Explore

Search

August 1, 2025 11:35 am

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

श्री सीताराम शरणम् मम 138 भाग 3″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -94″, (साधकों के लिए)भाग – 15 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : NiruAshra

Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
          🌺भाग >>>>>>>1️⃣3️⃣8️⃣🌺
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 3`

     *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे -*

मैं  वैदेही !

मेरे सामनें    खड़े हैं   मेरे  श्रीराम ! 

आर्यपुत्र !   मेरे प्राण !  मेरे जीवन धन  !   मैं  पुकार उठी  ……मैं दौड़नें जा रही थी    उनके हृदय से लगनें ……..पर  ।

सीता !     मैने रावण का वध कर दिया………मैने रावण को ये बता दिया की आर्य नारी के अपहरण का दण्ड ये होता है …………।

मैं रुक गयी …….मेरे कदम ठहर गए ………..मैने  आश्चर्य से  अपनें श्रीराम के मुख में देखा ………….ओह !          

हाँ  बोलो !    वैदेही बोलो !      तुम इतनें दिन तक रावण के यहाँ रही …..”.तुम पवित्र हो….इसका प्रमाण ?      ये क्या बोल गए मेरे श्रीराम !

मेरे ऊपर बज्रपात हो गया था …..मेरा हृदय फट रहा था ………

मै मूर्छित ही होजाती ……पर मैने अपनें आपको सम्भाला  ।

आप ये क्या कह रहे हैं  !     मैं  क्रोध और करुणा दोनों से भर गयी थी ।

आप मुझे जानते नही हैं  ?    मैने उनकी आँखों में देखा  ।

उन्होंने सिर झुका लिया …………..पर फिर सिर उठाकर बोले ……….तुम्हे भी अच्छा नही लगेगा ……जब अयोध्या का एक भी नागरिक इस बात को उठाएगा तो !    तब  ?

मेरे श्रीराम नें मेरी और देखा ……………………..

ठीक है …………………..

लक्ष्मण !   आज  मैं तुमसे     माँग रही हूँ …….अपना आँचल फैलाकर माँग रही हूँ …………………

लक्ष्मण  रो पड़े थे    श्रीराम का यह गम्भीर और कठोर रूप देखकर ……हनुमान तो समुद्र के किनारे ही जाकर बैठ गए थे  और रो रहे थे ।

त्रिजटा   का मुख मण्डल  क्रोध से  लाल हो गया था ……………फिर उसके आँसू बह चले थे   ।

लक्ष्मण !  मुझे अग्नि  दो ……….मेरे लिए चिता तैयार करो  ………

नही ….नही ……….लक्ष्मण  मेरी ये माँग सुनकर  बिलख रहे थे ।

पर  श्रीराम नें  इशारा किया ……………लक्ष्मण को  ।

रोते हुए लक्ष्मण  लकड़ियाँ बटोर कर लाये …………..आग लगाई  ।

लक्ष्मण  इसके बाद तुरन्त मूर्छित हो गए थे  …..हनुमान   उधर समुद्र में मूर्छित हो गए थे ……..इधर  सुग्रीव  जामवन्त  विभीषण    इत्यादि नें  अपनी आँखें बन्दकर  ली थीं  ।

हे राम !     

आकाश देवताओं की वाणी  से गूँज उठा …………………………..

हे राम !     वैदेही के समान  पतिव्रता  सृष्टि में दूसरी नही है  ……..

हे राम !   जितनी कठोरता तुम बरत रहो है   ये उचित नही है ……..

हे राम !  सीता परम सती हैं ………ये पवित्रतम हैं   ।

तभी   अग्नि में विस्फोट हुआ ……………….चिता बिखर गयी …..

और उसमें  से  अग्नि देवता  प्रकट हुए …………….मेरा शुद्ध  स्वरूप उन्हीं के पास था ……………….।

मेरे श्रीराम नें  प्रणाम किया अग्नि देवता को ……………….

अग्नि देवता  अंतर्ध्यान हुए   मुझे श्रीराम को देकर    ।

सिर झुकाकर समस्त देवताओं को    प्रणाम किया मेरे श्रीराम नें ।

आप कह रहे हैं ………आप समस्त देव कह रहे हैं ……..आपको मेरा प्रणाम ………..मेरी वैदेही शुद्ध है …………रावण    क्या अपमान कर सकेगा इनका ……….मुझे पता है  ये  मेरी हैं ………इनका  मन बुद्धि चित सब कुछ मुझ में ही लगा है ……….पर  मैने जो किया ………कल को  कोई  मेरी सीता को दोष न दे –   इसलिए  किया ।

मेरे श्रीराम  नें मुझे देखा……मैने क्षमा  किया उन्हें ……….वो अब दौड़े मेरे पास ………..मेरा हृदय    रुक जाता …….पर मेरे श्रीराम नें आकर मुझे   अपनें हृदय से लगा लिया था   ।

*शेष चरित्र कल ……!!!!!!*

🌷🌷🌷 जय श्री राम 🌷🌷🌷
] Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-94”`

*( “ताऊ! मोहि दुहन सिखावौ”- सुन्दर प्रसंग )*

*****************************************

कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …….

आज प्रातः कन्हैया कूँ मैया बृजरानी ने नहलायौ ….फिर कन्हैया कूँ  सुन्दर बनाय के….कछु कलेवा करवाय के …..खेलवे भेज दिए ।    लेकिन आज कन्हैया कौ खेल में मन नही लग रह्यो ….भुवन भास्कर  वृक्षन ते ऊपर उठ आए हैं …….तभी …..

घर्, घर्, घर् ….की  मधुर नाद ने कन्हैया कौ मन आकर्षित कर्यो ।   अपने बड़े भाई बलभद्र जु के संग  कन्हैया बा ओर गये …..वहाँ तौ गौशाला है ….बृजराज बाबा की सबते बड़ी गौशाला है…..चार लाख गौ यही गौशाला में हैं ….बाकी  सात  छोटी छोटी गौशाला और हैं ……उनमें हूँ गौ हैं ….लेकिन काहू में एक लाख तौ काहूँ में  पचास हजार ……कुल मिला के नौं लाख गौ बृजराज बाबा के पास हैं ।    

जे  गौशाला की व्यवस्था में ताऊ रहे …..ताऊ कौ परिचय तौ मैंने कल दियौ हो ……तौ वही ताऊ  सबेरे सबेरे आज गाय दुह रहे ।

कन्हैया और बलभद्र   ताऊ की ओर ही बढ़ चले हे ….लेकिन जे तौ होनौं ही हो …..अपने नीलमणि श्याम कूँ आते देख…..गौएं तौ उछलवे लगीं ……हम्बारव करवे लगीं ।   ताऊ चिल्लाए …..लेकिन गैया कहाँ मानती …..बाकौ  गोपाल सामैं ते जो आय रो ।   

अब ताऊ ने पीछे मुड़के देख्यो कि …गैया काहे कूँ एकाएक बाबरी सी हैं गयीं ….जब सामने देख्यो कि ….कन्हैया आय रो है और बाके साथ बलभद्र भैया हूँ है ।   अब ताऊ की दशा तौ बिगड़ गयी ….दोहनी हाथ ते छूट गयी ….दूध फैल गयौ  ।   कन्हैया ताऊ के पास आए …..ओह !  कन्हैया के पास आते ही सुगन्ध कौ एक झौंका सौ आयौ ….ताऊ की स्थिति और खराब ….ताऊ समझ ना पाय रहे कि ….मेरे सामने कन्हैया !      लो जी !  जे कन्हैया तौ ताऊ के बगल में ही आय के मिट्टी में ही बैठ गयौ ……ताऊ कूँ रोमांच है रह्यो है …….मुस्कुराहट मुखमण्डल में है ताऊ के  लेकिन नेत्रन ते अश्रु धार बह रहे हैं …..कछु समझ में नही आय रो ताऊ के …..आगै कहा करनौं है ……हजारौं ग्वारिया हैं लेकिन सब ग्वारिया ताऊ ते पूछ के ही काम करें ….ताऊ ने सबकूँ  काम में लगाय दियौ हो …सबने दूध काढ़ लियौ है गैयन कौ …..ताऊ ने हूँ काढ़ तौ लियौ ….लेकिन कन्हैया के आयवे तै सब दूध फैल गयौ ।    

“ताऊ !   मोहि दुहन सिखावौ “। 

आहा !  कितनी मीठी बोली …ताऊ  देहातीत है गए हैं …उनकूँ कछु समझ में नही आय रो ….कन्हैया  ने ताऊ के फिर झुर्रियों भरे कपोल पकड़के पूछी ….ताऊ !  मोकूँ दूध दुहनौं सिखाय दो !    ताऊ कहा कहे ….बाने तौ अब कन्हैया कूँ पकड्यो और अपने कण्ठ ते लगाय के रोनौं शुरू कियौ …..कन्हैया ने ताऊ कूँ पुचकार के शान्त कियौ ….फिर बोले …

क्यों ताऊ !  नही सिखाओगे ?

“किन्तु गाय तौ दुही जा चुकी हैं”……ताऊ ने कन्हैया के कपोल चूमते भए कही ।

ताऊ !  कोई एक गाय तौ बची होगी ?    नही , ताऊ अपलक देख रहे हैं कन्हैया कूँ …सिर हिलाय के मना कियौ …………..अच्छा !  दुखी है गए कन्हैया ।   कन्हैया कूँ दुखी देख्यो ताऊ ने  तौ ताऊ बोले ….लाला !  कल सिखाय दूँगौ ।    कन्हैया चुप रहे ….फिर बोले ….ताऊ !  अगर साँझ में  मैं आय जाऊँ तौ सिखाय दोगे ?     ताऊ कछु कहते …बाते पहले ही कन्हैया बोल पड़े ….ताऊ ! रहने दो ….साँझ में मैया आवन नाँय देगी ……या लिए सबेरे ही सही है ।  

ताऊ ने ‘हाँ’ में सिर हिलाय दियौ ।

तौ ताऊ !  कल सबेरे मोकूँ गाय दुहवे तै पहले….बुलाय लीयौं ….वैसे मैं आय जाऊँगौ …फिर भी ।

कन्हैया  मो वृद्ध कूँ  कितनौं मान दै रहे हैं ….ताऊ कूँ तौ अब कछु नही चहिये …सीधे गुरु बनवे कौ सौभाग्य !   कन्हैया कौ मैं गुरु ?   ताऊ तौ यही सब सोचके रोमांचित है रहे हैं ।  

अब कन्हैया ने कही ….तौ फिर कल सबेरे सिखानौं है  …..ताऊ मुस्कुराए …..कन्हैया अब आगे बढ़े और ताऊ के जैसे ही पाँव छूवे कूँ झुके ….ताऊ रोय दियौ …..और कन्हैया कूँ पकड़ के अपने हृदय ते लगाय लियौ ….माथे कूँ सूँघ रहे हैं ताऊ ….कन्हैया के कपोलन कूँ चूम रहे हैं ताऊ ।

कन्हैया  अपने घर की ओर अब चल दिए हैं …….

लेकिन ताऊ वैसे ही तौ पागल हे …कन्हैया तौ और पागल करवे में लग गयौ है ….अरे !  पूरौ ही पागल बनाय के मानैगौ कन्हैया ……वैसे भी आधौ काम याकूँ अच्छों नही लगे ….जो करनौं है  पूरौ ही करनौं है ।  बिचारौ  ताऊ !      मैं तौ ताऊ के विषय में ही सोच रह्यो हूँ ।

*क्रमशः…..*
Hari sharan
] Niru Ashra: `(साधकों के लिए)`
*भाग-15*

*प्रिय ! सींचत पिय हिय कमल कौं, नेह नीर मृदु सैंन…*
(रसिक वाणी)

मित्रों ! आज मैं कुञ्ज में प्रातः 4 बजे
ही पहुँच गया… बाबा भी भीतर कुटिया में
ध्यान में लीन थे… वृक्षावलियाँ भींगी हुयी
थीं… क्यों कि रात को बारिश हुई थी ।
तोता , मोर, कोयल इन सबके कलरव से कुञ्ज
में उत्सव का माहौल बन रहा था… मैं गया और
जाकर पहले भगवान शिव को जल चढ़ाया… और उनको प्रणाम किया… कुञ्ज में एक शिवालय है
…मेरे बाबा कहते हैं ..भगवान शंकर विश्व
गुरु हैं… गुरुतत्व भगवान शंकर ही हैं…गुरुतत्व ही शिवतत्व है… दोनों एक ही हैं… मेरे पागलबाबा कहते हैं… आप वैष्णव हैं तो वैष्णवों के जगदगुरू भगवान शंकर ही हैं… आप जो हों… पर साधना में “विश्वासतत्व” तो शिव ही हैं… । एक कदम्ब का बहुत पुराना वृक्ष है… मैं उसे रोज गले लगाता हूँ… और मुझे उसकी धड़कन भी सुनाई देती है… तमाल के सुंदर सुंदर पेड़ हैं…मोरछली और आम के छायादार वृक्ष अति शोभनीय लगते हैं… मोगरा और वेला के फूल अपनी सुगन्ध बिखेर रहे हैं । बाबा के कुञ्ज में बन्दर कुत्ते उनके छोटे छोटे पिल्ले , मोर, तोता, कोयल, गौरैया इनकी संख्या अनगिनत हैं…बाबा सुबह और शाम पक्षियों को दाने डालते हैं…प्रकृति से बहुत प्रेम है बाबा का । बाबा को दुःख है कि वृन्दावन मैं अब वृक्ष कट गए… और जो थोड़े बहुत बचे हैं… वो भी कट ही रहे हैं ।
वृक्षों को मत काटो… बाबा तो कभी कभी बोल भी देते हैं… गौ हत्या करने का जो पाप है… वही पाप वृक्षों को काटने से भी लगता है… क्या वृक्षों की समाज में उपयोगिता नही है ? इस पृथ्वी को शीतल रखना है तो वृक्ष लगाओ । बाबा कल ही मेरी कुटिया से होकर गुजरे थे…तो मुझे कल शाम को बोल रहे थे… हरि ! तुम्हारा उपवन तो बहुत सुंदर है… बड़े बड़े वृक्ष हैं तुम्हारे यहाँ तो । फिर बाबा बोले… हमारी प्रेम साधना का भगवान वृक्ष, लता, पक्षी , मिट्टी… इन सबसे ही प्रसन्न होता है…ये प्रेम साधना के सहयोगी हैं… वृक्ष, लता, पक्षी और मिट्टी । अपने इष्ट को अपने घर में बैठाना है तो सोने या चाँदी के सिंहासन में मत बैठाओ… तुम्हारे इष्ट प्रसन्न नही होंगे… तुम्हारे इष्ट प्रसन्न होंगे… मिट्टी का सिंहासन , और ऊपर से लता की बेल… एक आम का या कदम्ब का वृक्ष उसमें लगी हुई बेल… उसके नीचे अपने इष्ट का सिंहासन बनाओ… मिट्टी की…उसे गाय के गोबर से लीपो… फिर उसमें विराजमान कराओ…अपने ठाकुर जी को ।

चलिये मैं आपको लेकर चलता हूँ गौरांगी के यहाँ , क्यों कि मैं भी जा रहा हूँ… अभी 5 बजे हैं सुबह के… एक घण्टे में मैं आजाऊंगा… तब तक बाबा की समाधी भी खुल गयी होगी ।

दरवाजे का वेळ बजाया… गौरांगी ने ही आकर खोला… मौन है गौरांगी… हाथ में गौमुखी लेकर गुरुमन्त्र का जप कर रही है… मेरे बाबा कहते हैं… जिस मन्त्र में ॐ शब्द हो उसका उच्चारण चलते फिरते या अपवित्र अवस्था में नही करना चाहिए… बाबा कहते हैं… गायत्री मन्त्र या महामृत्युंजय मन्त्र… या और कोई भी जिसमें ॐ का उच्चारण किया गया हो… उसका उच्चारण सदैव नही करना चाहिए… स्नान करके… एक आसन में बैठकर शुद्ध पवित्र होकर… मौन होकर… पवित्र वस्त्र धारण करके तब किया जाना चाहिए… हाँ राम राम , श्याम श्याम , या राधे राधे… या हरे कृष्ण हरे कृष्ण…या राधे कृष्ण राधे कृष्ण… ये मन्त्र जब भी जपा जा सकता है… पवित्र या अपवित्र… कैसी भी अवस्था हो ।
मैं शांति से जाकर बैठ गया…दीवार भी गोबर से लीपी गयी है…भीतर एक मिट्टी का टीला बनाया है उस टीले में ही सजाकर अपने भगवान को बैठाया है इस गौरांगी ने । बाबा के कुञ्ज से ही मोगरा और बेला के फूल तोड़ कर ले आती है…और बड़े प्रेम से अपने ही हाथों से माला बनाती है…बाजार से माला खरीद के नही लाती…गौरांगी की भावना है कि सेवा तो स्वयं ही करनी चाहिए है ना ?..माला भी किसी और की बनाई हुई क्यों ?
हम अपने प्रिय के लिए स्वयं ही माला बनाएंगे । बाजार की वस्तुयें भोग नही लगाती गौरांगी… जो भी मिठाई इत्यादि हैं वो सब स्वयं ही बनाती है और भोग लगाती है ।
जप पूरा हो गया गौरांगी का… हरि जी ! साधना में क्या आवश्यक है ?… मैंने कहा… उत्साह !… समझाइये ? मैंने कहा… गौरांगी ! भजन करो ..ध्यान करो… सुमिरन करो… तो मन में अपार उत्साह होना चाहिए…ऐसे नही कि सुस्ती छाई हुई है… कब माला पूरी हो…नींद में ऊँघ रहे हैं…आलस्य ने घेर लिया है… मन अब लग नही रहा है… पर माला पूरी करनी है तो मर मर कर पूरा कर रहे हैं… ऐसे साधना नही होती… साधना होती है उत्साह से…उत्साह बनाये रखो । गौरांगी ने कहा हरि जी ! अभी आधे घण्टे और हैं… एक प्रश्न का और उत्तर दो… मेरी एक सहेली है… जो अमेरिका में पढ़ती थी… पर खाड़ी देश की थी… मुसलमान है… हरि जी ! बहुत अच्छी है… उसका हृदय बहुत अच्छा है… हृदय की पाक़ है । पर मांसाहारी है…मुसलमान है…तो हरि जी ! क्या वह मांसाहार करने वाली लड़की और मुसलमान लड़की, क्या इस सात्विक जीवन में प्रवेश कर सकती है ?…मैंने कहा… गौरांगी ये क्या प्रश्न है क्या इसका उत्तर तुम्हें नही पता ?… अरे हरि जी ! बताओ ना ..आप क्या उत्तर दोगे…बोलो ना !
मैंने कहा… साधना का एक ही कार्य होता है… हृदय को कोमल बनाना… ये जो हम लोग साधना कर रहे हैं ये इसलिए कर रहे हैं कि इससे हृदय कोमल बनेगा… और कोमल हृदय में ही प्रेम का प्रादुर्भाव होता है… कोमल हृदय में ही भगवत् साक्षात्कार होता है… कोमल हृदय में ही भजन टिकता है… कठोर हृदय हमें अध्यात्म से ही दूर कर देता है… कठोर हृदय हमें भगवत् तत्व से दूर कर देता है । गौरांगी तुम ने पूछा मांसाहार करने वाली लड़की सात्विक हो सकती है कि नही ?…तो गौरांगी मैं तो कहूँगा…जिसका हृदय ही कठोर है…क्यों कि मांसाहारी का हृदय कठोर होगा ही…उसका हृदय कोमल हो कैसे सकता है ?
हाँ कोई पूर्व जन्म के अच्छे संस्कार लेकर आई हो… तो बात अलग है… पूर्व जन्म का प्रारब्ध अगर प्रबल है… पूर्वजन्म में कुछ साधनायें की हों… और अपराधवश मुस्लिम घर में जन्म ले ली… पर गौरांगी ! उसे तो बहुत लंबी छलाँग लगानी पड़ेगी… अगर पूर्वजन्म के कुछ अच्छे संस्कार हों फिर भी । इसलिए तो हमारे पागलबाबा बार बार कहते रहते हैं…क्रोध मत करो… क्यों कि क्रोध से हृदय कठोर होता है… लोभ मत करो… लोभ हृदय को कठोर बनाता है… मोह मत करो… ये मोह हृदय को कठोर बनाता है… “हिंसा मत करो”… ये कठोरता ला देता है । गौरांगी ने कहा… फिर हृदय कोमल कैसे बनता है ?… मैंने कहा…दया करो…सेवा करो…क्षमा करो…और सर्वत्र भगवान है, ऐसी भावना रखते हुये हृदय में श्रद्धा को भर लो ।
मांसाहार छोड़े बिना सात्विकता नही आ सकती… और सात्विकता के बिना अन्तःकरण पवित्र नही हो सकता…और बिना अन्तः करण के पवित्र हुये… इस प्रेम साधना में आ ही नही सकते !

मैंने गौरांगी से कहा… समय हो गया है… चलो अब ! हरि जी ! रुको… वो भीतर गयी और एक अपनी बनाई हुई पेंटिंग लेकर आयी…  wow कितनी सुंदर छवि है… गौरांगी ये क्या है !
गौरांगी ने कहा… श्री राधा, कृष्ण कृष्ण कहते कहते , कृष्ण ही हो गयीं…और अब “राधे राधे” जप रही हैं… अपनी सखियों से ही पूछ रही हैं “राधे कहाँ गयी” । अपने को ही भूल गयीं… अपने आपकी ही विस्मृति हो गयी…बस रह गया प्रियतम ! रह गया हमारा प्रेमास्पद । मैं अब “मैं” कहाँ रही… तू हो गयी हूँ… तेरे में मिट गयी हूँ… मिटा दिया है अपने को तेरे में… । इस पेंटिंग को अपने साधना कक्ष में रखना हरि जी ! मैं अभी भी उस पेंटिंग को देख रहा था…कैसे श्री राधा, कृष्ण के चिंतन में ऐसी डूबीं कि राधा तो खो गयीं कृष्ण रह गया ।

“बिसरि गयी सब चतुरता, परत प्रेम के कूप”

Harisharan
] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

            *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                           *भाग – २*

                   *🤝 १. व्यवहार 🤝*

                 _*सुखी जीवन का रहस्य*_

*सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्।*
*यथाप्राप्तमुपासीत            हृदयेनापराजितः॥*

       इस जगत् की रचना ही त्रिगुणात्मक है, इसलिये इसमें सर्वत्र विषमता रहेगी ही और यह विषमता ही कभी सुख-रूप से भासित होती है तो कभी दुःखरूप से। सुख और दुःख एक ही सिक्के की दो दिशाएँ हैं। एक ओर से देखो तो सुख दीखता है और दूसरी ओर से देखो तो दुःख।

       एक समय एक परिस्थिति अनुकूल दीख पड़ती है तो दूसरे समय वही अनुकूलता प्रतिकूल दीखने लगती है; और इस कल्पित अनुकूलता एवं प्रतिकूलता को ही प्रिय और अप्रिय नाम देकर मनुष्य सुखी-दु:खी होता है। इसी कारण श्लोक में कहा गया है कि यदि सुखरूप जीवन व्यतीत करना हो तो *’यथाप्राप्तमुपासीत’* यानी जिस समय जो भोग आ जाय उसे सहर्ष सिर चढ़ा लो; क्योंकि वह तुम्हारे पूर्वकृत कर्मों के पुरस्कारस्वरूप ईश्वर की ओर से तुम्हारे ही हित के लिये तुमको मिला है। कैसे सिर पर चढ़ायें, यह समझाते हुए कहते हैं- *’हृदयेन अपराजितः’* यानी हृदय को आघात न पहुँचाते हुए, हृदय पर बल न पड़े इस प्रकार से। हृदय को मजबूत रखकर लाभालाभ को शान्तिपूर्वक सहन करते रहना ही सुखी जीवन की कुंजी है।

       *सभी प्राणी जबसे जनमते हैं, तभी से सुख की खोज में लगे दीखते हैं। ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य पालन करते हैं और तपस्वी तप करते हैं, वे भी सुख की प्राप्तिके लिये ही। गृहस्थ गृहस्थाश्रम चलाते हैं और वानप्रस्थ तथा संन्यासी अपना-अपना धर्म पालन करते हैं, सब सुख की प्राप्ति के लिये ही। परंतु इनमें से किसी भाग्यशाली को ही सुख मिलता है। इसका कारण यह है कि सुख क्या है और कहाँ मिलेगा, इसका ज्ञान प्राप्त करने के बदले सभी लोग सीधे ही सुख की खोज में लग जाते हैं। जिस वस्तु की खोज करते हैं, जबतक उसके स्वरूप को न जान लें, तबतक वह कहाँ मिलेगी, इसका निश्चय कैसे कर सकते हैं? अतः यदि सुख की खोज करनी हो तो सुख क्या वस्तु है अर्थात् उसका स्वरूप क्या है, यह पहले जानना चाहिये। उसके बाद यह निश्चय करना चाहिये कि वह कहाँ मिलेगा। इन दोनों बातों का निश्चय करने के बाद यदि सुख की खोज की जायगी तो उचित कीमत देने पर वह अवश्य ही मिल जायगा।*

       अतएव पहले-सुख क्या है और इसका स्वरूप क्या है, विचार करना है। त्यागी पुरुष शरीर को कष्ट देकर सुख का अनुभव करता है और भोगी सारे भोग प्राप्त करके भी दुःखी दीख पड़ता है। इस प्रकार सुख प्रत्येक व्यक्ति के लिये अलग-अलग दिखलायी देता है। अतएव सुख की परिभाषा का एक सामान्य नियम खोजना चाहिये।

*क्रमशः…….✍*

      *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements