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June 23, 2025 9:23 am

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संघ प्रदेश दमन के प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के मार्गदर्शन से आयुष मंत्रालय के वर्ष 2025 के थीम के अनुसार “एक पृथ्वी और एक स्वास्थ्य – योग” स्वास्थ्य विभाग दमन द्वारा संघ प्रदेश दमन में पूरे जोश से तैयारी चल रही है।

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श्री सीताराम शरणम् मम 143भाग 1″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -105″, (साधकों के लिए)भाग- 28 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

हम लोग प्रयाग स्नान करके लौट आये थे महर्षि भारद्वाज के आश्रम में …….तभी हनुमान आगये …………और हनुमान नें जो सूचना दी अयोध्या की ……..मैं गदगद् हो गयी थी ……..मेरे श्रीराम तो भरत भैया की बातें सुनकर अश्रु ही बहाते रहे ……….।

अपनें पास खींच कर हृदय से लगा लिया था हनुमान को मेरे श्रीराम नें ।


भरत कैसा है ? क्या बोला वो ? हनुमान ! तुमनें कैसे उसे सूचना दी ?

कितनें प्रश्न थे मेरे श्रीराम के……..हनुमान नें अयोध्या का वर्णन किया ………सारी बातें बताईं वहाँ की……विशेष भरत के बारे में ……हम सबके नेत्र बह रहे थे जब भरत की स्थिति सुनाई हनुमान नें ।

“प्रभो ! मैं जब नन्दीग्राम पहुँचा तब मैने अपना रूप बदल लिया था ब्राह्मण भेष में गया था मैं…….

तब अग्नि प्रज्वलित करके बैठे थे भरत भैया ………..

मैं बाहर ही खड़ा हो गया कुछ देर के लिये …………..

क्यों ? मेरे श्रीराम नें हनुमान से पूछा ।

श्री शत्रुघ्न कुमार आगये थे अश्व में बैठकर …….और वो उतरते ही सीधे भरत भैया की कुटिया में ही गए थे ।

भैया ! आज मन प्रसन्न है….है ना ? शत्रुघ्न कुमार बोलनें लगे थे ।

पता है सरजू का जल निर्मल हो गया है …..अत्यन्त निर्मल ………

और भैया ! रात ही रात में जो जलाशय शुष्क थे …..वो लवालव भर गए हैं ………….गौएँ प्रसन्न हैं …………पक्षी कलरव करते हैं ।

भैया ! आप बोलते क्यों नही ! आप चुप क्यों है ?

प्रभो ! मैं सुन रहा था भरत भैया शान्त गम्भीर होकर बैठे थे ।

भैया ! आर्य आएंगें ……………आप विश्वास कीजिये ……..मेरा दाहिना अंग आज सुबह से ही फड़क रहा है ।

पता नही ….मेरे जैसे कैकेई पुत्र के लिये श्रीराम आयेंगें या नही !

भरत भैया का स्वर विषादपूर्ण था ।

शत्रुघ्न ! आज अगर मेरे श्रीराम नही आये तो ये भरत अपनें प्राणों को इसी अग्नि में जला देगा ।

प्रभो ! मैं बाहर खड़ा ये सब सुन रहा था ………….अब मुझसे रहा नही गया ………मैने कुटिया के भीतर प्रवेश किया …….तो भैया भरत और शत्रुघ्न कुमार नें मेरा अभिवादन किया ……।

कहिये ब्राह्मण देवता ! आपको हम क्या दे सकते हैं ?

प्रभो ! मैने हाथ जोड़े भरत भैया के…..और कहा ………अयोध्या में तो अब मंगल ही मंगल होनें वाला है……शुभ ही शुभ……..।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……..!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-105”

( यमुना तट पै विरहाकुल बृजजन )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …..

प्रेम कौ रहस्य तौ जे बृजजन ही समझें हैं । प्रेम के कारण ही तौ परब्रह्म इनके आगे पीछे डोल रह्यो है ….नही तौ कहा है इन बृजवासिन के पास । न वर्ण , न शुचिता , न सभ्यता, कुछ भी तौ नही हैं इन के पास । हाँ प्रेम है …और विशुद्ध प्रेम है, जाके कारण परब्रह्म इनके यहाँ खेलौ करै है । प्रेम इतनौं कि जे बृजवासी कन्हैया के बिना अपने जीवन की कल्पना हूँ नाँय कर सकें हैं ।

या कालिदह की लीला में मैंने अनुभव कियौ कि ….इन बृजवासिन कौ प्रेम कन्हैया के प्रति अद्भुत है ……….अरे ! जब मैंने बिलख के मैया कूँ बतायौ कि कन्हैया तौ कूद गयौ कालीदह में …..तौ मैया हूँ नही , जितनी वहाँ गोपी हीं , गोप हे …सब ऐसे है गए जैसे जल बिन मीन ।

मेरे कन्हैया के भक्त तौ अनेक भए हैं , और आगे भी होंगे …लेकिन बृजवासिन कौ कोई जोड़ नही है ……..सब मोते बोले …मधुमंगल ! चल , कारीदह में चल । हम सब विरहाकुल चल दिए कारीदह की ओर ।

मार्ग में चरण चिन्ह दिखाई दै रहे कन्हैया के , तौ सब उनकूँ देखके और रोयवे लग रहे ।

दाऊ भैया आगे हे …..हम सब उनके पीछे । लेकिन मैंने देख्यो कि दाऊ भैया कूँ कोई दुःख नही है …..वो सहज चल रहे हैं ….जैसे कछु भयौ ही नही हैं ।

अब हम यमुना के बा हृद में पहुँच गए हे ….कालीदह में ।

यहीं कूदो है कन्हैया …..मैंने कही । दाऊ भैया तौ शान्त भाव तै वहीं बैठ गये …..उनके मुखमण्डल में मुस्कुराहट है …..वो यमुना कूँ देख रहे हैं ।

और मैया बृजरानी …….

मेरौ लाला यहीं गयौ है ….ओह ! यामें तौ कालियनाग रहे है…..बाकौ विष भयानक है ….मेरे लाला कूँ खाय गयौ होयगौ नाग ….मैया चीख रहीं हैं ….दो चार गोपिन ने मैया कूँ पकड़ राख्यो है …..लेकिन मैया हैं कि …..मैं भी जाऊँगी …मैं भी अपने लाला के संग मर जाऊँगी …..मोकूँ यमुना में कूदन दो । मैया पछाड़ खाय के रोय रही है ।

वहाँ कौन विरह में नहीं डूबा था ….सबरे जितने बृज के लोग हे …सब बिलख रहे ।

लेकिन अब तौ ….बृजराज बाबा हूँ उठे और यमुना हृद के पास गए …..नेत्रन ते बृजराज के अश्रु बह रहे हैं ……फिर मुड़के पीछे हम सबकूँ बाबा ने देख्यो ….बोले ….लाला के बिना मैं जीवन जी नाँय पाऊँगौ या लिए भैयाओ मैं जाय रो हूँ …बृज कौ ध्यान रखियौं ।

इतने धीर गम्भीर बृजराज बाबा देह त्यागवे कूँ तैयार हैं !

तभी …दाऊ भैया ने देख लियौ कि बाबा बृजराज कूद रहे हैं यमुना में …वो दौड़े और आय के बाबा कूँ पकड़ लियौ ….मैया बृजरानी हूँ रोती भई कूदवे कूँ तैयार , मैया कूँ हूँ दाऊ ने सम्भाल लियौ ….और शान्त गम्भीर स्वर में बोले …..बाबा ! मैया ! का कर रहे हो आप लोग ? बाबा बोले …दाऊ ! कन्हैया के बिना जे जीवन व्यर्थ है । किन्तु कन्हैया गयौ कहाँ है ? दाऊ ने हंसते भए कही ….दाऊ कूँ हँसतौ देख बाबा और मैया बाकी हम सब हूँ स्तब्ध से है गए हे ।

हाँ , बताओ बाबा ! का भयौ है जो आप इतने अधीर है कै प्राण त्याग रहे हैं ।
दाऊ भैया ने जब पूछी …तौ मैया बोली …..कन्हैया या हृद में कूद गयौ है ।

तौ ? दाऊ पूछ रहे हैं ।

मैया ! कन्हैया तौ ऐसे यमुना में नित्य कूदतौ रे । आज कूद गयौ तौ कहा भयौ ? दाऊ की बात सुनके बाबा बोले …..दाऊ ! यामें कालीय नाग रहे है । और बा नाग में भयानक विष है …मैया हूँ बोलीं । दाऊ भैया हँस पड़े …..कालीय नाग कहा बिगाड़ेगौ कन्हैया कौ ! दाऊ ! बा नाग के एक सौ एक फन हैं …बृजराज बाबा बोले ….तौ या बात में हंसते भए दाऊ ने कही …..बाबा ! मैया ! तेरौ लाला तौ एक हजार फन वाले शेषनाग में शयन करवे वारौ है …..अरी मैया ! विचार कर जो हजार फन वारे शेषनाग में सोवे बा कौ जे कालिय नाग कहा बिगारैगौ ।

बाबा ! विचार करौ जो विधाता ब्रह्मा कौ हू बाप है …महालक्ष्मी जाकी घरवारी है …..सम्पूर्ण विश्व जगत जाकौ आहार है ….और बाबा ! मृत्यु जाके भोजन की चटनी है ….बाकौ कोई बाल हूँ बाँकौ कर सके का ?

जे कहते भए आवेश में आय गए हैं हमारे दाऊ भैया …..उनके नेत्र लाल है गए हैं ……अपने चरण पटकते भए दाऊ बोले ……मैं कह रह्यो हूँ कन्हैया कूँ कछु नही होयगौ । अब तौ जो होयगौ बा कालियनाग कौ ही होयगौ । इतनौं कहके दाऊ भैया शान्त है गए ……मैया बैठ गयी है , सुबक रही है ….बाबा हूँ अब दाऊ कूँ देख रहे हैं । अब सब दाऊ भैया के भरोसे हैं ।

क्रमशः…..
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - १५*

               *🤝 ४. व्यवहार 🤝*

               _*मानव जीवन के लक्ष्य*_ 

   इस विषय की विवेचना पातंजल योगदर्शन का यह सूत्र करता है – *'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः'*– जबतक संचित कर्मरूपी मूल है, तबतक उसके फलोन्मुख कर्म का फल भोगने के लिये जीव को शरीर धारण करना ही पड़ता है और उन कर्मों के अनुसार जीव का शरीर कैसा होना चाहिये, यह पहले से ही निश्चित हो जाता है; फिर सुख-दुःख के भोग निश्चित होते हैं और उनको भोगने के लिये जितना समय चाहिये, उतनी आयु का निर्माण होता है। तात्पर्य यह कि अर्थ और काम के लिये मनुष्य को विशेष परिश्रम नहीं करना है। वे तो शरीर के जन्म के साथ ही निर्मित हुए रहते हैं। पुरुषार्थ तो करना है धर्माचरण करके चरम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर लेने के लिये ।

   यही बात प्रह्लादजी ने अपने सहाध्यायियों को इस प्रकार कही थी-

   *सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्।*
   *सर्वत्र लभ्यते दैवद्य दुःखमयत्नतः ॥*
                    (श्रीमद्भा० ७/६/३)

  ‘हे दैत्यपुत्रो! शरीर को प्राप्त होनेवाले सुख-भोग तो देह के उत्पन्न होने के साथ ही निर्धारित हुए रहते हैं। अतएव वे तो दुःख के समान ही बिना परिश्रम किये तथा बिना इच्छा किये ही आकर प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार सुख के भोग भी यथासमय अपने-आप आते हैं।' भक्त कवि नरसी मेहता ने भी गाया है-

  *ऋतु लता पत्र फल फूल आपे जथा,*
  *मानवी    मूर्ख   मन    व्यर्थ   सोचे।*
  *जेहना  भाग्य मां जे समे जे  लख्युँ,*
  *तेहने     तेसमे      तेज     पहोंचे ॥*

   अर्थात् मूर्ख मनुष्य व्यर्थ ही मन में चिन्ता करता है; जिस प्रकार ऋतुएँ लताओं में पत्र, फल, फूल समयानुसार प्रदान करती हैं, उसी प्रकार जिसके भाग्य में जिस समय जो लिखा है, उस समय उसको वह प्राप्त होता ही है ।

   परंतु मनुष्य तो उलटा चलता है; जो काम प्रारब्ध के अधीन है, उसके लिये जीवनभर परिश्रम किया करता है। पर प्रारब्ध से अधिक तो किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और जहाँ धर्म और मोक्ष के लिये परम पुरुषार्थ की आवश्यकता है, वहाँ उसकी ओर उसका लक्ष्य ही नहीं जाता।

यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुषः ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्
प्रोद्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥

   यह कायारूपी घर जबतक सही-सलामत है और वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियाँ तथा मन-बुद्धि अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हैं तथा आयु शेष है, तभीतक बुद्धिमान् मनुष्य को आत्मकल्याण का साधन कर लेना चाहिये। बुढ़ापा आनेपर कुछ भी नहीं बन पड़ेगा। अतएव आग लगनेपर कुआँ खोदने के समान मूर्खता करना ठीक नहीं।

   अब श्रुति भगवती ने मानव-जीवन का जो लक्ष्य बतलाया है, उसे देखकर यह प्रसंग समाप्त किया जायगा -

लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् ।
यस्त्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधी: स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् ॥

   महान् पुण्य के प्रताप से परम दुर्लभ मानव-शरीर मिला हो और उसमें फिर श्रुतियों का रहस्य समझने के अधिकारवाला पुरुष-शरीर प्राप्त हुआ हो, इतने पर भी जो मूर्ख अपनी मुक्ति के लिये यत्न नहीं करता; उसे देवतालोग आत्महत्यारा कहते हैं। जिस शरीर से परमपद की प्राप्ति करनी थी, उसका उपयोग विषयभोग में करके मनुष्य अपनी मूर्खता से मानो घुँघची लेकर बदले में पारसमणि दे रहा है—अपने लिये ही अपनी कब्र खोद रहा है।

 *ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।*
 *गुंजा  गहइ   परसमनि  खोई ॥*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

7 Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-28

प्रिय ! बड़े भाग मानुष तन पावा …
(श्री रामचरितमानस)

मित्रों ! अयोध्या जी में मेरे साथ
जनकपुर धाम के एक मित्र हैं …जो यहाँ के
अच्छे परिचित भी हैं …यहाँ के सन्त महंतों से
अच्छा व्यवहार भी है …। कल शाम 4
बजे एक महन्त जी ने हम लोगों को बुलवाया
…मेरी इच्छा नही थी …पर उनका आग्रह
मैं टाल भी नही पाया …हम लोग गये ।

प्राचीनता लिए हुई मन्दिर, और बहुत विस्तृत
भू खण्ड उनके पास थी …हम भीतर गये …तो
महाराज जी अपने तखत पर बैठे हुये थे…और
शतरंज खेल रहे थे …मैंने देखा तो मुझे
हँसी आयी …उन्होंने बड़े सम्मान से हमें
बैठाया …और पानी और चाय के लिए भी पूछा
…फिर बोले …बस अंतिम चाल है …खेल
लूँ ?…हम लोग सहजता से “हाँ” ही
बोले…वो फिर खेलने में मग्न हो
गये…मैं उनकी चाल को देख रहा था…घोड़े
हाथी ऊँट मंत्री सैनिक और राजा
…मैंने तेरे हाथी मार दिए …मैंने
ऊँट…बस यही चाल चल रहे थे…मैं
उनको बड़े गौर से देख रहा था …बहुत सीरियस हो कर खेल रहे थे ।

शतरंज के खेल में बहुत दूर की चाल को समझ कर
चलना पड़ता है …अगर तुरन्त का देखकर
तुम ने चाल चली तो तुम्हारा राजा मर गया
…तुम हार गये । …मुझे ये सब देखकर
बहुत हँसी आरही थी …पर मेरे मित्र ने मुझ
से इशारे में कहा …मत हंसियेगा …महन्त
जी बुरा मान जायेंगे । और उस समय तो मेरी
हँसी छूट ही गयी…जब “मंत्री मर
गया”…अब अपने राजा को बचा …ये कहकर
जब वो उछले तब मुझे ऐसी खिलखिलाहट वाली
हँसी आयी …एक बार तो उन्होंने मुझे देखा
…फिर वह भी थोड़ा सा मुस्कुराये
…क्यों कि जीत रहे थे ।

मैं सोचने लगा …चतुर खिलाड़ी वही है
…जो दूर की सोच कर चलता है …चतुर
खिलाड़ी वो है …जो तुरन्त के लाभ को लाभ नही
मानता …और ज्यादा लाभ के लिए छोटे मोटे
दांव छोड़ भी देता है …छोड़ देना भी चाहिए
। …कैसी विडम्बना है ना …हम लोग क्षणिक सुख के लिए अपने इस सुंदर से जीवन रूपी दांव को खो देते हैं …है ना ? …हम लोग …क्षणिक
लोभ , काम , ईर्ष्या के चलते …इतने
सुंदर जीवन को व्यर्थ गवाँ देते हैं । …एक
बात अच्छे से याद रखना भगवान – ये साधु
है …ये गृहस्थ है …ये नागा है …ये
महन्त है …ये सब वो नही देखते …वो
तो तुम्हारा हृदय देखते हैं…वो तो
प्रेम से सिक्त मन देखते हैं …वो तो ये
देखते हैं कि तुम्हारा हृदय उनके रहने लायक है
या नही …अगर आप का हृदय कोमल होगा
…तो वह तुरन्त प्रकट हो जायेंगे…पर
अगर आप का हृदय कठोर होगा तो वह अप्रकट ही
है …उनका कठोर हृदय में प्राकट्य
सम्भव ही नही है । फिर मेरे ही मन ने प्रश्न किया …कोमल हृदय की पहचान
क्या है ?…सम्वेदनशीलता , करुणा , दया ,
प्रेम ।…और कठोर हृदय की पहचान ? …मैंने
ही चिंतन किया – कठोर हृदय की पहचान
है…हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या…और मुख्य है कामना का जोर
…रजोगुण का तीव्र वेग ।

क्या है ये जगत …? क्या झूठ नही है ?
…ये शरीर क्या है ? क्या ये मिट्टी नही
है ? …और क्या ये क्षणिक नही है ? इतना
सब समझते हैं …फिर भी क्यों अच्छे से
नही खेलते जीवन का शतरंज ? …ये मौक़ा है
…ये अवसर है …फिर ये अवसर मिले या न
मिले …कोई पता थोड़े ही है ।

कल एक अच्छे विद्वान मिले थे …सरजू नहाते
हुये …मैंने उनसे शास्त्र की बात पूछी और
कहा …मनुष्य मरने के बाद फिर मनुष्य ही
तो बनेगा है ना ? …निम्न योनि में क्यों
जाएगा ?
उसका मन जहाँ है वही जाएगा …उसका चित्त
जहाँ है …वही जाएगा …उसके चित्त में
जो छप गया है…ये मनुष्य वहीं
जाएगा…मैंने उन विद्वान से पूछा था …कि
नही …कई पाश्चात्य विद्वानों की … पूर्व
जन्म के प्रति उनकी राय ये रही है कि मनुष्य तक की यात्रा…एक जीवात्मा के विकास की यात्रा
है …पेड़ पौधे से लेकर मनुष्य तक
पहुँचना ये एक जीवात्मा का सफ़र है
…फिर जीवात्मा मनुष्य बनने के बाद पशु नही बन सकता
…आप क्या कहेंगें ? …उन्होंने कहा
…आप जो कह रहे हैं …ये मात्र बुद्धि
की खुजली मिटाने वाली बात है …पर
अध्यात्म विज्ञान यही कहता है …और सत्य भी यही है कि मन और चित्त जहाँ जाएगा …जिसमें लगेगा
…जीवात्मा वहीं जाएगा ।
…जैसे अंतिम अवस्था में चित्त में जो
बसा है …वहीं जाना पड़ेगा इस
मनुष्य को । सरजू के किनारे उन विद्वान
ने मुझे कहा …आपने सुना होगा साँप
बनकर अपने जमीं पर गड़े धन की रक्षा कर रहा है
उस घर का मालिक…तो धन के प्रति अत्यंत
आसक्ति होगी …तो वो आसक्ति आप को दूसरे
जन्म में सांप ही बनायेगी ।

इसलिए “अवसर बीते फिर पछितै हैं”…ये
मनुष्य जन्म अवसर है …इसे खोना नही ।
कामना की आँधी में बह मत जाना …क्या होगा ?
…करोड़ रूपये भी बैंक में हों …उससे क्या ?
खाओगे तो चार रोटी सुबह चार शाम को …है ना ?
…बस एक मन में सन्तुष्टि ही तो है कि
मेरे पास एक करोड़ रूपये हैं…और मजे की बात …
वो करोड़ तुम्हारे पास भी नही है …बैंक में हैं
…पर तुमने मान लिया है …और मानने से
ही तुम सन्तुष्ट हो …तो मान लो ना
…कि अखिल ब्रह्माण्ड नायक श्री भगवान
तुम्हारे अपने हैं …वो ही सबका ख्याल रखते
हैं फिर तुम्हारा क्यों नही रखेंगे ?
…उन्हें हृदय से अपना मानकर तो देखो ।

कब क्या हो जाए …कुछ पता नही …कब तुम मिट
जाओ इस जगत से …कोई पता नही …।

“हरा दिया – मैं जीत गया”…इतना कहते हुये वो
महन्त जी उछले…वो अपनी शतरंज की चाल में जीत गये थे ।

नही नही …ऐसा मत सोचिये कि जितने ये सन्त
हैं या महन्त हैं
सब भगवत् प्राप्ति के लिए ही साधु बने हैं
…नही …और ऐसा भी मत सोचिये कि ये
जितने धार्मिक अनुष्ठान करने वाले होते हैं
…ये बड़े भक्त होते हैं …ये भगवत्
प्राप्ति के प्रति गम्भीर हैं …नही
…ऐसा कुछ भी नही होता …हो सकता है कि
मन्दिर में जाने वाला अपने कामना के वेग को लेकर
मन्दिर में जा रहा है …कि हे भगवान ! मेरा
व्यापार चला दे …तो वह कहाँ गम्भीर है ?
…वो कहाँ जीवन को लेकर गम्भीर है …ऐसी
कामना वाला व्यक्ति मन्दिर में हजारों बार भी जाए
उससे क्या ? वह साधक थोड़े ही हो गया …या
भक्त थोड़े ही हो गया …ऐसा व्यक्ति कामना
की पूजा करता है …भगवान की पूजा नही ।

मैंने उन महन्त जी से कहा आप तो अच्छे खिलाड़ी
हैं …वो खुश होकर बोले …हाँ 10
वर्षों से लगातार खेल ही रहा हूँ …और लगभग
जीतता ही हूँ …।
मैं मात्र मुस्कुराया …

रजोगुण का स्वभाव होता है …कामना …आप अगर
निष्काम नही है …तो आप उस “परम प्रेम” को पा ही नही सकते…कामना ही आपको परेशान करती
रहती है …कामना ही आप को व्यर्थ के उलझन
में डाले रहती है …कामना से ही क्रोध की
उत्पत्ति होती है …कामना तो कभी पूरी
होती नही …और जब कामना की पूर्ति नही होती
तो क्रोध का जन्म होता है …।

मैंने उन महन्त जी से ये कहकर विदा ली …कि मुझे कल वृन्दावन जाना है …इसलिए मुझे जाना पड़ेगा । मैं निकला …”गुप्तार घाट” में हम सब लोग गये…यह वह स्थान है जहाँ से भगवान श्री राघवेंद्र अपने साकेत धाम गये थे ।
यहाँ की ऊर्जा ज्यादा ही विरह से भरी हुयी है …भीतर के मन्दिर में गया तो वहाँ पहुँचते ही मुझे ऐसा लगा कि मैं यहाँ रोऊँ …एक जगह बैठ जाऊँ और दहाड़ मार कर रोऊँ …क्यों है यहाँ ऐसी ऊर्जा ? …यहाँ के परमाणु ऐसे क्यों हैं ?…शाम हो गयी थी …अब तो थोड़ा थोड़ा अँधेरा भी छाने लगा था …एक वयोवृद्ध पुजारी जी थे वहाँ …मैंने उनको अकेले पाकर पूछ ही लिया यहाँ ऐसी ऊर्जा क्यों ? …भगवान श्री राम इस धरा को छोड़कर जब गये होंगे तो कितनी व्याकुलता, कितना विरह व्याप गया होगा इन अयोध्या वासियों को …मैंने जैसे ही ये शब्द सुने …मैं वहीं बैठ गया …और मेरे अश्रु बह चले …मेरे राम यहाँ से गये …ओह ! ये धरती भी रो गयी होगी …ये वृक्ष भी …यहाँ के पशु पक्षी …।

महाराज जी चलिये …जनकपुर के मित्र ने मुझे आवाज़ दी …मैं अपने आँसुओं को पोंछते हुये चल दिया ।
तभी मेरी दीदी का फोन आया …महाराज ! पागलबाबा के यहाँ कल प्रसाद है …तुम्हें बाबा ने … कहाँ है हरि ? 2 दिन की कहकर गया था अयोध्या , 3 दिन हो गये …। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही …मैंने दीदी से कहा …मैं कल ही आरहा हूँ ..। …धर्म मर्यादा की भूमि है श्री अयोध्या …ज्ञान की भूमि है काशी…पर प्रेम का उछलता हुआ स्वरूप तो वृन्दावन में ही है …प्रेम का साक्षात् दर्शन श्री वृन्दावन में ही है । मर्यादा की इस भूमि को प्रणाम । सत्य की इस भूमि को प्रणाम …भगवान श्री राम के मन्द मुस्कान को प्रणाम ।

“तू दयालु दिन हौं, तू दानी हौं भिखारी”

Harisharan

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