Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣9️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
इस तरफ महाराज के पोशाक…उनकी तलवारें…उनके भाले …कवच ।
और इस तरफ ! …….फिर कीर्ति मुझ से मचलनें लगी …….जीजी ! आपको मेरी सहायता करनी पड़ेगी ।
क्या ? क्या चाहिये तुझे मुझ से …………..मैने पूछा ।
आर्य श्रीराघवेंद्र के बल्कल वस्त्र …….और ये देखो ! मुठ्ठी में कुछ बाल थे कीर्ति के……ये जटाओं के बाल हैं……आर्य श्रीराघवेन्द्र की जटाओं के बाल …….अभी स्नान हो रहा था ना ………तब जटाओं को सुलझाते समय कुछ बाल गिर गए थे ……मैं इन्हें भी रखूंगी ।
मैने कहा ……तू पागल है क्या ? ये सब भी कोई रखता है भला !
मुझे अब हँसी आरही थी ।
जीजी ! ऐसा भी तो किसी कुल में नही होता !……..कि राज्याभिषेक की बेला में वनवास भेज दिया जाए…….और उन घुँघराले केशों को जटाओं में बदल दिया जाए !…….अश्रु गिर रहे थे कीर्ति के ।
और हाँ …..माण्डवी जीजी ! भरत भैया के वस्त्र भी मुझे चाहिये ………नन्दीग्राम में रहते समय जो बल्कल वो पहनते थे ।
आपके वस्त्र भी जीजी ! मुझ से बोली कीर्ति ।
मैने कहा ….कीर्ति ! मेरे पास वनवासी वस्त्र कहाँ हैं ?
मुझे तो आगे बढ़नें पर…..महान पतिव्रता अनुसुइया जी नें नवीन वस्त्र और आभूषण पहना दिए थे………फिर लंका में रही ……….
जीजी ! लंका के वस्त्र ?
मैने कहा ….कीर्ति ! लंका से जब मैं आर्य के पास आरही थी तब मेरा राक्षसियों नें श्रृंगार किया ……………………
तो जीजी के पास इस संग्रहालय में रखनें के लिये कुछ नही है !
कीर्ति ने सबको सुनाते हुये कहा ।
ये कौन है जो हमारी बातें सुन रहा है ? …….उर्मिला नें देखा कपाट के रन्ध्र से कोई झाँक रहा था ।
कौन है बाहर ? माण्डवी चिल्लाई ।
कौन हो तुम ? और यहाँ तक कैसे आईँ ?
उर्मिला नें दरवाजा खोलते हुये पूछा था ।
मेरा ध्यान अपनी बहनों की ओर था……।
जीजी ! ये ? उर्मिला नें मुझे दिखाया ।
ओह ! ये त्रिजटा है …..मेरी सखी ! मैने आगे बढ़कर त्रिजटा को भीतर बुलाया ……….वो आयी ।
ये है मेरी लंका की सखी त्रिजटा……..मैने सबसे उसका परिचय कराया……और त्रिजटा ! ये हैं मेरी बहनें …….इसका नाम उर्मिला , उसका माण्डवी ….और ये मेरी सबसे छोटी प्यारी बहन श्रुतकीर्ति ।
रामप्रिया ! तुम्हारे बिना मेरा मन नही लगता अब………..मैं चिड़चिड़ी होनें लग जाती हूँ …….पता नही क्यों ।
महामन्त्री सुमन्त्र जी तुरन्त महल में आये……क्षमा कीजियेगा ….पर एक बात कहनें आया हूँ……मैं चौंक गयी थी महामन्त्री जी क्यों आये ?
ये ? त्रिजटा की ओर देखते हुये महामन्त्री नें मुझ से पूछा ।
ये मेरी सखी….लंका की सखी त्रिजटा ….मैने त्रिजटा का हाथ पकड़ा ।
पर आज के बाद ऐसा मत करना आप ?
त्रिजटा को चेतावनी दे दी थी महामन्त्री नें ………..।
पर क्या किया ? मैने त्रिजटा की ओर देखा ।
एक छोटा बालक था ……ये उसको कह रही थी मैं तुझे खाऊँगी ……मुझे भूख लग रही है …….और वो बालक डरकर मूर्छित हो गया ।
क्या ! मैं चौंकी ……….मैने त्रिजटा की ओर देखा ।
वो भावहीन चेहरे से बोली ……….रामप्रिया ! मैने कहा ना ……मुझे तुम्हारी आदत लग गयी है ……..तुम मुझे नही मिलती हो तो मैं चिड़चिड़ी हो जाती हूँ …….।
महामन्त्री को मैने भेज दिया था ………..पर मैं त्रिजटा को देखती रही ……ये इसे क्या हो गया है ? फिर मैने समझा ……….इसे मेरी आदत लग गयी थी लंका में ……….पर !
फिर उस बात को छोड़ दिया मैने ।
अच्छा ! आपके संग्रहालय के लिये मैं रावण की तलवार दे सकती हूँ ।
त्रिजटा नें कीर्ति से कहा ।
श्रुतकीर्ति नें तुरंत कह दिया …….उस दुष्ट रावण की कोई भी वस्तु हम कैसे रख सकते हैं अपनी अयोध्या में !
हाँ बात सही है रावण की वस्तु क्यों रखी जाए रघुकुल के संग्रहालय में……….त्रिजटा नें कीर्ति की बात का आदर ही किया ।
पर मैं त्रिजटा को लेकर सशंकित रहनें लगी थी ।
मेरा श्रृंगार करती रहीं मेरी बहनें………त्रिजटा वहीँ बैठी रही गुमसुम सी ……हाँ मैने त्रिजटा से कहा ……..केश का जूड़ा त्रिजटा! तुम अच्छा बनाती हो ……बना दो तो ! तब बहुत खुश हुयी थी त्रिजटा …..और पूरी तन्मयता से मेरा जूड़ा बनाया था त्रिजटा नें ।
शेष चरित्र कल ……..!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ३५*
*🤝 १०. व्यवहार 🤝*
_*ममता*_
*'तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।'*
इस श्रुतिका तात्पर्य भी यही है। एक ही ईश्वर जब अनेक रूप हो गया है, जिस ज्ञानी को इसकी साक्षात्कार-प्रतीति हो गयी है, वह किस प्राणी या पदार्थ में ममता बाँधकर उसको अपना कहेगा या किस प्राणी-पदार्थ को पराया समझकर उससे द्वेष ही करेगा? समुद्र किस तरंग को अपनी समझकर उसमें ममता बाँधता है और किस तरंग को परायी समझकर उसे दूर रखता है? क्योंकि सारी तरंगें समुद्ररूप हैं, इसी प्रकार सारे प्राणी ईश्वररूप ही हैं।
*एक आदमी ने एक घर बनाया। ज्यों ज्यों घर तैयार होता जा रहा है— त्यों-ही-त्यों उस आदमी के चित्त में घर विषयक ममता की छाप पड़ती जा रही है । घर पूरा तैयार होनेपर चित्त में छाप भी खूब गहरी पड़ गयी। दैवयोग से चार-छ: महीने में उस घर में आग लग गयी और वह घर नष्ट हो गया। वह मकान जब तैयार हुआ, तब ईश्वरकृत सृष्टिमें कोई वृद्धि नहीं हुई; क्योंकि पंचमहाभूतों के बने विविध पदार्थ ही घररूप बन गये थे। इसी प्रकार घर का नाश होनेपर उसमें कोई कमी नहीं हुई। जो पंचमहाभूत के पदार्थ घररूप में दिखलायी पड़ते थे, वे उस रूप को छोड़कर दूसरे रूप में जा रहे, परंतु मकान-मालिक को शोक हुए बिना नहीं रहेगा; क्योंकि उसने उस घर में ममता बाँधी थी कि यह घर मेरा है। ममता की छाप जितनी गहरी होगी, उतना ही दुःख भी अधिक होगा।*
अब मान लो कि घर तैयार हो गया और तुरंत ही कोई अच्छा ग्राहक मिल गया तथा उस आदमी ने उसको वह घर बेच दिया। बेच डालने के बाद उस घर में आग लगी और वह जलकर खाक हो गया, परंतु इससे उस आदमी को कुछ भी दुःख न होगा; क्योंकि उस आदमी ने उस मकान के प्रति अपनी ममता की छाप अपने चित्त से मिटा डाली। यदि घर के विनाश से दुःख हुआ होता तो उस आदमी को दोनों हालतों में दुःख होना चाहिये था। इस प्रकार *'अन्वयव्यतिरेक युक्ति से'* सिद्ध होता है कि *ममता के कारण ही दुःख का अनुभव होता है*। अन्वय अर्थात् जहाँ ममता है, वहाँ दुःख भी है। इसलिये पहली हालत में घर बेचने के पहले जब आग लगी, तब घर में ममता थी, इसलिये दुःख भी हुआ और व्यतिरेक यानी अभाव- अर्थात् जहाँ ममता नहीं है, वहाँ दुःख भी नहीं है। इसलिये घर बेचने के बाद आग लगने पर उसमें ममता न होनेके कारण दुःख भी नहीं रहा।
*अबतक हमने यह देखा है कि ईश्वरनिर्मित सृष्टि में कुछ भी घट-बढ़ नहीं होती। केवल रूपान्तर हुआ करता है। नाम-रूप की तरंगे पंचभूत के समूह में उठा करती हैं और नाश को प्राप्त होती हैं और उन तरंगों को नचानेवाली चेतन सत्ता तो एक और सर्वव्यापक है। दुःख होता है तो केवल ममता के कारण ही । यदि ईश्वर के प्राणी-पदार्थों में मनुष्य ममत्व-सम्बन्ध न बाँधे तो दुःख होने का दूसरा कोई कारण नहीं है।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-48
प्रिय ! रहहुँ सदा निष्काम मति…
(सन्त वाणी )
मित्रों ! इन दिनों चंचलता भर गयी है मेरे अंदर…प्रेम में देह चंचल हो ही जाता है …हाँ देह चंचल होना ही चाहिए …और मन शान्त…हमारे साथ होता उल्टा है …मन चंचल होता है और देह शान्त … यही तो रुग्णता है ।
मैंने आज पूछा था अपने बाबा से – बाबा ! मन के चंचल होने का कारण क्या है ?
बाबा ने उत्तर दिया था – काम (इच्छा ) ।
मैं आज सुबह ही उठ गया था …पता नही आज कल नींद नही आती …नींद जल्दी ही खुल जाती है …बाबा से पूछता हूँ तो बाबा कहते हैं …सात्विकता जब बढ़ जाती है तब नींद की मात्रा भी कम हो जाती है …और ध्यान से, शरीर के लिए जो नींद है उसकी पूर्ति हो ही जाती है …। और पूर्ण सात्विकता जब बढ़ती है तब नींद ख़तम ही हो जाती है…पर उस अवस्था में सदैव उत्साह बना ही रहता है।
मुझे झपकी आगई आती नही है …पर आज कुञ्ज में बैठा, शीतल हवा मोगरे और वेला के फूलों की खुशबू …नींद की हल्की सी झपकी आ ही गई ।
- आकाश में उड़ रहा हूँ …मेरा देह कपास के समान हल्का हो गया है …मुझे आनंद आरहा है ।
सामने ही एक नगर दिखाई दिया …और साथ में दिखाई दिया कठोर रूप लिए एक शक्तिशाली व्यक्ति । मैंने उन्हें देखा …उनके चेहरे की क्रूरता देखकर पता नही क्यों मुझे हँसी आगई …उनकी दृष्टि मेरे पर पड़ी तो तुरन्त वह शान्त हो गये । और मुझे प्रणाम किया ।
मैंने तो सोचा था कि किसी और को प्रणाम किया होगा…और मैंने अपने आजु बाजू में भी देखा …पीछे भी देखा … पर कोई नही था …उन्होंने मुस्कुराकर कहा – आपका ही मैंने अपने इस नगर में अभिवादन किया है …मैंने उनसे कहा ये नगर
क्या है ?…इस नगर का नाम क्या है ?
उन्होंने कहा …इस नगर को दो भागों में बाँटा गया है…एक दुष्ट और पापियों के लिए है …उनके दण्ड की व्यवस्था के लिए है …नर्क । और दूसरा , अत्यंत रमणीय सुन्दरतम सुख दायक…पुण्यवानों के लिए है – स्वर्ग ।
मुझे आनंद आया …मैंने कहा और आप ? इस नगर के चौधरी हैं ? वो हँसे और बोले…हाँ …मैं ही हूँ यमराज ।
मैंने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया…उन्होंने वापस मुझे ही प्रणाम करके कहा …आप तो परम भक्त हैं…आप तो श्री प्रियाप्रियतम के निकुँज रस में अपने को लगाये रहते हैं …”प्रेम साधना” के उच्च साधक हैं ।
मैंने कहा…साधक बाधक क्या हैं …हाँ कृष्ण से प्रेम करते हैं …और हमारे कृष्ण अपनी आल्हादिनी को प्राणों से भी ज्यादा चाहते हैं इसलिए हम उन “श्री राधा” का नाम लेते हैं ।
मैंने फिर कहा …मुझे देखना है आपका ये नगर…यमराज ने कहा …ये सौभाग्य होगा हमारे नगर का …मैंने लापरवाही से पूछा क्यों ? …सौभाग्य क्यों होगा ? …आपके पैरों में श्री धाम वृन्दावन की धूल तो लगी ही
होगी न …मैं भी पूरे ठसक से बोला …हाँ…निधिवन , सेवाकुंज, मदन टेर …और यमुना जी , इन सबकी रज लगी है…। ओह ! यमुना जी तो मेरी बहन हैं …यमराज ने कहा । … फिर तो तुम्हारे जीजा के हम यार है …मैंने सहजता से कहा …फिर तो हमारी खातिरदारी भी होनी चाहिए । (यमुना सूर्य की पुत्री हैं…और यमराज भी सूर्य पुत्र हैं …यमुना जी
कृष्ण की पटरानी हैं ) मेरी बात सुनकर जोर से हँसे यमराज ।
चलें ! यमराज ने बड़े आदर के साथ मुझ से कहा…मैं चल दिया …नर्क । ये क्या ?
यहाँ इतनी गर्मी क्यों है ? 10 सूर्य एक साथ उदित हैं …ओह ! और जीव का सूक्ष्म देह जिसे “यातनादेह” करते हैं …उसे दण्डित करना है …जीव चल रहा है …10 सूर्य के ताप में …गिर जाता है …फिर यमदूत उसे पीटते हैं …फिर खड़ा होता है फिर चलता है । मुझ से देखा नही गया … तो मैंने “कृष्ण कृष्ण”
नाम का उच्चारण किया… यमराज तुरन्त मुझ से बोले…कृपा करके ये नाम यहाँ न लें …मैंने
बड़ी मासूमियत से पूछा – क्यों ? …नर्क खाली हो जाएगा …इस नाम के कान में पड़ते ही…सब पापियों के पाप नष्ट हो जायेंगे …इसलिए आप इस दिव्य नाम को न लें ।
मैंने कहा …ठीक है …पर मेरा मन नही लग रहा यहाँ ।
मैं फिर आगे चला यमराज के साथ …एक जीवात्मा की खाल उधेड़ी जा रही थी …और वह चीख रहा था
…उसमें नमक छिड़का गया …और एक अंधकूप में डाल दिया …जहाँ मच्छर और अन्य कीटाणु थे ।
ओह ! मेरे मुँह से …हे कृष्ण ! ये नाम फिर निकला, यमराज ने फिर मुझे हाथ जोड़ा …और कहा …मत लीजिये ये नाम ।
मैंने प्रश्न किया – ये नर्क का दण्ड सबको भोगना पड़ता है ? …हाँ सबको …आप ही सबके दण्ड दाता हैं ? …यमराज
ने कहा …हाँ ।
फिर थोड़ी देर के बाद में यमराज ने कहा …जो भगवत् शरणागति ले चुका है …और जो भगवत् प्राप्ति के लिए, साधना करने के लिए तत्पर हो गया है …और एक बार भी जिसने जीवन में भगवान से ये कह दिया है कि “हे नाथ ! मैं तेरा हूँ” उसको हम लोग दण्ड नही देते ।
मैं थोड़ी चंचलता दिखाते हुये बोला …पर हमारे वृन्दावन में ऐसे लोग भी हैं …जो “हे कृष्ण !
मैं तेरा हूँ” …ऐसा रटते रहते हैं …और भेष महात्माओं का धारण करके चलते हैं…उनको देखो तो ऐसा लगता है कि बहुत उच्च कोटि के महात्मा हैं …पर अंदर से इतने गन्दे हैं कि गन्दगी भी शरमा जाए । फिर उनको दण्ड कौन देता है ?
यमराज मुस्कुराते हुये बोले …भगवान भूत भावन शंकर जी । उनकी दण्ड की व्यवस्था करते हैं …भगवान शंकर ।
मैंने कहा …यमराज जी ! अब नर्क नही देखना…थोड़ा स्वर्ग भी दिखा दो । यमराज हँसे – और बोले …आपके श्री धाम वृन्दावन के सामने हमारा स्वर्ग तो तुच्छ है …आप जिस कदम्ब को आलिंगन करते हैं …उस कदम्ब वृक्ष के सामने हमारा कल्पवृक्ष बेकार है । फिर भी आप देख लें । नर्क से स्वर्ग की ओर हम लोग चले ।
समय लग रहा था तो मैंने यमराज से पूछा…नर्क कौन आता है ? मैंने स्वयं कहा…पापी लोग आतें हैं पर हे यमराज ! पाप व्यक्ति क्यों करता है ? …यमराज ने कहा…काम के कारण …काम के कारण जीवात्मा पाप करता है …मैंने कहा …काम यानी ?
इच्छा । यमराज बोले …काम का मतलब मात्र यौन सुख नही है …काम का मतलब इच्छा से है। हमारी कामना जितनी ज्यादा होगी हमसे उतने ही पाप कर्म होंगे । काम (इच्छा) से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है …क्यों कि इच्छा की पूर्ति नही होती तब क्रोध उत्पन्न होता है ।
मैंने यमराज से पूछा …अगर इच्छा की पूर्ति होगई तब तो ठीक है ना ? …यमराज हँसे…और बोले …नही इच्छा का होना ही नर्क के द्वार खोल देता है …यही बात हमें समझनी है…मैंने कहा …यमराज जी ! बताईये ना…कैसे ? इच्छा अगर पूरी हो गयी तो फिर कैसे पतन का रास्ता खुलेगा …इच्छा पूरी…वासना पूरी । यमराज ने कहा …आप समझते हैं …फिर भी पूछ रहे हैं तो मैं आपको बताये देता हूँ …काम(इच्छा ) ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है । अगर इच्छा पूरी नही हुयी तो क्रोध का जन्म होगा …फिर मूढ़ता …फिर बुध्दि का नाश …फिर पतन …फिर तो नर्क में जाना निश्चित ही है । और अगर काम (इच्छा ) पूरी हो गयी …तो लोभ प्रकट होगा …लोभ से दुष्कर्म होंगे …जिस दुष्कर्म के कारण हमारा अहंकार पुष्ट होगा…और उस अहंकार के पुष्ट होने के कारण विवेक का नाश होगा …फिर पतन । फिर नर्क ।
यमराज बोले …विवेक सूर्य है …और काम (इच्छा ) बादल है …बादल सूर्य को ढँक देता है …जिसके कारण सूर्य का प्रकाश हम तक नही पहुँच पाता । और जब विवेक ही नही रहेगा…तब तो पाप कर्म होंगे ही…विवेक ही समाप्त तो सबकुछ समाप्त ।
मैंने पूछा…तो जीवात्मा को क्या करना चाहिए ?
…मेरे हाथ को प्रेम से दबाते हुये यमराज बोले …कामना के वशीभूत नही होना चाहिए । “मैं ये करूँगा …मैं वो करूँगा” …ये भावना ही हमें गलत मार्ग पर ले जाती है …और सबसे बड़ी बात इस कामना के कारण व्यक्ति का अहंकार पुष्ट होता है …”मैं” “मैं” ।
मन, बुद्धि को भटका देती है …फिर बुद्धि के बिगड़ते ही …बुद्धि में रह रहे विवेक का नाश हो जाता है … फिर सब ख़तम ।
मैंने कहा …क्या करें ? यमराज ने कहा…अपने अहंकार को भगवान में चढ़ा दो… बोलो – “हे भगवान! मैं तुम्हारा हूँ”…ऐसा रोज बोलो …झूठ ही बोलो …मैंने कहा …झूठ बोलने से हो जाएगा ? …यमराज ने कहा …किसी युवती से “मैं तुम से प्यार करता हूँ “…ऐसा झूट मूट में भी बोलते रहो तो…तुम्हें सच में ही एक दिन प्यार हो ही जाता है , है ना ?
प्रेम से ही निष्कामता आएगी …और निष्कामता से ही आंनद , और रस की प्राप्ति होगी …तब न नर्क का त्रास होगा , न स्वर्ग की आस होगी । ये कैसे सम्भव है ? यमराज ने कहा . “नारायणायेति समर्पयेतत्” (जो भी करो, भगवान के लिए करो) । प्रेम ही आपको नर्क और स्वर्ग से बचायेगी…इसलिए प्रेम करो । क्यों कि प्रेम से ही निष्कामता का प्राकट्य होगा, समझे ?
स्वर्ग आचुका था …चलो ! ये है स्वर्ग ! सुंदर सुंदर अप्सरायें जीवात्माओँ के साथ विहार कर रही थीं…सुंदर सुंदर पहाड़ी हैं …उनमें से झरने बह रहे हैं …शराब पी कर जीवात्मा उन स्त्रियों के साथ मत्त है …। मुझे देखना था …कल्पवृक्ष को …मैंने देखा
…
स्वर्ग में विषयी पुरुषों की जो कामना होती है वो जाते हैं …और कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर माँगते हैं …तुरन्त कामना उनकी पूरी होती है। मैं गया…कल्पवृक्ष के नीचे…और उसे छूने लगा तो यमराज ने कहा…क्यों छू रहे हैं ? आपको क्या चाहिए ? …मैंने कहा…मुझे अब अपने कुञ्ज में जाना है…अपने श्री वृन्दावन धाम जाना है …मुझे नही रहना इस भोग भूमि में …यहाँ के परमाणु अच्छे नही है …भोग विलास से भरे हुये लोग…और उनकी ये वासना …मुझे घुटन हो रही है ।
यमराज ने कहा …ये बेचारा कल्पवृक्ष है…इसकी क्या मज़ाल कि आपको श्री धाम वृन्दावन ले जाए …फिर ? …मैंने घबराकर पूछा …आप अपने ही “श्रीकृष्ण” का नाम लें …।
मैंने जोर जोर से “कृष्ण कृष्ण कृष्ण” कहना शुरू किया ।
गौरांगी ने मुझे पकड़ कर झकझोरा …हरि जी ! इतनी जोर से क्यों चिल्ला रहे हो …मैंने आँखें खोलीं …तो वहीं कुञ्ज में ही बैठा था….मेरे आँखों से अश्रु बहने लगे…आनंद के …और बड़े प्रेम से मैंने
गौरांगी को गले से लगाया …।
क्या हुआ हरि जी ! मैंने कहा यार ! मुझे नही चाहिए स्वर्ग …मुझे यही कदम्ब, यही तमाल,यही बाबा, यही कुञ्ज …यही प्रेम …यही भाव …और यही प्रेम की निष्कामता । हाँ गौरांगी ! निष्काम प्रेम ही सर्वोपरि है।
निष्काम । गौरांगी ने मुझे बड़े प्रेम से कूएँ का जल पिलाया …और अपने पीले चादर से मेरे चेहरे के पसीने को पोंछा …।
जोई जोई प्यारो करे, सोई मोहिं भावै ,
भावै मोहिं जोई, सोई सोई करैं प्यारे
Harisharan
