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June 23, 2025 9:40 am

लेटेस्ट न्यूज़

संघ प्रदेश दमन के प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के मार्गदर्शन से आयुष मंत्रालय के वर्ष 2025 के थीम के अनुसार “एक पृथ्वी और एक स्वास्थ्य – योग” स्वास्थ्य विभाग दमन द्वारा संघ प्रदेश दमन में पूरे जोश से तैयारी चल रही है।

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श्री सीताराम शरणम् मम 143भाग 3″श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 107″,(साधकों के लिए) भाग- 30 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक: Niru Ashra

Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
          *🌺भाग 1️⃣4️⃣3️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 3`

     *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे -*

मैं वैदेही !

हनुमान बता रहे हैं……….तभी मेरे पास मुस्कुराते हुए शत्रुघ्न कुमार आये …….ब्राह्मण देवता !  आपको पहले भी कहीं देखा है  ?

भरत भैया  भी उठ गए ………..और मेरी और बड़े ध्यान से देखनें लगे थे …………आप  ?     फिर सोचनें लगे  ।

प्रभो !  फिर कुछ देर में  हँसे भरत भैया  ………हनुमान  !      अपनें दोनों बाहों को फैलाकर  मेरी ओर देखा……….धन्य हनुमान !    और  मुझे अपनें बाहु पाश में बाँध लिया…..।

तभी गुरु वशिष्ठ जी पधारे …………..

गुरुदेव !    मेरे प्रभु आरहे  हैं …….मेरे आर्य आरहे हैं …….मेरे इष्ट आरहे हैं …..उन्होंने इस  भरत को क्षमा कर दिया………ये कहते हुए  गुरुदेव के चरणों में लेट गए थे भरत भैया ।

ये सूचना दी है   इन्होनें………मेरी और  देखते हुए कहा  भरत भैया नें  ।

ये कौन  ?       गुरुदेव नें पूछा  ।

ये  !     हनुमान !     अब तो  आप अपना रूप हटाइये  …………..

मैने  ब्राह्मण का भेष हटाया ……….और अपनें रूप में आगया था ।

मैने प्रणाम किया गुरुदेव को……..गुरुदेव बहुत प्रसन्न हुए ।

हनुमान के द्वारा  अयोध्या की बातें सुनकर   हम सब  अश्रु  बहा रहे थे ।

प्रभो !   मैं  अयोध्या में भी गया ……शत्रुघ्न कुमार  के साथ   रथ में बैठकर  …………….

वहाँ मुझे माताएँ मिलीं ……….बहुएँ मिलीं …………..मुझे सब लोगों नें घेर लिया था ………सब पूछ रही थीं ……रावण मारा गया ?    अब कहाँ हैं  राम  ?        कितनें समय पर यहाँ आयेंगें  ? 

मैने  सारी बातें बताईं …………………।

तभी भरत भैया भी   नन्दीग्राम से गुरुदेव के साथ आगये थे  ।

विमान कहाँ उतरेगा  ?    स्थान  देख लो पवन सुत !     फिर उस स्थान को  समतल भी तो बनाना पड़ेगा ना !   भरत भैया  नें कहा ।

नही भैया !      वो विमान पुष्पक है …………वो पर्वत पर भी  रुक सकता है …….नदी पर भी उतर सकता है ………आप उसकी चिन्ता न करें ।

शत्रुघ्न कुमार    को बहुत भाग दौड़ करनी पड़ रही हैं  प्रभो !

वो बाहर जाते हैं……..सेवकों को आदेश देते हैं …शहनाई  बजवाओ नगर में……पताके रँग बिरंगे   हर घर में लगने चाहिये……रंगोली भी …….फिर  शत्रुघ्न कुमार भीतर आते…….और मेरी बातें सुनते………मुझे माँ कौशल्या नें   बहुत वात्सल्य दिया …..मुझे खूब मोदक खानें को दिया  …………

पता है प्रभो !      तभी  उधर से माँ कैकेई आईँ ……………

उनका शरीर  जर्जर हो गया है …………..14 वर्षों तक उन्होंने अन्न नही खाया है ………प्रभो !     माँ कैकेई  ,  आप आरहे हो ये सुनकर अपनें महल से बाहर आयी थीं ………….।

मेरा पुत्र और मेरी पुत्र बधु आरही है  !  

माँ कैकेई  से ये भी नही बोला जा रहा था ……………..

भरत भैया को जब देखा ………..तब वो डर गयी थीं ………..

मैने उनके चरण वन्दना करनें चाहे ………पर  उन्होंने अपनें चरण छूनें नही दिए ……..धीरे से बोलीं………पापिन कैकेई के पैर छूनें से क्या मिलेगा तुझे  ।

हनुमान ये कहते हुये  कुछ देर के लिए चुप हो गए थे ……मेरे श्रीराम नें अपनें आँसू पोंछे थे ………….

*शेष चरित्र कल ……..!!!!*

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-107”`

*( नाग-निग्रह )*

****************************************

कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …..

कन्हैया  कूँ रिस आयौ । नाग सुंदरियन की बातें हूँ कन्हैया के ऊपर कोई असर नाँय छोड़ पाईं हीं ।    या लिए उछलते भए कन्हैया कालिय नाग के पास गए …नाग सोय रह्यो हो ….नाग सुंदरियाँ फिर बोलीं …..बालक !  मत जा ….मेरे पति महाक्रोधी हैं ।

किन्तु तेरे पति ने मेरौ क्रोध देख्यो नही है …..कहते भए कन्हैया ने या बार फिर  कालिय नाग में….जोर ते अपने चरणन कौं प्रहार कियौ ।   या बार कौ प्रहार तौ अत्यन्त कठोर हो …..कालीय कूँ ऐसौ लग्यो मानों काहूँ ने  विशाल पर्वत याकै ऊपर दै मार्यो हो । 

बिलबिलायौ कालीय नाग …..फूँफकार मारतौ भयौ  कालीय उठ्यो ।    जब कालीय उठ रह्यो हो तब  पूरे यमुना में हलचल मच गयी ही ……विष के प्रभाव तै  जल में तै धूम्र प्रकट है रह्यो हो ।

************************************************

दाऊ !  देख !    बृजराज बाबा रोते भए बोले ….यमुना हृद कौ जल उबल रह्यो है …..विष के कारण जल कौ रंग बदल गयौ है …..मैं जाय रो हूँ ….मेरौ छ वर्ष कौ बालक कालीय कौ ग्रास बन रह्यो है और   मैं पिता है कै बाहर बैठ्यो हूँ ….अपने बालक कूँ बचाय भी नाँय सकूँ ?     बृजराज बाबा एकाएक  बिकल है गए ….करुण क्रन्दन करवे लगे ….बिलखवे लगे …उठ के खड़े है गये …ठीक है मैं अपने बालक कूँ नहीं बचा पाऊँगौ ..लेकिन मैं अपने बालक के संग मर तौ सकूँ …..जे कहते भए यमुना हृद में जैसे ही बृजराज बाबा कूदवे गए ….पीछे तै  दाऊ ने आय के पकड़ लियौ बाबा कूँ ..और  हाथ जोड़के बोले …बाबा !  मेरी बात पे विश्वास करौ ….कन्हैया कूँ कछु नही होयगौ ।  

का कछु नही होयगौ दाऊ !     या हलाहल विष तै मेरे  नीलमणि के अंग जल रहे होंगे …..स्थिति गम्भीर है रही है अब बृजराज बाबा की ।  दाऊ सम्भालनौं चाह रहे हैं …लेकिन इन प्रेमियन कूँ संभालनौं संकर्षण के लिए हूँ आज कठिन है रह्यो है। 

दाऊ !  मेरे सभा में जाते समय अपने सिर में मेरे पादुका कूँ धर के कन्हैया लै आतौ …..कभी कभी यशोदा मेरे पादुका धर देंतीं तौ कितनौं रोतौ …कि बाबा के पादुका मैं ही लाऊँगौ ।     हाय हाय लाला !  तू मोते कितनौं प्रेम करतौ ….अब कहाँ है ?      रो रहे हैं बृजराज ।

दाऊ ने जैसे तैसे बृजराज बाबा कूँ  संभाल्यो …..और दूसरी ओर  बृजरानी हूँ तौ बैठी हैं …..वो उठीं और हृद के पास जाय के …..कन्हैया ! कन्हैया !    चिल्लायेवे लगीं ।    चिल्लाते चिल्लाते जैसे ही  यमुना में जायवे लगीं ….दाऊ ने आयके मैया कूँ पकड़ लियौ ।   मैया !  मैं कह रह्यो हूँ …कन्हैया आयगौ ।     मैया सुनवे की स्थिति  में नही हैं …..वो मूर्छित है गयीं हैं ।

**************************************************

एक सौ फन हैं कालीय के …..कन्हैया कूँ देखते ही वाने अपने एक सौ फन पूरे खोल दिए ……नाग सुंदरियाँ  डर गयीं ……उनकूँ लगवे लगी कि अब तौ जे बालक गयौ ……क्यों कि हमारे पति में क्रोध बहुत है ….हमारे पति या बालक कूँ अब छोडेंगें नही ।    

कन्हैया हँस रहे हैं …..कालीय सामने हैं …..हँसते भए कन्हैया कूँ जब कालीय ने देख्यो तौ और क्रोधित भयौ ….और बाने  विष वमन करनौं शुरू कियौ …..हलाहल विष …..अब तौ बालक मर ही गयौ …जे सोच के कालीय जैसे ही कन्हैया के पास आयौ ….सोई कन्हैया हँसते भए कालीय नाग कूँ मिले …..नाग चकित है कि मेरे विष कौ प्रभाव याके ऊपर चौं ना है रो ।  फिर बाने कन्हैया कूँ देख्यो …तौ कन्हैया फिर हँसे ….कालिय कूँ या बार और क्रोध आयौ ….और बाने कन्हैया कूँ चरण तै लेकर मस्तक पर्यन्त बाँध दियौ ।    कन्हैया मन ही मन मुस्कुराए ….फिर सोचवे लगे मेरी मैया की तरह याने हूँ मोकूँ बाँध दियौ ………….

*क्रमशः…..*
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

            *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                           *भाग – १७*

                   *🤝 ५. व्यवहार 🤝*

                 _*दुःख की निवृत्ति का उपाय*_

       अब यदि दुःख की निवृत्ति करनी है तो पहले उसका स्वरूप देखिये। साधारण अवलोकन करने से भी ज्ञात हो जायगा कि बारम्बार जनमना और बारम्बार मरना तथा उतनी ही बार गर्भवास की यातनाएँ। भोगना-इसके समान दूसरा कोई भी दुःख इस जगत्‌ में नहीं है। आधि, व्याधि और उपाधि-जैसे दूसरे दुःख तो क्षणिक होते हैं और उनका परिपाक होनेपर वे निवृत्त भी हो जाते हैं तथा ये दुःख भी तो उन्हीं को होते हैं, जिन्होंने जन्म लिया है। इसलिये इनका समावेश जन्म के दुःख के अन्तर्गत ही हो जाता है। सुभाषित कहता है-

   *जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः।*
   *अन्तकाले महादुःखं तस्माज्जागृहि जागृहि॥*

     पहले गर्भवास का दुःख भोगना पड़ता है और फिर पाक-काल आने पर जन्म का दुःख भोगना पड़ता है। यह दुःख कोई ऐसा-वैसा नहीं। जिस प्रकार कोल्हू में पेरे जाने के बाद ईख का रस बाहर आता है, वैसे ही उस समय का यह दुःख है। उसके बाद वृद्धावस्था के अनेकों दुःख भोगने पड़ते हैं। पुनः प्रत्येक जन्म में स्त्री-पुत्र आदि के वियोग का दुःख भी भोगना ही पड़ता है और मृत्यु का दुःख भी महाभयंकर होता है। इसीलिये सुभाषितकार कहते हैं- *जागृहि जागृहि* ‘मोहनिद्रा में न पड़े रहो, ईश्वर का ज्ञान सम्पादन करो और जन्म-मृत्युरूपी समुद्र को पार कर जाओ।’

       अब देव का ज्ञान अर्थात् ईश्वर-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार का स्वरूप देखकर निबन्ध समाप्त करेंगे। इसी उपनिषद् में इसका स्वरूप इस प्रकार समझाया गया है-

   *सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।*
   *पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥*

       यह ब्रह्मचक्र इतना विशाल है कि इसमें सारे जीव अपनी आजीविका प्राप्त कर सकते हैं और उसमें अवस्थित भी रहते हैं। इस ब्रह्मचक्र में जीवात्मा (हंस) अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है। क्यों उसे भ्रमण करना पड़ता है, इसका कारण समझाते हुए कहते हैं कि वह अपने को परमात्मा से भिन्न मानता है, इसी कारण उसे ब्रह्मचक्र में भटकना पड़ता है। *’यह भटकना कैसे बन्द हो?’* इसका उपाय बतलाते कहते हैं कि यदि जीवात्मा अपने को परमात्मा से अभिन्न अनुभव करे तो उसी क्षण उसका भटकना बन्द हो जाय और वह अपने मूल अजर, अमर और अविनाशी स्वरूप को प्राप्त हो जाय। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि *जबतक आत्मा अपने को परमात्मा से पृथक् मानता है, तबतक वह जीव या जीवात्मा कहलाता है। जहाँ जीवभाव आया, वहाँ कर्त्ता-भोक्ता का अभिमान आता है और उससे जन्म- मरण की परम्परा में भटकना अनिवार्य हो जाता है।*

       क्रमशः…….✍

      *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
Niru Ashra: `(सिर्फ़ साधकों के लिए)`
*भाग-30*

*प्रिय ! भगवत् रसिक रसिक की बातें, रसिक बिना कोऊ समझ सके ना …*
(श्री भगवत् रसिक जी )

मित्रों ! हाँ गौरांगी ठीक कहा तुमने ,
इस “रस” की बातों को …इन प्रेम की बातों को
सबके सामने नही बोलना चाहिए …सामने वाला
अधिकारी है या नही क्या पता ? …हरि जी !
तभी तो “संग” अच्छे का करो ऐसा बोलते रहते
हैं हमारे पागलबाबा …। संग का ही असर
हमारे मन पर पड़ता है ।
हम जैसे व्यक्ति के संग में रहेंगे उसके परमाणु
हमारे अंदर घुस जाएंगे …और फिर हमारा
विवेक ख़त्म हो जाएगा ।

कल गौरांगी ने मुझे बुलाया था भोजन प्रसाद
पाने के लिए । …मैंने हँसते हुये कहा था
…अब मैं ब्राह्मण भोज में नही जाता
…गौरांगी ने कहा …क्यों , मैं क्यों
ब्राह्मण भोजन रखूंगी …और हरि जी ! आज
क्या है ? …मैंने कहा …अमावस्या है ।
गौरांगी हँसते हुये बोली …महाराज ! हम किसी
तिथि वार को नही मानते…क्यों कि ये सब
कर्मकाण्ड के अंतर्गत आता है…और हमारी प्रेम
साधना में कहाँ कर्मकाण्ड ? हमारी साधना का
भगवान तो रस रूप ही है …और उस रसरूप में
काल (समय) की कहीं गति ही नही है
…वहाँ तो नित्य रस और नित्य रास ही चल रहा
है …। फिर कैसे अमावस्या या पूर्णिमा
कह रहे हो ? …मैंने तो बस ये सोचा ..अयोध्या जी से आये हो …तो थोड़ा अपनी श्री किशोरी जी का प्रसाद भी आपको खिला दूँ …इसलिए बुलाया था । कल दोपहर के 1 बज रहे थे …गौरांगी भोजन की तैयारी में जुटि हुयी थी …।

कैसी रही आपकी अवध यात्रा ? …गौरांगी ने
अपने ठाकुर जी को शयन कराते हुये मुझ से पूछा
…मैंने कहा …ठीक रही …क्यों ,
इतने ढीले ढाले क्यों बोल रहे हो ? गौरांगी
ने फिर टोक दिया । मैंने कहा …हमारे
बाबा ठीक कहते हैं …साधकों को संग में
विशेष ध्यान देना चाहिए …अगर संग ठीक
नही है …तो आप कितनी भी साधना कर लो
…सब गुड़गोबर कर देगा आपका संग । कुसंग
के परमाणु बहुत शक्तिशाली होते हैं …वो
आपके मन को बिगाड़ने का भरसक प्रयास करेंगे ही ।

संग से ही तो पतन – उत्थान की यात्रा शुरू
होती है …कुसंग में पड़ गये तो पतन
…और सत्संग में लग गये तो उत्थान ।
सत्संग में लग गये तो मंगल ही मंगल है …पर
कुसंग में लग गये तो दिनप्रति दिन गिरते
ही जाओगे ।
मैंने गौरांगी से कहा …गौरांगी ! एक बात
है …सत्संग में वो खिंचाव नही है …जो
कुसंग में है …कुसंग ज्यादा जल्दी
अपनी ओर खिंचता है…इसलिए कुसंग को तत्क्षण
त्याग दो ।

संग करो तो ऐसे का करो …जो तुम्हारी साधना
को समझे …जो तुम्हारी साधना की गम्भीरता को
समझे …अगर ऐसा संग नही है …तो आप
का पतन निश्चित ही है ।

ओह ! तो हरि जी को अवध में अनुकूल सत्संग
नही मिला ?
मैंने कहा …एक बात मैंने अवध में जाकर जानी
कि ये जितने बड़े बड़े मठाधीश हैं …महन्त
हैं …सब भगवत् प्राप्ति के प्रति तनिक
भी गम्भीर नही हैं…हाँ गम्भीर हैं वो
… जो अभी भी सरजू के तट में झोपड़ी में बैठे
हैं …और साधना में लीन हैं ।

एक विद्वान मेरे साथ में थे …गौरांगी !
कल वो एक महन्त जी की चापलूसी करते हुये
बोले …अब उन झोपड़ी वाले साधुओं का जमाना
गया …अब भिक्षा मांगने वाले साधू का समय
अब ख़त्म हो गया …अब तो सन्त AC वाले हो गये
…हाँ समय के साथ सन्तों को भी चलना
चाहिए ।

मुझ से रहा नही गया …गौरांगी ! पता
नही ये अहँकार तो नही ही है …अब कोई गलत
बोले तो सहा नही जाता …गौरांगी ठाकुर
जी के प्रसाद की, दो थाली तैयार कर रही थी
…। बोली …ये अभिमान नही है …ठसक
है …अपने प्रियतम की ठसक …अपने
प्यारे की ठसक …। मैंने कहा …हाँ तो
उसी ठसक के चलते मैंने उन विद्वान से कहा
…नही आप गलत कह रहे हैं …उन्होंने
कहा …अब कहाँ सम्भव है भीख माँग के खाना
…मैंने कहा …जिसे विश्वास ही नही है
…”उस पर” उससे कैसे सम्भव होगा .? पर
जिसे विश्वास है…वह जीवन भर के लिए आगया है
सब छोड़ छाड़ के । और उसका पालन पोषण कर रहे हैं हमारे भगवान । उन्होंने मुझ से कहा
…आपके हाथ पीछे बांध दिए जाएँ तो क्या
भगवान आकर स्वयं अपने हाथों से खिलायेंगे ?
…मैंने कहा क्यों नही खिलाएंगे ?…हाँ हो
सकता है …हाथ किसी और के हो …पर वो
दुलार…वो वात्सल्य , विश्वास कीजिये
…भगवान का ही होगा ।

अच्छे विद्वान थे …उन्होंने अब मुझे भला
बुरा कहना शुरू किया …और मैं तो यही
चाहता ही था कि ये मुझे भला बुरा कहें …और
मैं अपने मन को टटोलूं …और मैं अपने मन को
देखूँ कि मन में विक्षेप तो नही आगया
…तनाव तो नही आया ।
मैं बहुत खुश हुआ…मेरा मन शान्त ही था
…।

मेरे पागलबाबा कहते हैं ना …गौरांगी कि कभी
कोई गाली दे …तो मन में खुश होना कि वाह !
आज इसने हमें अपने मन को जांचने का मौक़ा दिया
है…अरे ! साधक तो वह पक्का है …जो कितनी
भी कोई गाली दे…तो उसके उत्तर में मात्र वह
मुस्कुरा दे ।
कोई हमें विचलित न कर सके …अंदर से हम शान्त
रहें ।

कुछ बातें मैं अपने साधक मित्रों से शेयर करना
चाहता हूँ …जो मुझे अवध में लगा
…मेरे अनुभव में आया ।

आप अगर तनाव में हैं …तो रात्रि में सोते
समय स्नान जरूर करिये …आपको लाभ होगा
…अगर आप तनाव में हैं …तो अपने
कक्ष को पूर्ण अन्धकार बनाइये …अँधेरा ।
फिर आप थोड़ी देर के लिए अपने बिस्तर में बैठ
जाइए …और ध्यान कीजिये …अपने इष्ट
का ध्यान कीजिये …उनके चरणों का
चिंतन कीजिये …। आप को अन्धकार
में नींद आती है ? …अगर नही आती आपको डर
लगता है तो आप बहुत तनाव में रहते हैं
…आप अपने आप से सन्तुष्ट नही है
…आपके अचेतन मन में कहीं भय व्याप्त
है …। अगर आप को लाईट में नींद नही आती
तो आपका मानसिक स्तर उन लाईट में सोने
वालों से बेहतर है …।
क्यों की रात्रि में अन्धकार ही
होगा…और आप रात में ही रहेंगे …यानी
अँधेरे में रहना चाहेंगे …तो आप
नैसर्गिकता के निकट रहेंगे…जो आपके मानसिक
स्वास्थ्य के लिए बेहतर है ।
आप ज्यादा तेज़ लाईट में मत सोइये …और हाँ
बिस्तर में जाने से पहले अगर आप टेंशन में
हैं तो …स्नान कर के फिर जाइए
…और हाँ बिस्तर में जाने के बाद
…थोड़ा ध्यान कीजिये …फिर माला
हाथ में लेकर सो जाइए …लेट जाइए ।

दूसरी बात …कोई विद्वान है …कोई
महामण्डलेश्वर है …तो उनकी बात हम आँख
मूँदकर मान लें …ऐसा बिलकुल भी मत करना…आप साधक हैं…और बाबा ने कहा ही है गौरांगी ! कि साधक का मतलब है …सावधान ।
विद्वान है तो साधना का अनुभव होगा ही …ऐसा
जरुरी नही है …विद्वत्ता का सम्बन्ध बौद्धिक
बातों से है …पर साधना बुद्धि का रंजन
तो है नही …विद्वान होना सरल है
…व्याकरण की किताबें पढ़ लीजिये …रट
लीजिये …शब्द बना लीजिये …अच्छे
अच्छे शब्दों की झरी लगा दीजिये …ताली बज
गयीं …पर वो बात नही आयी …पर
विद्वान की बातों में ताली तो बजीं …पर बात
ने हृदय को नही छुआ ।
इसलिए साधक को इस बात में सावधान रहना चाहिए कि …कोई भी विद्वान आप को शास्त्रार्थ
में हरा दे …तो ऐसा मत सोचना कि उसके मन
का स्तर तुम से बड़ा होगा …तुम से
ज्यादा अच्छा और निर्मल होगा …नही
…ऐसा कुछ भी नही होता …ये हरा देना
…बौद्धिक स्तर पर तो रंजन का कारण है
…पर वास्तविकता से कोसों दूर ।
इसलिए इन डिग्री वाले विद्वानों से सावधान
…ध्यान करने वालों के संग में रहो
…भजन करने वालों के संग में रहो
…नाम जप करने वालों को तो कभी छोड़ो ही
मत । कोई विद्वान है तो इससे तुम्हें क्या ?
…कोई महामण्डलेश्वर है तो तुम्हें इससे
क्या ? …भगवत् भाव से दूर से ही प्रणाम करो
…और वहाँ से चल दो …पता नही
गौरांगी ! क्यों मुझे अब उन लोगों से दूरी
बनाने की इच्छा होती है …जो लोग जीवन को
लेकर प्रमाद करते हैं । और ऐसे जीवन को
प्रमाद में देखने वाले कोई भी हों …मुझे
अच्छे नही लगते ।

गौरांगी ने कहा …हरि जी ! समय हो गया
…प्रसाद लगा दूँ ?
मैंने कहा …हाँ …लगा दे । मेरा फेवरेट
आम रस …चावल, कढ़ी , रोटी …और लौकी की
सब्जी …ये बना कर मुझे दिया
…मैंने गौरांगी से कहा …तू भी ले ना
…नही आप पहले पाओ ! …पागल है ।
पर साधना में बहुत अच्छी स्थिति बना ली है
..इसने ।

“तू प्यार का सागर है, तेरी एक बून्द के प्यासे हम”

Harisharan

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