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June 28, 2025 10:37 pm

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श्री जगन्नाथजी विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा, जिसे नंदी घोष यात्रा भी कहा जाता है, एक प्रसिद्ध हिन्दू त्यौहार है जो हर साल ओडिशा के पुरी सम्मेत विश्व के सभी जगह में मनाया जाता है। : अंजली नंदा (दुनेठा जगन्नाथ मन्दिर सेवासंस्थान

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श्री सीताराम शरणम् मम 145भाग 1″श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा – 111″,(साधकों के लिए) भाग- 34 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक: Niru Ashra

[24/06, 20:35] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

अयोध्या धाम के दर्शन करके भाव में आगये थे मेरे श्रीराम !

“परिक्रमा लगाओ विमान से अयोध्याधाम की”

विमान मन्द गति से अयोध्या के ऊपर घूमनें लगा था ………

जन समूह हमारे विमान को देखकर अट्टालिकाओं में आगये थे ……..

ये रहा हमारा महल ! मैं प्रसन्नता से चिल्ला उठी ……….सब नीचे देख रहे थे …………सब अपनी अपनी बातें कर रहे थे ………।

रामप्रिया ! कौन सा है आपका महल ? त्रिजटा ही मेरे प्रति पूर्ण समर्पित थी ………….वो मुझे छोड़कर कहीं देख ही नही सकती ।

वो देख ! त्रिजटा ! मैं चहक उठी थी उसे बताते हुए ।

वो महल है मेरी छोटी बहन उर्मिला का………………

कभी मुझे सीधे देखना पड़ रहा था …..कभी पीछे मुड़कर ……क्यों की हमारा विमान अयोध्या की परिक्रमा जो लगा रहा था ।

मैने ध्यान से देखा ……….गवाक्ष में खड़ी थी उर्मिला …….और वो हमारी ओर ऊपर ही देख रही थी ।

मैने लक्ष्मण को कहा …………लक्ष्मण भैया ! देखो उर्मिला ।

लक्ष्मण मुस्कुराये और उस तरफ देखा भी ।

मैने विमान से उठकर अपना हाथ भी हिलाया …………वो तो ख़ुशी के मारे उछल पड़ी थी ……………..पर ………..

मेरे नेत्र बह चले थे ………..ओह ! इतनी कृश ? हड्डियों का ढांचा बन गयी है मेरी बहन उर्मिला ! वो मुझे देखकर भागी वहाँ से ………और छोटी माँ सुमित्रा को बुला लाई थी …………

विमान बहुत मन्द गति से उड़ रहा था……मेरे श्रीराम सबको अयोध्या की महिमा गा कर सुना रहे थे …….और सब नीचे दृष्टि करके अयोध्या के दर्शन करते हुए मेरे नाथ की वाणी को सुन रहे थे ।

मैने दूसरे गवाक्ष में देखा …………..माण्डवी ! ये बड़ी शान्त गम्भीर मेरी बहन है …………मेरे भैया भरत की अर्धांगिनी हैं……….

सुनानें के लिये मुझे विमान में त्रिजटा ही उपलब्ध थी ।

क्या दशा बना ली है मेरी इन बहनों नें ………………..

तभी ……..छोटी , सबसे छोटी बहन श्रुतकीर्ति …………..मुझे देखकर वहीं से चिल्लाई ………….जीजी ! जीजी !

क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!

🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[24/06, 20:35] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-111”

( तब नंदनंदन दह तैं निकसे…)


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …..

इधर तट पे ……ग्वाल बाल , मैया , बृजराज बाबा सब अपार दुःख के सागर में डूबे हते ….बस इनके प्राण बचे हे , दाऊ भैया के या आश्वासन पे ….कि कन्हैया आवैगौ । कन्हैया बा कालीय कूँ परास्त करके आवैगौ । हलाहल विष कूँ पचाय के आवैगौ ।

लेकिन कब ? दाऊ ! अब तौ बहुत समय है गयौ ….और हृद कौ जल हूँ दाऊ ! लाल है गयौ है …हाय हाय ! मेरे लाला कूँ कालीय खाय गयौ …….बृजरानी की स्थिति फिर बिगड़ी है ….वो फिर बिलखवे लगीं …..लाला के वियोग में उनकी साँस अटकवे लगी …..बृजराज बाबा हूँ अब ठाढ़े नही है पा रहे ….पुत्र के वियोग ने उनके देह कूँ तोड़ दियौ है ….अब तौ देह में तनिक हूँ शक्ति नही रही …….हम सब ग्वाल बाल …….मैं गयौ दाऊ भैया के पास …और पूछवे लग्यो ….लाला सुरक्षित तौ है ना ? मेरे नेत्रन तै अश्रु झर रहे जब मैं जे पूछ रो ।

तब दाऊ ने मेरे काँधे पे हाथ धरके बड़े प्रेम तै एक बात कही …..मधुमंगल ! कन्हैया कौ कोई कछु नाँय बिगाड़ सके ….फिर किंचित मुस्कुराते भए दाऊ बोले …मोकूँ तौ बा कालिय नाग की चिंता लगी है कि ….वो सुरक्षित है या नही । दाऊ कूँ ऐसे कहते देखके मोकूँ थोड़ी राहत मिली …..मैं दाऊ के पास तै अब सखान कै पास आय गयौ ।

तोक सखा मोते रोतौ भयौ पूछ रो ……दाऊ भैया कहा कह रहे ? मैंने कही ….कन्हैया कूँ कछु नही होयगौ ….वो पूर्ण सुरक्षित है ……मेरी बात सुनके श्रीदामा बोलो …..फिर जे लाल रंग या हृद कौ कैसे भयौ ? मैंने कही …कन्हैया ने कालिय कूँ नथ दियौ होयगौ ।

तभी …..एकाएक हृद कौ जल हिलवे लग्यो …..सब घबरा गए ….उठ के खड़े है गए ….

और देखते ही देखते …..मोर मुकुट धारी बाहर निकस्यो ….आहा ! कन्हैया कूँ आते देख सबके जीवन में मानों नवप्राण कौ संचार है गयौ ……अति आनन्द सबके मन में छाय गयौ …..सब जोर जोर तै नाम लैकै बोलवे लगे …….कन्हैया कन्हैया ….लेकिन जे कहा है …कन्हैया जल तै बाहर जब आयौ ….तौ सब चकित है गये …क्यों कि कालिय नाग के फन पे सवार है कै कन्हैया बाहर आयौ हो और मात्र सवार है कै ही नही …नाचते भए …नृत्य की भाव भंगिमा के साथ ।

कन्हैया आय गयौ ….कन्हैया आय गयौ …..सब बोल रहे हैं ……मैया यशोदा तै सबने कही ….मैया ! देख तेरौ लाला । मैया ने देखी …नाचतौ भयौ बाकौ लाला आय रह्यो है …लेकिन कालिय नाग के ऊपर है जे तौ । सोई मैया चिल्लाई ….लाला ! जल्दी आजा …जल्दी …नही तौ कालिय नाग खाय जाएगौ ….कन्हैया ने अपनी मैया की बात सुनी और मुस्कुराके जोर तै बोले …मैया ! नही खायेगौ ….मेरौ चेला बन गयौ है । जे कहतौ भयौ कन्हैया मेरे माहूँ देख रो …तौ मैंने हूँ कही …चेला मूड़वे गयौ तू या हृद में ? कन्हैया बोलो ….देख मधुमंगल ! अब जे मेरी हर बात मानेगौ ….जे कहतौ भयौ कन्हैया नाग के ऊपर तै थल में कूदयो ….फिर संकेत में कन्हैया ने कही …..जाओ ……और सबके सामने कन्हैया कूँ प्रणाम करतौ भयौ वो तौ यमुना कूँ छोड़ के ही चलो गयौ ……..

अब मैया अपने लाला कूँ हृदय तै लगाय , बहुत रोईं । कन्हैया बृजराज बाबा तै हूँ मिले …बाबा ने समझायौ ….आज के बाद नाग सर्पन तै उलझनौं नही है ….लाला ! शास्त्र कहें हैं ….नाग आदि कौ विश्वास नही करनौं चहिए ……कन्हैया सिर झुका के सुनते रहे । रोहिणी माता बहुत रोईं और बोलीं ….आज कै बाद ऐसौ मत करियौ लाला ! तोकूँ कछु है जातौ तौ या बृज के सभी प्राणी मर जाते ………कन्हैया सबकी सुन रहे हैं ।

अब तौ हम सखान की बारी ….कन्हैया हमारे पास आयौ और सबते गले मिलवे लग्यो ……..काहे कूँ गयौ तू कालीदह में ! रोतौ भयौ श्रीदामा पूछ रह्यो है …..तेरे गेंद के काजे …कन्हैया ने श्रीदामा के अश्रु पोंछते भए कही ।

नाँय चहिए मोकूँ गेंद ….श्रीदामा अबहूँ रोय रह्यो है ।

कन्हैया ने श्रीदामा कूँ अपने हृदय तै लगाय लियौ ….अब नही जायगौ तू कहीं । कन्हैया ने श्रीदामा तै कही …..तौ तू भी मोतै गेंद नही माँगेगौ । नही मागूंगौ …श्रीदामा हाथ जोड़तौ भयौ बोलो ….तभी मोकूँ हाँसी सूझी …तौ मैंने एक रस्सी लई ….और कन्हैया के ऊपर ….लाला ! बच देख साँप है ….कन्हैया के ऊपर जैसे ही रस्सी गिरी ….कन्हैया चिल्लाए ….मैया बचा साँप ।

मैया दौड़ी …बाबा दौड़े …सब गोप गोपी भागीं ….लेकिन मैं हंसतौ भयौ बोलो …”रस्सी है”……लेकिन कन्हैया अभी भी काँप रह्यो है । मैंने कन्हैया तै पूछी …चौं रे ! तोकूँ वहाँ कालिय नाग तै लड़वे में डर नही लग्यो ….यहाँ एक रस्सी तै साँप कह दई तौ डर गयौ ….कन्हैया बोलो ….मधुमंगल ! वहाँ मैं भगवान हो ….लेकिन यहाँ मैं तुम्हारौ लाला हूँ ….तुम्हारौ सखा हूँ ….जो मेरे प्रति जो भाव रखे है मैं बाके भाव की पूर्ति करूँ हूँ । जे बात सुनके मैंने तुरन्त अपने कन्हैया प्यारे कूँ हृदय तै लगाय लियौ हो ।

क्रमशः…..
Hari sharan
[24/06, 20:35] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - २१*

               *🤝 ६. व्यवहार 🤝*

               _*शोक-मोह की निवृत्ति*_ 

   भगवान् सदा ही उसके हैं और सर्वदा उसके साथ रहते हैं। यहाँके सम्बन्ध तो देह-देह के साथ बदला करते हैं; परंतु भगवान् सदा ही उसके साथ बने रहते हैं। वही उसके प्राणापान की गति को चालू रखते हैं। वही उसके शरीर में वैश्वानररूप में रहकर अन्न-जल का पाचन करके शरीर को पोषण प्रदान करते हैं और वही मन-बुद्धि के साक्षी बनकर सदा प्रकट रहते हैं। उन भगवान् के सामने मनुष्य देखता-तक नहीं। यदि एक बार भी वह उनकी ओर देखे और कह दे कि, *'हे भगवन्! मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो'*, तो मनुष्य के लिये फिर शोक, चिन्ता या भय का कोई कारण ही न रह जाय। भगवान् तुरंत ही उसको अपना बना लेते हैं और ऐसी दशा में उसे पुनः गर्भवास का दुःख नहीं भोगना पड़ता। ऐसी भगवान् ने स्वयं प्रतिज्ञा की है।

   सनकादि मुनियों को उपदेश करते हुए श्रीभगवान् कहते हैं-
   *मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।*
   *अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुद्ध्यध्वमञ्जसा ॥*
                  (श्रीमद्भा० ११/१३/२४)

  'मन, वाणी और दृष्टि से तथा अन्यान्य इन्द्रियों से जिसका-जिसका ज्ञान होता है, वह सब मैं हूँ। मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है।' इस प्रकार इस सृष्टि में जो-जो प्राणी-पदार्थ हैं, वे सब ईश्वररूप हैं और उनमें से किसी की भी सत्ता उससे भिन्न नहीं है। इसलिये सृष्टि के सारे प्राणी-पदार्थ ईश्वर के ही हैं। मनुष्य का उनमें ममत्व बाँधने का कोई अधिकार नहीं है। अतएव जो कुछ ईश्वर ने दिया हो, उसमें सन्तुष्ट रहे और ममत्व का सम्बन्ध न जोड़कर ईश्वरप्रीत्यर्थ सारे काम करें।

  इस भाव के साधनों में इस प्रकार का विचार करना चाहिये। यह सृष्टि ईश्वर की है। इसलिये इसके भीतर का सारा धन-वैभव और सुख-सामग्री तथा सारे प्राणी ईश्वर के ही हैं। ईश्वर एक बड़ा सेठ है और प्रत्येक परिवार उसकी मुख्य गद्दी की एक-एक शाखामात्र है। ईश्वर की इच्छा हो तो एक शाखा में से धन मँगाये, दूसरी शाखा से अमुक भोग-सामग्री मँगाये, तीसरी से आदमियों को मँगाये, चौथी से पशुओं को मँगाये तथा अन्य शाखाओं में यह सब भेजवा दे। प्रत्येक शाखा के मुनीम को अपने स्वामी ईश्वर की आज्ञा को सिर चढ़ाकर न तो किसी वस्तु की प्राप्ति में हर्ष करना चाहिये और न किसी वस्तु के मालिक के द्वारा मँगवा लिये जानेपर कोई विषाद ही करना चाहिये। अपनी इच्छा के अनुसार वस्तुओं के हेर-फेर करने में मालिक स्वतन्त्र है। इसमें यदि सेवक सुख-दुःख मानता है तो वह किस काम का? *मनुष्य तो खाली हाथ आया है और खाली हाथ ही उसको जाना है, यह प्रत्यक्ष दीखता है, तब फिर जीवनकाल में 'मेरा-मेरा' कहकर क्यों क्लेश उठाना चाहिये?*

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

[24/06, 20:35] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-34

प्रिय ! प्रेम सरोवर छांण के तू, भटके क्यों चित्त की चांहन में …
(सन्त वाणी)

मित्रों ! आज अच्छी बारिश हुई …सोचा यमुना जी में जाऊँ और ध्यान करूँ । कुछ नाम जपूँ । मैं यमुना जी गया …नाम जप किया…फिर कुछ देर ध्यान का स्वाद भी चखा ।

गौरांगी यमुना जी के पास में ही रहती है…मैंने सोचा चलो …अपनी सत्संगी से भी मिल लेते हैं ।

गौरांगी अपने घर की सफाई में लगी हुई थी…सिर में कपड़ा बाँध कर घर के जाले निकाल रही थी …आसन, और झोली …धोकर सुखाने के लिए डाल दिया था । मैंने कहा …गौरांगी! क्या कर रही हो ? …दिवाली तो आ नही रही फिर ये सफाई क्यों ? …गौरांगी बोली…चातुर्मास आरहा हैं ना …उसमें मैं
कुछ नियम लेने वाली हूँ …हरि जी ! कल आप लेट आये थे तो बाबा ने मुझे बताया था…कि वर्षा ऋतु में ये चातुर्मास एक स्थान पर ही बैठ कर करनी चाहिए । बाबा ने कहा था कि साधक को इस वर्षा ऋतु में सावधान रहने की आवश्यकता है…और सावधानी का नाम ही तो साधना है ।

काम पूरा कर लिया था गौरांगी ने अब हाथ पैर धोकर रसोई घर से छाँछ बनाकर लायी …और
मुझे दिया ।

और क्या क्या करना चाहिए चातुर्मास में गौरांगी ? गौरांगी बोली हरि जी ! वर्षा ऋतु में मन चंचल हो जाता है …वर्षा ऋतु में मन में वासना का ज्वार शीघ्र ही आजाता है…इसलिए हमारे हिन्दू सनातन धर्म
में…चातुर्मास को एक ही स्थान में बैठकर करने का विधान है । मैंने कहा …ये गृहस्थ भी कर सकते हैं क्या ? …क्यों साधना में क्या गृहस्थ और क्या बाबा
जी…साधना है ये चातुर्मास …इन चार महीनों में हमें साधना को चरम पर ले जाना है ।

मन की चंचलता बढ़ जाती है इन वर्षा के समय में …इसलिए मन को सावधान रखने का ये अच्छा
समय है …।
गौरांगी तैयारी कर रही है चातुर्मास की । उसने कुछ बातें बताई हैं …आप सभी साधक लाभ लें ।

आप सच में साधक बने हैं …और इस “प्रेम साधना” के पथ पर चलने के लिए आप गम्भीर हैं तो कुछ बातों का ध्यान रखें …इन चार महीनों के लिए ।

जो वस्तु आप को अत्यंत प्रिय हो उसका त्याग कर दें…जैसे आपको बैंगन खाने में बहुत अच्छा लगता है तो आप बैंगन न लें , पक्की सोच बना लें कि मैं चार महीने के लिए बैंगन खाऊँगा ही नही…गौरांगी बोली …हरि जी! इससे आपका मन टूटेगा और साधक को लाभ होगा…।

भोजन के अन्न से ही हमारे मन का निर्माण होता है
…इसलिए अन्न अच्छा खाएं । आप जैसा अन्न खाएंगे आपका मन वैसा ही बनेगा । इसलिए इन चार महीनों के लिए …अच्छे धन का ही अन्न लाना …और उसको ही खाना । पर हाँ …भोजन करते समय …भगवान को अर्पित करके खाना । अगर ये सब नही कर सकते तो जब भी कुछ वस्तु खाओ …एक बार मन में ही “हे मेरे नाथ ! पहले आप भोग लगाओ” …ऐसी भावना अपने हृदय में जगा के फिर उस वस्तु को खाओ ।
गौरांगी बोली ये छोटी छोटी बातें साधना के लिए
बहुत महत्वपूर्ण हैं ।

हरि जी ! साधना कक्ष अच्छा होना चाहिए…और हाँ वह साधना कक्ष किसी मन्दिर से कम है …ऐसा कभी मत सोचना …स्वयं और किसी और को भी चप्पल और जूते लेकर न प्रवेश करने दें । साधना कक्ष में गॉसिप न करें …सांसारिक चर्चा न करें । इससे तुम्हारे साधना कक्ष के सात्विक परमाणु उड़
जाएंगे । किसी की निंदा स्तुति साधना कक्ष में न करें ।

संकल्प न करें …संकल्प विकल्प को पूर्ण रूप से छोड़ दें …क्यों कि हम लोग प्रेम साधना के पथिक हैं …अगर हमने ही संकल्प यानी “ऐसा करूँगा”..सोचने लगे …तो फिर शरणागति क्या हुई…। शरणागति में तो मेरा मन तेरा मन …एक ही तो है …तू जो करे …वो मुझे मंजूर है । ज्यादा संकल्प करते रहने से मन की चंचलता बढ़ जाती है …इसलिए जो होता है होने दें ।

और इन चार महीनों में मन को समझने का प्रयास करें …मन को शान्त रखने का प्रयास करें । वैराग्य की भावना विकसित करें …वैराग्य से मन टूटता है …वैराग्य यानी इस संसार की निस्सारता , उदासीन हो जाना…गौरांगी बोली …इस संसार में कुछ नही
है …जो भी देख रहे हो …वो सब नाशवान है …हमारा ये शरीर भी …इसलिए ज्यादा शरीर को ध्यान में न रखते हुये …ये एक दिन नष्ट हो जाएगा …इस बात को अच्छे से समझ लें ।

नाम जप करें …कैसे भी करें …पर करें…हो सके तो मन में जप करें …हरि जी ! ये इतना सरल नही है …इसलिए जीभ से नाम लें…और ये भी सम्भव नही हो पा रहा…तो होंठ से ही नाम का सुमिरन करें
…पर नाम जप करें ।

बाहर फिर बारिश शुरू हो गयी …गौरांगी आज बोले जा रही थी …हरि जी ! इन चार महीनों में ध्यान का अभ्यास ख़ूब करें …इससे मन एकाग्र होगा …इससे मन ज्यादा इधर उधर भटकेगा नही ।

साधना कक्ष हवादार हो … …साधक का मुँह पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर हो …स्नान करके …रेशमी वस्त्र या धुले हुये स्वच्छ सूती के वस्त्र धारण करें … .फिर मस्तक में दोनों भृकुटि के मध्य में तिलक करें …या श्री धाम का रज लगावें । आसन में चाहे कैसे भी बैठो…पर एक ही पोजीशन में लम्बे बैठ सको …ऐसे बैठो ।

एकाएक बाहर बिजुली चमकी …और बारिश तेज़ हो गयी …गौरांगी अपने घर की छत में गयी …और भींगती हुयी …मुझे जोर से आवाज़ लगाई…मैं जब गया तो पागल सी बेसुध होकर झूम रही थी …हरि जी ! कुछ मत करो इस चातुर्मास में …बस अपना मन , बुद्धि, चित्त और अहंकार इस रस सिंधु में डूबो दो …प्रेम के इस महासागर में डूब जाओ …और कुछ न सोचो , न कुछ और विचारो…बस प्रेम ! हाँ हरि जी ! देखो …यही बादल कृष्ण हैं …और आकाश श्री राधा …रात कृष्ण है और दिन श्री राधा …दोनों एक हैं …पर प्रेम के रस को चखने के लिए दो बन जाते हैं …फिर एक हो जाते हैं …इसी लीला को अपने हृदय में धारण करो …।
अपनी ही रचना गा कर सुनाती हुयी …स्वयं ही झूम भी रही थी ।

“देखो प्यारे ! प्रेम घटा घिर आई”

Hari sharan

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Author: admin

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