Niru Ashra: *🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏*
*🌺भाग 1️⃣4️⃣5️⃣🌺*
*मै _जनक _नंदिनी ,,,*
`भाग 2`
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
*”वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे -*
मैं वैदेही !
मैने दूसरे गवाक्ष में देखा …………..माण्डवी ! ये बड़ी शान्त गम्भीर मेरी बहन है …………मेरे भैया भरत की अर्धांगिनी हैं……….
सुनानें के लिये मुझे विमान में त्रिजटा ही उपलब्ध थी ।
क्या दशा बना ली है मेरी इन बहनों नें ………………..
तभी ……..छोटी , सबसे छोटी बहन श्रुतकीर्ति …………..मुझे देखकर वहीं से चिल्लाई ………….जीजी ! जीजी !
वो श्रुतकीर्ति अपनें आँसू पोंछती जा रही थी …..और चिल्लाये जा रही थी ।
तभी मैं गम्भीर हो गयी ……..माता कौशल्या और साथ में ये कौन ?
हाथ पकड़ कर लेकर आरही थीं ………माता कैकेई ?
उनसे चला नही जा रहा था ……वो काँप रही थीं ………..पर सम्भाले थीं उन्हें माता कौशल्या ………….
सुमन्त्र जी आये और सबको लेकर रथ में निकल पड़े थे ।
ये सब नन्दीग्राम जा रहे हैं…….मेरे श्रीराम नें मेरी ओर देखकर कहा । .
हम लोग वहीँ उतरेंगें ……….क्यों की मेरा भाई भरत वहीँ है ………।
भरत का नाम लेते ही भावुक हो उठते हैं मेरे श्रीराम !
विमान को नन्दीग्राम की ओर मुड़नें के लिये कहा…….मेरे श्रीराम नें ……पर धीरे धीरे ………………।
आकाश की ओर मेरी दृष्टि गयी …………देवताओं से आच्छादित था आकाश ……………विमानों की भरमार थी …………गन्धर्वो की टोली एक तरफ नृत्य और संगीत का गान और नाच दिखा रहे थे ।
त्रिजटा ! देख कितनें देवता आकाश में हैं ……..मेरे श्रीराम के अयोध्या लौटनें की ख़ुशी में ………..उनके स्वागत में ।
क्यों न हों रामप्रिया ! रावण नें इन्हें कम कष्ट नही दिया था ……और रावण को मारना सरल भी नही था ……..श्रीराम नें इनके उस कष्ट और दुःख का निवारण किया है …….उसके लिये ये दो फूल बरसानें के लिये आगये तो क्या बड़ी बात है ! त्रिजटा मुँह बनाकर बोली थी ।
*क्रमशः…*
*शेष चरित्र कल ……!!!!*
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: आज के विचार
`“श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-112”`
*( दावानल बिहारी )*
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कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
कन्हैया हम बृजजनन कौ प्राण है ….कन्हैया हम बृजवासिन कौ स्वाँस है ….कन्हैया हमारी धड़कन है …..जीवन सर्वस्व है कन्हैया हमारौ ।
कालीय कूँ नथ के कन्हैया ने हम बृजवासिन की रक्षा करी ….कालिय कूँ अपने यमुना हृद तै निकाल के कन्हैया ने बाकूँ बाही के द्वीप में भेज दियौ ।
फिर तौ हम सब आनन्द मग्न कन्हैया ते मिलवे लगे ….बाकूँ निहार के अपने नयन शीतल करवे लगे …हृदय तै लगाय बाकूँ अपने प्राणन में अनुभव करवे लगे । समय लग गयौ …..लगनौं ही हो …….अब तौ साँझ है वै में आयी ….तौ बृजराज बाबा ही बोले …..देखौ! अब हम नंदगाँव के लिए चलेंगे तौ हमें मार्ग में ही रात्रि मिल जावेगी …..फिर हमारे संग छोटे छोटे बालक हूँ हैं …..और गोपियाँ हूँ हैं …..इन सबकूँ लै कै रात्रि में चलनौं उचित नही है …या लिए आज की रात्रि यहीं ….श्रीवन में बिताओ ।
“बाबा ! भूख लगी है”….मेरी बात पे कन्हैया खूब हस्यों ….सब हँसे …..बृजराज बाबा हूँ हँसते भए बोले ….मैंने दो बैलगाड़ी में भोजन सामग्री आदि सब मँगाय लिए हैं ……मधुमंगल ! अब तौ प्रसन्न ! बाबा की बात सुनके कन्हैया मोते बोलो …..भोजन भट्ट ! तोकूँ भोजन के सिवा और कछु सूझे हूँ है ? मैंने कही ….अन्नं ब्रह्म …..वेद ने कही है …अन्न ही ब्रह्म है …..फिर ब्रह्म कूँ बार बार याद करनौं सही है या गलत ……पूछ ल्यो ऋषि शांडिल्य जी तै । मेरी बात पे ऋषि हूँ हँसवे लगे । फिर सब लोग है कै एक वन में गए …….ग्रीष्म ऋतु ही …….चारों ओर वृक्षावलियाँ …मध्य में सब गोप जायके बैठ गए …..बाही समय दो बैल गाड़ी हूँ आय गयी जामें अनेक पकवान मिष्ठान्न हे …कई प्रकार के व्यंजन हे …..सबने वहीं बैठके भोजन कियौ ……चारों ओर मशाल चला दिए हे । अब बड़े बूढ़े शयन की व्यवस्था में लगे …पहले उन सबकूँ शयन करायौ …..फिर युवा और बालकन की वारी आयी …लेकिन जे कहाँ सोयवे वारे है ……बातन्ने बना रहे हैं , हँस रहे हैं …..मैया चिल्लाय रही है ….लाला ! अधिक मत हँस ….बीमार पड़ जावैगौ ……मैया की अपनी चिन्ता है ……….मैया के संग रोहिणी माता और अनेक गोपियाँ हैं ….ये सब गीत गा रही हैं ……अजी ! वहाँ पे तौ आनन्द ही छाय गयौ हो ।
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बड़े बूढ़े सोय गए हैं …..अर्ध रात्रि है गयी है …..मैया यशोदा बार बार उठके कन्हैया कूँ अपने पास बुला रही है …लेकिन कन्हैया आज अपने सखान के संग ही सोएगौ । मैया कूँ ही नींद आय गयी है ….गोपियाँ हूँ सोय गयीं हैं ….सखा हूँ अब ऊँघवे लगे हैं ….उनकूँ हूँ नींद आय रही है ।
कन्हैया ! मैं तौ सोय रो हूँ ……कहते भए दाऊ हूँ सोय गए ।
कन्हैया की वैसे इच्छा ही कि रात भर आज खेलेंगे ….लेकिन …..अब तौ कन्हैया कूँ हूँ नींद आयवे लगी ।
तभी …….साँय साँय ….हवा चलवे लगी …..हवा में शीतलता ही या लिए सबकी नींद और गहरी है गयी …….तभी का भयौ …..मेरी नींद खुली ….तौ मैंने देखी ….हवा ऐसी चल रही ….कि एक वृक्ष दूसरे तै भिड़ रहे ……दूर मैंने देखी तौ मैं चौंक गयौ …..जो हमारे मशाल जल रहे हे …वे गिर पड़े और एक सूखी झाड़ी में जायके बाकी चिंगारी लग गयी ही …..और वहीं तै एक भयानक आग हमारी ओर बढ़ चल्यो ……मैं कछु समझ नही पायौ …..जे कहा भयौ …..मैं कछु सोच पातौ …बृजराज बाबा खड़े है गये ….और जोर जोर तै चिल्लायवे लगे ….”दावानल लग गयौ …दावानल लग गयौ “……..सब उठे ….और जब भागवे लगे तौ चारों ओर आग की लपटें चल रहीं हैं ….और वो आग हमारी ओर बढ़ रही है । अब का करें ? चारों ओर चीख पुकार मच गयी है ……तभी बृजराज बाबा ऋषि शांडिल्य तै कहवे लगे ….हे ऋषिवर ! हमारे इन बृजवासियन की रक्षा करो …….तब ऋषि बोले ….हे बृजराज ! भगवान नारायण की प्रार्थना करो …..भगवान नारायण तै रक्षमाम् कहो …..ऋषि आगे कछु कहते , बाते पहले ही उनकी दृष्टि गयी मोर मुकुट धारी कन्हैया पे ….कन्हैया चारों ओर देख रह्यो है …किन्तु शान्त है । ऋषि तुरन्त बोले …..भगवान नारायण की भावना तुम सब कन्हैया पे करो ….और कन्हैया तै ही कहो कि वो रक्षा करें । या समय तर्क करवे कौ नही हो …जो जो ऋषि कह रहे ….सब मानवे लगे हैं ……यहाँ तक कि बृजराज बाबा हूँ कन्हैया तै प्रार्थना करवे लगे ….कन्हैया शान्त है ।
लेकिन मैया बृजरानी …….उन्ने लाख कोशिश करी …..कि नारायण की भावना कन्हैया में आवै …लेकिन नही …….अब तौ मैया रोयवे लगी ….और कहवे लगी ….हे नारायण ! मोकूँ मार देओ ….लेकिन ये मेरे दो छौना राम श्याम कूँ बचाय ल्यो ……मैया जोर जोर तै कहवे लगी ….तौ अब कन्हैया तै रह्यो नही गयौ …..वो उछले ….जहां आग लगी वहाँ गए …..और अपने बटुआ से मुँह में हवा भरके कन्हैया ने जोर तै फूंक मारी ….जैसे ही फूंक मारी …..आग ऐसे बुझी जैसे कोई सामान्य सौ दीपक हो ……..कन्हैया फिर कूदते भए दूसरी ओर गए …वहाँ फूंक मारी ….इस तरह मानों कन्हैया दावानल तै ही खेल रहे हैं …..दावानल के संग विहार कर रहे हैं । लेकिन इतने में हूँ पूरी आग अभी भी नही बुझी …और हवा तेज चलवे लगी ..तब कन्हैया एक स्थान में खड़े है कै हवा कूँ अपने भीतर खींचवे लगे तौ एक ही बार में सबरौ दावानल कन्हैया के उदर में ही समाय गयौ ।
अग्नि शान्त भई …लेकिन वृक्ष लता पत्र सब झुलस गए हैं …..कन्हैया कूँ जे सब अच्छो नही लग्यो …..याते श्रीवृन्दावन की शोभा बिगड़ रही ही ….या लिए कन्हैया ने फिर अपने मुखारविंद तै फूंक मारी तौ जितने वृक्ष झुलसे हे ….सब हरे हरे है गए …..पत्ते आदि हूँ हरे है गए …….और फिर बाही समय आकाश तै वर्षा आरम्भ है गयी …..अब तौ वर्षा में भीगते भए सब नाचवे लगे ……सबने कन्हैया कूँ गोद में उठाय लियौ ……सब आनंदित हैं ।
*क्रमशः….*
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग – २२*
*🤝 ६. व्यवहार 🤝*
_*शोक-मोह की निवृत्ति*_
ममत्व का सम्बन्ध ही क्लेश का कारण है, इसको दूसरी रीति से समझिये। एक छोटा-सा शहर था। उसमें एक नगर-सेठ रहता था। उसको प्रौढ़ावस्था में एक पुत्र उत्पन्न हुआ; परंतु दैववश युवावस्था में पहुँचकर वह पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गया। सेठ के दु:ख का पार न रहा। वह अन्न-जल छोड़कर पागल की तरह गुम-शुम होकर बैठ गया। उसके यहाँ एक विद्वान् पौराणिक नित्यप्रति आता था और उस भावुक तथा संस्कारी सेठ के घर उसकी कथा-वार्ता होती थी । पौराणिक प्रतिदिन नाना प्रकार के दृष्टान्त देकर सेठ को समझाने लगा। वह कहता था कि ‘सेठजी! यह संसार तो अनादिकाल से चला आ रहा है; इसलिये आपके भी अनन्त जन्म बीत चुके हैं और उन जन्मों में आपके पुत्र और पुत्रियाँ भी हुई ही होंगी। इसलिये यही एक जन्म है और यह एक ही पुत्र आपका है, ऐसी बात नहीं। पूर्वजन्म के आपके सारे पुत्र मर गये हैं तथापि आप उनके लिये जिस प्रकार शोक नहीं करते, उसी प्रकार इस पुत्र का भी शोक नहीं करना चाहिये। फिर आगे भी आपके अनेक जन्म होंगे, उनमें भी अनेक पुत्र पैदा होंगे और वे भी मरेंगे। इस प्रकार जो जन्म लेता है, वह मृत्यु को साथ लेकर आता है अर्थात् उसकी मृत्यु निश्चित है, इसलिये शोक करना व्यर्थ है।’
‘फिर, आपके इस पुत्र के भी अनेक जन्म हो चुके हैं और उनमें इसके असंख्य माता-पिता भी हो गये होंगे। उन सबको छोड़कर वह क्या यहाँ नहीं आया? क्या वे सारे माता-पिता इसके लिये शोक करते होंगे? फिर यह जो आपकी पत्नी है, इसके असंख्य जन्मों में असंख्य पति हो चुके होंगे और आपकी भी असंख्य पत्नियाँ हो गयी होंगी, इस प्रकार पति-पत्नी का सम्बन्ध भी स्थायी नहीं है। इसलिये इस संसार का कोई भी सम्बन्ध स्थिर नहीं है। प्रत्येक जीव अपने ऋणानुबन्ध के अनुसार जन्म ग्रहण करता है और एक स्थान में लेन-देन का व्यवहार पूरा हो जानेपर, वह स्थान छोड़कर दूसरा जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार जन्म-मरण का चक्र निरन्तर चलता रहता है। इसमें किसी के प्राप्त होनेपर हर्ष करना व्यर्थ है और चले जानेपर शोक करना व्यर्थ है। इस चक्र का वर्णन आत्मपुराण में इस प्रकार किया है-
*जातो बालो युवा वृद्धो मृतो जातः पुनः पुनः ।*
*भ्रमतीत्येष संसारे घटीयन्त्रसमोऽवशः ॥*
‘सृष्टि का यह क्रम ही है कि मनुष्य जब जन्म लेता है, तब कुछ कालतक बालक रहता है, उसके बाद वह जवान होता है और फिर वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। फिर जन्म लेता है और फिर मरता है। घटमाल में जिस प्रकार घड़े ऊपर-नीचे परवश होकर आया-जाया करते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक जीव अपने कर्मके अनुसार उच्च-नीच जन्म धारण करता रहता है। इस प्रकार अनादिकाल से प्रत्येक जीव की स्थिति होती आ रही है, तब फिर जन्म के समय हर्ष किसलिये करें ? और मृत्यु के समय शोक क्यों करें ?”
‘फिर शरीर तो स्वभावतः ही ऐसा है कि सदा रह नहीं सकता। आज नहीं तो कल, शरीर एक दिन नाशको प्राप्त होनेवाला ही है।
*यत्प्रातः संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति ।*
*तदीयरससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता ॥*
‘प्रातःकाल जो अन्न राँधा जाता है, वह सायंकाल तक सड़ जाता है। इस प्रकार सड़ जाना जिसका स्वभाव है, वैसे अन्न के विकाररूप में यह शरीर स्थित है, फिर भला यह सदा के लिये कैसे रह सकता है? इसलिये सेठजी! काया की माया में पड़े रहना ठीक नहीं है। वह तो स्वभावतः क्षणभंगुर है, नाश को प्राप्त होनेवाला है। अतएव पुत्र के लिये शोक करना उचित नहीं है।’
*इस प्रकार प्रतिदिन उपदेश मिलने से सेठ को धैर्य प्राप्त हुआ और उसने पुत्र के लिये शोक करना छोड़ दिया और वह पूर्ववत् अपना नित्य का व्यवहार नियमित रूप से करने लगा।*
कुछ दिनों के बाद पौराणिक की एक छोटी लड़की मर गयी । गरीब लोगों को संतान अधिक होती है, वैसे ही उनको भी थी, तथापि लड़की की मृत्यु से पौराणिक व्याकुल हो गये। सेठके घर कथा के लिये जाना भी बन्द कर दिया। सेठ ने पता लगवाया तो पता लगा कि अपनी एक छोटी लड़की की मृत्यु से वह शोक कर रहे हैं और इस कारण बाहर नहीं निकलते। सेठजी स्वयं उनको आश्वासन देने उनके घर गये और पौराणिक की कही हुई जितनी बातें उनको याद थीं, उसे कह सुनायीं; परंतु पौराणिक को शान्ति नहीं मिली। तब सेठ ने कहा- ‘मेरा एकलौता जवान पुत्र मरा था तब तो आप मुझको बहुत धीरज बँधाते रहे, अब आप स्वयं धैर्य क्यों नहीं धरते ?’ तब पौराणिक ने उत्तर दिया, ‘सेठजी! लड़का तो आपका मरा था, इसलिये मैं आपको धैर्य दिला सकता था; परंतु यह लड़की तो मेरी मरी है, तब मुझसे धैर्य कैसे धारण किया जाय?’ बेचारा सेठ यह सुनकर चुपचाप घर लौट गया।
इससे यह ज्ञात होता है कि *ममता में सारे दुःख हैं। ममता के रहते केवल मुँह से कहना कि ‘भाई! यह तो ईश्वर की माया है। ईश्वर जैसे रखे वैसे रहना चाहिये। उसकी प्रसन्नता में हमको सुख मानना चाहिये इत्यादि’* – इसका तो कुछ अर्थ ही नहीं है। ऐसा ज्ञान तो राह में माँगते फिरनेवाले भिखारी को भी होता है और वह हमको रोज ही सुनाता है – *’भाई-बन्धू कुटुंब-कबीला झूठी जगकी प्रीत रे।’* – परंतु उसका अपना निश्चय इस प्रकार का नहीं होता। इस प्रकार का मौखिक ज्ञान केवल दूसरों को देने के ही काम में आता है। अपने लिये समयपर निरर्थक बन जाता है। इसलिये समझ के अनुसार ही जीवन बनाना चाहिये। इसके बिना ज्ञान निरर्थक है।
क्रमशः…….✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
] Niru Ashra: `(सिर्फ़ साधकों के लिए)`
*भाग-35*
*प्रिय ! मनहिं प्रेम रस भेव…*
(श्री हरिवंश )
मित्रों ! सुन गौरांगी ! कल सुबह जल्दी आएगी …क्यों ? …कुछ अहंकार बढ़ सा गया है ऐसा लगता है …इसलिए कुञ्ज में कल झाड़ू लगाकर इस अहंकार को हटाने की इच्छा है…। कितने बजे ? मैंने कहा – सुबह 3 बजे …बारिश ख़ूब हो रही है …अगर कल हुई तो ? मैंने कहा …वो बारिश नही होगी मेरी श्री किशोरी जी की कृपा होगी। …गौरांगी ! भींगते हुये कुञ्ज में सेवा करेंगे…सेवा आवश्यक है …साधक के जीवन में अगर सेवा नही तो आलसी होने का डर बना रहता है …और इस “प्रेम साधना” में तो सेवा की ही प्रधानता है । पर गौरांगी ! सेवा वो है जिसका प्रचार न किया जाये …सेवा का प्रचार होते ही सेवा का “रस तत्व” समाप्त हो जाता है …सेवा तो आनंद है …सेवा तो उत्सव है …। गौरांगी ! सेवा का फल नही होता …सेवा ही अपने आप में फल है…सेवा का सौभाग्य मिला… यही परम फल है…गौरांगी ! हम साधकों के जीवन में अहंकार आने की सम्भावना ज्यादा ही रहती है …और जब अहंकार आजाता है तब तो हृदय कठोर हो गया ना ! …और जब हृदय ही कठोर हो गया तो भगवान वहाँ कहाँ से प्रकट होंगे …कोमल हो हृदय …इसलिए अहंकार को मिटाने का …सबसे सरल उपाय है …सेवा ! …सेवा करो …गन्दगी कहीं देखी …मन में सोच लो कि मेरे भगवान भी तो यहाँ से गुजरेंगे …ओह ! ये स्थान गन्दा है …साफ़ कर दो …उस स्थान की थोड़ी सफाई कर दो …स्वयं करो …मेरे बाबा कहते हैं गौरांगी ! पर सेवा करते हुये भगवत् भाव जरूर रखो …अगर भगवत् भाव न रखके …संसार का भाव रखा …तो अहंकार घटने की जगह और बढ़ जाएगा …फिर तुम्हें लगेगा …देखो ! मैंने स्वच्छता अभियान में भाग लिया …मैंने सफाई की । नही गौरांगी ! हमें ये भाव रखना है कि हमारे भगवान ही तो यहाँ आएंगे …इस स्वच्छ स्थान पर मेरे भगवान ही बैठेंगे …मेरे श्री कृष्ण के अलावा और कोई बैठ भी कैसे सकता है …नही, और कोई है ही नही …सब वही तो हैं…मैं उन प्रियतम के लिए सफाई कर रहा हूँ …।
आज प्रातः 3 बजे उठे …और उत्साह से कुञ्ज में गये …वहाँ गौरांगी आगई थी …अन्य साधक जन भी थे …कुञ्ज में पक्षियाँ का कलरव हो रहा था …भूमि गीली थी …हवा में शीतलता थी …।
मैंने जाकर उस अपने प्यारे “कदम्बवृक्ष” को गले से लगाया …उसकी धड़कन मुझे सुनाई दी …बाबा की कुटिया में से झाड़ू हम लोगों ने लिया और पत्ते जो वृक्ष के गिरे हुये थे …उनको एक जगह एकत्रित करने लगे…। हरि जी ! देखो देखो ! बारिश फिर शुरू हो गयी…हम लोग आनंदित हो गये …”श्री राधा श्री राधा” …इसी नाम ध्वनि से हम लोग झूमने लगे …आकाश की ओर देखते हुये …गोल घूम रहे थे ।
पागलबाबा का कुञ्ज इतना घना है कि छोटी मोटी बारिश का कुछ पता भी नही चलता …हम दोनों एक कुञ्ज में जाकर बैठ गये …।
गौरांगी ने कहा …हरि जी ! एक पद सुनाऊँ ? …मैंने कहा सुना ना ! एक मोर हमारे कुञ्ज में आगया था …गौरांगी ने पद सुनाया …उसके भाव ये थे –
“सुनु सखी दसा होत जब प्रेम की”
जब प्रेम की स्थिति में ये जीव आजाता है …तब क्या होता है ?
“ज्ञान -कर्म-विधि वैभवता सब , नही ठहरात व्रत नेम की”
कहाँ ठहरेगा ? ज्ञान कहाँ ठहर पायेगा प्रेम के आगे …कर्म ? अरे! वहाँ तो एक ही कर्म है कि अपने प्रियतम के प्रति बढ़ते रहना …उसके अलावा और कोई कर्म है ही नही । विधि , क्या विधि ? प्रेम की एक ही विधि है …कि येन केन प्रकारेण अपना प्यारा जिस विधि से मिले …वही है हमारी विधि । और उस प्रियतम के सिवा और किसी विधि को न हम जानते हैं न मानते हैं ।
गाते हुये गौरांगी के नयन से अश्रु गिर रहे थे …वो आँखें मूद के गा रही थी ।
“रहत अधीर ढरत नैननि जल, मिटत सकल चंचलता मन की”
कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं अन्य योग और ज्ञान के मार्गियों को …मन की चंचलता दूर करने के लिए…पर इस प्रेम के पन्थ में !
प्रेमी हर क्षण उसी अपने प्रियतम की याद में अधीर ही बना रहता है …उसके नेत्र बस अश्रुप्रवाहित करते रहते हैं …और इस साधना का फल ये होता है कि मन की चंचलता मिट जाती है …प्रेम में मन फंस जाता है …मन को वश में करने की ताकत किसी में नही है…न ज्ञान में…न कर्म में …न योग में…है इनमें मन को वश में करने के उपाय …पर वो सब कृत्रिम हैं …सहज नही हैं …पर प्रेम के मार्ग में …मन को लगाओ …तुम्हारा मन अपने प्रेमास्पद को छोड़कर कहीं और लग ही नही सकता …प्रेम जहाँ है …मन वहीं है ।
“निद्रा आदि लगत सब नीरस, घटत विषय तृष्णा सब घट की”
गौरांगी पद गाते गाते रुक गयी …अपने आँसुओं को पोंछ कर बोली …प्रेमी जितना बैरागी होता है …प्रेमी के मन में जितना वैराग्य होता है …उतना वैराग्य तो किसी तपस्वी के मन में भी सम्भव नही है …।
कहते कहते रो गयी गौरांगी ! प्रेमी की नींद उड़ जाती है…निद्रा को जीतना बड़ी बात है…पर प्रेमी तो इस स्थिति को सहज पा लेता है …उसे नींद नही आती और सारा जगत उसे रस से शून्य प्रतीत होता है …नीरस लगता है । हरि ! देखो ना …हमारे हृदय में विषय तृष्णा भरे हुये हैं …ज्ञानी लोग कितनी साधना करते हैं फिर भी विषय भोग के प्रति उनका आकर्षण बना ही रहता है …पर धन्य हैं ये प्रेमी …जिसका आकर्षण एक मात्र अपने “प्यारे” के प्रति ही होता है…विषय भोग …इसे तुच्छ लगते हैं…प्रेम में व्रत उपवास करने की जरूरत नही है …यहाँ तो खाना पीना कुछ भी अच्छा नही लगता…हाँ एक ही बात अच्छी लगती है कि कोई आकर मेरे प्रियतम के बारे में कुछ सुना दे ।
पागल बाबा हम लोगों के पीछे खड़े होकर हमारी बातें सुन रहे थे …उनके भी अश्रु प्रवाहित हो रहे थे । हम दोनों ने देखा …और बाबा को जाकर साष्टांग प्रणाम किया ।
चलो यमुना जी …4 बज गये हैं …बाबा के साथ यमुना स्नान को हम लोग गये …।
एक व्यक्ति जो आँखें बन्द करके बैठा हुआ था यमुना जी में …ध्यान की मुद्रा में । उसकी ओर देखते हुये बाबा ने मुझ से कहा …हरि ! ये कल से ऐसे ही बैठा है …और मुझे लगता है इसने कुछ खाया भी नही है…पूछ इसको क्यों ऐसे बैठा है ? …क्या ये भगवत् दर्शन पाने के लिए ऐसी तपस्या कर रहा है ? …मैं गया …मैंने जाकर उन्हें आवाज दे कर उठाया । बाबा ने ही उस आदमी से पूछा भैया ! कल से भूखे प्यासे बैठे हो …क्या चाहते हो ? …देखो ! भगवत् प्राप्ति करने की इच्छा है तो इस तरह भगवत् प्राप्ति नही होती ।
उसने बाबा के चरणों में प्रणाम किया …और बोला …नही बाबा मैं भगवत् प्राप्ति करने के लिए नही बैठा …मैं तो इसलिए बैठा हूँ …कि मेरी बेटी को उसके पति ने त्याग दिया है …वो मेरी बेटी को अपने घर नही ले जा रहा …मैं तो इसलिए यहाँ बैठा हूँ कि भगवान मेरी सुनेंगे …और मेरी बेटी अपने पति के यहाँ जायेगी । बाबा पता नही क्यों ख़ूब हँसे …और हँसते हुये बोले …अरे जब इस झूठे पति ने त्याग दिया तो अपनी बेटी को बोलो …सच्चा पति तो तुम्हारा वो श्री कृष्ण हैं …उससे जोड़ो ना अपनी बेटी को । देखो ! क्या लड़कियों का स्वाभिमान नही होता ? …अरे ! जब उसने छोड़ दिया …तो अपनी बेटी के अंदर स्वाभिमान जगाओ …एक ठसक पैदा करो …अपनी बेटी के अंदर …इस तरह नाटक करने से क्या मिलेगा ? ये सब झूठे पति हैं …ये समझाओ । इतना बोल कर बाबा आगे की ओर बढ़ गये ।
स्नान करते हुये बाबा बोले …ये संसारी कितने मोह ग्रस्त होते हैं …अरे ! सत्य को देखो …सत्य का दर्शन करना सीखो ।
पति ने इसकी बेटी को छोड़ दिया तो मरने के लिए तैयार हो गया …कैसी सोच है …अरे ! भगवान क्या लीला करना चाहते हैं …ये मोह ग्रस्त मनुष्य समझता ही नही है ।
बाबा स्नान करके निकल गये …हम लोगों ने बाबा के चरणों में प्रणाम किया और अपने घर की ओर आगये । अब हृदय में हल्कापन लग रहा था …अहंकार नष्ट हो गया इसलिए ।
“प्राण दिए पर प्रेम न पैहें”
“ऐसो महँगो आहि सखी री, कह धौं सो कैसें कै लैहैं”
Harisharan


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