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June 23, 2025 8:49 am

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संघ प्रदेश दमन के प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के मार्गदर्शन से आयुष मंत्रालय के वर्ष 2025 के थीम के अनुसार “एक पृथ्वी और एक स्वास्थ्य – योग” स्वास्थ्य विभाग दमन द्वारा संघ प्रदेश दमन में पूरे जोश से तैयारी चल रही है।

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श्री सीताराम शरणम् मम 143भाग 2″श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 106″,(साधकों के लिए) भाग- 29 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣3️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

कहिये ब्राह्मण देवता ! आपको हम क्या दे सकते हैं ?

प्रभो ! मैने हाथ जोड़े भरत भैया के…..और कहा ………अयोध्या में तो अब मंगल ही मंगल होनें वाला है……शुभ ही शुभ……..।

क्या मंगल ? मंगल तो तब हो जब इस भरत को क्षमा करके मेरे श्रीराम यहाँ आजायें …………

हाँ आरहे हैं श्रीराम !

प्रभो ! भरत भैया ने जैसे ही ये सुना ………वो तुरन्त उठकर खड़े हो गए……क्या कहा ब्राह्मण देवता ! देखो ! मेरे साथ विनोद मत करना ……..मैं बहुत दुःखी हूँ………..शायद इस संसार का सबसे ज्यादा दुःखी व्यक्ति ………मेरे कारण मेरे अत्यन्त कोमल भैया श्रीराम को वन में जाना पड़ा………मैं पापी हूँ …………

ये कहते हुए मेरे सामनें हाथ जोड़कर गिर पड़े थे भरत भैया ।

मैनें तुरन्त उठाया ……….और कहा ………मैं सच कह रहा हूँ ……….वो आरहे हैं …………….आप बस तैयारी कीजिये ।

मेरे मुख से इतना सुनते ही भरत भैया अति आनन्दित होकर मूर्छित ही हो गए थे…….फिर जब उठे तब ………

ब्राह्मण देवता ! मै आपको क्या दूँ ! आप अनेक गाँव ले लीजिये …..

नही नही …….ये समाचार तो बहुत अमूल्य है………..इसके लिये गाँव मात्र पर्याप्त नही होगा ……..ब्राह्मण देवता ! आप रत्न, मणि , माणिक्य जितना चाहिये ले लीजिये …………..नही नही ………ये समाचार तो ……..फिर आनन्दित होकर अश्रु बहानें लगे थे भरत भैया !

ये भरत आपका ऋणी हो गया है……..आपनें मेरे श्रीराम के आनें की सूचना जो दे दी…….मेरे पांव पकड़ लिये थे प्रभो !

हनुमान बता रहे हैं……….तभी मेरे पास मुस्कुराते हुए शत्रुघ्न कुमार आये …….ब्राह्मण देवता ! आपको पहले भी कहीं देखा है ?

भरत भैया भी उठ गए ………..और मेरी और बड़े ध्यान से देखनें लगे थे …………आप ? फिर सोचनें लगे ।

प्रभो ! फिर कुछ देर में हँसे भरत भैया ………हनुमान ! अपनें दोनों बाहों को फैलाकर मेरी ओर देखा……….धन्य हनुमान ! और मुझे अपनें बाहु पाश में बाँध लिया…..।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……..!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-106”

( नाग सुन्दरी और कन्हैया )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ……

कन्हैया जब कूदयो हो हृद में …..तब हृद कौ जल सौ हाथ ऊपर तक उछ्ल्यो हो । जल के विष तै पक्षी पशु तत्काल मर गए हे । वैसे ही हृद हलाहल विष के कारण उबल रह्यो हो …बामें कन्हैया ने कूद के और उबाल लाय दियौ । इधर तौ हम सब विरह में डूबे हे …..और दाऊ भैया की ओर ही देख रहे ….सबकूँ लग रह्यो कि दाऊ कछु करैगौ ।

उधर ……

कन्हैया जैसे ही हृद में कूदे ……सोई जल कौ प्रवाह अत्यन्त तेज है गयौ और बा प्रवाह ने सीधे कालीय नाग के निवास स्थल में कन्हैया कूँ पहुँचाय दियौ ।

बा कालीय कौ निवास सुन्दर हो …..कन्हैया ने देख्यो कि कालीय नाग सोय रह्यो है ….कन्हैया बाके निकट पहुँचे …और जैसे ही अपने चरण के प्रहार ते बाकूँ उठायवे लगे कि तभी …..

हे बालक ! रुक जाओ । कई ध्वनियाँ गूँजी । कन्हैया ने मुड़के जैसे ही देख्यो ……सुन्दर, अत्यन्त सुन्दर नारियाँ हैं ….कन्हैया मुस्कुराये …..वो नाग सुंदरियाँ तौ बस कन्हैया कूँ देखती ही रह गयीं …..आहा ! कितनौं सुन्दर बालक है । नीलमणि की कान्ति अंग ते छिटक रही है ….घुंघराले केश मुखमण्डल में कैसे छाए भए हैं ….कमर में बंधी पीताम्बरी कितनी सुंदर लग रही है ……कन्हैया के अप्रतिम सौन्दर्य ने नाग वधून के मन कूँ मोह लियौ ।

बालक ! कौन हो तुम चौं आए हो ? कहा तुम्हारौ नाम है ? कहाँ के हो ?

चार पाँच नाग सुन्दरियन ने आयके कन्हैया तै पूछी ।

नन्दगाँव मेरौ गाँव है , बृजराज मेरे पिता हैं और हे नागसुन्दरी ! यशोदा मैया मेरी मैया हैं ….कन्हैया निर्भय है कै बोल रहे हैं ……मेरे आयवे कौ कारण है …..तेरे कालिय नाग कूँ नथ के मैं अपने नन्दगाँव लै जाऊँगौ । कन्हैया की बात सुनके नाग सुन्दरीयाँ हँसीं ….और बोलीं …आश्चर्य है बालक ! कि तू अभी तक जीवित कैसे है ? क्यों कि सौ योजन ऊपर ते उड़वे वारे पक्षी हूँ मेरे पति के विष के प्रभाव तै या हृद में गिर के मर जामें …..लेकिन तू अभी तक जीवित है ?

दूसरी नाग सुन्दरी आयी आगे ….वो बोली ….बालक ! तैनैं हमारे पति कूँ नाथने की बात करी …..बालक ! तू नही जानें …हम सब अपने पतिन तै बहुत प्रेम करें हैं …तेरी जगह कोई ओर होतौ तौ हम अभी अपने विष तै बाकूँ मार देते …..लेकिन ……

कन्हैया हँसे …..लेकिन का ? नाग सुंदरियाँ बोलीं ….बालक ! तू इतनौं सुन्दर है कि तोकुँ मारवे की इच्छा ही नही है रही ….या लिए तू हमारी बात मान ….तू भाग जा । बालक तू भाग जा ! अब तौ सब नाग सुंदरियाँ कहवे लगीं ……हमारे पति कालिय नाग जाग गए तो तोकुँ मार देंगे …..हम नही चाहें कि तू इतनौं सुन्दर बालक है ….और हमारे पति के द्वारा मारौ जाये ….या लिए बालक ! तू भाग जा ।

कन्हैया गम्भीर है गए और ताल ठोकी, बोले …..मैं नही भागूँगौं …भागैगौ तेरौ पति । क्यों कि जे स्थान हमारौ है तुम नाग जाति के लोगन कौ नही है ……या लिए अब तौ तेरे पति कूँ जागनौं ही पड़ैगौ …..कन्हैया जे कहते भए …सोते भए कालिय में जोर ते एक चरण प्रहार कियौ ……

नाग सुंदरियाँ डर गयीं …..मत कर बालक ! मत कर ! तोकुँ देखके हमारे मन में दया आय रही है …तू चौं मरनौं चाह रह्यो है ……का तेरे बाबा ते तेरी लड़ाई भई ? या मैया तै ? कहीं तू घर तै लड़ झगड़ के यहाँ मरवे तौ नही आयौ ? या तेरी पत्नी ने तोकुँ कछु कही ।

कन्हैया हँसते भए बोले …..मैं अभी छोटौ हूँ मेरौ ब्याह नही भयौ । कन्हैया की मुस्कुराहट में सब नाग सुंदरियाँ आह भरवे लगीं ।

कन्हैया अब पूरे प्रेम में भर गए …और बोले …..सुनौं ! सुनौं हे नाग सुन्दरियों !

मेरी प्यारी हैं श्रीराधारानी ….हे नाग सुन्दरियों ! श्रीराधा मेरी प्राण हैं …..अब सावन आय रह्यो है ना …..तेरे पति कालीय नाग की रस्सी बनाय के मैं कदम्ब वृक्ष में झूला डालूँगौ ….और बा झूला में मेरी श्रीराधारानी झूलेंगीं ।

कन्हैया ने इतनी बात कही और फिर अपने चरण कौ प्रहार कालीय नाग के ऊपर …..लेकिन ओह ! या बार तौ कालिय नाग उठ गयौ …..बाके एक सौ एक फन खुल गए ……नाग सुंदरियाँ डर गयीं कि अब जे सुन्दर बालक मर जावैगौ …….लेकिन जे तौ कन्हैया है ………..

क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - १६*

               *🤝 ५. व्यवहार 🤝*

             _*दुःख की निवृत्ति का उपाय*_ 

 *यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः।*
 *तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥*

   आकाश को चमड़ी के समान शरीर में लपेटने में यदि मनुष्य समर्थ होगा, तभी वह देव के दर्शन के बिना, ईश्वर का साक्षात्कार किये बिना दुःख से पार हो सकेगा। विधिमुख से इसी बात को इस प्रकार कह सकते हैं कि जैसे आकाश को चमड़ी के समान शरीर में लपेटना असम्भव है, उसी प्रकार ईश्वर का दर्शन किये बिना दुःख से पार पाना मनुष्य के लिये अशक्य है।

   यह श्लोक श्वेताश्वतर-उपनिषद् का है। इसके बाद के तीन श्लोकों में यह कहा गया है कि श्रीश्वेताश्वतर ऋषि ने बहुत दारुण तप किया था और उसके बाद उनको इस उपनिषद् का ज्ञान प्राप्त हुआ। अतएव किसी भी अनधिकारी पुरुष को इस उपनिषद् का ज्ञान नहीं देना चाहिये।

   ज्ञान के लिये अधिकार के विषय में एक सन्त ने बहुत सुन्दर बात लिखी है, उसे देखिये—भक्ति के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है, शरणागति के बिना भक्ति नहीं होती। सद्गुरु के बिना शरणागति का भाव नहीं आता और मुमुक्षुता के बिना सद्गुरु की शरण नहीं मिलती। मैं कौन हूँ? ईश्वर कौन है? जगत् क्या है? ज्ञान क्या है? – यह जानकर स्वरूप-ज्ञान-प्राप्ति की तीव्र इच्छा के बिना सच्ची मुमुक्षुता नहीं आती। वैराग्य के बिना तीव्र इच्छा नहीं होती। विषय का तिरस्कार हुए बिना वैराग्य नहीं टिकता। त्रिविध ताप के संताप से व्याकुल हुए बिना विषय-भोग के प्रति तिरस्कार नहीं होता। इन सब स्थितियों में से अपनी मनोदशा का विचार करके ही *'हे भगवन्! मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो'*–यों कहने का अधिकार मिलता है। भगवान्‌ का ज्ञान नहीं है, अपना भी भान नहीं है और *'मैं भगवान्‌ का भक्त हूँ, भगवान् मुझपर कृपा करके मुझको अवश्य दर्शन देंगे, मैं मुक्ति पाऊँगा।'*– ऐसा अनुमान करना व्यर्थ है।

   इस बात को शास्त्र इस प्रकार समझाते हैं.
  *विषयासक्तिनाशेन विना न श्रवणं भवेत् ।*

ताभ्यां विना न मननं न ध्यानं तैर्विना क्वचित् ॥

  विषयासक्ति, भोग-लालसा का नाश किये बिना गुरु-उपदेश का यथार्थ श्रवण भी नहीं हो सकता। जबतक चित्त विषयों में ही भटकता रहता है, तबतक एकाग्रतापूर्वक श्रवण ही नहीं बन सकता। *इसी प्रकार बाँचने की बात भी समझ लेनी चाहिये। जबतक श्रवण और पठन ठीक-ठीक नहीं होता, तबतक उसका मनन किस प्रकार हो सकता है? और जिसका मनन न हो, वह विषय, भला अन्त:करणमें स्थिर कैसे रह सकता है ? और जो विषय अन्तर में स्थिर न हो, वह जीवन में कैसे उतर सकता है ?*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-29

प्रिय ! प्रीत की रीत रंगीलो ही जानें …
(सन्त वाणी)

मित्रों ! मैं कल शाम को वृंदावन धाम पहुँचा …घर में आते ही पता चला कि बाबा मुझे याद कर रहे हैं …और आज शाम को पद और संकीर्तन का आयोजन है …।
मैं अयोध्या का सामान घर में रखकर बाबा के कुञ्ज की ओर गया …वहाँ तो आज दिव्य सजावट थी …कुञ्ज के द्वार पर केले के खम्बे लगाये गये थे …रंगोली की रंग चटक थी …गुलाब जल का छिड़काव किया गया था …वेला और मोगरे के फूलों की विशेष सजावट थी । मेरा मन नाच उठा …हल्की बूंदें भी पड़नी शुरू हो गयीं …। मैं आगे गया …भीड़ थी …पर बाबा ने अपने पास बुलाकर बैठाया …धीरे से मेरे कान में बोले …कब आये ? मैंने कहा …बाबा बस सीधे ही आरहा हूँ …।
गौरांगी पद का गान कर रही है …पखावज और सारंगी की ध्वनि में गौरांगी की आवाज दिव्य लग रही थी …वो गा भी तो “रस” ही रही थी …कितने सुंदर प्रेम की ऊंचाई थी उन पदों में –

  • थके हैं श्री कृष्ण …आज अपनी प्रिया श्री राधिका को नाव में बहुत घुमाएं हैं …जब श्री किशोरी जी कहतीं देखो ! प्यारे ! वो यमुना जी में खिला हुआ कमल कितना सुंदर लग रहा है …तो हमारे श्री कृष्ण यमुना जी में कूद जाते …और वो कमल तोड़ कर अपनी आल्हादिनी को अर्पित करते …पर आज थक गये …जल्दी ही उन्हें नींद आगई …और कमल कुञ्ज में जाकर कमल की सेज़ जो सखियाँ ने सजाई थी …उसमें सो गये ।
    श्री राधा जी आयीं …देखा …प्यारे सो रहे हैं …ओह ! कितने सुंदर लग रहे हैं…देखते देखते …श्री किशोरी जी स्तब्ध हो गयीं ।
    इस दृश्य को दूर से एक सखी ने देखा उसका नाम था “हरिप्रिया”…राधिका का हाथ पकड़ कर हरिप्रिया ने झक झोरा …तब जाकर श्री किशोरी जी को होश आया …।

गौरांगी बड़े प्रेम से गा रही है…चारों ओर साधक बैठे हैं …और वो सब आँखें बन्द करके उस लीला का चिंतन कर रहे हैं ।

श्री राधा हरिप्रिया नामकी सखी के निकट आईँ …और उसे बड़े प्रेम से दूर ले गयीं ताकि श्री कृष्ण को नींद में कोई विघ्न न हो ।
हे ! हरि प्रिया ! तू मेरी सबसे प्यारी सखी है …मैं ये बात किसी और को नही बता सकती …देख ना ! आज मेरे प्राण धन पहले ही सो गये …तो उठा दो ना प्यारे को ! उस सखी ने श्री राधा जी को कहा…श्री राधा बोलीं …ये प्रेम नही हुआ ना ! …अगर मैं अपने प्रियतम को अपने सुख के लिए …ये उठें और मुझ से बात करें…मुझे अच्छा लगेगा…ऐसा सोचूँ तो ! हरिप्रिया !
ये तो स्वसुख (अपना सुख) हुआ ना …और जहाँ स्वसुख की भावना हो …या स्वसुख की कामना हो…तो वहाँ प्रेम कहाँ ? …प्रेम तो वह है “हरिप्रिया” जहाँ बस देना ही देना है …सुख कैसे मिले मेरे प्राण नाथ को …कैसे सुख मिले मेरे प्रियतम को …मुझे सुख नही चाहिए …मेरे प्रिय खुश हों …तो हम भी अत्यंत खुश रहेंगे ।
तो हे हरिप्रिया ! अब मैं उनके बिना कैसे रतिया काटूंगी …अभी एक एक पल मेरे लिए कल्पों के समान व्यतीत हो रहे हैं …अच्छा सुन ! देख … श्री राधा जी बड़े प्रेम से अपनी निज सहचरी को अपने प्रेम का हृदय में छुपा हुआ भाव बता रही हैं ।

प्रेम ये नही है सखी ! कि हम उनसे चाहें …हम अगर उनसे कुछ भी चाहते हैं तो हमारा प्रेम दूषित हो ही गया …अरी मेरी हरिप्रिया ! प्रेम धवल है …प्रेम अत्यंत स्वच्छ और परम पावन है …पर हमारी कोई भी कामना प्रेम को दूषित कर देती है …इस जगत में प्रेम से बड़ा कोई तत्व नही है …बड़े बड़े योगिन्द्र भी योग कर कर के हार गये …पर उस प्रेम को नही छू पाये …। श्री राधा जी जब बोल रही थीं …तो उनकी दृष्टि सोये हुये अपने प्यारे पर ही पड़ रही थी ।

सखी ! प्रेम के मार्ग में सबकुछ है …प्रेम के मार्ग में पूर्णत्व है …क्यों कि प्रेम ही सर्वोच्च है …प्रेम को जिसने पा लिया उसने सब कुछ पा लिया …। सखी ! चल ना …फिर पास में जाकर देखना चाहती हूँ अपने कृष्ण को …राधा जी ने कहा…। चलते हुये ही श्री राधा रानी अपनी सहचरी से बोलीं ! पता है सखी ! ये प्रेम भी बड़ा विचित्र है …इसमें ध्यान लगाने के लिए …आँखें बन्द करने की भी जरूरत नही है …खुली आँखों से ही दीखता है …। अरी हरिप्रिया ! ये आँखे थोड़े ही देखती हैं …देखता तो मन है …मन ही सबकुछ है …फिर जब मन ही प्यारे में लग गया तो फिर आँखें मूदने की जरूरत ही क्या है ? …नही- नही पहले प्रणायाम करो…फिर अपने प्रियतम का ध्यान करो …श्री किशोरी जी हँसी …अरे “प्यारे” का ध्यान तो निरन्तर चल ही रहा है …और चलता ही है …और अगर नही चल रहा तो तुम्हें प्रेम ही नही है …। जहाँ प्रेम होगा …वहाँ तो बस ध्यान ही ध्यान है ।
सखी ! जप करना भी इस बात का प्रमाण है कि हमारा प्रेम पक्का नही है …अगर हमारा प्रेम पक्का होता तो जप की क्या जरूरत …वहाँ तो नाम न निकल पड़े इसलिए बड़े सावधान हैं … …जबरदस्ती रोक रहे हैं …पर हरिप्रिया ! वह सच्चे प्रेमी असफल ही रहते हैं …नही रोक पाते उसके चिंतन को …नही रोक पाते उसके नाम के सुमिरन को … दुनिया समझ ही जाती है ।
ये प्रेम की साधना ही बड़ी विलक्षण है …इसमें रोना हँसना है और सखी ! हँसना रोना है । मिले रहते हैं …पर ऐसा लगता है कि कई युग बीत गये मिले ।
गौरांगी गा उठी …तभी अपनी प्रिया की आवाज़ सुनकर श्री कृष्ण उठ गये …और ऐसे दौड़ी श्री राधा रानी , जैसे युगों के वियोग के बाद आज मिले हैं । इस छवि को देखकर “हरिप्रिया सहचरी” तृण तोड़कर फेंक देती है । (नज़र उतारना)

पदों का गायन समाप्त हुआ …सबने श्री जी का प्रसाद लिया …और बाबा को प्रणाम कर कर के सब लोग जा रहे थे ।

गौरांगी ने बाबा से पूछा बाबा ! लोग मेरे पैर छूते हैं …मुझे अच्छा नही लगता …लोग मेरे सामने झुक कर मुझे प्रणाम करते हैं …बूढ़े बड़े लोग भी जब मुझे नमन करते हैं तब मुझे अच्छा नही लगता …मैं क्या करूँ ? …

बाबा बोले …गौरांगी ! तुम्हें क्या लगता है कोई “तुम्हें” प्रणाम करता है …इस तुच्छ देह को प्रणाम करता है …नही …वो प्रणाम करता है …तुम्हारे अंदर छुपे हुये साधुता को …तुम्हारे हृदय में रह रही करुणा को …और तुम भगवान से सबंध जोड़ चुकी हो इसलिए …नही तो ये अहँकार बिल्कुल मत लाना कि कोई तुम्हें प्रणाम कर रहा है । बाबा बोले गौरांगी ! कल थोड़ा जीन्स पहनकर …और अर्धनग्न ड्रेस पहनकर चलो तो …बताओ कोई भी तुम्हें प्रणाम करेगा ? …तुम्हारे पैर छूएगा ?
सब तुम्हें वासना की नज़र से देखेंगे…है ना ? …बाबा बोले गौरांगी ! ये देह कुछ नही है …मैं…मैं …करने से बकरी कट जाती है …”ये शरीर मैं हूँ” …इस भाव से ही सारे कष्टों का जन्म होता है …इसलिए ये बेकार के प्रश्न हैं …कि कोई मेरे पैर छूता है …गौरांगी ! वो तुम्हारे भाव को छू रहा है …वो तुम्हारे अंदर जो भगवत् तत्व नाच रहा है …उसे प्रणाम कर रहा है …। बाबा थोड़ी देर बाद बोले …अच्छा ! एक काम करो …कोई तुम्हें प्रणाम करे …तो तुम भी उसी की तरह उन्हें प्रणाम करो …वो तुम्हारी प्रेम साधना …वो तुम्हारी भक्ति को प्रणाम कर रहे हैं …तो तुम भी उनकी श्रद्धा को प्रणाम करो ।

“बलिहारी वा घट की , जा घट परगट होय”

Harisharan

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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