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June 13, 2025 9:45 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 140 भाग 3″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -100″, (साधकों के लिए)भाग-21 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग>>>>>>>1️⃣4️⃣0️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

त्रिजटा बता रही थी कि तभी …………सागर उछलनें लगा ………

और सागर से ही एक विशाल …..अत्यन्त विशाल देह वाला राक्षस निकला ………..यही है महारावण ! ………त्रिजटा चिल्लाई ।

अपनी एक फूँक से ही पुष्पक विमान को इसनें हिला दिया था ।

सब चिल्लाये …………हनुमान मूर्छित हो ही गए थे ।

मेरे श्रीराम नें फिर धनुष में बाण लगाया ………………तभी उस महारावण नें पुष्पक विमान को पकड़ कर घुमा दिया ………..मेरे श्रीराम सहित समस्त वानर गिर पड़े ………………

तुरन्त ही एक पर्वत विष बुझा महारावण नें लिया और मेरे श्रीराम के ऊपर फेंक दिया …………….

ओह ! रक्त निकलनें लगा था मस्तक से ………..विमान में ही मेरे श्रीराम भी मूर्छित हो गए ……….मैं चिल्ला उठी …….मेरे नेत्र क्रोध से लाल हो गए थे ………..मेरा मुख मण्डल रौद्र हो उठा था ।

मैं आद्यशक्ति के रूप में प्रकट होनें लगी थी …….मेरी हजारों भुजाएं ….मेरे हजारों नेत्र ……मेरे हजारों मुखमण्डल …………..

चक्र, शंख, गदा , पद्म, खड्ग त्रिशूल इन सबको धारण करके मैं प्रकट हो गयी थी ……..आकाश से देवता पुष्प बरसा रहे थे …………

त्रिजटा लड़खड़ाते हुए खड़ी हुयी थी ……….और वही बोले जा रही थी ……….श्रीराम से इसका वध नही होगा …….हे रामप्रिया ! इसका वध आपही कर सकती हो………आपही इसका उद्धार करो …..।

हे भगवती ! सम्पूर्ण सृष्टि आपको वन्दन करेगी …..इसका शीघ्र वध करो …………..सृष्टि , पालन और संहार आपके द्वारा ही है ……..आपसे ही है ……….आप शक्ति हैं ……….आप ब्रह्म की आद्य शक्ति हैं ………..अपनें स्वरूप को पहचानिये ।

वो महारावण पुष्पक विमान को लेकर जा रहा था ……………..

मैने मात्र अपनें एक अंगूठे से उसकी गति रोक दी …………महारावण से अब चला नही जा रहा था …………वो क्रोधित हो उठा ………….उसनें पुष्पक विमान को फेंक दिया दूर अंतरिक्ष में ।

हम सब लोग पुष्पक विमान में ही थे …………..पर मैने विमान को सम्भाला …….और क्षण में ही वो विमान फिर महारावण के सामनें आगया था ……..अब वो सम्भल पाता या हम पर प्रहार की कोशिश करता उससे पहले ही मैने उसके ऊपर गदा का प्रहार किया ………उसका मस्तक फट गया ……..रक्त के फुब्बारे निकले ।

वो चीखते हुए सागर में ही गिर पड़ा …….उसके गिरनें से ऐसी लहरें उठीं थी सागर में जैसे प्रलय का ही दृश्य उत्पन्न हो गया हो ।

सब जयजयकार कर रहे थे मेरी ………पर मैने अपनें श्रीराम को जब देखा ……..वो मूर्छित हैं ……..मैं तुरन्त अपनें रूप में आगयी थी ….. मैने अपनें श्रीराम को गोद में लिया ……उनके मस्तक को सहलाया ……….तब उनकी मूर्च्छा टूटी ।

हनुमान भी उठ गए थे ………अन्य सब होश में आगये थे ।

पर महारावण का वध मेरे द्वारा हुआ ये बात किसी को पता नही चली ।

हाँ तब से मुझे त्रिजटा बहुत मानने लगी थी ………..मुझे “भगवती” कहती थी इस घटना के बाद से ।

शेष चरित्र कल ………….!!!!

🌷जय श्री राम 🌷
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-100”

( मल्लक्रीड़ा )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ………

एक घड़ी ही सोयौ होयगौ कन्हैया …उठ गयौ । बलभद्र बोले ….इतनी जल्दी क्यों ? अभी तौ समय बहुत है घर लौटवे में कन्हैया ! और गैया हूँ अभी चर रही हैं ….लाला ! सो जा । बलराम फिर कन्हैया कूँ सुलानौं चाह रहे हैं ।

लेकिन ……
भैया ! अब नींद नही आय रही …..कन्हैया कूँ अब सोनो ही नही है ….वो अब उठ ही गए ….और अँगड़ाई लै वै लगे । तभी दूर ……श्रीदामा और मैं ( मधुमंगल ) हम दोनों यमुना के तट बालुका में मल्ल खेल रहे हैं ।

मधुमंगल ! कन्हैया ने मोकूँ आवाज़ दियौ तौ मैं बा माहूँ देखन लगौ तभी श्रीदामा ने उठाय के मोकूँ पछाड़ दियौ । धत्त ! ऐसे थोड़े ही होय ….मैंने श्रीदामा ते कही ….तब तक कन्हैया हूँ मेरे पास आय गयौ …..और कन्हैया के आते ही सारे ग्वाल बाल अब मेरे पास ही आय गए हे ।

तुम लोग कहा खेल रहे हो ? कन्हैया हमते पूछ रह्यो है ….मल्ल युद्ध सीख रहे हैं ….श्रीदामा ने कही । मोकूँ हूँ सीखनौं है …..कन्हैया ने कही ।

नही , कन्हैया ! तू मत खेल …..सुबल सखा कूँ जे प्रिय नही है मल्ल । और वैसे भी कन्हैया कौ श्रीअंग युद्ध करवे लायक थोड़े ही है ….कितने कोमल अंग हैं याके ! नही , मत खेल । सुबल सखा कूँ चिढ़ मचे जा जुद्ध कौ खेल खेलवे में ….काहूँ के हाथ पाँव टूट गए तौ ? कन्हैया ने सुबल ते धीरे कही …..इन सबकी तौ अभी छुट्टी करूँ ….सुबल ! तू देख ।

मेरी ओर देखके कन्हैया अब ताल ठोकवे लग्यो ……..

मैं हूँ आगे बढ्यो और कन्हैया चित्त ।

ऐसे नही , ऐसे थोड़े ही होवे …….कन्हैया खिसियारो …..मैंने कही तौ कैसे होवे ? थोड़ी देर मल्ल युद्ध खेलें तौ ….तू तौ सीधे गिराय रो है । कन्हैया की बात सुनके मोकूँ बड़ी हँसी आयी …..कन्हैया मोते बोलो ….मधुमंगल ! मोकूँ सिखाय दे मल्ल । मैंने हँसते कही …..तौ जे कह ना ….कि तोपे अभी आबै ही नही है मल्ल लड़वौ । कन्हैया ने कही …मोकूँ कहाँ आवै ।

अब तौ मैं ही गुरु बन गयौ …….वैसे मोते बढ़िया मल्ल दाऊ भैया जानें ….मैंने कन्हैया ते कही भी लेकिन सारौ माने नही है …..कह रो – दाऊ कूँ नही आवै …..मधुमंगल ! तू ही सिखा ।

अब तौ मोकूँ सिखानौं पड्यौ ……..

यमुना की भूमि में ….जहां कोमल बालुका है ……कन्हैया और मैं …..बाकी सब ग्वाल सखा मल्ल खेल देखवे कूँ ठाढ़े हैं ……

पहले तौ तू सिखायेगौ ना ? कन्हैया की बात पे आज मोकूँ बहुत हँसी आय रही है ….जब जब मैं तैयारी करतौ , ताल ठोकतौ तभी कन्हैया डरके कहतौ …..तू सच्ची में तौ नाँय पटकेगौ ?

मैंने कही बाते …..चिन्ता मत कर …चोट नही लगेगी तेरे ।

मधुमंगल ! सम्भाल के ….लाला कोमल है ….सुबल सखा कह रो । कछु नही होयगौ कन्हैया कूँ …..तेरी तरह छोरी थोड़े ही है कन्हैया ….मैंने कही । देख रो है कन्हैया ! जे सारौ मधुमंगल मोकूँ छोरी कह रो है ।

अब मल्ल खेल आरम्भ भयौ ……….

मैंने कही …कन्हैया ! पहले अपनी धोती उठाय के घोंटू तक बाँध ….कन्हैया ने वही कियौ ….फिर अपने कुंतल केश कूँ पीछे माहूँ बाँध लियौ …..मेरी तरह कन्हैया ने ताल ठोक्यो…..लेकिन या बार हूँ …..मैंने कन्हैया कूँ चित्त । अबकन्हैया चिढ़ गयौ । मधुमंगल ! मोकूँ सिखा । फिर मैंने सिखायौ कि …पहले पंजा मिला …ऐसे ….फिर थोड़ौ मोड़के , सामने वारे कूँ टंगड़ी मारके ऐसे गिरा दे । मैंने तीन बार कन्हैया कूँ गिराय दियौ ……लेकिन या बार तौ कन्हैया सावधान हो …पूरौ सावधान । मैं दाऊ भैया कूँ देख रह्यो ….दाऊ भैया मेरे पास आय के बताय रहे …मल्ल कौ दांव पेंच ….तभी कन्हैया पीछे तै आयौ और मेरे पाँमन्ने पकड़ के मोकूँ गिराय दियौ …..अब तौ स्वयं विजयी । कोई कहे या न कहे …..मैंने मधुमंगल कूँ गिराय दिए ……मैं जीत गयौ …..अब सब ग्वाल सखा हूँ ताली बजा रहे ।

मैंने कन्हैया ते कही ..ऐसे नही होवे ।

मधुमंगल ! दाऊ भैया ते पूछ लै ..कन्हैया बोल्यो तौ मैंने कही ……तुम दोनों एक ही हो ……

तभी दूर ते हँसते भए दाऊ भैया बोले …”कन्हैया जीत गयौ”। सोई मैंने कही ….”एक बेल के दो तूमरा” कल्लू बल्लु । मैं ग़ुस्सा है कै यमुना में जाय के बैठ गयौ हो ….इधर कन्हैया कौ विजय उत्सव चल रह्यो है ।

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ८*

               *🤝 २. व्यवहार 🤝*

              _*धन साधन है या साध्य*_ 

   भोगी का तो भोग में ही चित्त व्यग्र रहता है। उससे सुख-शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता, पर सन्तोष से चित्त शान्त रहता है और उस समय सुख-शान्ति का अनुभव होता है। पातंजल योगदर्शन में भी कहा है- 

‘सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः॥’ (२/ ४२)

   अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा न हो, ऐसा अप्रतिम सुख प्राप्त करना हो तो सन्तोषवृत्ति को धारण करना चाहिये। *'सन्तोष ही सुख है'* - यह एक महामन्त्र है, इसको सतत स्मरण रखना चाहिये।

   इस छोटे-से निबन्ध में हमने देखा कि जीवननिर्वाह के साधन के तौर पर धन कमाना आवश्यक है, परंतु धन की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय नहीं बन जाना चाहिये। फिर, धन की प्राप्ति भी न्याय और नीति के मार्ग से ही होनी चाहिये। अन्याय और अधर्म से आया हुआ धन नरकों में ले जाता है। साथ ही धन का उपयोग भी भोगसामग्री के संग्रह में नहीं होना चाहिये; अपितु अपने उपयोग के लिये आवश्यक धन के अतिरिक्त शेष धन को परोपकार में लगाना चाहिये।

   अब जीवननिर्वाह कैसे करें? इसको योगवासिष्ठ के इस एक श्लोक में समझना चाहिये-

आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्धं कुर्यादाहारं प्राणसन्धारणार्थम्।
प्राणा: सन्धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थं तत्त्वं जिज्ञास्यं येन भूयो न दुःखम्॥

   शरीर है, इसलिये उसके निर्वाहार्थ न्यायमार्ग से धन कमाना चाहिये। शरीर को बनाये रखने के लिये आवश्यक आहार-विहार करना चाहिये। खान-पान के लिये जीवन नहीं, पर जीवन के लिये खान-पान है। इस सूत्र को याद रखना चाहिये। जीवन को बनाये रखना चाहिये भगवत्प्राप्ति के लिये और भगवत्प्राप्ति इसी जीवन में कर लेनी चाहिये, जिससे पुनः गर्भवास का दुःख न भोगना पड़े। यह नियम जैसे व्यक्ति के लिये सुखरूप फल देनेवाला है, वैसे ही समष्टि के लिये। जो व्यक्ति या समाज इसका पालन करेगा, उसको दुःख नहीं भोगना पड़ेगा।

   भौतिकवादका सिद्धान्त इससे सर्वथा उलटा है, वे कहते हैं- *'तुम अपनी आवश्यकताओं को घटाओ मत, पर उनको प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करो।'* आवश्यकताओं को ज्यों-ज्यों पोषण मिलेगा, त्यों-त्यों वे बढ़ती ही जायँगी और इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयत्न में ही बीत जायगा। इतने पर भी आवश्यकताओं की प्राप्ति अधूरी ही रहेगी। इसी का नाम निष्फल जीवन है और इसी से हमारे लिये यह सिद्धान्त उपयोगी नहीं है।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-21

प्रिय ! नित नव उत्सव, नित अनुराग
(सन्त वाणी)

मित्रों ! कल पागलबाबा शाम को “मानसरोवर”
(वृन्दावन के निकट, जिसमें श्री किशोरी जी मान
करके बैठ गयी थीं) में गये ।
गौरांगी की एक मौसी आयी थी …पंजाब अमृतसर
से …उसने मानसरोवर के कुञ्जों में “दाल
बाटी” के प्रसाद का कार्यक्रम रखा था …बाबा
को गौरांगी बहुत मना कर ले गयी थी …बाबा के
लिए ही तो था ये सब । मेरे यहाँ मेरे एक
मित्र जनकपुर धाम से आये हैं …मैंने गौरांगी
को बोल दिया था कि मैं आऊँगा भी तो थोड़ा लेट,
और जल्दी निकल जाऊँगा । हरि जी ! आप भी ना ।

मैं पहुँचा मानसरोवर । मैंने जाते ही कहा
…यार ! जल्दी करना …प्रपंची !
…गौरांगी बोली । मैंने कहा …अच्छा
बाबा कहाँ हैं?
क्यों बाबा के बिना कुछ भी अच्छा नही लगता ?
मैंने कहा ..हाँ यार ! कुछ भी अच्छा नही लगता
…कल मैं अपने मित्र को लेकर गाड़ी से जब
निकलता था तो बाबा के कुञ्ज से ही …उस समय
मेरा मन गाता था…”जिस गली में तेरा घर न हो
बालमा”..।
हम दोनों बहुत हँसे …। बाबा एक कुञ्ज में
बैठे हैं …साधक लोग चारों ओर हैं
…मोर नाच रहा है …अरे ! एक मोर तो
बाबा के हाथ से दाने चुग रहा है । सामने
मान सरोवर है …राजस्थानी पत्थरों के
पच्चीकारी की चार बुर्जियां बनी हैं …। बादल
छा गये हैं …पद का गायन हो रहा है –
मैं शान्तमन से बैठ गया …पर मेरा मन
प्रेममय हो गया । “दिव्यप्रेम” ।

“हे राधिके ! तुम कितनी दिव्य और अपूर्व
प्रेममयी हो …अरे ! जिस ब्रह्म का पार वेद भी
नही पाते …उन्हें तुम अपना अधरसुधा पिलाती
हो । जिसे बड़े बड़े योगिन्द्र भी अपने
ध्यान में नही खोज पाते …उनको तुम अपने
केश की वेणी के लिए फूल बिनवाती हो “

ये पद के भाव थे ।

मैं आनंद से बैठा था …कितना प्रेमपूर्ण
वातावरण था ।

एक साधिका ने उठकर बाबा से प्रश्न किया
…बाबा ! मेरे घर में अनुकूलता नही है
..भजन के लिये अनुकूलता…मैं एक घर की बहु
हूँ ।

देखो ! प्रतिकूलता में ही भजन
होता है …हाँ …और अगर तुम सच्चे साधक
हो तो प्रतिकूलता तुम्हारे लिए वरदान साबित
होगी …हाँ …(बाबा पूरे आत्मविश्वास से बोले) …देखो ! जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता की चिन्ता से पहले हम मुक्त हों …ये इस संसार का नियम ही है…हमें इसको लेकर ज्यादा परेशान नही होना है …अपनी क़ीमती ऊर्जा को नही खोना है । इसलिए जो सच्चा साधक है वो तो ख़ुशी मनाता है …हाँ …अब देखो ! महात्मा गांधी जी , जब अंग्रेज
उनको पकड़ कर जेल ले जाते थे तो वो आनंदित होते थे कि देखो …अब जेल में हम गीता पर चिंतन
करेंगे और उस पर लिखेंगे ।
गौरांगी आकर बैठी…बाबा बोल रहे हैं
…सब साधक शान्त भाव से …कोई उस वृक्ष
के नीचे …कोई इस कुञ्ज पर…।
…आँखें बन्द करके । बाबा आंनद से बोल
रहे हैं…प्रतिकूलता ही तो साधकों की परीक्षा
है
…एग्ज़ाम । अरे ! तुम गलत काम तो कर
नही रही हो …भगवन् नाम ही तो ले रही हो
…और अगर ज्यादा दिक्कत है तो मन में जप
लो …बाबा भी विचित्र हैं …बाबा बोले
मुँह को बन्द कर लो …होंठ बन्द रहें …थोड़ी
हवा भर लो मुँह में …फिर भीतर जीभ ख़ूब चलाते
हुये नाम लो …पर मुँह हिलता हुआ दिखेगा
…ज्यादा लोगों के बीच में भी नही …। हम
सब हँसे ।
और देखो ! मुँह में नाम लेते हुये जो लार बनती
है ना ?…वो तुम्हारे शरीर के लिए अमृत है
…”नामामृत” ..।

एक साधक ने प्रश्न किया बाबा ! साधक कैसे बनें
?
…हम सब लोग सुन रहे हैं …बाबा बोले
…दिनचर्या ठीक रखो पहले …सुबह जल्दी
उठो ..5 बजे तक ..देर तक सोने से क्या लाभ
बताओ ? उसके बाद स्नान करके ध्यान करो …थोड़ा समय दो …ध्यान और ध्यान के साथ नाम जप …हाँ

बाबा बोले- तुम लोग समझ नही रहे हो …माला
जपने से बहुत लाभ है …मन ठीक रहेगा
…और मन के कारण शरीर भी ठीक रहेगा ।
संग अच्छा रखो …ऐसे व्यक्तियों के संग में
रहो …जिसके संग से तुम में सकारात्मक
ऊर्जा आये . .। फिर मन शान्त होने लगेगा
तब तुम मन की गति, मन का एक्शन, मन का रिएक्शन, मन को समझने का प्रयास करोगे…यही साधना
है । पर सत्संग नित्य चाहिए ये याद रहे ।

एक साधक ने अंतिम प्रश्न करना चाहा तो गौरांगी
ने उठकर कहा …अब बाबा प्रसाद पायेंगे
…आप लोग भी लाइन से बैठ जाएँ …श्री
किशोरी जी को भोग लगके आगया है । पर बाबा
ने उस साधक को प्रश्न पूछने को ही कहा
…गौरांगी को देख के मैं हँसा
…गौरांगी मेरे पास आकर बोली …हमारे बाबा
भी ना …सबका कितना ख्याल रखते हैं । उसने
प्रश्न
किया – बाबा ! मुझे मेरे परिवार वाले कहते
हैं कि ये भजन और भक्ति के लाइन में मत जा
…बाबा बोले …उनसे पूछो की फिर किस
लाइन में जाएँ ..? बताओ ? …अरे ! भाई
! ये भगवत् भक्ति तो तुम्हे वो सब दे देगी
जिसके बारे में तुम सोच भी नही सकते हो ?
…मन का शान्त होना ही सही स्वास्थ
की पहचान है । विचित्र बात है
…महत्वाकांक्षा की आग में अपने हृदय को
जलाते रहें …तो परिवार वालों के लिए सही है
…पर हृदय को अत्यंत शीतल रखने वाली ये
साधना ठीक नही है ! …देखो ! मैं फिर
कहता हूँ …इस लाइन में एक मात्र शरणागति
लेनी पड़ती है , भगवान की । वो भगवान जो
निराकार है …तो ब्रह्म , और जो रम रहा है
…इसलिए वह राम है …और जो असीम आकर्षण
से भरा हुआ है वो कृष्ण है ।
बाबा हँसते हुये बोले – एक कृष्ण भक्त ने अपने
राम भक्त से कहा …कोई बात नही …”रा” का
अर्थ राधा , और “म” का अर्थ माधव …यानी राधा
माधव ..यानी “राम” । …बाबा बोले …वो भी
श्री राम भक्त था …उसने कहा …तुम्हारे
मथुरा में भी राम हैं …उस कृष्ण भक्त ने
कहा …कैसे ?…बोले …मथुरा …उल्टा
करके पढ़ो …राथुम…अरे ! पर उस “थू”
को कहाँ ले जाएँ …? वो राम भक्त बोला
…जो ऐसा नही मानता उसके मुँह में ।
बाबा ख़ूब हँसे …हम सब हँसे ।
प्रसाद पाये … । गौरांगी ने अपने
हाथ से परोसे … हम सबने श्री जी की
प्रसादी पाई …। और बाबा को गाड़ी
में विराजमान करके मैं लेकर आया ।

जनकपुर के मेरे मित्र आये हैं …वो इंतज़ार ही
कर रहे थे …श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन
करने गये …।

“तुम्ही हो बन्धु सखा तुम्हीं हो”

Harisharan

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