[] Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग 1️⃣4️⃣4️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 3`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे*
मैं वैदेही !
मुझे महर्षि परसुराम नें समझाया ………….वो भगवान विष्णु के अवतार हैं …………..तो क्या मैं राम को नही पा सकती ?
क्यों नही पा सकतीं …….तप बहुत बड़ी चीज है …….तप करो …….और अगर जिद्द ही है तो अनंतकाल तक करती रहो …..तप का फल भगवान देते ही हैं ………….मुझे महर्षि नें समझाया ।
भैया ! मैं चली गयी तप करनें ………….पर कुछ ही समय बाद मुझे ऐसा आभास होनें लगा …….कि रावण मारा गया है ……..और राम सपत्नीक अयोध्या लौट रहे हैं ……मेरा हृदय कहाँ माननें वाला था …….मैं राम को देखना चाहती थी……बस मैने देख लिया ….आहा ! उसनें आह भरी ।
अब क्या करोगी ? विभीषण जी नें विमान में से ही बैठे बैठे पूछा था ।
अब ! मैं जा रही हूँ फिर तप करनें…….मुझे सीता के स्थान पर बैठना है ……..चाहे कितनें भी जन्म लेनें पड़ें ……चाहे कितनें भी युग बीत जाएं …….पर मैं राम को पाऊँगी…….ये मेरी जिद्द है भैया !
ये कहते हुये सूर्पनखा फिर विमान के आगे आई…….मेरे श्रीराम को देखते हुए वो उड़ गयी थी ……हाँ तप करनें …….।
जिद्दी है मेरी भूआ रामप्रिया ! धीरे से बोली थी त्रिजटा ।
मैं हँसी राम के रूप में तो सीता ही रहेगी ………..हाँ आगे के अवतार की ……..मैं इतना कहकर चुप हो गयी थी ।
( इसी सूर्पनखा नें तप करके कृष्णावतार में कुब्जा के रूप में कृष्ण को पाया )
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ये देखो ! मेरी अयोध्या ! मेरे श्रीराम एक बालक की उछल पड़े थे ।
फिर सबको दिखानें लगे …………ये हैं मेरी पतितपावनी सरजू ………इनके कोई दर्शन भी करता है तो वह पवित्र हो जाता है ।
मेरे श्रीराम नें हाथ जोड़कर प्रणाम किया तो हम सबनें अयोध्या नगरी को विमान से वन्दन किया था ।
*शेष चरित्र कल ……..!!!!!*
🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: `“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-110”`
*( ‘नाचत वनमाली’ – एक अद्भुत झाँकी )*
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कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल …….
कालीय नाग के मन में अब दीनता का जन्म भयौ है …..क्रोध , अहंकार , मद , मत्सर सब कन्हैया ने कालिय के भीतर तै निकाल दिए हैं …..अपने चरनन की चोट तै कालिय कै भीतर जो जो दोष हे …सब रक्त के माध्यम तै बाहर आय गयौ है….अब विरक्त है गयौ है कालिय ।
चोट तौ लगी है कालिय के और लग ही रही है …लेकिन अब कालीय के मन में प्रसन्नता फैल गयी है ….नेत्रन तै प्रेम के अश्रु बहवे लगे हैं ..भक्ति कौ प्रकाश कालिय के अंतस में छाय गयौ है ।
आहा ! या चरनन कूँ ब्रह्मा आदि हूँ चाहमें , लेकिन जे चरण मिलें नही हैं ….आज कृपा मेरे ऊपर ! कि जे चरण मोकूँ प्राप्त है रहे हैं । अब तौ यही सोचके कालीय अति प्रसन्न है रह्यो है ।
नाग सुंदरियाँ अपने पति के पास गयीं हैं और जायके बोलीं ….झुकौ ना ! कालिय तौ गदगद है ……कछु नही बोल रह्यो …..न झुक रह्यो है ।
हे पतिदेव ! झुकौ ना ….नाग सुंदरियन ने फिर कही ।
मैं क्यों झुकूँ ? नाग ने स्पष्ट मना कर दियौ ।
तुम मर जाओगे पतिदेव ! सब नागिन कहवे लगीं ।
कालिय हंस्यो …..फिर बोल्यो …..या चरण की चोट तै मरूँगौ तौ मोकूँ इनकौ धाम मिलैगौ ही …..फिर आनंदित है कै कालिय बोल्यो ……जा गोलोक धाम की प्राप्ति कूँ बड़े बड़े ऋषि मुनि लालायित रहें हैं …वो गोलोक धाम मोकूँ मिल जावैगौ …..या लिए मैं तौ अति प्रसन्न हूँ मेरे भाग खुल गए …………
लेकिन तू झुकैगौ नही , है ना ? अब कन्हैया बोले ।
हँसतौ भयौ कालीय नाग बोलो ….क्यों झुकूँ ?
तैनैं अपराध कीयौ है …कन्हैया बोले …..तौ कालीय कन्हैया तै पूछवे लग्यो ….हे कृष्ण ! का अपराध कीयौ मैंने ? कन्हैया कछु नही बोले ….बस कालीय कूँ देख रहे हैं ।
का अपराध ? का विष कूँ फैलानौं अपराध है ? कालीय कन्हैया तै प्रश्न कर रह्यो है ।
मेरी यमुना में तैनैं विष फैलायौ ….कन्हैया बोल रहे हैं लेकिन कालीय आज हँस रह्यो है ……हे गोविन्द ! अगर तुमने अमृत मोकूँ दियौ होतौ तौ अवश्य मैं अमृत ही फैलामतौ ……
फिर कछु सोचके कालीय बोलो …….हे हरि ! मोकूँ एक प्रश्न करनी है ।
कन्हाई बोले …कर प्रश्न ।
कालीय नाग बोलो ……सृष्टि कौन ने बनाई है ? कन्हैया बोले …मैंने बनाई है ।
कालिय मुस्कुरा रह्यो है …..सृष्टि में नाग कौन ने बनायौ ?
कन्हैया बोले …..मैंने बनायौ ।
नाग में विष और क्रोध कौन ने भर्यो ? कन्हैया बोले …..अरे , मैंने ही भर्यो ।
तब कालीय सजल नेत्रन ने बोलो ……हे प्रभु ! सृष्टि रचवे वारे आप ….सृष्टि में नाग कूँ बनायवे वारे आप ….और नाग में विष और क्रोध भरवे वारे हूँ आप …..हंस्यो कालिय नाग , बोलो ……सब कछु करवे वारे आप हो , विष और क्रोध हूँ आपने दियौ फिर आपके दिए गए विष कूँ ही तौ मैं फैलाय रो हूँ ……यामें मेरी कहा गलती ? मेरौ कहा अपराध ? अब तौ कालीय पूरे जोश में बोल रह्यो है ।
नाथ ! मोकूँ दण्ड काहे कूँ दे रहे हो ? कालीय नाग के या प्रश्न पे कन्हैया चुप है गए …….बहुत देर तक कछु बोले नही ……..तौ कालिय बोलो ……दण्ड क्यों दियौ मोकूँ , जे बताओ ।
या बात पै कन्हैया इतनौं ही बोले …..हाँ , हाँ कालिय ! मैंने ही तुम कूँ विष और क्रोध दियौ है ….लेकिन मैंने तुमकूँ स्थान हूँ दियौ हो ….रमणक द्वीप । लेकिन तुमने बा स्थान कूँ छोड़ दियौ …और दूसरे के स्थान में आय के बैठ गये हो ….कन्हैया अब शान्त भए ….नाग के मस्तक तै नीचे उतरे ….और अपनौं कर कमल कालिय के ऊपर फेरवे लगे ….कालीय स्वस्थ है गयौ ….तब कन्हैया बोले …..जे स्थान तुम्हारौ नही है …..अपने स्थान में जाय के खूब विष वमन करौ हमें कोई आपत्ति नही है ….लेकिन जे स्थान तुम्हारौ नही है ।
लेकिन तुम्हारौ भक्त गरूण मोकूँ खाय जायेगौ …..हे नन्द नन्दन ! गरुण ने ही मोकूँ रमणक द्वीप तै भगायौ हो……( इस प्रसंग को विस्तार से पढ़ने के लिए – “श्रीकृष्णचरितामृतम् पूर्वार्ध”, प्रकाशित ग्रन्थ पढ़ें ) तब मैं यहाँ पै आयौ हो …..अब वहाँ तौ गरुण है ।
कन्हैया बोले ….कछु नही करैगौ अब गरूण …,.क्यों कि हे कालिय ! तुम मेरे भक्त बन चुके हो ….मेरे चरण चिन्ह तुम्हारे मस्तक में बन गए हैं ।
कालिय ने जे सब सुनवे के बाद अब प्रणाम कियौ नन्दनन्दन के चरनन में ।
नाग सुंदरियन ने हाथ जोड़के कन्हैया कूँ कालिय के सिंहासन में ही बैठायौ ….फिर या नन्द नन्दन की पूजा करवे लगीं ….सुन्दर नील कमल की माला बनाय के कन्हैया कूँ पहरायौ …….चरणन में केशर और चन्दन चढ़ायके सबने साष्टांग प्रणाम कियौ हो …….कालिय नाग आज परम आनन्द में डूब गयौ है ।
अब का संकल्प है प्रभु ? कालीय की बात सुनके हँसते भए कन्हैया बोले ….नेक झुकीयौ । कालिय अति प्रसन्न है ……झुक गयौ है ….बस अवसर देखके कन्हैया उछलते भए कालिय के फन में जाए के ठाढ़े है गए …..और फेंट में से शृंगी निकाली ….आहा ! शृंगी बजाते भए …..सुर और ताल में अपने चरण पटकवे लगे ……या बार चरण अत्यन्त कोमल है गए हैं कन्हैया के ….अरे ! कालिय कौ मन हूँ तौ कोमल है गयौ है ।
एक सौ एक फन ….अजी ! चोखो रासमण्डल बन गयौ कन्हैया के काजे तौ ….अब कन्हैया मग्न है गये ….और नाचवे लगे हे ।
********************************************************
तभी नभ में देवता लोग इकट्ठे है गए ……नारद जी ने देवतान तै कही ..गन्धर्व कहाँ हैं ? देवता बोले …हम हैं ना ….गन्धर्व क्यों चहियें ? नारद जी बोले …तुमकूँ गानौं बजानौं आवै ? देवता बोले – नही ….नारद जी बोले …या लिए गन्धर्व चहिए …तभी गन्धर्व आय गए ….नारद जी ने कही …..चलो …बाजे गाजे बजाओ …..गन्धर्व बजायवे लगे ….ताल और स्वर में गायवे लगे ….अब तौ कन्हैया नाच रह्यो है ……अद्भुत ताल है ….ताण्डव में हूँ एक मधुरिमा है ….कन्हैया के एक एक हलन चलन में अद्भुत रस भर्यो भयौ है …….कन्हैया के नृत्य में कालिय हूँ मग्न है गयौ ……बु हूँ हिल रह्यो है …..कन्हैया के संग झूम रह्यो है …..अब तौ आकाश तै पुष्प गिरन लगे ……सुरभित कुसुमन ने सौरभ फैलाय दियौ पूरे वृंदा कानन में ……..
ब्रह्मा जी …’जय जय’ बोल रहे हैं ….महादेव डमरू बजाय के नाच रहे हैं …..
अरे ! पूरौ अस्तित्व नाच रह्यो है …..
“बोलो ..कालिय मर्दन भगवान की …जय जय जय जय “
नभ तै यही जयकारौ गूंज रह्यो है ।
*क्रमशः…..*
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – २०*
*🤝 ६. व्यवहार 🤝*
_*शोक-मोह की निवृत्ति*_
इस प्रकार मनुष्य अपनी मनोकामना की तृप्ति से प्राप्त होनेवाले सुख की आशा से ही स्नेह का सम्बन्ध बाँधता है; परंतु मिलता है उसको दुःख, शोक और चिन्ता। अपने सुख की आशा के बिना कोई भी सम्बन्ध नहीं बाँधता। बृहदारण्यक में इस विषय का एक प्रसंग है। याज्ञवल्क्य ऋषि की दो पत्नियाँ थीं- कात्यायनी और मैत्रेयी । कात्यायनी व्यवहार में आसक्त थी और मैत्रेयी ज्ञान-भावनावाली थी। याज्ञवल्क्य ने जब संन्यास लेने का निश्चय किया, तब दोनों पत्नियों को बुलाकर कहा – ‘मुझे संन्यास लेना है, इसलिये अपनी सारी सम्पत्ति अब तुम दोनों को समान-समान बाँट देना चाहता हूँ’ कात्यायनी तो संसारी थी, इसलिये उसने यह बात मान ली, परंतु मैत्रेयी ज्ञानी थी, अतः वह बोली- ‘आप सारी सम्पत्ति कात्यायनी को दे दीजिये। मुझे तो केवल ज्ञान चाहिये, अतएव मुझे ज्ञान दीजिये ।’
याज्ञवल्क्य ज्ञान प्रदान करते समय संसार के सम्बन्धों की असारता समझाते हुए कहते हैं, हे मैत्रेयी ! —
*’न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति ।’*
‘वह पति है— इस कारण पति प्रिय नहीं लगता। बल्कि उससे अपनी कामना पुष्ट होती है तथा उससे सुख मिलेगा – इस आशा से पति प्रिय लगता है।’ वही पति यदि दूसरा घर कर लेता है या परधर्म स्वीकार करके बदल जाता है, अथवा उसके प्रति क्रूर व्यवहार करता है तो वह प्रिय नहीं लगता, बल्कि विषवत् जान पड़ता है। यह हम सदा देखते हैं।
*’न वा अरे पुत्रस्य कामाय पुत्रः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पुत्रः प्रियो भवति ।’*
‘पुत्र है, इसलिये पुत्र प्रिय नहीं होता, बल्कि अपने को उससे सुख मिलेगा – इस आशा से पुत्र प्रिय लगता है।’ वही पुत्र यदि कुमार्ग में चला जाता है या व्यसन में फँस जाता है, अथवा माँ-बाप को न रुचनेवाला आचरण करता है तो पुत्र भी प्रिय नहीं लगता।
*’न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।’*
सारांश यह है कि कोई भी वस्तु जो प्रिय लगती है, वह तभीतक प्रिय लगती है जबतक उससे सुख मिलने की आशा होती है। कोई भी वस्तु अपने स्वरूप से प्रिय नहीं लगती। इस प्रकार संसार के सारे सम्बन्ध, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, पुत्र-पौत्र आदि सबके-सब स्वार्थ के लिये सम्बन्ध जोड़ते हैं। स्वार्थरहित सम्बन्ध किसी का नहीं होता। पूर्वजन्म के ऋणानुबन्ध को लेकर ऋणी और दाता- दोनों प्रकार के मनुष्य एक साथ मिलते हैं और देना-पाना दे-लेकर अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं।
*माता पिता च पुत्राश्च स्त्रीसहोदरबान्धवाः ।*
*स्वार्थसम्बन्धिनः सर्वे तस्माज्जागृहि जागृहि ॥*
इस प्रकार सब लोग जब अपना लेन-देन चुकता करने के लिये ही आते हैं, तब फिर उनके आनेपर हर्ष किस बात का? और जानेपर शोक किसलिये ? अतएव सगे-सम्बन्धी या स्नेहीजनों की मृत्यु के लिये शोक करना अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है!
दूसरे प्रकार से देखिये तो मनुष्य को किसी भी प्राणी-पदार्थ को अपना कहने का अधिकार नहीं है। जब यह शरीर ही उसका नहीं है, तब फिर शरीर के सम्बन्ध में आनेवाले प्राणी-पदार्थ उसके कैसे होंगे ? जो सदा के लिये अपना है, उसकी ओर तो मनुष्य देखता ही नहीं; और जो किसी भी प्रकार से अपना नहीं है, उसको *’मेरा-मेरा’* करता रहता है और दुःख भोगता है।
क्रमशः…….✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
] Niru Ashra: `(सिर्फ़ साधकों के लिए)`
*भाग-33*
*प्रिय ! सबके ममता ताग बटोरी …*
(श्रीरामचरितमानस)
मित्रों ! वो मेरे मित्र बहुत दुःखी
थे…दुःख और तनाव के कारण उनका चेहरा निस्तेज
हो गया था …मुख मण्डल में प्रसन्नता नाम की
चीज नही रह गयी थी …। वो कहाँ के थे ?
…छोड़ो कहाँ के थे …पर ये आज के हर युवा
की गम्भीर समस्या बन गयी है …इसलिए मैं
इसका उल्लेख करना चाहता हूँ …और साधकों को
इस समस्या से अवगत होना आवश्यक है ।
मैं उस युवती से प्रेम करता था …पर उसने
मुझे छोड़ दिया, मेरे मित्र ने मुझ से कहा … मैंने हँसते हुये कहा
…ये तो बहुत अच्छा हुआ …अब तो कुछ उत्सव मनाया जाए …भगवान के
मन्दिर में जाकर भोग चढ़ाया जाए । आप को
मज़ाक सूझ रहा है …मैं मर जाऊँगा । मैंने
कहा …रोका किसने है , मर जाओ । वो
फिर हमारे घर में चारों ओर चक्कर लगाने लगे
…मैंने कहा …इससे क्या होगा ? …माइंड
कहीं और लगेगा …उन्होंने कहा ।
मैंने कहा …आप इतने कमजोर क्यों हो ? …मैं
कमजोर था नही …हो गया हूँ । मैंने कहा
…आप को पता है …आप कितना गलत कर रहे हो ?
…वो बोले – गलत तो उसने मेरे साथ किया है
…मैंने कहा …उसने क्या किया क्या नही
मुझे उससे कोई लेना देना नही है …पर आप
अपने साथ क्यों इतना बुरा बर्ताव कर रहे हो ?
…आपको पता है …हृदय जल रहा है आपका
…और हृदय मेरे भगवान का मन्दिर
है…भगवान को कितना कष्ट हो रहा होगा ।
वो कुछ देर में मुझ से बोले …प्लीज़ ! आप
चाहें तो मुझे इस दुःख के भँवर से निकाल सकते
हैं …मुझे इस तनाव, दुःख विषाद से बाहर
निकलना है , आप निकालेंगे …मुझे पूरा
विश्वास है । मैंने कहा …सन्ध्या का समय
हो गया है …मैं पागलबाबा के पास
सत्संग -साधना में जाता हूँ …सुबह और शाम
…आप चाहें तो मेरे साथ चल सकते हैं
…चलेंगे ..?…वो थोड़े खुश हुये ।
हम लोग कुञ्ज में जा पहुँचे थे । मैं आज
लेट हो गया बाबा का सत्संग शुरू हो चुका था …
बाबा बोले रहे थे –
मोह -ममता का नाश करना हम लोगों के वश की बात
नही है …अहंकार का नाश करना हम लोगों के
सामर्थ्य से बाहर की बात है…। अहंकार का
नाश सम्भव नही है …हाँ …एक काम करो …
…बाबा बोले … अहंकार को एक दिशा दे दो…मोड़ दो ।
माता, पिता भाई पुत्र , और पत्नी या प्रेमिका
, प्रेमी …इन सबके प्रति जो तुम्हारी ममता
है …मोह है …आसक्ति है …उसे भगवत्
चरणों में लगा दो…बाबा बोल रहे थे …जो
तुम ममता संसार के प्रति रख रहे हो …उसे
तुम भगवान के प्रति घुमा दो । अहंकार साधक
के पतन का मार्ग है …पर यही अहंकार अगर
“मैं सेवक रघुपति पति मोरे”…मैं सिर्फ़ उसका हूँ …ऐसी ठसक पैदा हो जाए तो यही अहंकार तुम्हारा कल्याण कर देगी…
…अहं को मोड़ दो …जो तुम्हें ये
अहंकार था ना कि मेरे पास इतना पैसा है
…इतना मिलेगा…मेरे पास इतना वैभव है
…मेरे पास इतने लोग हैं…बस उसे मोड़
दो …मेरे पास मेरे भगवान हैं …जो सदैव
मेरे इर्द गिर्द ही रहते हैं …मेरे पास
मेरे प्राणधन हैं …जो मुझे छोड़कर कहीं नही
जाते …मेरे पास भजन की इतनी सम्पदा है
…मैं प्रत्येक दिन एक लाख रूपये कमाऊं
तो कितना अहं आजाता है …पर तुम जब एक लाख
नाम जप की सम्पदा एकत्रित करोगे तो सोचो !
तुम सब धनी मानी से सर्वश्रेष्ठ हो जाओगे
…फिर इस बात की ठसक रखना …। बाबा
समस्त साधकों को साधना के गूढ़ रहस्य बता रहे
थे …अहंकार को आज तक कोई छोड़ नही सका
…और छोड़ा जाएगा भी नही…बस उसे भगवान
में लगाना है …। बाबा बोले…ममता नही
जाती …मोह ममता को छोड़ पाना इतना सरल नही
है …।
बाबा बोले …जननी जनक बन्धु सुत दारा, तन
धन धाम सुह्रद परिवारा । सबके ममता ताग
बटोरी…(रामचरितमानस)
बाबा बोले …पहले जननी का नाम लिया …पहली
ममता माँ के प्रति होती है …इसलिए जननी ,
लिखा है …फिर पिता , फिर भाई, फिर अपने
सुह्रद लोग …अपना शरीर , पैसा, अपना घर ,
इन सबके ममता को बांध कर मेरे चरणों में लगा
दो । ये वाक्य रामायण में भगवान श्री राम
के हैं ।
यही साधक का एक मात्र कर्तव्य है …कि
भगवान के चरणों में अपने चित्त को लगा देना ।
बाबा मौन हो गये…तो उन मेरे मित्र ने कहा
बाबा ! कुछ पूछूँ ?
बाबा ने कहा …हाँ पूछो ! …बाबा बहुत
दुःखी हूँ …बाबा बोले …अपनी अज्ञानता के
कारण …बाबा ! नही ये अज्ञानता के कारण नही
…मैं उस युवती से प्रेम करता हूँ …बाबा बोले
…संसार से प्रेम हो ही नही सकता …संसार
से केवल मोह ही होता है …। बाबा बोले …कल
मैं श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करने जा रहा था
…तो मैंने देखा एक आदमी मर गया है …और
उसकी पत्नी ख़ूब रो रही है …और पता है क्या
कह कह कर रो रही थी ? …अब मेरा क्या होगा ?
…अब मेरा ख्याल कौन रखेगा ? तुम घर चलाते
थे …अब कौन चलाएगा ? …देखो ! ये सब
क्या है ? पति के मरने का ग़म नही है …ग़म
ये है कि मेरा भरणपोषण अब कौन करेगा !
…देखो ! अगर तुम न मरते …पर भरण
पोषण तुम से नही होता …तो पत्नी का प्रेम
ख़तम ही हो जाता ।
बाबा बोले …अरे ! कहाँ फँसे हो भाई !…इस
संसार से जिसने भी प्रेम किया है …दुःख के
अलावा कुछ नही पाया …क्यों कि “दुःखालयम” है ये संसार …
…दुःख के आलय (घर) से प्रेम करोगे
तो दुःख ही न मिलेगा …है ना ? …।
अच्छा बताओ तुम ! …बाबा ने उस युवा से
पूछा …सुंदर थी वह लड़की ?…हाँ बाबा बहुत
सुंदर थी …पर विवेक से अगर सोचो
…तो क्या वह निरन्तर तुम्हें सुंदर लगती ?
…बाबा हँसते हुये बोले…मैंने अच्छे
अच्छे शादीशुदाओं को देखा है …शादी के पहले
महीने सुंदर लगती हैं…पर दूसरे ही महीने
थोड़ी दूरी आ ही जाती है …वही अप्सरा अब
कम सुंदर लगने लगती है …फिर तीसरे महीने
तो झगड़ा शुरू हो जाता है । और ऐसे करते
करते साल भर बाद तो वह पत्नी और पति एक दूसरे
को देखना भी पसन्द नही करते …।
आप कहते हो बात बिल्कुल सही है …पर मेरा
दिल नही मानता …बाबा बोले …दिल किसका है ?
…तुम्हारा ही है ना ? …उस युवा ने
कहा …जी ! दिल तो मेरा है …पर उसमें
वो बैठ गयी है …कैसे निकालूँ ? …बाबा
बोले …सच बताओ ! उसके साथ
खुश थे ? …बाबा बोले …कितने वर्ष
हो गये..? 5 वर्ष ।
5 वर्ष प्रसन्नता में गुजरे ? …नही बाबा !
मैं तनाव में ही रहता था । …सदैव झगड़ा
होता रहता था । वो चाहती थी ..कि मैं उसकी हर
बात आँख मूद कर मान लूँ ? …अब मुझे लग रहा
है कि वो मुझे अपने दबाव में रखना चाहती थी ।
बाबा बोले …पर भगवान कभी दबाव नही बनाते
…। मेरे भगवान तो इतने दयालु हैं कि
अपने सेवकों से भी स्वामी जैसा बर्ताव करते हैं
…देखो भाई ! ..”प्रभु तरु तर कपि डार पर”
…जितने बन्दर हैं …वो स्वामी श्री राम
चन्द्र के सिरमें वृक्ष में बैठे हैं
…और मेरे श्री राम उनके नीचे बैठे हैं ।
ऐसा प्यारा प्रेमी मिलेगा ? …ये तुम्हारी
प्रेयसि कल को बूढ़ी हो जायेगी …पर हमारे
इष्ट सदैव एक रस हैं …।
पर भगवान से प्रेम कैसे हो सकता है ?…बाबा
बोले …भगवान से ही तो प्रेम होता है
…मूल में हम सब भगवान को ही तो चाहते हैं
…क्यों कि अखण्ड प्रेम , अखण्ड माधुरी ,
अखण्ड स्नेह , अखण्ड सौंदर्य, …।
यही तो तुम चाहते हो ना …कि सब कुछ एक रस हो
…एक समान हो …ऐसे ही चलता रहे …वो
कभी रूठे नही …। ऐसे तो हमारे एक मात्र
भगवान ही हैं …बाबा बोले …और सुनो !
ये प्रेमिका मर जायेगी …पर वो अमर
हैं…ये प्रेमिका बिछुड़ जायेगी…पर वह
कभी नही बिछुड़ेंगे …ये रुलाएगी …या
रुलाएगा …पर वो मेरा श्री कृष्ण …तुम्हारे
आँसू भी गिरेंगे तो स्वयं पोंछने आएगा ।
बाबा बोले …तुम एक बार मेरी बात मानकर तो
देखो ! उससे लगन लगा कर तो देखो ! मूर्ति
से प्रेम करें ?…उन युवक ने बाबा से फिर पूछा
…नही …मूर्ति से क्यों प्रेम करोगे
…प्रेम तो भगवान से करो …मूर्ति
प्रतीक है …पर भगवान तो चिन्मय है
…चिदानन्द है …उनका देह भी चिदानन्द है ।
उस युवक को अब आंनद आने लगा था …वो बोला
…हाँ तो बताईये कि कैसे मैं प्रेम करूँ
भगवान से ?…बाबा बोले …जैसे तुम अपनी
प्रेयसि से करते थे…उसका ख्याल रखते थे ना ?
…ऐसे ही इनका भी रखो …निरन्तर याद
करते थे ना ! ऐसे ही इनको भी याद करो ।
इनके नाम का सुमिरन करो …इनकी लीला को सुनो
…फिर गान करो । उस अपनी प्रेयसि की हर
वस्तु तुम्हें अच्छी लगती थी ना …ऐसे ही इनकी
भी हर वस्तु का आदर करो …इनकी हर वस्तु
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है …इस विश्व जगत
में जो भी वस्तु दीखे …उसे अपने प्रियतम
की वस्तु समझकर उसका भी आदर करना ।
बाबा ! मैं सच में बहुत परेशान हूँ …इस झंझट
से मुझे बाहर निकालो…अब मुझे घबराहट हो रही
है …बाबा बोले – मेरी बात को ध्यान से सुनो
…रात में कितने बजे सोते हो ? …2
बजे । बाबा हँसे …क्या करते रहते हो ?
…उसे फोन लगाता हूँ …पर वो काट देती है
। बाबा ने कहा …तुम्हें पता है तुम अपना
क़ीमती जीवन किस तरह बर्बाद कर रहे हो ।
मेरी बात मानो …आज के बाद रात में 10 बजे
सो जाओगे …ठीक है ? …और प्रातः
ज्यादा से ज्यादा 5 बजे तक बिस्तर छोड़
दोगे…ठीक है ? …जी बाबा ।
बाबा बोले …और स्नान करके …पूर्व दिशा
या उत्तर दिशा की और मुँह करके …ध्यान
करोगे …ठीक है ? …जी बाबा ।
मेरी आँखें नम हो गयीं थीं …बाबा कितनी
करुणा से उस मेरे मित्र को समझाये जा रहे थे
…। फिर ध्यान में तुम ये चिंतन करोगे
कि एक दिव्य नदी है …उसकी नीली धारा है
…उसमें अगनित कमल के फूल खिले हैं…उस
यमुना नदी के किनारे एक कदम्ब का वृक्ष
है…उस कदम्ब के वृक्ष के तले …एक
सांवला सलोना…अपनी आँखें बन्द करके मस्त
बाँसुरी बजा रहा है…उनका वर्ण नीला
है…उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम
करो…उसके चरणों में तुलसी दल अर्पित करो ।
बस फिर तो अपने आप वो तुम्हें उठा लेंगे
..और हृदय से लगा लेंगे…ये महसूस करो… ये ध्यान करो …
…इसका परिणाम तुरन्त नही आएगा …पर मन
शान्त होने लग जाएगा …5 दिन के बाद ही ।
और हाँ इसके साथ भगवन् नाम को जरूर जोड़ना …खाली समय में नाम जप करना …नित्य करना
…तुम्हारा रोग बड़ा है …इसलिए गम्भीरता
से ये मैंने जो ध्यान की विधि बताई है …इसे
नित्य करो… पूर्ण लाभ होगा …और तुम
मात्र पाँच दिन के अंदर ही ये सोचने लगोगे कि
…”मैं पहले ऐसा सोचता था” । और तुम्हें
अपने ऊपर हँसी आएगी ।
“अब क्या सोचें क्या होना है, जो होगा अच्छा होगा”
Harisharan


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