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August 1, 2025 11:36 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 138भाग 2″ श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा -93″, (साधकों के लिए) भाग-14 तथा 💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫 : Niru Ashra

*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                           *भाग – १*

Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
          🌺भाग >>>>>>>1️⃣3️⃣8️⃣🌺
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 2`

     *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे -*

मैं  वैदेही !

“वैदेही आयीं हैं ……..पालकी में हैं “

मुझे  थोड़ी दूरी पर रोककर     विभीषण गए थे ………..श्रीराम के पास ।

पालकी में आनें की क्या आवश्यकता ?

गम्भीर श्रीराम नें  विभीषण को कहा ……………..

पर्दे में रहनें से कोई नारी पवित्र नही होती ……….वो पवित्र तो स्वयं के शासन से  ही  रहेगी ।

हे विभीषण !   वैदेही को कहो ……….वो पैदल चलकर आये  ।

ये वानर लोग   उनका दर्शन करना चाहते हैं ………..।

विभीषण के साथ   हनुमान और अंगदादि सब  साथ में  लाये थे …….और मुझे  ये बात बताई …………..

मैं पालकी से उतरी ……………

वानरों का हुजूम मुझे देखनें के लिए उमड़ पड़ा था………..सब मेरी चरण धूल ……..और मुझे  देखकर   नमन कर रहे  थे  ।

पर मेरे साथ में ……..हनुमान   , अंगद  सुग्रीव , नल नील  ये सब एक घेरा बनाकर चल रहे थे  ताकि मुझे कोई असुविधा न हो …….पर मेरा ध्यान  तो राजिव नयन पर ही था ……….ओह !   मैं उन्हें देखूंगी  ।

***************************

मेरे सामनें    खड़े हैं   मेरे  श्रीराम ! 

आर्यपुत्र !   मेरे प्राण !  मेरे जीवन धन  !   मैं  पुकार उठी  ……मैं दौड़नें जा रही थी    उनके हृदय से लगनें ……..पर  ।

सीता !     मैने रावण का वध कर दिया………मैने रावण को ये बता दिया की आर्य नारी के अपहरण का दण्ड ये होता है …………।

मैं रुक गयी …….मेरे कदम ठहर गए ………..मैने  आश्चर्य से  अपनें श्रीराम के मुख में देखा ………….ओह !          

हाँ  बोलो !    वैदेही बोलो !      तुम इतनें दिन तक रावण के यहाँ रही …..”.तुम पवित्र हो….इसका प्रमाण ?      ये क्या बोल गए मेरे श्रीराम !

मेरे ऊपर बज्रपात हो गया था …..मेरा हृदय फट रहा था ………

*क्रमशः….*
*शेष चरित्र कल ……!!!!!!*

🌷🌷🌷 जय श्री राम 🌷🌷🌷
Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-93”`

*(  “ताऊ” – कन्हैया कौ एक पागल प्रेमी )*

****************************************

कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……..

ताऊ ,  जे बूढ़ों  बड़ौ  पूरे बृजमण्डल कौ ताऊ हो …..सब याते ‘ताऊ’ ही कहते …याकौ नाम कहा है कोईये  नाँय पतौ …बस सबरे बृजमण्डल कौ जे ताऊ है …अरे ! कल तौ मैया हूँ ताऊ कह रहीं ।

अब तुम कहोगे ….सब ताऊ कहें क्यों हैं ?   तौ सुनो ….अपने बृजराज बाबा के ये बाल्यसखा हैं …..और अच्छे सखा हैं …..सबके प्रति इनके मन में प्रेम है …..लेकिन अपने मित्र नन्दबाबा के प्रति तौ विशेष है ही ।    ब्याह ताऊ ने कियौ नही या लिए बृजवासिन कूँ ‘ताई’ नही मिली ।  

अपने मित्र नन्द बाबा  के यहाँ ही रहनौं और और गौशाला में गाय की सेवा करनौं ….यही इनकौ काम है ….लेकिन नन्दबाबा तौ इनकूँ मित्र ही नही  अपनौं बड़ौ भैया मानें ।    याही लिए  बृज के जे  ‘ताऊ’ है गए ।  

कछु अधिक ही सीधे हैं …..बृजराज बाबा तौ कहें …..बड़े भाई!   तुमतौ सत्ययुग के से लगौ या द्वापर के अन्त में काहे कूँ प्रकट है गए ।     जे कछु बोलें नहीं हैं …बस मुस्कुराते रहें ।   

लेकिन  ताऊ  पागल है गये …….

अब तुम पूछोगे …मधुमंगल !  ताऊ पागल चौं भए ?    

“अधिक सोचके कारण”……हाँ ,  ताऊ  अधिक  सोचवे लग गए  फिर धीरे धीरे  चिन्ता ने आयके इनकूँ ऐसौ घेरौ कि  , नींद आनी बन्द है गयी ,    तौ है गए ताऊ पागल । 

लेकिन ऐसौ कहा भयौ कि अतिसोच के कारण ताऊ चिंता में डूब गए और पगला गए ? 

तौ सुनौं …….बृजराज बाबा के यहाँ जौ कन्हैया कौ जन्म भयौ  बा समय पूरे बृजमण्डल में सबते अधिक कोई प्रसन्न हो तौ बो हो ताऊ ……..कितनौं नाच्यो हो ताऊ ।   बृजराज बाबा कूँ रोकनी पड़ी ….कि भैया !  अधिक मत नाचो बीमार पड़ जाओगे ।    लेकिन ताऊ के आनन्द कौ कोई ठिकानौं नही हो …..”बधाई हो ..बधाई हो”…..नन्दोत्सव में सबते तेज आवाज़ ताऊ की ही ।   

लेकिन ताऊ पगला गयौ  तब ….जब पूतना आयी और कन्हैया कूँ लै गयी ।    बस बा समय ते ताऊ तौ डरवे लगो …..अपने कूँ लै कै नही ……कन्हैया कूँ लै कै ।    कंस ने राक्षसी भेजी ….जे बात और पतौ चली  ताऊ कूँ तौ बस ….चिन्ता शुरू ।  रात रात भर जागके  ‘बृजराज भवन’  कौ द्वार देखनौं …..भवन के सुरक्षा में कोई चूक तौ नाँय है रही ….द्वारपालन कूँ बिना मतलब के डाँटनौं …..कन्हैया कूँ जाते भए देखके  हम सब सखान कूँ हर बार  समझानौं ।   सोते भए कन्हैया कूँ रात में हूँ  महल में प्रवेश करके देखनौं ….और जब सुरक्षित कन्हैया है …जे जानें ….तब लौटके आनौं …….कन्हैया कूँ देखते ही सब कछु भूल जानौं ।     

हम तौ सब ताऊ कहते …..तौ हमें अपने पास बुलाय के  ताऊ  चिनौरी दै तै …फिर कहते …कन्हैया कौ ध्यान रखियौं ….कछु देर सोचते फिर कहते ….कन्हैया या बृज कौ युवराज है ….या लिए अपने युवराज की रक्षा करियों ….देखौ …कंस ने चारों ओर राक्षस लगा रखे हैं कन्हैया कूँ मारवे के काजे ….जे बात कहते समय ताऊ इधर उधर देखते  फिर धीरे ते कहते ।

कोई और अगर हमारी बातन कूँ सुन रह्यो होतो  ,  तो बाते कहते …तू मत सुन …तू जा …मैं तौ इनते बात कर रह्यो हूँ ।  

फिर हमते कहते ….जे बात गुप्त रखनौं है ….और काहूँ पे विश्वास नही करनौं है….कन्हैया कूँ कछु भी खिलाओ तौ पहले चखो फिर खिलाओ …..हम ताऊ ते पूछते …ताऊ ! ऐसौ क्यों ?  तौ ताऊ बहुत धीरे ते कहते …कोई पतौ नही है …कि कंस  के राक्षस कौन सी वस्तु में विष डाल के दै दें ।

मैं तौ ताऊ कूँ देखतौ रहतौ …..इनकौ कन्हैया के प्रति प्रेम अद्भुत हो ……या प्रेम ने ही तौ इनकूँ पागल बनाय दियौ …..लेकिन धन्य है ताऊ …..जो पागल हूँ भयौ तौ कन्हैया के काजे  ।

कन्हैया कौ तौ  सच्चो प्रेमी है जे ताऊ ।

*क्रमशः……*
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

            *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                           *भाग – १*

                   *🤝 प्रस्तावना 🤝*

       *दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम्।*
       *मुमुक्षुत्वं मनुष्यत्वं महापुरुषसंश्रयः॥*
                (विवेकचूडामणि ३)

       संसार में तीन बातें अत्यन्त दुर्लभ हैं-
१. *मनुष्यत्व* (चौरासी लाख योनियों में विचरते हुए दुर्लभ मनुष्ययोनि में जन्म लेना),
२. *मुमुक्षुत्व* (अर्थात् इसी जीवन में परमात्मप्रभु को प्राप्त करने की दृढ़ भावना),
३. *महापुरुष की सन्निधि* (किसी जीवन्मुक्त महापुरुष का सान्निध्य अथवा सत्संग प्राप्त होना);
इनकी प्राप्ति मात्र भगवत्कृपा से होती है।

       *जिनके हृदय में भगवत्प्रेम का बीज पड़ चुका, जो दैवी-सम्पद् से युक्त हैं, जिन्होंने हृदय से दृढ़तापूर्वक भगवत्-शरणागति का आश्रय ले रखा है, जिनके संकल्प-विकल्प समाप्त हो चुके हैं और जिनके हृदय में सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य है- वे मनुष्य तो निश्चय ही भगवत्कृपाप्राप्त हैं, धन्य हैं; परंतु प्रत्येक मनुष्य को ऐसी अवस्था सहज प्राप्त नहीं होती। इसीलिये भगवत्कृपा प्राप्ति के निमित्त हमारे शास्त्रों में मनुष्यों की नानाविध प्रकृति एवं रुचिवैचित्र्य का ध्यान रखते हुए अनेक साधन बताये गये हैं।*

       मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, यदि उसकी चित्तवृत्ति संसार के विषयों में प्रवृत्त होती हो तो भी उसे अपने परम कल्याण के लिये नित्य विचार का प्रयास करना चाहिये। इसके लिये उसे जीवन्मुक्त महापुरुषों का सत्संग अथवा उनके साहित्य का स्वाध्याय करना चाहिये। सिहोर-निवासी ब्रह्मलीन *संत स्वामी श्रीचिदानन्दजी सरस्वती* (१८८८-१९६७ ई०) ऐसे ही एक जीवन्मुक्त महापुरुष थे। आप बड़े विद्वान् एवं शास्त्रज्ञ थे, ज्ञान होने के उपरान्त आपने संन्यास ले लिया था और प्रायः एकान्तवास ही करते थे। आपने न तो कोई आश्रम बनाया, न ही शिष्य-मण्डल और न ही आप सुनियोजित प्रवचन-कार्यक्रम करते थे। हाँ! प्रारब्धवशात् आगत किसी जिज्ञासु को थोड़े ही शब्दों में मोक्षमार्ग की साधना बतला देते थे। उनके वे लेख कल्याण में बहुत पहले क्रमशः प्रकाशित होते गये।

       भगवत्-इच्छा से अब उन्हीं लेखों में से ४५ लेखों का चयन करके उन्हें छः शीर्षकों- *व्यवहार, संसार, उपासना, चिन्तन, भक्ति-साधना एवं ज्ञान* के अन्तर्गत विन्यस्त किया गया है। इसमें साधक-जीवनोपयोगी लगभग सभी मुख्य विषय आ गये हैं, जिनको चिन्तन-मननपूर्वक व्यवहार में लाकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है।

       *आशा है, विचारशील साधक इससे विशेष लाभान्वित होंगे।*

       क्रमशः…….✍

      *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
Niru Ashra: `(साधकों के लिए)`
*भाग-14*

*प्रिय ! तुम बिन हमरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरिधारी…*
(ब्रज रसिक वाणी)

मित्रों ! वो पजेरो गाड़ी में आये थे…एक शिष्य भी उनके साथ में ही थे…मेरे मित्र हैं… पूरे विश्व में 14 आश्रम हैं… यूरोप और एशिया सब मिलाकर…  । स्प्रिच्युअल कोर्स आजकल फैशन में आचुका है… अमेरिका जैसे देशों में, जहाँ के लोग अत्याधुनिक जीवन जी रहे हैं…वहाँ तनाव है… वहाँ बेचैनी है… वहाँ मनोरोगी हैं… इसलिए अध्यात्म वहाँ की जरूरत बनती जा रही है… वेदांत की व्याख्या ये स्वामी जी अंग्रेजी में करते हैं…मुझ से हँसते हुये बोले… आपको मैंने कितना कहा… पर इंग्लिश की ओर आपने ध्यान ही नही दिया । मैंने कहा… मुझे रूचि ही नही है…और न मुझे विदेश जाने में कोई रूचि है । न धन को इकट्ठा करने में अपनी ऊर्जा व्यय करना चाहता हूँ…।
मैंने फिर पूछा… विदेशी लोग समझते हैं वेदान्त को ?… उन्होंने कहा… समझते क्या हैं… हम समझाते हैं । आप कभी आइये हमारे अमेरिका में… मैंने कहा… आपके अमेरिका अब तो आना शायद ही हो… क्यों ? उन्होंने पूछा मैंने कहा… रोटी और मूंग की दाल चाहिए बस….. सुबह और शाम… अब इतनी व्यवस्था तो मेरा भगवान कर ही देता है…कर ही रहा है… और बेकार में अपने क़ीमती क्षण को हम पैसे के लिए बर्बाद करें तो ये मूर्खता ही होगी है ना ?… उन स्वामी जी ने कहा… हमें तो ज्ञान में रस आता है… आपको प्रेम में रस आता है… है ना ?… मैंने कहा… ज्ञान में “रस” तो आता है ना ? मैंने हँसते हुये कहा… बस , “रस” का आना ही तो प्रेम का आना हुआ… यानी स्वामी जी ! ज्ञान का फल भी “रस” ही हुआ, है ना ?
और रस ही तो प्रेम है… इस रस के बिना सब बेकार है… । मैंने कहा… मेरा समय हो रहा है… क्षमा करें… मुझे साधना सत्संग में जाना है… वो बोले – पागलबाबा के पास ?…मैंने कहा… जी… उन्होंने कहा… हमें दर्शन नही कराएंगे ?… मैंने कहा… चलिये ना !… पर मेरे बाबा रजोगुण से बहुत दूर रहते हैं… उन्हें बिलकुल पसन्द नही है… रजोगुणी व्यक्ति… रजोगुणी प्रभाव… । मुझे क्या करना होगा ?… मैंने कहा… ये सुवर्ण की अंगूठियां जो आपने पहनी है… और गले में रुद्राक्ष जो सोने में लगा रखी है… हाथ मैं ब्रासलेट जो सोने और हीरे से जड़े हैं… इनको उतारिये… और आप सन्यासी हैं… इसलिये आप मात्र रुद्राक्ष धारण करें । मैंने कहा… ये i phone भी आप रख दें… और हाँ हम लोग पैदल चलें ?… अच्छा लगेगा आपको भी…पर गर्मी है… बिना AC के ?
मैंने कहा… आप तो सन्यासी हैं…कोई आइसक्रीम नही जो पिघल जाएंगे । वो ख़ूब हँसे… हम लोग धीरे धीरे चल रहे थे… बाबा के यहाँ पहुँच गए… मैंने वहाँ की रज को माथे से लगाया… मेरा एक मित्र है “कदम्ब का वृक्ष”.. उसे मैं गले से लगाता ही हूँ… उसकी धड़कन सुनता हूँ… मैंने उस कदम्ब को गले से लगाया… वो मेरे मित्र सन्यासी हँसे…ख़ूब हँसे । पागलबाबा बैठे हुये थे…ज़मी पर ही बैठे थे…हम लोग गए और वहीं ज़मी पर ही बैठ गए…उन सन्यासी ने अपना परिचय स्वयं ही दिया…मेरे इतने आश्रम हैं… और मेरी इतनी संस्थाएं हैं… मेरे इतने करोड़पति शिष्य हैं । बाबा उनकी बातें सुनकर मन्द मन्द मुस्कुरा रहे थे… और बाबा ने बीच में ही पूछ लिया… अब आगे क्या करना है ?…उन्होंने कहा… यूरोप की यात्रा निकाल रहा हूँ… मेरे भारत के जितने भी शिष्य हैं… उन सबको यूरोप घुमाऊंगा… । बाबा इतना ही बोले… भारत जैसी पवित्र भूमि में जन्म लेने के बाद में भी यूरोप जैसे भोग प्रधान देशों में जाओ तो ये तुम्हारी दुर्गति ही है। क्या करते हो ?… वेदान्त की कक्षा लेता हूँ… वेदान्त पर मेरे लेक्चर होते हैं… बड़े बड़े विश्व विद्यालयों में मेरी क्लास चलती है वेदांत की ।
बाबा बोले… अधिष्ठान, अभ्यास, माया , उपाधि, आभास, प्रतिबिम्ब, अवच्छिन्न… ये सब शब्द तुम निरे वेदान्तियों से छीन लिए जाएँ तो तुम्हारे पास वेदांत कहने के लिए क्या बचेगा ?
बाबा बोले – देखो स्वामी ! एक घोड़ा था… उसे शिक्षित किया गया था… एक दिन उसका मालिक घोड़े में बैठा बैठा मूर्छित हो गया और घोड़े से गिर गया… घोड़ा शिक्षित था… उसने झुक कर मालिक को अपनी पीठ में बैठाया और लेकर चल दिया हॉस्पिटल के लिए… बाबा बोले – स्वामी ! वो घोड़ा हॉस्पिटल लेकर तो चला गया… पर वो हॉस्पिटल पशुओं का था… क्यों कि उस घोड़े को अपनी ही याद थी… इसलिए मनुष्य को भी वो पशु के ही अस्पताल में ले आया । बाबा ये सुनाकर हँसे… और बोले… तुम लोग कोरे ज्ञानी भी ऐसे ही हो… कुछ बातें सीख ली… और वही बात सब पर प्रयोग करते रहो…  तुम्हारी दशा भी उस घोड़े के जैसी ही है…अपना जैसा ही समझते हो… सबको… वही अपना अस्पताल और वही 15 या 16 रटे हुये शब्द , बस । इनसे कुछ होने वाला नही है… बाबा बोले… तुम्हारे उपदेश से औरों को क्या लाभ होगा… जब तुम्हें ही लाभ नही है… और तुम्हे वेदांत का लाभ अगर हुआ होता तो स्वामी ! तुम वेदान्ती होकर यूरोप की यात्रा न निकालते । और वेदान्त की क्लास लेने वाले स्वामी जी ! क्या वेदान्त यही कहता है ?… और स्वामी ! याद रखना…कर्ताभाव से भरकर कर्म में लिप्त हो… सब भोगना पड़ेगा…हाँ पिछले जन्म का कोई प्रारब्ध होगा… जिसकी वज़ह से आज तुम सांसारिक भोगों को भोग रहे हो… इस जन्म में तो कुछ किया नही है… बस बातें बनाई हैं…शिष्य बनाये हैं… फाइवस्टार आश्रम बनाये हैं… ये सब तो हो गया पर आगे के लिए क्या ?
तुम जो भी व्याख्या देते हो… या तुम जो भी वेदांता की क्लासें लेते हो… उससे क्या ?… तुम तो “मैं कर रहा हूँ” कर्तृत्वाभिमान में डूबे हो… । बाबा बड़ी करुणा से बोले… स्वामी ! आगे जन्म का क्या होगा सोचा है ?…क्यों कि इस जन्म में तो पिछले जन्म का ही खा रहे हो… पर अब आगे जन्म के लिए ?
बाबा बोले… मैं बनारस में रहता था तो एक बार आसाराम बापू आये थे गंगा के घाट में… साथ में उनके शिष्यों का जमघट था… मैं तो बनारस के घाटों में ही पड़ा रहता था… रात्रि थी… वो अपने शिष्यों को कुछ उपदेश कर रहे थे… मेरे साथ वहीं एक अघोरी सिद्ध महात्मा रहते थे… वो मुझ से बोले… सुनो ! ये आसाराम है ना… इसने पिछले जन्म में बहुत अच्छे कर्म किये थे… जिसके कारण इस जन्म में अभी तक मौज करता रहा… पर अब ख़त्म हो गए इसके शुभ प्रारब्ध… और इस जन्म में कुछ किया नही है… मैंने कहा… पर प्रवचन तो कर रहे हैं… तो वो बाबा बोले… प्रवचन से भगवान थोड़े ही रीझते हैं… बातों को बनाने से भगवान थोड़े ही रीझते हैं… हाँ… भगवान को रिझाने के लिए कथा कहो… तो अलग बात है… पर तुम तो धनी मानी को रिझाने के लिए कथा करते हो । बाबा बोले… उन अघोरी महात्मा ने मुझे बोल दिया था कि इन आसाराम जी का समय ख़त्म हो गया है… सब कुछ ख़त्म है अब । बाबा मेरे उन मित्र से बोले… क्या सोचते हो ? भाई ! दूसरे जन्म में बहुत दुर्गति होने वाली है… याद रखना… अभी तो मौज कर लो… क्यों कि पूर्वजन्म के प्रारब्ध हैं… पर आगे के लिए तुम्हारे पास में जमा पूँजी कुछ नही है… याद रहे ।

बात गढ़ गयी उन मित्र के मन में… मैं क्या करुँ… बाबा आप बतायें ? बाबा मैं यहाँ आने से पहले सोचता था… मैं बहुत बड़ा सन्त हूँ… मुझे दुनिया पूजती है… मुझे तो बड़े बड़े लोग जब मानते थे तो मुझे लगता था कि मैं ही हूँ जिसका अवतार हुआ है । पर बाबा अब तो मुझे लगता है… मेरी क्लास कितनी छोटी है…मेरे पास ऐसा क्या है जो मैं आप जैसे सन्तों को दिखा सकूँ ये कह सकूँ कि मेरे पास ये सम्पदा है… पर मेरे पास तो वो सम्पदा है कि जिसे आप जैसे सन्तों को भी दिखाने में लज्जा आये । मैं क्या करूँ ?… ये आश्रम बनाना… महामण्डलेश्वर बनना… विदेशों में जाना… इसको हम लोग… हम लोग ? महान अगर समझेंगे… तो हमारी दुर्गति तो निश्चित ही है… । मैं क्या करूँ ?… बाबा बोले… कुछ मत करो… निष्काम भगवन् नाम का जप करते रहो… एकान्त में भगवत् साधना करो… और भगवान से रो रोकर क्षमा माँगो कि हे नाथ ! मैं आपको कभी नही भूलूंगा… और जितनी जल्दी हो सके… यूरोप छोड़कर भारत आजाओ । बाबा ने इतना ही बारम्बार कहा… भगवान का ही एक मात्र आधार लो…नाम का सुमिरन करो…।

“सुमिरन कर ले मेरे मना, तेरी बीती उमर हरिनाम बिना रे”

Harisharan

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