गजरे लगा रखे थे। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर जान पड़ता था। उसकी भौहें, नासिका, नेत्र और केशान्तभाग-सभी सुन्दर थे। नख और त्वचा बहुत ही सुकुमार थी। उसने अपने अंगों को समस्त आभूषणों से विभूषित कर रखा था तथा शरीर पर अत्यन्त सुन्दर महीन साड़ी शोभा पा रही थी।
उसे इस प्रकार सुन्दर एवं मनोहर मानवरूप धारण किये देख राक्षस के मन में यह संदेह हुआ कि हो-न-हो यह पतिरूप में किसी पुरुष का वरण करना चाहती है। यह विचार मन में आते ही वह कुपित हो उठा। कुरुश्रेष्ठ ! अपनी बहिन पर उस राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया था। फिर तो उसने बड़ी-बड़ी आँखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखते हुए कहा-
‘हिडिम्बे ! मैं (भूखा हूँ और) भोजन चाहता हूँ। कौन दुर्बुद्धि मानव मेरे इस अभीष्ट की सिद्धि में विघ्न डाल रहा है। तू अत्यन्त मोह के वशीभूत होकर क्या मेरे क्रोध से नहीं डरती है ? ‘मनुष्य को पति बनाने की इच्छा रखकर मेरा अप्रिय करने वाली दुराचारिणी ! तुझे धिक्कार है। तू पूर्ववर्ती सम्पूर्ण राक्षसराजों के कुल में कलंक लगाने वाली है। जिन लोगों का आश्रय लेकर तूने मेरा महान् अप्रिय कार्य किया है, यह देख, मैं उन सबको आज तेरे साथ ही मार डालता हूँ’
हिडिम्बा से यों कहकर लाल-लाल आँखें किये हिडिम्ब दाँतों-से-दाँत पीसता हुआ हिडिम्बा और पाण्डवों का वध करने की इच्छा से उनकी ओर झपटा।
योद्धाओं में श्रेष्ठ तेजस्वी भीम उसे इस प्रकार हिडिम्बा पर टूटते देख उसकी भर्त्सना करते हुए बोले- ‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह’
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! अपनी बहिन पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए उस राक्षस की ओर देखकर भीमसेन हँसते हुए-से इस प्रकार बोले-
‘हिडिम्ब ! सुखपूर्वक सोये हुए मेरे इन भाइयों को जगाने से तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा। खोटी बुद्धि वाले नरभक्षी राक्षस ! तू पूरे वेग से आकर मुझसे भिड़। आ, मुझ पर ही प्रहार कर। हिडिम्बा स्त्री है, इसे मारना उचित नहीं है। विशेषतः इस दशा में, जबकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराध तो दूसरे के द्वारा हुआ है। यह भोली-भाली स्त्री अपने वश में नहीं है। शरीर के भीतर विचरने वाले कामदेव से प्रेरित होकर आज यह मुझे अपना पति बनाना चाहती है।
‘राक्षसों की कीर्ति को नष्ट करने वाले दुराचारी हिडिम्ब ! तेरी यह बहिन तेरी आज्ञा से ही यहाँ आयी है; परंतु मेरा रूप देखकर यह बेचारी अब मुझे चाहने लगी है, अतः तेरा कोई अपराध नहीं कर रही है। कामदेव के द्वारा किये हुए अपराध के कारण तुझे इसकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।
‘दुष्टात्मन् ! तू मेरे रहते इस स्त्री को नहीं मार सकता। नरभक्षी राक्षस ! तू मुझ अकेले के साथ अकेला ही भिड़ जा। आज मैं अकेला ही तुझे यमलोक भेज दूँगा। निशाचर ! जैसे अत्यन्त बलवान् हाथी के पैर से दबकर किसी का भी मस्तक पिस जाता है, उसी प्रकार मेरे बलपूर्वक आघात से कुचला जाकर तेरा सिर फट जायगा।
‘आज मेरे द्वारा युद्ध में तेरा वध हो जाने पर हर्ष में भरे हुए गीध, बाज और गीदड़ धरती पर पड़े हुए तेरे अंगों को इधर-उधर घसीटेंगे। आज से पहले सदा मनुष्यों को खा-खाकर तूने जिसे अपवित्र कर दिया है, उसी वन को आज मैं क्षणभर में राक्षसों से सूना कर दूँगा। राक्षस ! जैसे सिंह पर्वताकार महान् गजराज को घसीट ले जाता है, उसी प्रकार आज मेरे द्वारा बार-बार घसीटे जाने वाले तुझको तेरी बहिन अपनी आँखों देखेगी। राक्षसकुलांगार ! मेरे द्वारा तेरे मारे जाने पर वनवासी मनुष्य बिना किसी विघ्न-बाधा के इस वन में विचरण करेंगे..!!
क्रमशः


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