Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग >>>>>>1️⃣3️⃣9️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
विभीषण ! मैं अपनी माताओं अपनें भाई परिजनों से शीघ्र मिलना चाहता हूँ …..मेरी व्यवस्था करो ……..श्रीराम नें आदेश दिया था ।
विमान ! पुष्पक विमान बड़ा दिव्य विमान था वो ……..सम्पूर्ण विमान स्वर्ण से निर्मित था …………ना किसी चालक की आवश्यकता कहाँ थी ! जिसके अधिकार में हो ये विमान उसकी इच्छानुसार ही चलता था …………..इस विमान में सारी सुविधायें थीं …..लोगों के अनुसार ये विमान बड़ा भी हो जाता और छोटा भी ।
शयन करनें की …….भोजन की व्यवस्था अलग ही थी ………..।
यह विमान अत्यंत मन्द गति से और शब्द से भी तीव्र गति से चल सकता था …………..और हाँ ये विमान जल में थल में आकाश में कहीं भी चल सकता था और कहीं भी उरत सकता था ।
गर्मी कितनी भी हो ……पर पुष्पक विमान का तापमान शीतल ही रहता …….और बाहर सर्दी हो …….तो विमान में गर्म तापमान ।
इस पर सर्दी, ताप, ओले, वर्षा आँधी किसी का भी प्रभाव नही पड़ता था ………….
इसमें मणियों की ऐसी सुन्दर वेदियां बनी थीं ………जिसमें बैठा जाता था ……….सुन्दर सुन्दर गद्दे थे उन वेदियों में ।
विमान जब उड़ता था तब सुन्दर संगीत सुनाई देता था ……बाहर का कोलाहल सब शान्त हो जाता ।
ये कुबेर का विमान था ……..रावण कुबेर से छिन कर लाया था इसे ।
मेरे सामनें जब पुष्पक विमान आया तब मैने उसे देखा था ………..।
त्रिजटा नही दिखाई दे रही ? मैने विभीषण से पूछा ।
वो विमान को और सुसज्जित करनें में लगे थे ।
त्रिजटा कल से ही मूर्छित है ……………विभीषण बोले ।
क्या ! क्या त्रिजटा मूर्छित है ? पर क्यों ?
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!
🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-95”
( ‘धेनु दुहत हरि’ – एक अद्भुत झाँकी )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
आज कन्हैया सबेरे ही उठ गयौ ……और मेरे पास में आय के बोलो ….मधुमंगल ! चलो ताऊ के पास ….आज मोकूँ गाय दुहनौं सिखांगें ताऊ । मैं भी तैयार है गयौ …..दाऊ भैया हूँ आय गये और चलवे की कहवे लगे …..कन्हैया ने हंसते भए कही ….दाऊ ! तुम्हें तौ आतौ होयगौ गाय दुहनौं ? दाऊ भैया ने मना करी ….तौ हंसते भए कन्हैया बोले ….भैया ! मैं पहले सीख लूँगौ …फिर मोते तुम सीख लीयौं । कन्हैया की बात सुनके दाऊ भैया मुस्कुराए …..फिर बोले …चलें ?
हम तीनों अब भवन बाहर आए गये ….मैया ने हमते पूछी कहाँ जाय रहे हो ? लेकिन कन्हैया ने मना कर दियौ कि – मत बता । मैंने कन्हैया की ओर देखी और पूछवे लगो …मैया कूँ क्यों नही बतानौं ? कन्हैया बोले …मैया कूँ डर लगे कि कोई मरखनी गाय मोकूँ सींग ते मार न दै ।
बस …”यमुना जी तक है कै आय रहे हैं”……मधुमंगल ! इतनौं ही बोल । कन्हैया ते ही मैंने कही ….झूठ तू ही बोल …..बिना मतलब के मो वामन ते सबेरे सबेरे झूठ बुलावाबे ।
तौ कन्हैया ही बोलो …..मैया ! यमुना जी तक है कै आय रहे हैं ।
जल्दी अईयो …….मैया बोली और भीतर चली गयी ।
गौशाला के बाहर ही मिल गए ताऊ …….विचारे कन्हैया की प्रतीक्षा में ही है ।
कन्हैया कूँ देखके वो बहुत प्रसन्न भए …उनकी आँखें बता रहीं कि वो रात भर सोए नही ।
हाँ , मोकूँ रातभर नींद नही आयी ….ताऊ की बात पे कन्हैया पूछवे लगे …क्यों ? तुम कूँ आज सिखानौं है ना ! बस यही सोच सोच के । मैं ताऊ कूँ देख रह्यो हूँ ….कन्हैया के प्रति अद्भुत वात्सल्य है ताऊ कौ ।
एक गाय है ….बड़ी सुंदर गाय है …..गौशाला की सारी गाय दुही जा चुकी हैं …यही एक बची है ….यानि कहूँ ….ताऊ ने कन्हैया के ताईं जे गैया रखी हैं ।
दोहनी उठाई ताऊ ने …..तौ कन्हैया आगे बढ़े और बोले …ताऊ ! गोप कूँ दोहनी तौ स्वयं उठानी पड़ेगी ना ! कन्हैया की बात पे मुग्ध ताऊ ….बस हँसे । कन्हैया ने ताऊ के हाथ ते दोहनी लै लई ही …और बड़े प्रसन्न गाय के पास जायके बैठ गये । कन्हैया ने गाय के थन कौ स्पर्श कीयौ ….जे कहा भयौ ? ताऊ भी चकित । कन्हैया के स्पर्श करते ही गाय के थन ते दूध अपने आप बहवे लग्यो । ताऊ कह रहे बछिया आय रही दूध पीवे कूँ लेकिन कन्हैया के स्पर्श ने गाय के भीतर और स्नेह भर दियौ , आहा ! कन्हैया हँस रहे हैं …..किलकारी भर रहे हैं ……तब ताऊ ने कन्हैया ते हंसते भए कही …..लाला ! दोहनी कूँ अपने सामने रख …..छोटी सी दोहनी है …कन्हैया ने लई ….तब ताऊ ने कन्हैया कूँ थन पकड़वे कूँ कही …..नही , ऐसे नही ….ताऊ सिखा रहे हैं …..उँगली और अँगूठे ते थन कूँ दबानौं है ….कन्हैया जब दबायेवे लगे तब ताऊ ने कन्हैया की उँगली में अपनी उँगली धर के जब दबाय के नीचे खेंच्यो …तब दूध की धार निकल पड़ी । कन्हैया इधर उधर देखवे लगे प्रसन्न है कै । ताऊ हंसते भए बोले …..लाला ! इधर उधर मत देखो ….दूध दुहते समय याही में ध्यान दैनौं चहिए ।
कन्हैया फिर ध्यान दैवै लगे ……अब तौ जो दूध की धार है वो दोहनी में तौ गिरे नही ….कन्हैया के पेट में …मुख में …..वक्ष में ….दूध ही दूध । कन्हैया हँस रहे हैं ….दाऊ कूँ कह रहे हैं…मैंने सीख लियौ गाय दुहनौं । अभी तौ और दुहनौं है …ताऊ ने हँसते भए कही ।
अब तौ कन्हैया ‘घर् …घर्’ दूध निकाल रहे हैं ….लेकिन दूध अधिकतर पृथ्वी में गिर रह्यो है और बाकी कन्हैया के अंगन में …मानौं अपने गोपाल कौ अभिषेक कर रही हैं गैया । अपने गोपाल कूँ अपने पास पायके बड़ी प्रसन्न है रही हैं गैया । तभी गाय की बछिया आगै आय गयी ….आय का गयी …अब छोड़ो है बछिया कूँ …..बछिया उछलती भई आयी …कन्हैया चकित है कै देख रहे हैं …..बछिया आयी और थन ते अपनौं मुँह लगाय के दूध पीवे लगी ….कन्हैया ताली बजा रहे हैं ….उछल रहे हैं ….उनकूँ आनन्द आय रो है । तभी का सोच के ….कन्हैया ने अपनौं मुख हूँ गाय के एक थन में लगाय दीयौ …..बस फिर का हो …..गाय कन्हैया कूँ चाट रही है ।
अन्तरिक्ष ते देख रही है कामधेनु गाय ….लेकिन ये झाँकी देखके कामधेनु दुखी है ……मन में सोच रही है कामधेनु कि ….मैं क्यों बृज की गाय नही बनी …अगर मैं आज बृज की गाय होती तौ कन्हैया मेरौ दूध पीते ….अपने मुखारविंद ते मेरौ दूध पीते ……मेरौ ‘सुरधेनु’ होनौं व्यर्थ है ….मोतै भागशाली तौ जे बृज की सामान्य गौ है ….जो कन्हैया कूँ चाट रही है । ओह ! याके भाग !
इधर अब कन्हैया ने ताऊ के हाथन ते “लोमना” लै लीनौं है ….’लोमना’ ते गाय के पैर बाँधे जायें फिर दूध दुहो जाए …यहाँ तौ लोमना बाँधवे की जरुरत ही नही पड़ी …लेकिन ताऊ के हाथ में लोमना ही ….बाही लोमना कूँ कन्हैया ने अपने सिर में बाँध लियौ ….और मस्ती में अपने भवन की ओर कन्हैया चल दिए …..ताऊ पीछे दूध लै कै …..भवन जाके मैया कूँ दिखानौं भी तौ है ना कि मैंने आज स्वयं दूध दुहो है । अद्भुत झाँकी ही ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३*
*🤝 १. व्यवहार 🤝*
_*सुखी जीवन का रहस्य*_
बुद्धि के आधार पर प्राणिमात्र को दो विभागों में बाँटें तो एक ओर मनुष्य होंगे और दूसरी ओर अन्य सारे प्राणी। इन सारे प्राणियों में एक ही अहंकारवृत्ति काम करती है, अत: उनके सुख का आदर्श एक ही होता है। उनके अहंकार का अर्थ है- *'मैं हूँ और मुझे जीना है।'* यही कारण है कि उनका सारा व्यवहार देह के निर्वाह के लिये ही होता है और तदात्मक प्रवृत्ति में ही केन्द्रित हो जाता है। यानी (१) *जीने के लिये आहार प्राप्त करना,* (२) *थकने पर आराम करना,* (३) *शरीर के नाश का भय दिखलायी पड़े तब उसका सामना करना* और (४) *कामवासना के वश होकर संतान उत्पन्न करना*। इन चार बातों के सिवा दूसरा कोई भी विचार मनुष्येतर प्राणियों को नहीं होता और इन चारों बातों का निर्वाह बिना अड़चन के हो, यही इन प्राणियों का सुख है। अतएव इन सभी प्राणियों के सुखका आदर्श एक ही है। परंतु मनुष्य को पूर्ण विकसित अन्त:करण मिला है, इससे उसके शरीर में अहंकार के अतिरिक्त मन, बुद्धि, चित्त-ये तीन वृत्तियाँ और रहती हैं। प्रत्येक अन्त:करण की वृत्तियों के संस्कार विभिन्न होने के कारण प्रत्येक मनुष्य के सुखके आदर्शमें भी विभिन्नता का होना स्वाभाविक है, तथापि समर्थ चिन्तकों ने इन सारे आदर्शो को विवेक से समझने के लिये सुख-दुःख की परिभाषा इस प्रकार की है- (१) *अनुकूलवेदनीयं सुखम्,* (२) *प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्*। यानी (१) *जिस परिस्थिति से अनुकूलता का बोध हो, वह सुख है* और (२) *जिससे प्रतिकूलता का बोध हो, वह दुःख है*। अब यदि इस कसौटी पर सुख-दुःख को कसें तो प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि में अनुकूलता और प्रतिकूलता विभिन्न दीख पड़ेगी; क्योंकि प्रतिकूलता और अनुकूलता का भान होना चित्त के संस्कारों पर अवलम्बित है।
*अब इसके बाद यह देखना है कि प्राणिमात्र सुख की खोज में क्यों लगे हैं? इसके लिये प्राणियों में जो जीव-नामक चेतन अंश हैं, उसके स्वरूप को देखना चाहिये। सत्-चित्-आनन्दघन परमात्मा स्वयं ही अपनी माया का परदा ओढ़कर ईश्वर बनता है और सृष्टि की रचना करके उसका संचालन करता है तथा वही परमात्मा अविद्या का परदा डालकर जीवरूप बन जाता है और संसारमें सुख-दुःखके व्यवहार में फँस जाता है। जीव शुद्धस्वरूप से तो आनन्दस्वरूप यानी सुखरूप ही है; परंतु अविद्या के आवरण के कारण उसका सुखस्वरूप ढक गया है। अतएव भ्रान्त के समान अपने ढके हुए सुख को अपने में न खोजकर बाहर के पदार्थों में खोजता है और अपने ही अन्दर के निरतिशय और अक्षय सुख का स्वयं अनुभव किया हुआ होने के कारण विषयों के संग से प्राप्त होनेवाले क्षणिक सुख से उसको तृप्ति नहीं होती।*
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-16

प्रिय ! मन के हारे हार है , मन के जीते जीत…
(सन्त वाणी)
मित्रों ! सम्पूर्ण दुनिया को जिसने जाना,
उसका इतना महत्व नही है… आपने दूसरों को कितना जाना इसका भी कोई महत्व नही है… महत्व इसका है कि आपने अपने “मन” को ईमानदारी से कितना जाना ।
बाबा आज श्री बाँके बिहारी जी जा रहे थे
तो अकेले मैं ही था…मुझे ही ये शिक्षा मिल
रही थी… “मन के प्रति निरन्तर जागरूकता”
…मैंने हँसते हुये पूछा बाबा – कल एक साधक
सहजता में कह रहे थे कि माला जपने से ..भगवान
का नाम लेने से कोई विशेष लाभ नही हो रहा
…बाबा ने पूछा कितने समय होगये जप करते
हुये उन साधक को ?… मैंने कहा… बाबा ! 3
महीने… बाबा बोले… देखो ! इस
अन्तःकरण में कितनी गन्दगी भरी है… हमारे
कितने जन्म हुये हैं… और उन अनन्त जन्मों
में हमने कितने ही भोग भोगें हैं… उन भोगे
गए भोगों की जो छाप पड़ती गयी हमारे अन्तःकरण
में, तो उसको धुलने में समय तो लगेगा
ही…इसलिए साधक को जल्दी घबराना नही चाहिए
…अपने मन का निरिक्षण करते रहो… और
भगवत् भजन करते रहो । बाबा ने कहा… ये
जो मन है ना… ये विचित्र है…दूसरा करे तो
गलत , और हम करें तो सही… ये मन की चालाकी
है…इसे समझना होगा ।
बाबा बोले एक घटना मैं अपने जीवन की सुनाता हूँ
…ध्यान से सुनना… और हरि ! ये मन कितना
चालाक है इस बात से समझ लेना… बाबा सुनाने
लगे – साधक इस बात से शिक्षा लेंगे…
- मैं 14 वर्ष की उम्र में ही सन्यास ग्रहण कर
लिया था… बनारस में रहता था… और कभी किसी
वस्तु का संग्रह मैंने नही किया… भिक्षा भी
माँगना धीरे धीरे बन्द कर दिया था… मैं
गंगा के किनारे रहता…गंगा के घाट में ही
सोता… और मेरे सामने कोई लाकर फल ..या
रोटी दे देता तो उसे ग्रहण कर लेता था… पर
मैंने माँगना भी छोड़ दिया था । बाबा बोले –
हरि ! ध्यान से सुनना… एक दिन नित्य की तरह मैं श्री विश्वनाथ
बाबा के मन्दिर में दर्शन करने जा रहा था
…तो एक वृद्ध साधू को मैंने देखा… कि वह
साधू तम्बाकू रगड़ रहे थे… मेरे मन में उन
साधू के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न होगई । मैंने
उनसे जा कर कहा भी कि आप जिस मुख से भगवन्
नाम लेते हैं… और उसी मुँह में ये गन्दी
वस्तु डालते हैं…बाबा बोले… उन्होंने
मुझे उत्तर दिया… पर मैं संतुष्ट नही हुआ
और दर्शन करके आगया… । अब दूसरे दिन
प्रातः 3 बजे उठकर गंगा जी की रेत से ही
दाँत मांज रहा था कि तभी मेरे साथ के एक साधू
ने कहा… आपको पायरिया हो गया है
…मैंने कहा… तो ?… बाबा बोले – उन
साधू ने मुझे कोई गुल का मन्जन दिया… जिसमें
तम्बाखू होता है… मुझे पता नही था
…पहली बार मैंने किया तो मुझे उल्टी हो
गयी… तब मेरे समझ में आयी कि ये तो तम्बाखू
है… अब तो ऐसी आदत लगी कि दिन में चार
पांच बार उसी गुल का मन्जन मैं करता था… बाबा
अपनी बात आज मुझ से शेयर कर रहे थे… मुझे
बहुत अच्छा लग रहा था… बाबा थोड़ा रुक कर
बोले… एक दिन मेरा वह तम्बाखू का मन्जन
ख़त्म हो गया… अब तो मेरा मन बेचैन
…पैसे मैं अपने पास में रखता नही था…।
एक विद्यार्थी गंगा जी के घाट में आता था
…मुझे रोज प्रणाम करता था… आज तक मैंने
सन्यास लेने के बाद किसी से कोई वस्तु नही
मांगी थी… लेकिन आज उस विधार्थी से मैंने
कहा… बालक ! ये मन्जन है… ये इसका
डिब्बा है… पायरिया की अच्छी दवा है
…इसको ले आओगे ?…वह बालक गया… पर वह
डाबर लाल दन्त मन्जन लेकर आया… उसने कहा
…बाबा जी ! ये मन्जन उससे अच्छा है
…पर मुझे मन्जन से क्या लेना देना था
…मुझे तो तम्बाखू ने अपने गिरफ्त में ले लिया
था… और मन को ख़ुशी मिल रही थी ।… वह
बालक फिर गया बाजार और जब वह तम्बाखू वाला
मन्जन लेकर आया… और मैं बड़े आंनद से मन्जन
कर रहा था…तभी वह महात्मा मुझे गंगा जी के
किनारे ही बैठे दीखे…और मुझे देख कर
मुस्कुरा रहे थे… मैंने उनकी ओर देखा
…अरे ! ये तो वही महात्मा हैं… जो उस
दिन तम्बाखू खा रहे थे तो मैंने कितना भला बुरा
कहा था… पर ये मुझे देख कर मुस्कुरा क्यों
रहे हैं ?… बाबा बोले… मैंने तुरन्त
अपने हाथ में रखे हुये तम्बाखू के मन्जन को
देखा… ओह !… बाबा बोले… बहुत
पश्चाताप हुआ कि इन महात्मा जी को मैंने
कितना कुछ कहा… पर आज मैं ही इस तम्बाखू के
इतने वश में हो गया कि भजन नित्य कर्म छोड़कर
इसी तम्बाखू के पीछे पड़ गया हूँ । मैंने
तुरन्त उस तम्बाखू के मन्जन को फ़ेंक दिया
…और उन महात्मा जी के चरणों में प्रणाम
करके… फिर गंगा जी में स्नान किया ।
बाबा बोले… हरि ! ये मन है ना… बड़ा
चालाक है… दूसरों में गलतियाँ ही देखता है
…पर स्वयं की गलती जो देखे वही सच्चा साधक
है… ये मन दूसरों में कमी निकालता रहता
है… पर स्वयं में कभी नही देखता कि ,
मैं क्या हूँ… मैं क्या कर रहा हूँ…साधक
वो है… जो अपने मन के प्रति तटस्थ रहे
…मन के प्रति सदैव जागरूक रहे… दूसरों
में गलती देखने की आदत को बदले… स्वयं को
ही शिक्षित करे… मन को निरन्तर शिक्षा देता
रहे…मन को निरन्तर समझाता रहे । बाबा
बोले… रामचरितमानस श्री पूज्य गो. तुलसी
दास जी के द्वारा रचित एक विलक्षण ग्रन्थ है
…उसमें गो. श्री तुलसी दास जी जैसे
महापुरुष भी अपने मन को समझाते रहे हैं
…और उन्होंने कहा भी है… ये राम कथा
मैं किसी और को नही सुना रहा हूँ… ये उपदेश
मैं किसी और को नही दे रहा हूँ… “राम भज
सुनु सठ मना” हे मन ! मैं तुझे समझा रहा हूँ
…कि तू राम को भज ।
हे मन ! श्री राम के भजन को छोड़कर कहीं तुझे
शांति नही मिलेगी… ये पक्की बात है… आप
विषय को भोगिये… आपको अशांति ही
मिलेगी…चाहे आप किसी अप्सरा का ही भोग कर
लो… आप बड़े से बड़े होटलों में या कहीं
और जहाँ प्रशस्त भोग सामग्रियाँ हों ऐसी जगह
का, कई वर्षों तक भोग करते रहो… पर पक्की
बात है कि आपको शांति नही मिलेगी । बाबा
अपनी निजानंद की मस्ती में बोले…पर आप एक
झोपड़ी में भी रहो… सुबह सूखी रोटी और साग
खाओ, ठंडा पानी पीयो…शाम को भी रोटी
और दाल खाकर भजन करो… ध्यान करो… उस
भगवान के प्रेम में डूब जाओ… सच कह रहा
हूँ जो आनंद आएगा… जो शांति मिलेगी, वो
शांति तो स्वर्ग के सम्राट इंद्र को भी
प्राप्त नही होगी । बाबा बोले… इसलिए ये
ध्यान रहे… मन के आधार पर मत चलना
…विवेक के आधार पर चलो… मन तो
भटकाएगा… मन तो गलत रास्ते पर ही ले
जायेगा… पर तुम्हें सदैव मन को समझाते या
ताड़ना देते… या प्रेम से… जैसे भी हो
…उसे सही रास्ते पर लगाते रहो । ये विषय भोग
…ये राग-द्वेष… ये मोह ममता , ये अति
महत्वाकांक्षा… इन सबसे अपने मन को हटाओ
…और “प्रेम साधना” के पथ पर इसे लगाओ ।
श्री बाँके बिहारी जी का मन्दिर आगया था
…फूलों में सजे थे हमारे श्री बाँके
बिहारी लाल, बाबा ने जी भर के दर्शन किये
…और चल दिए… मैंने कहा… बाबा आपने
प्रणाम तो किया ही नही… ? बाबा बोले ओह !
भूल गया प्रणाम करना… क्या करूँ… इस
बाँके बिहारी को निहारते ही मैं सबकुछ भूल जाता
हूँ… देखो ! आज प्रणाम करना ही भूल गया
…बाबा फिर लौटे और साष्टांग प्रणाम किया ।
मैंने बाबा को… एक भजन की पंक्ति गाते हुये
सुनाई…
“यहाँ दम दम में होती है पूजा, सर झुकाने की
फुरसत नही है”
Harisharan

Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877