[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3

*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
नाथ ! नाथ ! मेरी नाव ! मेरी नाव में ही आपको जाना है पार !
उधर से केवट दौड़ा आया ……………..
ये केवट है …………मैनें त्रिजटा को उसका परिचय दिया ।
बहुत भोला है …………….हृदय निर्मल है इसका ……..पता है त्रिजटा !
इसनें हमारे पैर धोये ………और जब तक पैर नही धोये तब तक हमें नाव में नही बैठनें दिया ……….मैने हँसते हुए कहा ।
पर क्यों ? त्रिजटा बात को समझी नही ।
क्यों की इसका कहना था ……….कि श्रीराम के चरणों की धूल जहाँ लग जाती है ……वहाँ से नारी निकल पड़ती है ……..और ये अपनी नारी से परेशान था ………….कहता था कि दूसरी कहाँ रखूंगा ।
त्रिजटा ! तुम्हे पता ही होगा शिला को छूआ तो अहिल्या प्रकट हो गयी थी ।
हाँ ……..त्रिजटा बोली फिर …..कुछ सोच कर खूब हँसी …….केवट को देख रही थी और हँस रही थी ।
इसकी नाव नारी न बन जाए ! त्रिजटा हँसी जा रही थी ।
मेरे श्रीराम नें केवट को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
नही …..नाव में नही ……….तुम मेरे साथ विमान में बैठो और चलो अयोध्या …….केवट बहुत खुश हुआ …….मेरी पत्नी और मेरे बच्चे भी विमान में बैठेंगे ! उनकी भी बहुत इच्छा है आपके राज्याभिषेक देखने की ………. केवट विनती करनें लगा ।
हाँ हाँ ……..बुला लाओ ! जाओ ! …….. केवट गया दौड़ा दौड़ा ।
त्रिजटा उसे देखकर हँस रही थी अभी भी ।
महर्षि भारद्वाज के आश्रम में विमान पहुँचा …………………
मैं दाशरथी राम ……महर्षि ! आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ ।
ओह ! राम ! हृदय से लगा लिया था मेरे श्रीराम को महर्षि नें ।
फिर आसन दिया …………..
पर तुरन्त बोले – राम ! भरत कैसे हैं ?
मेरे श्रीराम के नेत्र बह चले थे………….कुछ नही बोल सके ।
राम ! हम ऋषि मुनि क्या तप करेंगें ………जो तप तुम्हारे अनुज भरत कर रहे हैं …….आहा ! महर्षि भारद्वाज भी भावुक हो उठे थे ।
तभी कुछ विचार कर मेरे श्रीराम नें हनुमान को बुलाया ……..
हनुमान ! हमें हो सकता है कुछ बिलम्ब हो जाए ………..इसलिये तुम तुरन्त जाओ मेरे भाई भरत के पास …..और उनको बताओ कि मैं आरहा हूँ …….हम सब आरहे हैं ।
जो आज्ञा प्रभु ! हनुमान नें मस्तक झुकाया और उड़ चले अयोध्या की ओर ……………………..
शेष चरित्र कल …..!!!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-104”
( बृजमण्डल में हाहाकार )
कल तै आगे कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल …..
हमारे प्राण कन्हैया के यमुना हृद में कूदते ही , हम सब तौ मानौं निष्प्राण ही है गए । कन्हैया के बिना हम अपने जीवन की कल्पना हूँ नाँय कर सके हैं । श्रीदामा तौ मूर्छित ही है गयौ है …बिचारौ सुबल सखा हिलकियनते रोय रोय के अवनी में गिर रह्यो है ।
और मेरौ हृदय तब कांप्यों जब यमुना हृद ते विष कौ बुलबुला छूटन लग्यो । ओह ! मैंने अपने आपकूँ शान्त रख्यो ….क्यों कि मैं ही विचलित है गयौ तौ कौन इन सबकूँ सम्भालेगौ ।
दाऊ भैया कहाँ हैं ? तोक सखा ने पूछी । फिर स्वयं ही बोल्यो ….उनकूँ कन्हैया ने आन नाँय दियौ …..दाऊ भैया होते तौ कछु करते …कन्हैया कूँ बचाय लै तै । गोप ग्वाल ही नही रो रहे ….अब तौ पशु पक्षी हूँ रोयवे लगे । पूरौ श्रीवृन्दावन ही शोकाकुल ह्वै उठ्यो हो ।
बा स्थिति में मैंने विचार कियौ कि ……
अब हमें वापस नन्दगाँव जानौं चहिए …….वहाँ बृजराज बाबा हैं दाऊ भैया हैं कोई उपाय निकालेंगे । जे बात जब मैंने कही …तब विशाल नामकौ सखा बोल्यो ….कन्हैया तौ विष में जल रह्यो होयगौ ! आह ! बाके कोमल अंग ! मैंने सबकूँ समझायौ ….फिर कही…..अब चलो …कन्हैया कूँ कछु नही होयगौ । मेरी बात मानके रोते बिलखते सब चल पड़े हे ….नन्दगाँव की ओर ।
मैं एक बात कह दऊँ …..कन्हैया दाऊ भैया कूँ लै कै या ‘कालीदह की लीला’ में नही आयौ ….अब मोकूँ थोड़ी थोड़ी समझ आय रही है कि कन्हैया चौं ना लायौ दाऊ भैया कूँ । या लिए कि कन्हैया ने विचार कियौ …..दाऊ भैया हैं शेषनाग के अवतार , और आज मैं कालिनाग ते लड़ूँगौ ….और अगर दाऊ ने कालीय कूँ मारते मोकूँ देख लियौ तौ कहीं जाति कौ पक्ष दाऊ न लै लैं । ( जे लिखते भए मधुमंगल हँसते हैं ) या कन्हैया नाँय लायौ दाऊ भैया कूँ ।
वैसे सब लीला हैं …..अब लीला तौ लीला ही है ।
इधर –
यशोदा मैया भोजन बना रही हैं …..उनकौ हृदय एकाएक धक् करवे लग्यो । घबराहट शुरू है गयी मैया के …..भोजन बनानौं हूँ अब कठिन है गयौ तौ एक गोपी कूँ कहके मैया बाहर आय गयीं ।
इधर उधर देखवे लगीं , फिर सोचवे लगीं ….”कन्हैया ठीक तौ है” , मैया ने तभी देख्यो ….सामने दाऊ खड़े हैं । मैया घबराई ….दाऊ ! अरे तू यहाँ ? आज तू नही गयौ कन्हैया के संग ? मैया ने जब पूछी तौ दाऊ बोले …गयौ हो …लेकिन कन्हैया ने मोकूँ भेज दियौ …और बोलो ….कि भैया ! तुम जाओ ……आज हम अपने वय के बालकन के संग खेलिंगे ।
दाऊ की बात सुनते ही मैया यशोदा तौ रोयवे लगीं …….का भयौ ? सब गोपियाँ दौड़ी दौड़ी आयीं …दाऊ मैया कूँ सम्भाल रहे हैं ……का बात है मैया ? बता ना ?
मैया रोते बोलीं ….दाऊ ! वो कालीदह में गयौ है । हाँ , कन्हैया अवश्य कालीदह में गयौ है ।
दाऊ ! बाने कल सुन लियौ हो कि कालिदह में नाग रहे है ….नाग तै खेलवे की बाकी इच्छा ……पर बा बालक कूँ कहा पतौ कि …कालिय नाग सामान्य नाग नही है …….मैया कूँ या प्रकार तै रोतौ देख …..सब आयवे लगे ….बृजराज बाबा हूँ आय गए । सबने समझायौ मैया कूँ …लेकिन ।
तभी सामने तै ……….हम सब सखा आय रहे हैं …..
मधुमंगल ! मधुमंगल ! कन्हैया कहाँ है ? मैया दौड़ीं आयीं और पूछवे लगीं ….अब मेरे आखिन तै अश्रु बह रहे …मैं कहा कहतौ ।
बता ना , कहाँ है कन्हैया …..बृजराज बाबा पूछ रहे हैं …कहाँ है कन्हैया ? तब मैंने कही ….मैया ! बाबा ! कन्हैया तौ कारीदह में कूद गयौ । का कही ! मैया चीखी और मूर्छित है गयी …….बाबा बृजराज कौ हृदय चीत्कार कर रह्यो है ….अन्य बृजवासिन कूँ लगवे लग्यो कि हमारे तौ प्राण ही चले गए ………पूरे बृजमण्डल में जे बात फैल गयी ….श्रीकृष्ण विरह में पूरौ बृजमण्डल डूब गयौ हो ।
क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - १४*
*🤝 ४. व्यवहार 🤝*
_*मानव जीवन के लक्ष्य*_
अब मनुष्य-शरीर की महत्ता बतलाते हुए कहते हैं— *'इदं बहुसम्भवान्ते (लब्धं) अतः सुदुर्लभम्'* - यह मनुष्य-शरीर चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद प्रभुकृपा से प्राप्त होता है। इसीलिये इसको सुदुर्लभ अर्थात् अतिशय दुर्लभ या देवदुर्लभ कहा है; क्योंकि देवता भी मनुष्य-शरीर की प्राप्ति के लिये लालायित रहते हैं। यदि कोई पूछे- क्यों? तो कहते हैं- *‘अनित्यमपि इह अर्थदम्'*- अर्थात् मनुष्य-शरीर अनित्य होने पर भी इस मर्त्यलोक में अर्थ को देनेवाला है। यहाँ अर्थ से क्या मतलब है? *अर्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।* इन चारों अर्थों को मनुष्य-जन्म में पुरुष प्राप्त करता है। इसीलिये इनको पुरुषार्थ-चतुष्टय कहते हैं। इन चार पुरुषार्थों में बीच के दो अर्थात् अर्थ और काम तो प्रारब्धानुसार प्राप्त होते ही रहते हैं और कुछ अंश में प्रत्येक योनि में बिना श्रम के ही प्राप्त होते हैं। इसलिये अब विशेष यत्न करना है धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिये । इनमें भी धर्माचरण के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अर्थात् धर्म मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसलिये मनुष्य-शरीर में, जन्म में परम पुरुषार्थ तो मोक्षकी प्राप्ति ही है। इसलिये प्रस्तुत श्लोकमें भी निः श्रेयस अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने के लिये ही यत्न करना लक्ष्य बतलाया है।
अब दूसरे शरीरों से मानव-शरीर की विलक्षणता बतलाते हुए कहते हैं— *'विषयः खलु सर्वतः स्यात् ।'* अर्थात् विषय-भोग अथवा विषय-संयोग से उत्पन्न सुख तो सभी योनियों में समान रूप से प्राप्त हैं।
यदि मोक्ष की प्राप्ति न हुई तो यह जीवन व्यर्थ ही गया समझो। इस सम्बन्ध में एक कवि की उक्ति है-
*अब तो बाजी चौपड़ की, पौ में अटकी जाय।*
*जो अबके पौ ना पड़े, फिर चौरासी जाय ॥*
संसार का चौपड़ है सांसारिक जीवन, और उसमें एक बाकी पग है मनुष्य-जन्म की प्राप्ति, तथा इस मनुष्य-शरीर में सांसारिक आसक्ति दूर करके मोक्ष के लिये साधना करना ही पग पड़ना है; और मोक्ष की साधना न करके विषय-सुख में ही रच-पच जाना पग न पड़ना है तथा फिर से चौरासी के चक्कर में पड़ना है—यों समझना चाहिये। ऐसा ही एक वचन ब्रह्मानन्द के भजन में है-
*मानुस जन्म मिला जग माहीं ।*
*दाव जीतकर फिर किमि हारो ॥*
अर्थात् मनुष्य-जन्म मिला तो दाव जीत चुके; तब फिर विषयों में पड़कर क्यों हारते हो ?
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-27
प्रिय ! राम सच्चिदानंद दिनेशा …
(श्री रामचरितमानस)
मित्रों ! प्रातः 4 बजे उठा …श्री अवध धाम
में ! हल्की बूंदें पड़ रही थीं …सामने
कनक भवन …चारों ओर से “सीताराम सीताराम” की ध्वनि रात भर आती रही । मानो “रामनाम” माँ
की गोद लग रही थी …वही हमें “सीताराम” नाम की मीठी लोरी सुनाकर सुला रही थीं ।
मैंने सब को जगाया…और 5 बजे तक हम निकल गये ।
हवा में शांति थी …वातावरण अत्यंत
शान्त था …हवा ठण्डी थी …मन सत्व गुण
से भर गया था ।
एकाएक आँधी चली …कहाँ जाएँ कुछ समझ में न
आया …एक विशाल आश्रम देखा …उसी में
मैंने प्रवेश किया …श्री राघवेंद्र सरकार का
गुरु स्थान…श्री वशिष्ठ जी का मन्दिर था ।
मन्दिर की जगह बहुत विस्तृत थी
…पर कोई दिखाई नही दिया …मन्दिर में
भी पुजारी जी नही हैं …ओह ! आँधी के
कारण लाईट भी गयी …मैं अकेला उस मन्दिर
में …जहाँ अब घने काले बादलों के कारण
अँधेरा हो गया था । पर मन अत्यंत प्रसन्न
था…मन में आया बैठ जा ! और ध्यान कर
…ये अवसर है एकान्त में बैठने का
…नही तो कोई न कोई साथ में रह कर
एकान्त को दूषित किया ही है । मैं आँखें
बन्द करके बैठ गया …ऊर्जा इतनी घनी
थी वहाँ की , कि मैं ध्यान की गहराई में
तत्क्षण पहुँच गया ।
- एक दिव्य तेज़ उस मन्दिर के अन्धकार को चीरता
हुआ आया …वह तेज़ चारों ओर फैल गया । मैंने
ध्यान से देखना चाहा …तो ओह ! ये तो कोई
दिव्य ऋषि बैठे हैं …लम्बी सफेद दाढ़ी
…गौर वर्ण , काँधे में जनेऊ…और
मस्तक दिव्य तेज़ धारण किये हुये था
…कौन हैं ये ? …उस प्रकाश में
और भी बहुत कुछ स्पष्ट दीखता जा रहा था ।
उन ऋषि के सामने ध्यान की मुद्रा में एक नीला तेज़ …
…नीला जिनका देह है …ये देह नही
…दिव्य देह …वह दिव्य देह भी ऐसा कि
मक्खन में नीला रंग डाल कर उनके देह को बनाया
हो । पर ऐसे दिव्य देह को कौन बना सकता है
…ये स्वयं ही बने हैं …।
ओह ! ये वशिष्ठ जी हैं …रघुकुल के कुल गुरु
…और ये नीचे विराजे हैं श्री अवध
नरेश श्री श्री राघवेंद्र सरकार…! ओह !
मुझे रोमांच होने लगा …आनंद में मेरे
अश्रु बहने लगे …।
श्री वशिष्ठ जी उठे और वहाँ से चले गये
…श्री राघवेंद्र सरकार भी उठे और जैसे
ही चलने के लिए तैयार हुये …उनकी नज़र
मुझ जैसे निम्न कोटि के जीव पर पड़ी …मैं
साष्टांग उनके चरणों में लेटा हुआ था । उन्होंने मुझे उठाया
…मेरा ये देह भी दिव्यता से भर गया …।
“चलो गुरुदेव गये तुम भी जाओ मैं
जा रहा हूँ” …यही मधुर और अत्यंत कर्ण प्रिय
वाणी मुझे सुनाई दी । मैंने उन के मुखारविन्द
की ओर देखा…लगते तो मेरे श्री कृष्ण
की तरह ही हैं …पर इनके नेत्र गम्भीर
हैं…उसके ? वो तो चंचलता की मूरत ही है ।
हिम्मत कर के …मैंने कहा …आप यहाँ ? हाँ
मैं नित्य प्रातः सत्संग के लिए अपने गुरु
श्री वशिष्ठ जी महाराज के पास आता हूँ
…मैंने कहा …हम जैसों को शिक्षा
देने के लिए कि प्रातः सत्संग करना ही चाहिए
…प्रातः का समय सत्संग से ही प्रारम्भ हो ।
मैंने समय न गवांते हुये , तुरन्त एक प्रश्न किया…हे मेरे नाथ !
मनुष्य को पता है …कि ये काम क्रोध लोभ मोह, इन
सबसे दुःख ही मिलेगा …हे मेरे प्रभु !
जीव को पता है कि विषय भोगों पर हम आसक्त होंगे तो हमें दुःख मिलेगा ही …फिर भी वो इन
भोग विषयों का संग क्यों करता है ? ..काम वासना
में आसक्त होने के कारण हमें दुःख मिलेगा ही
…ये सबको पता है …पर क्षणिक सुख के लिए
वो अपनी पूरी जिंदगी इसी भोग सामग्री को
जुटाने में ही लगा रहता है …हे मेरे भगवन् ! ऐसा क्यों ? …
ऐसा पूछते हुये मैंने उनके चरण पकड़ लिए
…भगवान श्री राम अब थोड़ा मुस्कुराये
…ओह ! हाँ एक बात है …गम्भीर
व्यक्तित्व थोड़ा भी मुस्कुरा जाए तो वो
अदभुत छवि बन जाती है । मैं तो सब कुछ
लुटाने को तैयार हूँ इस सांवली सलोनी छवि पर ।
भगवान श्री राम बोले – हे वत्स ! ये मनुष्य अपने आप को सत्वगुण रजोगुण और तमोगुण इन प्रकृति के स्वभाव को “मैं” मान लेता है …और जो मन पहले सत्व गुण (शान्त) था …वह कर्ता (मैं करने वाला हूँ) इस भाव से भर जाता है …तो वह रजोगुण की ओर झुक जाता है …मन जब रजोगुणी हो जाता
है …तब यह मनुष्य “मैं ये करूँगा मैं वो
करूँगा …मैं ये बनूँगा मैं वो बनूँगा” …ये
सोच रजोगुण के द्वारा ही उत्पन्न होती है
…और यही रजोगुण फिर घोर तमोगुण में
ले जाती है …यानी घोर तनाव और आलस्य से
ये मनुष्य घिर जाता है …फिर तो वह कामना के जाल में फँसकर दुःखी होते हुये नर्क और स्वर्ग के चक्कर काटता रहता है ।
मैंने समय जान कर तुरन्त पूछा भगवन् ! क्या
बड़े बड़े सन्त और महात्माओं और साधकों को भी ये रजोगुण और तमोगुण और सत्व गुण प्रभावित करते हैं ?
…भगवान श्री राम चन्द्र जी ने अपनी गम्भीर वाणी
में कहा …मेरे मैं पूर्ण समर्पित साधक या
सन्त …जो मेरी शरणागति ले चुके हैं
…शरणागति यानी
…उनका अपना मन , अपनी बुद्धि , अपना चित्त और अपना अहँकार सब कुछ मुझ में जिन्होंने दे दिया है …वो इस सत्य को अच्छे से समझते हैं
कि ये त्रिगुणमयी माया ( माया यानी जो नही है …फिर भी वो है ऐसा लगे उसे “माया” कहते हैं ) है जो हमें सत्व रज तम में भटकाकर…अज्ञान और विकारों से युक्त कर देती है …पर मैं वो नही हूँ
जिस पर इस त्रिगुण का प्रभाव पड़े…मैं तो
शुद्ध बुद्ध और त्रिगुणातीत अवस्था का
आत्म तत्व हूँ …मैं वही हूँ …ऐसा विवेक के द्वारा निरन्तर चिंतन करता रहता है …भगवान श्री
राम बोले …मेरे स्वरूप का निरन्तर चिंतन
करते हुये मेरे प्रिय भक्त सन्त साधक सब
आंनद में रहते हैं और इन सबसे (सत्व गुण
रजोगुण तमोगुण) कभी भी प्रभावित नही होते
…और कभी कभी रजोगुण और तमोगुण का जब वेग आता है ..मन में …तब ये साधक सन्त
…मेरा ध्यान करके अपने आप को सावधान
करते रहते हैं । मैं ही सबमें आत्मतत्व के रूप में विराजमान हूँ ।
भगवान की गम्भीर वाणी फिर गूँजी ! …वैसे देखा
जाए तो सब मिथ्या है …न मन सत्य है …न
बुद्धि सत्य है …न चित्त …न अहँकार …न
ये माया …न इस माया के ये त्रिगुण …सब
मिथ्या है …भ्रम है ।
पर ये जीव …अपने आपको ही “मैं करने वाला
हूँ”…इसी के कारण सुख दुःख में फंसता जाता
है …अपना ही जाल बुनता है …और अपने ही
बुने जाल में फंसता रहता है । “करने वाला मैं
हूँ” भगवान बोले -…पर जीव ये मान लेता है कि “मैं” करने वाला हूँ …बस । क्या करें ? …मैंने
गदगद् भाव से पूछा …अपने आप को मुझ में
मिला लो …तुम मुझ से ही हो …सब कुछ मुझ
से ही है …मैं अस्तित्व हूँ …मैं सत्य
हूँ …मैं परम प्रेम हूँ …। सब होता
है …सब होगा …तुम कर्त्ता भाव् को छोड़
दो…अपने स्वरूप को पहचानो…मैं सर्वत्र रम रहा हूँ …तुम में भी …जल थल नभ , सबमें … तभी तो “राम” हूँ ।
महाराज जी ! चलिये …हम एक घण्टे से आपको
खोज रहे हैं …नारायण ने आकर मुझे “टच” करके कहा …
… तब मेरा ध्यान भंग हुआ ।
ओह ! कितना अद्भुत सुख मिला…अद्भुत
आंनद … भगवान श्री रामभद्र के इस योगेश्वर रूप का अद्भुत दर्शन । वाशिष्ठ रामायण के राम । …
शान्त भाव से जाकर मैंने सरयू जी में स्नान किया
…और सरजू जी के किनारे वहाँ की वालुका
में बैठ कर ध्यान किया ।…कनक भवन के दर्शन करने थे …जनकपुर के मेरे मित्र , उनको लेकर कनक भवन गये…जय हो …कितनी सुंदर छवि है…। मैं अपलक नेत्रों से युगलवर को देखता रहा । मेरे पागलबाबा कहते हैं …जब आप किसी मन्दिर में जाओ तो एक भजन या एक पद जरूर सुनाओ …भले ही मन में ही सुनाओ …पर सुनाओ । कल गौरांगी ने ये पद लिखा था …और मुझे watsapp में भेजा था …वर्षा ऋतु का पद है …अभी बाहर बारिश हो ही रही है …मैंने भी गाया –
“देखो ! प्यारे प्रेम घटा घिर आई”
Harisharan

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877