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July 1, 2025 10:44 am

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रथ यात्रा, जो कि भगवान जगन्नाथ की यात्रा के रूप में प्रसिद्ध है, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण त्योहार है। इस यात्रा के दौरान विशेष रूप से 5वें दिन लक्ष्मी जी का भगवान जगन्नाथ से मिलने का महत्त्व है। : अंजली नंदा

“ध्यान एवं चिंतन” एक महत्वपूर्ण विषय है जो मानसिक शांति, आत्म-जागरूकता और व्यक्तिगत विकास से संबंधित है। ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने मन को एकाग्र करता है : अंजलि नंदा

जिस सदस्य पर बकाया है वह सोसायटी की बैठक में शामिल नहीं हो सकेगा, शिकायतों पर सुनवाई नहीं होगी। जिस सदस्य पर 3 महीने से अधिक का भारण-बकाया है, उसे सोसायटी में डिफॉल्टर माना जाएगा: सुप्रीम कोर्ट। बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के तहत पंजीकृत सोसायटियों पर लागू होगा सुप्रीम कोर्ट का फैसला

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श्री सीताराम शरणम् मम 142 भाग 1″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -102″, (साधकों के लिए)भाग- 25 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

चित्रकूट ! मुझे बहुत आनन्द आया ………..मैं पुष्पक विमान से चित्रकूट की शोभा देखनें लगी थी …………….पर विमान हमारी इच्छा अनुसार ही चल रहा था ……….उसकी गति मन्द हो गयी …….वो चित्रकूट में ही उतरा ……………नाथ ! कोल किराँत भील देखिये ! सब आगये …………।

विमान के उतरते ही वहाँ के सभी भोले भाले लोग उछलते कूदते हाथ में भालों को उछालते हुए आ पहुँचे थे ।

लक्ष्मण भैया ! देखो ! हमारी पर्णकुटी वैसी ही है ……….

मेरे श्रीराम नें मेरी और देखा और मुस्कुराये बोले – इन्हीं लोगों नें देख भाल की है तभी पर्णकुटी सुरक्षित है ….।

त्रिजटा नें मुझ से पूछा ………….रामप्रिया ! आप लोग यहीं रहते थे ?

हाँ त्रिजटा ! 12 वर्ष तक हम लोग यहीं रहे हैं ……………

मेरी बात सुनकर त्रिजटा आनन्दित हो उठी ………हनुमान सुग्रीव जामबंत विभीषण इत्यादि के साथ त्रिजटा भी उतरी ……….मैनें अपनें श्रीराम की ओर देखा …………उन्होनें इशारा करके कहा …….उतरो !

मैं उतरी विमान से ………….ओह ! मुझे देखते ही पक्षियों नें हल्ला मचाना शुरू कर दिया था …………….हिरण उछलते हुए मेरे पास आनें लगे …………..लक्ष्मण ! देखो ! ये वही हिरण ………….जो मेरी गोद में ही पड़ा रहता था ……….कितना बड़ा हो गया ना !

लक्ष्मण हँसे………वो हिरण मुझे छोड़ ही नही रहा था ।

सारे बन्दर आगये थे………वो सब बहुत खुश लग रहे थे ।

केले ……मधु का छत्ता …………बन्दरों नें लाकर मेरे सामनें रख दिया ……..मेरे नयनों से अश्रु बह चले थे …………….।

भाभी माँ ! देखो ! ये आम्र का वृक्ष आपनें ही तो इसे रोपा था ……..आज देखिए इसमें बौर भी आगये हैं ………….।

मैं बहुत खुश थी ………….फिर त्रिजटा का हाथ पकड़ कर ले गयी ……….देख ! त्रिजटा ! यही वह जगह है जहाँ मेरे श्रीराम मुझे फूलों से सजाते थे ………मैं ये कहते हुए लजा गयी थी ।

भीलों का झुण्ड आगया था वहाँ ……………………सबके नेत्रों से प्रेमाश्रु ही बह रहे थे …………………विमान से उतरनें की सबनें प्रार्थना की मेरे श्रीराम से ……….पर मेरे श्रीराम नें कहा ………भरत मेरी प्रतीक्षा में है …….मुझे शीघ्र चलना होगा ।
हम सब वापस विमान में बैठ गए थे ।……….वैदेही ! आप सबको निमन्त्रण नही देंगीं अयोध्या आनें के लिए ? राज्याभिषेक में !

मेरे श्रीराम नें मुझे कहा ……….मैने समस्त भील भिलनियों से हाथ जोड़कर कहा …….आप सब आइये हमारी अयोध्या !
हमें भी अब अवसर दीजिये आपके सत्कार का !

क्रमशः …..
शेष चरित्र कल …..!!!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-102”

( गेंद कौ खेल, कालीदह में )


कल तै आगे कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……

अब कन्हैया अपने अश्रुपूरित नेत्रन तै अपने सखान कूँ देख रहे हैं ……मृतवत सब धरती पे पड़े हैं …..सखा तौ हैं हीं ….लेकिन गौअन की स्थिति भी यही है …..अब तौ कन्हैया ते जे सब देखनौं असह्य है रह्यो है …..बैठ गए कन्हैया और अपने सखान कूँ देखके रोयवे लगे …..मेरे सखा ही मेरे प्राण हे ….लेकिन …..और जे गौ ! जे तौ हम गोपकुल की आराध्या हैं …..ओह ! मेरे होते जे सब है गयौ ! मैं तौ इन गोपन कौ सहचर हूँ ना ! फिर इनकी ऐसी दशा क्यों ? कन्हैया बिलख उठे हे । कन्हैया एक एक सखा के मुख कूँ देख रहे हैं ……मैं अब कैसे लौट के जाऊँ ? मेरी ओर देखते भए कन्हैया बोले ….सखा मधुमंगल ! तू बता भैया ! मैं नन्दगाँव कैसे जाऊँ ? इन सखान की मैया मेरे पास आयके पूछेगी …..मेरौ लाला तौ तुम्हारे साथ गौ चारण में गयौ हो …फिर वो चौं नही आयौ ? मधुमंगल ! मैं उन मैयन तै कहा कहूँगौ ? कि यमुना जल पान करके मर गए ? कन्हैया के मुख तै जब मैंने जे बात सुनी …तौ मेरौ ध्यान गयौ नभ माहूँ ….तभी ऊपर तै एक पक्षी उड़ रह्यो …..लेकिन वाकूँ खींच लीयौ यमुना के विष ने , और पक्षी गिर्यौ यमुना में ।

मैंने कन्हैया तै कही ….कन्हैया ! या यमुना के हृद में तौ विष है । कन्हैया ने अपने अश्रु पोंछे …..और गम्भीर भाव तै उठे ….अपने सखान कूँ देखते भए पीयूष वर्षिणी वेणु नाद कियौ । आज अलग ही स्थिति ही कन्हैया की …….

वेणु नाद दो घड़ी तक कन्हैया ने कीयौ …..ओह ! लेकिन जे तौ होनौं ही हो ….सखा सब जीवित है गए …..बारी बारी तै सब उठे ……

वैसे एक बात कहूँ ….कन्हैया रोय रो ……सखा और समस्त गौ मृत पड़े है …लेकिन मोकूँ रोनौं नही आयौ ….मोकूँ लग रो जे हूँ कोई खेल है ….कोई खेल कन्हैया खेल रह्यो है ….वैसे सब कन्हैया कौ खेल ही तौ है । या लिए मैं शान्त हो ।

अब तौ सब सखा उठ गये …..कन्हैया कूँ सबने घेर लियौ ……फिर “कन्हैया लाल तेरी जय जय जय”….कहते भए सबने कन्हैया कूँ कन्धे में उठाय लियौ । कोई सखा कह रो ….कन्हैया ! या यमुना के जल में विष है ….तू उधर जानौं नही । कन्हैया बस हँस रहे हैं ।

मैं समझ गयौ कि लीला तौ अभी बाकी है ………

तभी कन्हैया मेरे पास आयौ तौ मैंने बाते कही ….अब कहा करनौं है ?

गेंद है ? मैंने कही …मेरे पास तौ है नही ….लेकिन गेंद तै तू करेगौ कहा ? मैंने मधुमंगल तै कही ….मोकूँ पूजा करनी है …..या लिए गेंद चहिए । मैंने कही …धत्त् ! गेंद कोई शालिग्राम हैं जो तू बाकी पूजा करैगौ ? कन्हैया भी बोले ….बड़ौ ही सूधौ है तू मधुमंगल ! गेंद काहे कूँ चहिये …खेलवे कूँ ना ! तौ तेरे पास गेंद होय तौ दे ….हम सब खेलेंगे ।

मैंने कही …मेरे पास नही है । मैंने कह दियौ । फिर मैंने धीरे तै कही ….श्रीदामा के पास गेंद है …..रेशम की गेंद ….बाते माँग । कन्हैया श्रीदामा के पास गए …..श्रीदामा ने समझ लियौ कि मैंने ही भेजौ है गेंद के काजे कन्हैया कूँ ……तौ श्रीदामा ने कही ….कन्हैया ! गेंद तौ दे दूँगौ …..लेकिन पहले मैं खेलूँगौ । कन्हैया ने कही ….श्रीदामा ! तू गेंद की धौंस दिखाय रो है !

श्रीदामा ने कही ….रेशम की सुन्दर गेंद मेरे बाबा ने बनाय के मोकूँ दई है …..अगर कहीं खो गयी तौ ? कन्हैया बोले …एक गेंद खोय गयी तौ चार गेंद लै लीयौ ।

जे बात सुनके श्रीदामा ने कन्हैया कूँ गेंद देय दई ।

अब तौ गेंद कौ खेल चल पड्यो ……मैदान है …..आस पास एक कदम्ब कूँ छोड़के कोई और वृक्ष नही हैं …….या लिए कंदुक कौ खेल खूब बढ़िया चल रह्यो हो ……कन्हैया के हाथ में गेंद है ….श्रीदामा ने कही …मेरी ओर ……कन्हैया हंसे …..और गेंद फेक दियौ ….यमुना हृद में ।

ओह , खेल बन्द …….

सब कन्हैया के माहूँ देख रहे हैं ……कन्हैया शान्त भाव तै खड़े हैं …..लेकिन श्रीदामा कूँ रिस आय रही है ….कन्हैया ! जे का कियौ तैनैं ? श्रीदामा रिस में बोल्यो । कन्हैया ने कही …गेंद गयी कारीदह में ……तैनैं जान बूझ में गेंद यमुना में डारी है । कन्हैया ने या बात कौ उत्तर नही दियौ और यमुना माहूँ देखवे लगे । इधर देख ….कन्हैया ! मेरी बात कौ उत्तर दै । कन्हैया ने कही …कौन सी बात ? कि तैनैं मेरी गेंद यमुना में काहे कूँ फेंकी ?

तू ऐसी गेंद मोते सौ लै लियौ …अब तौ ठीक है ना ? कन्हैया के मुख तै जे सुनवे के बाद श्रीदामा
रोष में बोल्यो …..सुन लाला ! खेल में कोई छोटौ बड़ौ नही होय करे है …या लिए “मैं मुखिया कौ बेटा हूँ” जे अहंकार अपने मन तै निकाल दै ।

श्रीदामा बोल्यो ….तेरे पास दस गैया हमते अधिक हैं याते कोई अन्तर नही पड़े …समझे ?

कन्हैया हँसते भए बोले ….अच्छा भैया ! समझ गयौ मैं …..अब का करूँ ?

मेरी गेंद दै ….श्रीदामा ने कही ।

कहाँ तै लाऊँ ….गेंद गयी गुड़ खायवे …..कन्हैया हँस के बोले ।

श्रीदामा ने ग़ुस्सा में आय के कन्हैया की अब फेंट पकड़ लई ……बता मेरी गेंद लायगौ या नही ?

कन्हैया बोले …कहाँ तै लाऊँ गेंद ? यमुना तै ला श्रीदामा बोल्यो ।

कन्हैया ने बाही समय श्रीदामा तै अपनी फेंट छुड़ाई और भागे …..श्रीदामा हूँ पीछे भग्यौ ….लेकिन कन्हैया उछलते भए बाही कदम्ब में चढ़ गए ….जो वहाँ इकलौतौ कदम्ब वृक्ष हो ।

श्रीदामा ने कही ….तू नीचे आ …..कन्हैया बोले ….तेरी गेंद लैवै जाय रो हूँ …..

अरे ! नही ….श्रीदामा चीख उठ्यो । आजा ! अब तौ हम सब भी कहवे लगे ….खेल अब खेल नही रह्यो हो …..कन्हैया बा विष भरे हृद में कूदवे जाय रहे । ओह !

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - १२*

               *🤝 ४. व्यवहार 🤝*

               _*मानव जीवन के लक्ष्य*_ 

यः प्राप्य मानुषं देहं मुक्तिद्वारमपावृतम् ।
गृहेषु खगवत् सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ॥
(श्रीमद्भा० ११/७/७४)

   'मोक्ष के खुले द्वाररूप मनुष्यशरीर को पाकर भी जो पक्षी की तरह घर में आसक्त रहता है, उसे 'आरूढच्युत' समझना चाहिये।'

   यहाँ *'आरूढच्युत'* शब्द समझनेयोग्य है। *'आरूढ'* का अर्थ है ऊपर चढ़ा हुआ, एकदम चोटी या शिखर पर पहुँचा हुआ और *'च्युत'* अर्थात् बिलकुल नीचे पड़ा हुआ। इस शब्द के बदले बहुधा *'आरूढपतित'* शब्द भी व्यवहृत होता है। तात्पर्य यह है कि चौरासी लाख योनियों में मानवशरीर सर्वोत्तम है। देवतालोग भी मानवशरीर की अभिलाषा करते हैं। स्वर्ग में तो केवल भोग-विलास ही है और उसकी अवधि पूरी

होनेपर ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’– इस गीतावाक्य के अनुसार पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है। अतः मनुष्यशरीर प्राप्त होनेपर कहा जाता है कि प्राणी प्रगति के शिखर पर पहुँच गया है और शिखर पर पहुँचने के बाद भी जो मनुष्य अपने कर्तव्य को नहीं करता-नहीं बजा लाता, अर्थात् जिस काम को करने के लिये उसको मानवशरीर मिला है, उस काम को नहीं करता-मोक्ष की प्राप्ति नहीं करता और विषय-भोग में ही जीवन खपा देता है, तो उसको पुनः चौरासी लाख योनियों के चक्र में घूमना पड़ता है। यही भाव है ‘आरूढच्युत’ शब्द का ।

   श्लोक का भावार्थ तो इतना ही है कि मानवशरीर मिला कि मोक्ष-मन्दिर का द्वार खुल गया। रास्ते में- संसार-जीवन के भोगों में आसक्त न होकर सीधे वहाँ जा पहुँचने का ही काम है। द्वार खुलवाने के लिये भी श्रम करने की बात नहीं है। इतनी बड़ी सुविधा होनेपर भी जो मनुष्य विषय-भोग में ही जीवन बिताता है, उसको *'आरूढपतित'* न कहें तो और किसको कहेंगे?

   *किसी को भी अपना स्थान छोड़ना पसन्द नहीं है; फिर प्रभु की माया ही ऐसी है कि कीट से लेकर ब्रह्मा तक सभी अपने मन के अनुसार अपने सुख को श्रेष्ठ मानते हैं। विष्ठा के कृमि को विष्ठा में जो सुख मिलता है, उसको वह कमलवन के भ्रमर के सुख की अपेक्षा उच्चकोटि का मानता है। वस्तुतः उसे यह समझ-बूझ या विवेक ही नहीं होता कि सुख क्या वस्तु है तथा वह कैसे प्राप्त होता है, इसकी उसे खबर नहीं होती। मानव में भी पामर और विषयी जीव इसी प्रकार के होते हैं।*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-25

प्रिय ! धाम रूप लीला रुचिर, नाम सर्व आधार …
(सन्त वाणी)

मित्रों ! कल बाबा से मैंने कहा …मैं अयोध्या
जा रहा हूँ …बाबा और गौरांगी चौंक गये
…क्यों ? …मैंने कहा जनकपुर से मेरे
मित्र आये हैं …उनकी ज़िद्द है कि मैं अयोध्या
चलूँ …बाबा चुप हो गये …। पर क्यों
जा रहे हो हरि जी ? …मैंने कहा …आ जाऊंगा
ना ! …2 या 3 दिन में …गौरांगी भी चुप
हो गयी । थोड़ी देर में बाबा बोले – अच्छा
कल सुबह यमुना स्नान करने चलोगे ? …मैं बहुत
आनंदित हुआ …बाबा कितने बजे ?…4 बजे ?
…मैंने कहा …जी बाबा ! मैं आजाऊंगा ।

मैंने सब को बताया कि मैं कल यमुना स्नान को बाबा के साथ जा रहा हूँ …मैं इसी बात से इतना
आनंदित था कि अयोध्या जाना है ये भी भूल
गया…प्रातः उठा 3 बजे स्नान के लिए
जाने ही वाला था कि घनघोर वर्षा शुरू हो गयी
…मैं भी रुक गया । 4:30 बज गये …बारिश
अब थोड़ी रुकी …मैं स्नान करके ही बाबा के
यहाँ गया …मैंने सोचा शायद अब लेट हो गये
हैं बाबा नही जाएंगे …मैं जब बाबा की
कुटिया में गया तो बाबा बोले …चलो स्नान
करने मैं तो तुम्हारे इंतज़ार में ही था
…मैंने कहा …बाबा मैं तो स्नान करके आगया
…बाबा ने कहा तो क्या हुआ …चलो !
फिर स्नान कर लेना । हम लोग चलने के लिए
तैयार हुये तो गौरांगी भी आगई …
…इतनी लेट ? मैंने कहा …बारिश हो रही थी
…अब चल !
बाबा के साथ हम लोग चल पड़े …यमुना जी
में पहुँचे तो एक अच्छे विद्वान हैं वो मिले
…जो मुझ से कहते रहते थे कि अपने
पागलबाबा से हमें मिलाओ …हम शास्त्रार्थ में
उन्हें हरा देंगे । आज यमुना जी में वही मिल
गये …बाबा से चलते हुये बोले आप से मुझे
कुछ पूछना है …बाबा चलते हुये ही बोले
…पण्डित जी ! कितना पढ़े हैं आप ?
…व्याकरणाचार्य साहित्याचार्य …और
भी बहुत कुछ वो बोले …बाबा बोले …विद्या
का फल क्या है ? …बताओ पण्डित जी विद्या
का फल क्या है ? …पण्डित जी बोले
…विद्या का फल है …ज्ञान …और
ज्ञान क्या है ? …पण्डित जी बोले
…सत् (सत्य) और असत्(असत्य) का विवेक
…बाबा मुझ से बोले…नौका में पार
जाकर स्नान करेंगे …मैंने नाव वाले से बात की
…और हम और वो पण्डित जी भी हमारे साथ ही बैठ गये …।

हाँ तो पण्डित जी ! सत् क्या है और असत् क्या
है ? …संसार असत् है …और एक मात्र
ईश्वर की सत्ता ही सत् है…। बाबा हँसते
हुये बोले …सत् का ज्ञान हुआ ? …असत्
की असत् सत्ता को अनुभव किया ? …पण्डित जी
चुप हो गये …बाबा बोले …जब तक सत्
का ज्ञान नही हुआ तो आपकी विद्या व्यर्थ ही तो
है …है ना पण्डित जी ? …पण्डित जी
कुछ नही बोले …बाबा बोले …देखिये
पण्डित जी ! जब तक आप उस सत् का अनुभव करने के लिए स्वयं प्रयास नही करेंगे …तब तक ये
व्याकरणाचार्य और साहित्याचार्य की डिग्री का
क्या महत्व ? …जब तक आप इस संसार के
मिथ्यात्त्व को नही समझेंगे …तब तक आप कितनी
भी डिग्री ले लें …उसका क्या महत्व ?
पण्डित जी ! कुछ नही रखा है किताबों में
…जो भी है आपके हृदय में है …उसमें
खोजिये …और हाँ खोजते समय अपना पांडित्य
का चोला उतार लीजियेगा । वो पण्डित जी अब
पूर्ण शान्त हो गये थे ।

यमुना जी में जल आज अच्छा है…हवा बहुत
ठण्डी चल रही है …आकाश में बादल घुमड़ घुमड़ कर आरहे हैं…बाबा ने हमें कहा ये छटा देखो आकाश की…कितना सुंदर लग रहा है ना ?
…ऐसा लग रहा है कि श्री कृष्ण ही बादल के
रूप में छा गये हैं ।
वो पण्डित जी तुरन्त बोले …बादल असत्
है या सत् ? …आकाश तो सत् है …पर बादल
तो सत् नही है है ना ? …क्यों कि बादल आये
और गये …पर आकाश तो है …बाबा बोले
…देखो ! अगर बादल को ईश्वर रूप मानोगे तो
सत् ही है …और अगर ईश्वर से अलग मानोगे
तो असत् है । मूल को देख कर चल रहे हो तो
सब सत् ही है …और असत् की सत्ता ही नही है
…पर हम मोह , ममतावश इन्हें सत्
मान लें तो ये गलत है …हाँ तुम्हें वही
अगर चारों ओर दीखे …जैसे गौरांगी गाती है
…”जित देखूँ तित श्याम सखीरी” अब अगर वही
सर्वत्र नाचता हुआ तुम्हें दीखे …तो असत्
कुछ नही है …और देखो पण्डित जी ! असत्
तुम्हारा मोह है …ममता है …वासना है
…बाकी सब ईश्वरमय ही है ये जगत ।

स्नान करने के लिए बाबा यमुना जी में उतरे
…मैं उनके साथ यमुना जी में उतरा
…गौरांगी …और वो पण्डित जी भी यमुना
स्नान को उतरे । बाबा आंनद से डुबकी लगा
रहे थे …और यमुना जी में किलोल कर रहे थे ।
हम लोग भी आंनद से जल विहार में मग्न थे
…हम लोग बाबा जो बोलें वही करते जा रहे थे …।
हरि ! गोपी गीत सुनाओ …आह ! गोपी गीत
गाने में मेरा साथ गौरांगी ने दिया
…अदभुत आनंद आ रहा था ।

जल विहार करते हुये बाबा बोले …हरि ! तुम
पहले नही आते थे यमुना जी ? …मैंने कहा
…बाबा जल गन्दा है ना …इसलिए पहले हम
नही आते थे …बाबा ने हाथ में जल लेकर हम को
दिखाते हुये कहा …कहाँ गन्दा है ? …मैंने
कहा …बाबा ! हरियाणा के हथिनी कुण्ड में यमुना
जी को रोक दिया है …बाबा इसको लेकर 4
वर्ष पहले एक आंदोलन भी हुआ था …मैं भी उसमें
था …पर कुछ नही हुआ । बाबा बोले
…देखो ! आंदोलन तब सफल होता है …जब
मूल व्यक्ति में निस्वार्थ भावना हो …और
भगवान के प्रति विश्वास हो…तभी आंदोलन
सफल होते हैं…।
बाबा जल में खेल रहे थे बच्चों की तरह
हम लोग भी बाबा के इर्द गिर्द ही थे …बाबा
बोले …देखो ! भारत के इतिहास में एक आंदोलन ऐसा हुआ …अद्भुत !
आज तक नही हुआ …ऐसा सफल आंदोलन…और सफलतम रहा पता है
क्यों ? मैंने कहा क्यों ? क्यों कि एक सन्त
की निस्वार्थ सेवा जुड़ी थी …।

हरि ! एक अच्छे सिद्ध महात्मा थे…”श्री हरि
बाबा जी” …नाम जप के प्रति उनकी अपार निष्ठा
थी …निरन्तर नाम जपते रहते थे …हरि !
यहीं उत्तर प्रदेश में गंगा जी के किनारे में एक
शहर है …उन्नाव …उसके पास एक गाँव
था…गंगा जी के बाढ़ के समय सैकड़ो गांव जल
मग्न हो जाते थे …उस स्थान में श्री हरि बाबा जी का
बड़ा प्रभाव था … एक बार गाँव के बेचारे लोग
श्री हरि बाबा जी से बोले …बाबा ! आपके तो
अधिकारियों से जानकारी है …राजनेता भी आपके
पास में आते हैं …तो बाबा हमारी
प्रार्थना है कि आप उन नेताओं और अधिकारियों से
कह कर हमारे यहाँ गंगा जी में एक बांध बनवा
दीजिये…ये हमारी आप से प्रार्थना है । बाबा
बोले …हरि ! गाँव वालो की प्रार्थना से
श्री हरि बाबा जी का हृदय पिघल गया …वो
सब को बोले …देखो ! मैं साधू हूँ मैं किसी
अधिकारी से नही बोल सकता …न किसी नेता से
बोलूँगा …पर ये कार्य करना है …हम
सबको मिलकर करना है …तुम लोग तैयार हो ?
…और हम सबको दिखा देंगे कि भगवत् नाम
में कितनी ताकत है ..। …बाबा बोले …मैं
उन दिनों छोटा था …पर मुझे याद है
…श्री हरि बाबा जी ने कहा …गाँव के
गाँव सब एकत्रित हो जाओ …फावड़ा परात
सब लेकर आओ …इस बात को हर गाँव में फैला दो ।

बाबा बोले …हरि ! देखो ! दूसरे दिन सुबह ही
गाँव का गांव हजारों की संख्या में एकत्रित हुआ
…श्री हरि बाबा जी सबको बोले …पर
मेरी एक शर्त है …हजारों लोगों ने कहा
…आज्ञा दें ।
बाबा बोले …बालू को बोरी में भरो …और
गंगा जी की धारा में लगाओ …पर ये काम
करते हुये सब लोग …इस महामन्त्र का जप करेंगे …हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरि ! मैं भी था उस बांध बनाने के आंदोलन में
…वो कार्य भी साधना बन गयी थी …अब तो लाखों
लोग हो गये …चारों ओर से लोग आने लगे
…श्री हरि बाबा जी स्वयं बालू को बोरे में
भर कर गंगा जी में लगाते थे …और सब को
बारम्बार प्रेरित करते रहते थे …कि नाम जपो
…नाम को गाओ …सोचो ! क्या माहौल बना
होगा …लाखों लोग काम कर रहे हैं …और
नाम ध्वनि आकाश में गूँज रही है । ऐसे
मात्र एक महीने में वो बाँध बनके तैयार हो गया
…न सरकारी मदद ली …न किसी से चन्दा
चिट्ठा । एक मात्र भगवान का आश्रय …एक
मात्र भगवान के नाम का आश्रय ।
बाबा बोले – मैंने भी उस “हरि बाबा बांध” के आंदोलन में हिस्सा लिया था …उस आंदोलन में ,
जो एक महीने तक चला …उसका नियम था …कि
शाम के समय सब लोग एकत्रित होंगे …और
भगवान के नाम का फिर संकीर्तन होगा …। रात
भर आनंद होता था …रात भर लोग थकने के बाद
भी उस संकीर्तन में हिस्सा लेते थे …ये
सत्य घटना है …

एक श्री हरि बाबा जी का परम शिष्य था …वो शाम को संकीर्तन में रहता ही था …आज बांध बनकर तैयार हो गया…इसकी सब लोगों को अत्यंत ख़ुशी थी …बाबा ने सबको कहा …आज शाम को महा संकीर्तन होगा …सब को रहना है …कोई छूटे नही …क्यों कि ये सब उन्हीं की कृपा से हुआ है …हरि बाबा का एक प्रिय शिष्य जो था …उसने कहा …बाबा मैं थोड़ा थक गया हूँ …विश्राम करके शाम को आता हूँ …बाबा बोले .. …आना । अब एक घटना घट गयी कि वो जो प्रिय शिष्य थे…उनका हार्ट फ़ेल हो गया …और वो मर गये ।
अब तो उनकी अर्थी तैयार की गयी …शाम हो गया था …संकीर्तन शुरू हो चुकी थी …श्री हरि बाबा जी ने कहा …मेरे उस शिष्य को लाओ …कहाँ गया वो ? …एक ने सूचना दी बाबा ! वो तो पधार गये … बाबा बोले …अरे ! यहाँ लाओ …उनका ये काम था कि वो इस आंदोलन में संकीर्तन का प्रतिनिधित्व करते थे …लाओ उसे । लोगों ने समझा कि शायद बाबा ये कहना चाहते हैं कि अर्थी लेकर आओ …और उस मृत देह को संकीर्तन सुनाओ । लोग अर्थी लेकर आये …उसे रख दिया जहाँ संकीर्तन चल रहा था …श्री हरि बाबा जी बोले …अरे इसे खोलो …ये रस्सी सब खोलो …और जब लोगों ने रस्सी खोली …तो वह शिष्य तुरन्त उठकर बैठ गया …और जब तक कीर्तन चलता रहा …वो ताली बजाता रहा …झूमता रहा …और जब संकीर्तन समाप्त हो गया …वो वापस फिर मृत हो गया । हरि ! ये दृश्य मैंने भी देखा था ।
आज भी “हरि बाबा बांध” का अपना भारत में इतिहास है । देखो ! जब निस्वार्थ भावना से समाज की सेवा होती है …और उसमें अगर भगवान के नाम का आश्रय होता है …भगवत् शक्ति हमारे साथ होती है …तो किसी की आवश्यकता नही है…।
तुम लोग समझ नही रहे हो …भगवन् नाम में अपूर्व शक्ति है…।
आंदोलन में निस्वार्थता …सेवा परायणता , और भगवत् शक्ति पर अटूट विश्वास और नाम का आधार हो …तो कोई काम …कोई भी आंदोलन असफल हो ही नही सकता ।

यमुना जी में आनंद ले रहे हैं आज हम सब लोग …मैंने पूछा बाबा !
यमुना जी में तो जल यमुना जी का है ही नही …बाबा बोले…हमारे हिन्दू धर्म में जो बात है …वो और धर्मो में कहाँ ? हमारे यहाँ “अधिदैव” की एक दिव्य धारणा है …नदी …या वृक्ष…या अन्य कुछ भी …सबका एक “दैव” तत्व भी होता है …जैसे वृक्ष को हम पूजते हैं तो वृक्ष का भी एक देव है …उसके अंदर जो तत्व है वह अधिदैव है …ऐसे ही इस वृन्दावन की भूमि में यमुना जी हैं …बह रही हैं …निरन्तर बह रही हैं …तत्व के रूप में विराजमान हैं …इसमें और जल भी मिल जाएगा ना …तो वह जल भी यमुना ही हो जाएगा…क्यों कि तत्व के रूप में वो हैं ।
ये जल तो उनका देह है …ये घटता बढ़ता रहता है …पर वह अधिदैव के रूप में यहीं हैं …और इसी यमुना जी का सेवन करने से वही फल प्राप्त होता है ।

जल से बाहर बाबा निकले …हम लोग भी अब बाहर आये …नौका में हमारे वस्त्र रखे हुये थे …हमने पहने …बाबा बोले …कल सरजू जी में भी जाकर स्नान करना …। वहाँ की रज में भी श्री राम लला के चरणों के रज मिले हुये हैं । मैंने प्रणाम किया …। चलते हुये मैंने गौरांगी को एक दोहा सुनाया …
..”इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले भजन रस रीती…
मिलिए ताहि निशंक ह्वै, करिये तिन सों प्रीति”

मैंने विनोद में धीरे से गौरांगी से पूछा निशंक मानें ? …गौरांगी बोली …”निर्लज्ज”…। हम दोनों बहुत हँसे …बाबा की चाल तेज़ है …वो हम से आगे निकल गये थे ।

“सम्भल जाओ चमन वालों , कि आये दिन बहार के”

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