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June 13, 2025 9:28 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 140 भाग 2″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -99″, (साधकों के लिए)भाग- 20 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

श्री सीताराम शरणम् मम 140 भाग 2″ श्रीकृष्णसखा
‘मधुमंगल’ की आत्मकथा -99″, (साधकों के लिए)
भाग- 20 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग>>>>>>>1️⃣4️⃣0️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

“महारावण” त्रिजटा बोली ।

महारावण ? ये प्रश्न सबके मुँह से निकला ।

हाँ ……….ये क्षेत्र उसी का है …………………त्रिजटा बोल रही थी और हम सब उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे ।

लंकापति रावण …….हे श्रीराम ! आप जिसका वध करके आरहे हैं …..वैसे रावण जैसे तो इसके यहाँ अनेक हैं …….इसके सेवक ही लंकेश रावण से भी शक्तिशाली हैं ………।

इस तरफ आनें से रावण भी डरता था ……….त्रिजटा बोलती रही ।

हाँ एक बार रावण को पकड़ लिया था ………..किसनें महारावण नें ?

मैने पूछा ।

…..नही रामप्रिया ! महारावण के सामनें तो कुछ नही था वो रावण………इसके छोटे छोटे सेवकों नें ही पकड़ लिया था रावण को …..और अपनें घरों में ले जाकर उसके दस सिर में तैल डालकर दीया जलाते थे …….दस दिन तक रखा था रावण को…….फिर एक दिन अवसर पाकर भाग निकला था रावण ।

त्रिजटा बता रही थी कि तभी …………सागर उछलनें लगा ………

और सागर से ही एक विशाल …..अत्यन्त विशाल देह वाला राक्षस निकला ………..यही है महारावण ! ………त्रिजटा चिल्लाई ।

अपनी एक फूँक से ही पुष्पक विमान को इसनें हिला दिया था ।

सब चिल्लाये …………हनुमान मूर्छित हो ही गए थे ।

मेरे श्रीराम नें फिर धनुष में बाण लगाया ………………तभी उस महारावण नें पुष्पक विमान को पकड़ कर घुमा दिया ………..मेरे श्रीराम सहित समस्त वानर गिर पड़े ………………

क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ………….!!!!

🌷जय श्री राम 🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा- 99”

( श्रीवृन्दावन-विहार )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……..

या श्रीवृन्दावन कौ राजा तौ अपनौं श्याम सुन्दर ही है , और प्रजा हैं यहाँ के वन्य जीव , वृक्ष , लताएँ , फल फूल , पशु पक्षी आदि आदि ।

अरे ! कहाँ भटक रहे हो ! क्यों भटक रहे हो ! इधर आओ … देखो तौ कितनौं सुन्दर है जे राजा …और कितनौं प्यारौ है । अपनी प्रजा के संग रहे , संग काम करे , नाचे गावे । आहा ! दुनिया में ऐसौ राजा तुमने देख्यो है ? नही ना ! तौ आज देख ल्यो । कर ल्यो दर्शन या श्रीवृन्दावन बिहारी के ….


गाय दौड़ी आयी है अपने प्यारे छोटे से पालक के पास …पालक हूँ आनंदित है कै अपनी गैयान कौ सम्भाल करे है । कितने प्रेम ते दौड़ी आयी ही जे गाय …लेकिन अपनौं कन्हैया हूँ गाय कूँ पकड़ लेय है ..और बड़े प्रेम ते अपनी पीताम्बरी ते गौ के मुख में लग रह्यो धूल कूँ पोंछवे लग जावे ।

वा समय गौअन के नेत्र बरस पड़ें , हम गोप सखा या झाँकी कूँ देखके आनन्द विभोर है जामें हैं ।

जे तौ कौतुक भयौ नही ….फिर कन्हैया हमते पूछे ….भैयाओ ! कहाँ कियौ जाये कि या श्रीवन के जीव आनंदित हैं जायें ? कन्हैया ने पूछी ही तभी सुबल सखा बोल गयौ ….लाला ! कोयल की बोली बोल ना …….सुबल की बात सुनके सब हँसवे लगे ….कन्हैया अपने सखान के साथ श्रीवन के कुंजन में चले हैं …..और …कुँहुँ , कुँहुँ …कुँहु …..अरे ! कन्हैया ने कोयल की बोली बोली । सब सखा ही प्रसन्न नाँय भए ….श्रीवन के पक्षी हूँ झूम उठे ….कोयल तौ कन्हैया कूँ उत्तर दे रही है ….कन्हैया बाते पूछ रहे हैं । श्रीदामा आगे बोलो ….कन्हैया ! मोर ……अब तौ सारे मोर वहीं आय गए ……श्रीदामा ने कही ….लाला ! मोर की ताईं नाचियौ । अब तौ कन्हैया मोर की तरह नाचवे लगे ….कन्हैया कूँ नाचते भए देखके श्रीवन के सारे मोर उतर आए वृक्षन ते और सब नाचवे लगे …..मध्य में कन्हैया नाच रहे हैं और उनके चारों ओर अनेक मोर । क्या झाँकी ही ।

अब आगे श्रीवृन्दावन में कन्हैया हम सबके साथ बढ़े ………..

बन्दर वृक्षन में बैठे हैं ….और अनेक बन्दर हैं ….ये सब वृक्षन ते पुष्प गिरा रहे हैं कन्हैया के ऊपर ।

यानि अपने वनराजा कौ स्वागत कर रहे हैं श्रीवन के प्रजा ।

लेकिन मन में एक बात आय रही है …कैसौ दिव्य राजा है ! जो अपने प्रजा के संग रहे ….उनकी बोली बोले ….उनके संग नाचे ……ऐसौ अनूठौ राजा कहाँ मिलैगौ ?

अपने राजा कूँ रंजन करते भए देखके वन के जीव आनन्द की अतिरेकता के कारण अब मौन है गये हैं …..आनन्द अति है गयौ …तौ अब कहा ! अब तौ बस सब कन्हैया कूँ निहारवे लगे हैं ….नीरवता फैल गयी है श्रीवन में । ये नीरवता प्रेमजन्य है ।

लेकिन जे का लीला है ?

कन्हैया श्रीवन में आगे बढ़ते ही जाय रहे हैं ….पीछे हम सब सखा हैं …लेकिन तभी सामने कन्हैया ने देख्यो ….एक सिंह , हिंसक जीव सिंह …अब जैसे ही कन्हैया ने सिंह देख्यो …सोई कन्हैया तौ भगे पीछे ……हम नही डरे …हम सखा नही डरे ….लेकिन कन्हैया डर गयौ और वो भग्यो …’मैया री’…..करतौ भयौ भग्यो । लेकिन सिंह तौ बैठो भयौ है ….आनन्द तै बैठ्यो भयौ है ।

अरे देखो कन्हैया कूँ ….मैंने ही दिखायौ ….डरके मारे एक वृक्ष में चढ़ के कन्हैया नीचे देख रह्यो है…..सिंह कूँ सब बन्दर – खो, खो , खो , करके भगानौं चाह रहे हैं …ताकि कन्हैया निश्चिन्त है कै खेले ।

लेकिन सिंह बैठ्यो रह्यो …..बु वहाँ तै गयौ नही …..

अब कन्हैया पीछे ते है कै आगे के लिए निकल गए ।

तभी बलभद्र भैया ने कन्हैया कूँ अपने पास बुलायौ …..फिर आँखिन कूँ देखके बोले ….कन्हैया ! तू थक गयौ है …..तोकुँ नींद आय रही है …सोय जा । कन्हैया बोले …नही भैया ! नींद कहाँ है ? लेकिन दाऊ भैया अब कहाँ मानवे वारे हे ….स्वयं एक कदम्ब के नीचे बैठ गए ….और कन्हैया कूँ पकड़ के अपनी गोद में सुलाय लियौ …….मैंने ही बलभद्र भैया कूँ एक कदली पत्र दियौ ….बाही तै बलराम भैया कन्हैया कूँ पंखा झल रहे हैं ……..अरे ! कितनी जल्दी सोय गयौ कन्हैया । हम सब देख रहे हैं सोते भए कन्हैया कूँ …….कितनौं सुन्दर लग रह्यो है …..अब तौ शीतल वायु चलवे लगी ही …तौ दाऊ भैया ने कदली पत्र रख दियौ …..और अपने प्यारे अनुज कूँ निहारवे लगे हे ।

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ७*

               *🤝 २. व्यवहार 🤝*

              _*धन साधन है या साध्य*_ 

   जीवन-निर्वाह के साधनरूप में धन की प्राप्ति को शास्त्रों में निन्दित नहीं बतलाया है; बल्कि उसकी तो आवश्यकता बतलायी है। शास्त्रों ने तो निन्दा की है धन को ही जीवन का ध्येय बना लेने की और उसकी अनर्गल लालसा की। पर जिसकी बुद्धि सारासार का निश्चय करने में समर्थ नहीं रह गयी है, उसका ध्यान शास्त्रों की चेतावनी की ओर जाना बहुत कठिन है। एक जगह कहा है-

   *जनयन्त्यर्जने दुःखं तापयन्ति विपत्तिषु।*
   *मोहयन्ति च सम्पत्तौ कथमर्थाः सुखावहाः॥*

   अर्थात् धन के अर्जन में दुःख है, विपत्तिकाल में-युद्ध, राज्यक्रान्ति, महामारी, अग्निप्रकोप, बाढ़ तथा भूकम्प आदि के समय धन अत्यन्त संतापदायक बन जाता है। ऐसे समय धनवान् की स्थिति बड़ी करुणाजनक हो जाती है। इसी प्रकार जब बहुत-अधिक परिमाण में धन इकट्ठा हो जाता है, तब वह मनुष्य की बुद्धि को नष्ट कर देता है जिससे वह एक उन्मत्त नशेबाज के सदृश आचरण करने लगता है और फलतः भयंकर विपत्तियों में फँस जाता है। ऐसी अवस्था में धन को कब सुख देनेवाला समझा जाय? शास्त्रकार कहते हैं-

 *दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।*
 *यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥*

    धन की तीन गतियाँ होती हैं- उत्तम गति है- *धन का परोपकार* - दान, पुण्य आदि में सद्व्यय करना। मध्यम गति है- *अपने उपयोग में लाना*। जो धनी अपने धन का इन दो प्रकारों से उपयोग नहीं करता, उसके धन की तीसरी गति होती ही है। किसी भी मार्ग से उसके धनका नाश हो जाता है।

   यहाँ जो धन को अपने उपयोग में व्यय करने की बात कही गयी है, *यह जरा विशेष विचारणीय है। धन की अधिष्ठात्री देवी हैं- श्रीलक्ष्मीजी। लक्ष्मीजी भगवान् की अर्धांगिनी हैं। भगवान् परमपिता हैं। वे सबकी माता हैं। वे यदि अपने घर पधारें तो हम उन्हें अपनी भोग्या न मानकर माता मानें और भगवान् की सेवा में लगा दें, यही कर्तव्य है।* अर्थात् अपने निर्वाह के योग्य धन का अपने लिये उपयोग करें, शेष सारा जनतारूपी जनार्दन की सेवा में लगा देना चाहिये। मनुष्य का जीवन भोगमय न होकर त्यागमय होना चाहिये। धन का उपयोग भोग-सामग्री संग्रह करने में नहीं होना चाहिये। मनुष्य एक बेसमझी के कारण ही भोग-सामग्री इकट्ठी करता है। मनुष्यमात्र सुख की इच्छा करता है और इसीलिये उसकी सारी प्रवृत्तियाँ सुखप्राप्ति के लिये ही होती हैं। वह समझता है कि भोग-सामग्री का जितना अधिक संग्रह होगा, उतना ही सुख अधिक होगा। पर होता है इससे विपरीत। ज्यों-ज्यों भोग के साधन बढ़ते जाते हैं, त्यों-ही-त्यों भोगतृष्णा अधिक-से-अधिक उग्र बनती जाती है और यह तृष्णा ही संसार में बड़े-से-बड़ा दुःख है। सुख भोगमय जीवन में कदापि नहीं है। *सुख है - त्यागमय जीवन में। जिस मनुष्य की आवश्यकता जितनी ही थोड़ी है, उतना ही वह अधिक सुखी है।* अतः जो मनुष्य सुखी जीवन बिताना चाहता हो, उसे धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताओं को कम करना चाहिये और सन्तोष-वृत्ति की शिक्षा लेनी चाहिये।  *'यदृच्छालाभसन्तुष्टः'* गीता के इस ब्रह्मवाक्य को जीवन में उतारना चाहिये। श्रीतुलसीदासजी के कथनानुसार *'जथा लाभ संतोष सदाई'* की वृत्ति बनानी चाहिये। 

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-20

प्रिय ! हे नाथ मेरी यह प्रार्थना है भूलूँ न मैं नाम कभी तुम्हारा…
(सन्त वाणी)

मित्रों ! परसों मैं मथुरा गया था… पर एक बहुत भारी गलती हो गयी… अपनी झोली माला भूल गया…रात्रि में ही मथुरा से आना हुआ था । मेरी आदत रात में सोते समय हाथ में माला जपते हुये सोने की है… और ये बात मुझे मेरे पागलबाबा ने बताई थी… कि रात में जब शयन के लिए बेड में जाओ… तो माला जपते हुये सो जाओ… बाबा कहते हैं – जिसे अनिद्रा की बीमारी है… जिसे नींद की गोली खानी पड़ती है उसके लिए ये विधि बहुत कारगर साबित हुई है… माला जपते हुये सो जाओ… सोते समय माला हाथ में ही रहेगी और जब नींद खुल जाए तो जिस मनके में माला छूटी थी वहीं से फिर जपना शुरू कर दो… तो मेरे बाबा कहते है… शयन करना भी साधना कहलायेगी… (निद्रा समाधिस्थिति) । पर मेरे हाथ में माला नही है… ओह ! मुझ से भूल हो गयी… माला मथुरा में ही भूल गया ।

प्रातः जब मैं 5 बजे बाबा के कुञ्ज में गया तो बाबा ने मेरे हाथ में देखा और पूछा झोली माला कहाँ है ?… मैंने सिर झुकाकर कहा – बाबा ! माला झोली तो मैं कल मथुरा में ही भूल के आगया ।
बाबा नाराज़ हो गये… वाह ! बहुत अच्छा काम किया… हरि ! तुम मोबाईल तो नही भूले ना ? मैं बाबा के व्यंग को समझ गया… चुप ही रहा सिर झुकाये हुये । बाबा ख़ूब बोले… देखो ! जो अपने आपको साधक बोलते हैं… और प्रमाद (लापरवाही) करते हैं… वो साधक कहाँ हैं ?… बाबा बोले… मुख्य बात ये है कि हमारी महत्व बुद्धि किसमें है… और जिसमें महत्व बुद्धि होगी… उसे आप एक क्षण के लिए भी अपने से दूर नही कर सकते… भूलने की बात तो बहुत दूर गयी… । ये क्या है हरि ?… बोलो… इसे कहते हैं प्रमाद , लापरवाह… नही साधक बने हो तो अपने साधन के प्रति जागरूक रहो… और एक मात्र महत्वबुद्धि भगवान में ही लगाओ… नही तो दुःख ही पाओगे ।
मैं नीचे सिर करके रोता ही रहा… बाबा बोले… धन को महत्व मत दो… सांसारिक वस्तुओं को महत्व मत दो… महत्व दो तो एक मात्र भगवान को… और अगर देखा जाए तो महत्वहीन है ये संसार और महत्वपूर्ण है एक मात्र भगवान ।

मैं एकाएक उठ गया… और सिर झुकाये अपने घर की ओर आगया… मथुरा से मेरी माला आ चुकी थी । मैं अपने साधना कक्ष में चला गया और दरवाजा लगा दिया ।
जब मैं बाहर आया तो मेरी दीदी ने , मेरे ही द्वारा कहे हुये वचन रिकॉर्ड कर लिए थे… दीदी बोली… इसे “आज के विचार” मैं डाल देना…साधकों को लाभ होगा ।

  • हे नाथ ! जैसा भी हूँ तेरा हूँ… हे नाथ ! मैं अंदर से बहुत कमजोर हूँ… राग द्वेष अहँकार लोभ मोह में फंसा हुआ हूँ…हे प्राण ! तुम्हारा एक नाम “कृष्ण” भी तो है ना ? और इसका मतलब होता है जो “अपनी और खींचें” तो हे प्रियतम ! मेरे अवगुणों को अपनी और खींचों ना… मेरे अहँकार को अपने में लगा दो ना… ताकि मैं भी अहँकार में ये बोलता हुआ चलूँ कि “कृष्ण” मेरा है… मोह को अपनी तरफ खींचों ना… ताकि मैं तुम पर मोहग्रस्त हो जाऊँ… और तुम्हारे सिवा मुझे कोई याद ही न आये… ओये ! तुम सुन तो रहे हो ना ?…हाँ क्यों नही सुनोगे… तुम्हारा एक नाम “राम” भी तो है ना ?… यानी “जो घट घट में रम रहा है ” तो तुम घट घट में हो… तो मेरी पुकार सुन रहे हो ना ?… (मेरे अश्रु बस बहे जा रहे थे) हे प्रिय ! मैं कुछ नही जानता… न सिद्धान्त, न सम्प्रदाय , न धर्म न मज़हब… कुछ नही… बस एक बात जानता हूँ कि “तुम मेरे हो” हो ना ?… इस दुनिया में कौन है मेरा ?… तुम ही हो… अब तो घबराहट बढ़ती ही जा रही है… लगता है ये साँस रुक ही जायेगी… पर ये साँस रूकती भी तो नही है… लगता है तुम्हारे वियोग में प्राण निकल ही जाएंगे… पर यार ! क्यों नही निकलते ये प्राण ?… ओह ! कहीं ऐसा तो नही… “नाम पहारू”
    श्री किशोरी जी ने भी तो श्री हनुमान जी के माध्यम से तुम को ये बात बताई थी कि “मेरे प्राण तो निकल ही जाते , पर तुम्हारा ये रामनाम पहरेदार बनकर बैठा है”… । मैं भी पागल हूँ ना… नाथ ! मेरा हनुमान कौन है ?… जो तुम तक मेरी बात रखे… हैं ना मेरे हनुमान… मेरे पागलबाबा… हे प्रेम ! इस जन्म में जैसा सुंदर संयोग मिला है…वैसा अगले जन्म में कहाँ मिलेगा ।
    तुम आओ ना ! ये हृदय जल रहा है… तुम क्यों नही समझ रहे ?
    नही नही ! पागल हूँ मैं… मुझे कुछ पता नही है कि तुम से कैसे बोला जाता है…पर मैं जैसा भी हूँ यार ! बस तेरा हूँ… बस तेरा…अब तो बुला ले… अब तो अपने प्रगाढ़ आलिंगन में भर ले ।
    (इतना बोलकर मैं श्री विग्रह के सामने साष्टांग लेट गया )

शाम को सत्संग साधना में गया तो मैं सिर झुकाये था… गौरांगी आई और मुझ से बोली… हरि जी ! कहाँ गये थे आप ?… पता है पागलबाबा सुबह से तुम्हें कितनी बार पूछ चुके हैं… बोलो ना हरि जी ! मैंने कहा ..गौरांगी ! मुझ से बहुत भारी गलती होगई… मेरे बाबा ने जो माला दी थी… उसे मैं कल रात में मथुरा में ही भूल आया था… बस मुझे बहुत रोना आरहा था । मैं बाबा के पास गया… और जैसे ही बाबा के चरणों में प्रणाम किया… बाबा मुझे देखते ही उठे और मुझे गले से लगा लिया… बाबा और हम दोनों ही बहुत रोये… । बाबा ने कहा… माला मिल गयी ? मैंने कहा… हाँ बाबा !… मैंने रोते हुये कहा… बाबा! आज के बाद ऐसी भूल नही होगी । बाबा ने मुझे फिर गले से लगाया इतना आनंद आया कि उस आनंद को बाबा और मैंने हम दोनों ने ही महसूस किया ।

“प्रेम प्रेम सब कोई कहे प्रेम न जाने कोय”

Harisharan

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