[] Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग 1️⃣4️⃣4️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 1`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे*
मैं वैदेही !
प्रयागराज से पुष्पक विमान चला ……….मेरे श्रीराम नें संकल्प किया …..नन्दीग्राम अयोध्या में विमान उतरेगा ।
मन्द गति से विमान उड़ रहा था ……….मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न था ।
स्मित हास्य मेरे श्रीराम के मुखारविन्द में स्पष्ट दिखाई दे रहा था ……..
वो सोच रहे थे …………भैया भरत के बारे में ………..हाँ वो भैया के बारे में ही सोच रहे थे …………………
तभी पीछे से विभीषण जी बोल उठे ………बहन !
त्रिजटा नें एक बार मुड़कर देखा ……..वो भी बोल उठी ………….भूआ !
मैने जब पीछे मुड़कर देखा तो एक अत्यन्त सुन्दरी ………साँवली ……वस्त्र तपश्विनी के ………….कुछ गैरिक रँग लिया हुआ ।
जटायें बड़ी बड़ी थीं ……पर उनका जूड़ा ही बना लिया था और उसमें मालायें बाँध ली थीं ………………उसके नख बड़े बड़े थे ।
सूर्पनखा ! मैं भी जोर से बोली …………..पर मेरे बोलनें पर भी बस एक बार ही पीछे मुड़कर देखा मेरे श्रीराम नें …….फिर आगे की ओर देखते हुए शान्त ही बने रहे ।
वो उड़ रही थी ….वो विमान की गति से साथ साथ उड़ रही थी………वो मेरे श्रीराम को देखती थी …..और आनन्दित हो रही थी ……….।
विभीषण जी नें उससे बातें की …….विमान के द्वार में आकर …….और उनकी बातों को मुझे त्रिजटा नें बताया…….वो अद्भुत था ।
मेरे श्रीराम हैं ही ऐसे अद्भुत………कोई भी मुग्ध हो जाए ।
**************************
मैं कुछ दिन रही लंका में ……….रावण का वध होना ही चाहिये था ……..उसनें मेरे पति की हत्या जो की …….मैं यही चाहती थी ।
*क्रमशः…*
*शेष चरित्र कल ……..!!!!!*
🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-108”`
*( कृष्ण और कालिय कौ जुद्ध )*
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कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ….
जे बात हम सब सखान कूँ कन्हैया ने ही बाहर आय के बतायौ हो …बाही कूँ मैं लिख रह्यो हूँ ।
कन्हैया ने हमें बतायौ कि ……..
जब कालीय नाग ने कन्हैया कूँ बाँध दियौ …तब कन्हैया हँसे ….कन्हैया कूँ हँसतौ भयौ देखके कालीय चकित है गयौ ….कि या बालक कूँ मोते भय नही है । फिर कालीय अपने एक सौ एक फनन तै विष वमन करवे लग्यो ….लेकिन आश्चर्य ! कन्हैया के ऊपर बाकौ कछु प्रभाव नही पड़ रह्यो हो ।
अब कन्हैया एकाएक अट्टहास करवे लगे ….कालीय नाग और क्रुद्ध भयौ …..लेकिन कन्हैया ने तभी अपनौं श्रीअंग फुलानौं शुरू कियौ …..नाग कछु समझ नही पायौ ….वो तौ कन्हैया कूँ कसवे जाय रो ….वो सोच रो कस के ही याकूँ मार दूँगौ ….लेकिन कन्हैया ने तौ अपनौं श्रीअंग बढ़ाय लियौ । अब तौ कालीय की नसें ढीली हैं गयीं ……कन्हैया ने अब अपने हाथ ते कालीय कूँ पकड़ के दूर फेंक दियौ ……दूर जायके कालीय गिरौ …..कन्हैया कालीय की ओर देखके हँस रहे हैं ..अपने हाथन तै कालीय की ओर संकेत करते भए हँस रहे हैं । नाग सुंदरियाँ आय गयीं हैं सब । वो सब देख रही हैं …..कन्हैया के प्रति इनके मन में स्नेह जागृत है गयौ है …या लिए कन्हैया कूँ बचानौं जे सब चाह रही हैं ।
अब तौ कालिय नाग फिर उठ के खड़ो भयौ ……क्रोध के मारे बाके फन तै अब अग्नि की सी ज्वाला निकल रही । कालीय नाग आयौ अब कन्हैया के सामने ……कन्हैया भी ताल ठोक के बाके सामने खड़े हैं । कालीय कन्हैया के चारों ओर घूमवे लग्यो …..कन्हैया हूँ सूक्ष्मता ते बाकूँ देखते भए घूम रहे हैं …..कालीय तेज घूमवे लग्यो तौ कन्हैया हूँ तेज घूमवे लगे । जब जब कालीय कन्हैया कूँ पकड़नौं चाहे कन्हैया घूम जामें । अब तौ और तेज गति ते कालीय घूमवे लग्यो ….कन्हैया ने अपनी गति वायु के समान कर लई …यानि बहुत तेज गति ।
नागपत्नियाँ देख रही हैं ….वो डर हूँ रही हैं …बालक कन्हैया कूँ कछु होय जे नही चाह रहीं …लेकिन विधवा होनौं हूँ तौ कोई नारी नही चाहेगी ।
कन्हैया ने अब थकाय दियौ कालीय नाग कूँ …..अब जैसे ही कालिय थक्यो …..सोई अवसर उचित जान के कन्हैया उछले और कालीय के फन में जाय के खड़े है गए ।
ओह ! सारी नाग पत्नियाँ देखती रह गयीं …..अब कालीय के हूँ समझ में नही आय रो कि कहा करें, क्यों कि कन्हैया तौ याकै सिर में सवार है गयौ है….वाने कई बार अपने फन कूँ जल में पटक्यो …….कन्हैया कूँ अपने फन तै उतारवै कै लिए ….लेकिन कन्हैया है ये ….ऐसे कैसे उतर जावैगौ …पहले तौ याके सिर में सवार अहंकार कूँ गिरावैगौ …..फिर जब कालीय कौ अहंकार उतर जावैगौ तब कन्हैया कौ नृत्य होयगौ ।
स्वयं ही अपने फन मार रह्यो है कालीय….लेकिन कन्हैया तौ बच रहे हैं कालीय कूँ अच्छे से चोट लग रही है । या बार बुरी तरह तै थक गयौ कालीय नाग ….सोई कन्हैया अवसर देखके कालीय के फन में खड़े है गए …..एक सौ एक फन हैं याके ….कन्हैया अपने चरण एक फन में रखें तौ वो फन झुक जावै …कन्हैया अपने चरण कौ प्रहार कर रहे हैं …..जामें कन्हैया प्रहार करें ….वो फन रक्त वमन करवे लग जावे । कोई फन ऊपर उठे …तौ कन्हैया बाकूँ अपने हाथ तै पकड़ के तोड़ दें ….घायल है रह्यो है कालीय नाग । अब तौ हाँफवे लग्यो है । बाके मुँह तै अब विष नही रुधिर बह रह्यो है ।
नाग पत्नियाँ चकित हैं …..नेत्र गोलक घूम रहे हैं नाग सुंदरियन के । कौन है जे बालक ….वीर है …नही नही महावीर है …..कोई देवता है ? तौ एक कहती है …देवतान में हूँ इतनी शक्ति नही है ….कि हमारे पति के साथ वो संग्राम कर सकें ….जे तौ देवतान कौ हूँ कोई देवता है …..नही तौ हमारे पति कोई सामान्य नही हैं ।
सोई कन्हैया ने एक फन हाथ में पकड्यो और मरोड़ दियौ …..अब पहली बार कालीय जोर तै चिल्लायौ …….कन्हैया मुस्कुराए और कालीय के फन में अपने चरण कौ प्रहार करवे लगे ….देखवे में कन्हैया के कोमल लग रहे हैं ….लेकिन कोमल तौ अपने प्रेमियन के काजे हैं …..कोई अगर दुष्ट है तौ बाके काजे वज्र तै हूँ कठोर है जे नन्दनन्दन ।
अब तौ काँपती भई नाग सुंदरियाँ अपने अपने बालकन कूँ आगे करके कन्हैया के पास आयीं ।
*क्रमशः…..*
Hari sharan
[ Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – १८*
*🤝 ५. व्यवहार 🤝*
_*दुःख की निवृत्ति का उपाय*_
आत्मा में जीवभाव कैसे आता है, इसके विषय में योगवासिष्ठ में लिखा है कि *’सृष्टि के आरम्भकाल में ब्रह्म ही सृष्टिरूप हो जाता है। ब्रह्मादिक, जो ब्रह्मरूप ही हैं; वे सृष्टि के आदिकाल में प्रकट हो जाते हैं; तथा दूसरे जीव भी, जो ब्रह्मरूप ही हैं, सैकड़ों और हजारों की संख्या में प्रकट हो जाते हैं। जो अज्ञान के आवरण के कारण अपने ब्रह्मभाव को भूलकर अपने को ब्रह्म से पृथक् मानते हैं, वे रजोगुण और तमोगुण के द्वारा मिश्रित सत्त्वगुण के परिणाम में होनेवाले जीवभाव को स्वीकार करके इस जगत् की वासना के संस्कार से युक्त होकर पहले मर जाते हैं। फिर प्रारब्ध का भोग भोगने के लिये उनका जन्म होता है; क्योंकि स्वयं ब्रह्मरूप होनेपर भी, इस बात को भूलकर वे जड़ देहादि में आत्मबुद्धि करके जन्म-मरण के चक्र में फिरा करते हैं। समय पर जब वे स्वयं ही अपने मूलस्वरूप को पहचान लेते हैं-मैं ही ब्रह्मरूप या परमात्मरूप हूँ, यह निश्चय कर लेते हैं, तब उनका जन्म-मरण बन्द हो जाता है। इस स्थिति को मोक्ष या मुक्ति कहते हैं।’* (जिस अज्ञान के आवरण के कारण जीव अपने ब्रह्मभाव को भूलकर अपने को ब्रह्म से पृथक् मानता है, उस अज्ञान को शास्त्र ‘अविद्या’ कहते हैं और वह मूल में ही रहती है, अतएव उसे मूलाविद्या कहते हैं।)।
अविद्या के कारण आये हुए इस जीवभाव की निवृत्ति के लिये इस नीचे लिखे श्लोक को खूब समझकर इसपर मनन करना चाहिये। ऐसा करते-करते जीव और शिव का अभेद समझ में आ जायगा और ब्रह्मचक्र में भटकना बन्द हो जायगा ।
*देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः।*
*त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥*
इस शरीर को तो देवता का मन्दिर समझो। इसमें जो चैतन्य है, जिसे जीव कहते हैं, वह स्वभावतः शिवस्वरूप ही है। अपने अज्ञान से तुम व्यर्थ ही जीवरूप बन गये हो । अतएव इस अज्ञानरूपी निर्माल्य को शिव के ऊपर से हटाकर मैं शिवस्वरूप आत्मा हूँ, ऐसा चिन्तन दृढ़तापूर्वक किया करो, इससे तद्रूप हो जाओगे। इस बात का प्रमाण शास्त्र में इस प्रकार मिलता है-
*क्रियान्तरासक्तिमपास्य कीटको ध्यायन्नलित्वं ह्यलिभावमृच्छति ।*
*तथैव योगी परमार्थतत्त्वं ध्यात्वा समायाति तदेकरूपताम् ॥*
क्रियामात्र से आसक्ति हटाकर कीड़ा भ्रमर का ध्यान करते-करते भ्रमररूप हो जाता है। इसी प्रकार योगी, जो समस्त व्यवहारों से आसक्ति हटाकर केवल आत्मा का ही ध्यान करता है, यदि तद्रूप हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इसीलिये श्रीशंकराचार्य कहते हैं-
*अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं संसारमिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् ॥*
प्रश्नोत्तरी में प्रश्नरूप में वे पूछते हैं कि रात-दिन किसका चिन्तन करना चाहिये? इसीका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि यह जन्म-मरणरूपी संसार मिथ्या है और मैं तो शिवस्वरूप आत्मा हूँ—ऐसा चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ।
क्रमशः…….✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: `(सिर्फ़ साधकों के लिए)`
*भाग-31*
*प्रिय ! रे मन तू सम्झयो नही …*
(सन्त वाणी)
मित्रों ! आज बरसाने जाने की बहुत इच्छा हो
रही थी …मैं पागलबाबा के पास में जब प्रातः
गया …तो बाबा अपनी निजानन्द में डूबे हुये
थे …कुञ्ज में झाड़ू लगा रहे थे …और “राधा
राधा” का गान भी करते जा रहे थे…वह अपने
आँसू पोंछ रहे थे…और बीच बीच में उस झाड़ू
को अपने हृदय से लगा रहे थे…। मैं गया और
बाबा को प्रणाम किया । बाबा की दशा अभी
भावावेश की थी …भाव का आवेश था बाबा को ।
कुछ समय बाद बाबा की स्थिति सामान्य हुयी
…तब बाबा का उचित समय जान कर मैंने
कुछ पूछा …मैं उस को यथावत् उतार रहा हूँ
…आप साधक लाभ लेंगे ।
बाबा एक साधिका ने पूछा है …वो जब ध्यान
में बैठती हैं …तब उनके मन में बुरे बुरे
ख्याल आते हैं …जैसे उन्हें लगता है कि मैं
एक बाजारू महिला हूँ …बाबा ऐसा क्यों ?
…
बाबा बोले …देखो ! ये जो भगवत् ध्यान है ना
…ये तुम्हारे मन को मारता है …इससे
तुम्हारा मन मरता है …और जब मन देखता है कि
मैं मरने वाला हूँ …तो उसमें जो जो अंकित
होता है …वो सब तुम्हें दीखने लग जाता
है…और कितने कमजोर साधक तो ये स्थिति
देखते ही …साधना भी छोड़ देते हैं
…उन्हें लगता है …आँखें बन्द करते ही
मन में बुरे बुरे भाव आने लग जाते हैं …तो
कतिपय साधक घबरा जाते हैं …। बाबा बोले
…ऐसी स्थिति के लिए ही तो गुरु की जरूरत
पड़ती है …और गुरु भी अनुभवी हो …उस
मार्ग की समस्त समस्याओं से वाक़िफ़ हो ।
मैंने फिर पूछा बाबा ! पर जो महिला का प्रश्न
है …उनको मैं भी जानता हूँ …वो महिला
अच्छी साधिका हैं …विषय भोग के प्रति
उनकी तनिक भी आसक्ति नही है …और नित्य
एक लाख माला का जप करती हैं …पुरुष देह
से बहुत दूर रहती हैं …फिर उनके मन में
ध्यान की अवस्था में ये भाव कैसे आता है कि
वो बाजारू हैं ।
बाबा थोड़ी देर शान्त रहे …मेरी ओर देखते
रहे …मैं उनके सामने सिर झुकाये उनके
चरणों को देख रहा था …बोले – देखो !
वो अगले जन्म में बाजारू महिला ही थीं
…मैंने कहा …बाबा क्या ? …बाबा
बोले …हाँ …पर जो व्यक्ति गलत आचरण
में रहता है …उसके अन्तःकरण में “मैं गलत
कर रही हूँ” या “गलत कर रहा हूँ” ये भावना
रहती ही है …और अन्तःकरण यानी मन ,
बुद्धि, चित्त और अहं …इसे ही तो अन्तःकरण
कहते हैं …अन्तःकरण भीतर से
धिक्कारता रहता है …और हरि ! ये जो मन
है ना …ये तो नया नया चाहता है…तो इस
बाजारू व्यक्तित्व से मन ऊब गया …अब दूसरा
जन्म जब इन महिला का हुआ तो अच्छी बनीं
…क्यों कि अन्तःकरण में अच्छे बनने की चाह
थी …और अन्तःकरण ये चाहता था – कि
इतना घृणित जीवन… हे भगवान ! अगले जन्म में
मत देना …ये महिला किसी साधु को देखती तो
इनका मन प्रसन्न हो जाता …इन्हें भी
कभी कभी लगता कि मैं भी सब छोड़ छाड़ के यही
मार्ग अपना लूँ । मैंने सोचा बाबा पूर्व
जन्म की बात भी बता देते हैं …बाबा
मेरी भावना को समझ गये …और बोले …मैं जो
बता रहा हूँ …ये कोई आश्चर्य वाली बात
नही है …ये अध्यात्म का विज्ञान है
…इस विज्ञान को थोड़ा गम्भीर होकर समझने
का प्रयास करोगे तो तुम भी समझ जाओगे
…ये कोई अन्धविश्वास नही है ।
बाबा आज गम्भीर होकर मुझे समझा रहे थे
…बाबा बोले …देखो …मन मुख्य है
…मन में ही संकल्प विकल्प उठते रहते हैं
…और फिर उस उठे हुये संकल्प को
बुद्धि अपनी मोहर लगा देती है …अगर
बुद्धि में विवेक तत्व जाग्रत नही हुआ और
तुम्हारी बुद्धि तुम्हारे मन के इशारे में नाचती
रही …तो फिर तुम्हारा पतन निश्चित
है…अब साधक जो होते हैं …वो “मन” को
“बुद्धि” के इशारे में चलाते हैं…न कि
“बुद्धि” को “मन” के ।
क्यों कि साधक का विवेक जाग गया होता है
…इसलिए मन फिर सही दिशा में ही चलता है
। चित्त में सबकुछ संग्रहित होता है
…और इसी संग्रहित विचारों के कारण दूसरा
जन्म होता है …और सही और गलत जन्मों को
भोगता रहता है ।
बाबा बोले …देखो ! जब हम ध्यान में रहते
हैं …तो हमारा मन हमारी बुद्धि सब शान्त हो
जाते हैं …उस समय चित्त में अंकित जो जो
है …सब बाहर निकलता है …मैंने तुमसे कहा ना
! कि मन नया नया खोजता है …इस जन्म में
तुम जो हो …उसके विपरीत दूसरे जन्म में जाओगे
…अगर विवेकवान नही हो तो ।
हरि ! तुमने जो प्रश्न किया है …उस महिला के
बारे में तो स्वाभाविक है …ध्यान की
शान्त दशा में उसके पूर्व जन्म उभर रहे हैं
…उसे दीख रहे हैं …तब वह घबरा
रही है …पर हरि ! कह देना उससे कि
घबराने की कोई जरूरत नही है …ध्यान के
माध्यम से वह सब कचरा निकल रहा है
…निकलने दो…तुम उसमें अपने को
सम्मिलित मत करो… उन मन में उठ रहे
विचारों की उपेक्षा करो …इग्नोर …उस पर
सोचो मत …न उस पर चिंतन करो …न उन
बुरे विचारों से लड़ो …बस इग्नोर
…।
मैंने कहा …बाबा ! एक साधक ने और प्रश्न
किया है कि …जो इसी प्रश्न से ही जुड़ा हुआ है
…बाबा ! ध्यान करने बैठते हैं तो बुरे
विचार क्यों आते हैं ? …बाबा बोले
…अभी मैंने कहा ना …बुरे विचार भरे हैं
तो निकल रहे हैं …बस इतनी सी बात है
…बाबा बोले देखो ! कितने जन्म हुये हैं
…उन जन्मों में हमने कितने गलत – सही
कर्म किये हैं और हम उन कर्मों को करने वाले
“कर्ता” बने हैं …फिर भोक्ता बनकर अनन्त
जन्मों तक भोगें हैं …कर्म का कर्ता बनते
ही …अन्तःकरण में आपने उस कर्म को छाप
दिया …फिर उस कर्म को भोगो …भोगने
के लिए फिर जन्म लो …फिर भोगो …फिर कर्म
करो …फिर भोगो …।
बाबा गम्भीर होकर बोले …हरि ! मनुष्य का बस
यही काम रह गया है ? …अपने कल्याण की
सोचना ही नही है । कर्म करो …फिर उसे भोगो
…फिर कर्म करो …फिर भोगो ।
पर बाबा ये सब करवाने वाले तो भगवान है ना
?…बाबा बोले …तुम्हारे कर्म में भगवान हैं
ही नही…बताओ भगवान को कभी तुमने याद किया ?
…किसी जन्म में तुमने भगवान को याद करके
उन्हें अपने पास बुलाया …? हाँ भगवान
को याद किया …पर सच में वो याद ! क्या
भगवान के लिए किया गया था …या कर्म करते
करते जब थक गये …फल नही मिला
…तुरन्त फल नही मिला …तब भगवान के
मन्दिर में गये …अब सोचो भगवान के मन्दिर
में…भगवान के लिए तो नही गये ना ?
…अपनी वासना के लिए गये …है ना ?
…तो भगवान तुम्हारे चित्त में कहाँ
रहे…तुम्हारे चित्त में तो भगवान के
मन्दिर में जाने के बाद भी …वासना ही छप
गयी …क्यों कि अपनी वासना के लिए ही तो गये
थे ।
बाबा बोले …देखो ! इसलिए कभी कभी चित्त
में जो होता है …वह निकलता है …उसे
निकलने दो …नाम जप, ध्यान, भगवत् चिंतन
…इन सबसे चित्त पवित्र होता है
…हरि ! तुम सोच भी नही सकते कि भगवन् नाम
का सुमिरन करने से, भगवन् नाम का जप करने से ,
भगवत् चिंतन करने से …ध्यान की गहराइयों में
उतरने से चित्त के समस्त संस्कार जलते हैं
…भस्म होने लग जाते हैं …और जब कोई
जलने लगता है …मिटने लगता है …तब वह बाहर
निकलता है …अपने बिल से …घबराके
…कि मैं तो मिट रहा हूँ …मैं मर रहा हूँ
…।
ये जो भी ध्यान की अवस्था में हो रहा है
…बुरे विचारों का आना …या मैं बुरी
हूँ …ये भाव का आना …गन्दे विचारों
का ध्यान की अवस्था में दर्शन होना…इससे
घबराओ मत …ये अच्छा है …ये होना अच्छा
है …हरि ! फोड़ा जब पक जाता है …और उस
फोड़े में मवाद जब भर जाता है …तो ठीक करने
के लिए मवाद को निकालना आवश्यक है …ये
गन्दे विचार जो आते हैं ध्यान की अवस्था में
…ये अन्तःकरण के मवाद हैं …ये साधकों
के लिए शुभ है …निकलने दो बुरे विचार…
…निकलने दो गन्दे विचारों को … देखना
जल्दी ही तुम्हारे अनन्त जन्मों के बुरे अच्छे
संग्रहित विकार …निकल जाएंगे ..और तुम
विकारों से रहित होकर…पूर्ण पवित्र बन
जाओगे…।
फिर तुम्हारा प्रवेश होगा …उस “दिव्य प्रेम
देश” में …जहाँ रास होगा …जहाँ रस ही
रस होगा …।
बाबा ! मैं बरसाने जाऊँ ? बहुत याद आरही है
…वहाँ के कुञ्जों की …बाबा एक रात वहीं बिताऊंगा ।
बाबा ने कहा …जाओ ! रात्रि में प्रेम सरोवर में ध्यान लगाना ।
मैंने प्रणाम किया और मैं निकल गया ।
“कब मिलिहैं वें सखी सहेली, हरिवंशी हरिदासी”
Harisharan


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877