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June 24, 2025 10:57 am

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 श्री सीताराम शरणम् मम  128(3), “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-77”,श्री भक्तमाल (178) तथा “प्रश्नोपनिषद”- पंचदश : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣2️⃣8️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

रामप्रिया ! पागल हो गया था मेघनाद …………….

अब उसनें अपनी माया दिखाई ………………..

केवल हनुमान को ही दिखाई माया………..और कुछ वानर भी थे ।

इतना कहकर त्रिजटा फिर रुकी ………।

आगे बता ना त्रिजटा ! मैने फिर पूछा ।

माया से आपको बनाया मेघनाद नें ………त्रिजटा बोली ।

मुझे बनाया ? मतलब ? मैने चकित होकर पूछा ।

हाँ …..मायामयी सीता का निर्माण किया मेघनाद नें ।

और उस सीता को लेकर गया समरभूमि में ……….

त्रिजटा की बातें सुनकर मैं स्तब्ध थी ।

मैं मार दूँगा सीता को …………ये कहकर सबको बता रहा था मेघनाद ।

और रामप्रिया ! वो मायामयी सीता चिल्ला रही थी …….

हे राम ! हे लक्ष्मण ! हनुमान ! मुझे बचाओ …..मुझे बचाओ ।

फिर क्या हुआ ? मैने पूछा त्रिजटा से ।

हनुमान दौड़े ………………मेघनाद ! मैं तुझे छोड़ूंगा नही ।

पर मायामयी सीता को ! …………….त्रिजटा पूरा भी नही बोल सकी की “मायामयी सीता को मार दिया मेघनाद नें”

फिर आगे ? मैने फिर पूछा ।

मेघनाद भागा ये कहते हुये – अब युद्ध करनें का कोई अर्थ नही है क्यों की सीता को तो मैने मार दिया ।

हनुमान नेत्रों से अश्रु बहाते हुये श्रीराम के पास आये …………और बोले ……माता सीता को मार दिया दुष्ट मेघनाद नें ।

क्या ! ! ! ! ! !

श्रीराम मूर्छित ही हो गए थे ……..पर उसी समय मेरे पिता विभीषण नें सम्भाला और हनुमान से कहा ……….शव कहाँ है सीता का ?

हनुमान चौंकें …………..

बताओ ! क्या उस स्थान पर सीता का रक्त गिरा ?

हनुमान तुरन्त समझ गए विभिषण क्या कहना चाहते हैं ।

तो वो माया से रची गयी थीं ……..?

और क्या हनुमान ! अगर माया से नही रची होती तो शव को क्यों ले जाता ………. क्या समाधि बनाकर पूजेगा मेघनाद !

मेरे पिता विभीषण नें समझाया और फिर सबको सांत्वना देकर लक्ष्मण से कहा …………अभी मेघनाद फिर निकुम्भीला देवी के यहाँ गया है ………..बलि देगा वो वहाँ देवी को ………..यज्ञ करेगा वो …..।

अगर उसका यज्ञ सफल हो गया तो !……….मेरे पिता आगे नही बोले ।

तो ? क्या होगा ?

कुछ नही कह सकते रामानुज !

लक्ष्मण ! तुम जाओ ………और आज मेघनाद का वध कर ही दो ।

लक्ष्मण नें प्रसन्नता से प्रणाम किया प्रभु श्रीराम के चरणों में और विभीषण के साथ चले गए हैं ………निकुम्भीला देवी के मन्दिर में ।

शेष चरित्र कल ……!!!!!

*🌷🌷जय श्री राम 🌷🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-77”

*( बच्छासुर- उद्धार )*

कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल…..

श्रीवृन्दावन कौ अनुपम दृश्य है……चारों ओर हरे हरे दूब के मानौं कालीन बिछे हैं …..दूर दूर में बच्छ चर रहे हैं …..शीतल सुगंधित वायु चल रही है जाकै कारण वातावरण महक उठ्यो है ।

ग्वाले सुस्ता रहे हैं …..कोई कोई ग्वाल सखा सोते भए कन्हैया के माहूँ देख रहे हैं …और जे सोच रहे हैं अब तौ घर वापस जायवे कौ समय है रह्यो है ..लेकिन कन्हैया अभी तक सोय रो है ।

दाऊ भैया कदली पत्र ते अभी भी पंखा झल रहे हैं …….अपने अग्रज के गोद में अनुज कितनी निश्चिन्तता ते सोय रह्यो है ……………

तभी मेरौ ध्यान गयौ दूब चर रहे बच्छन के ऊपर …….प्रेम ते सब दूब चर रहे ….तभी नाक ते बच्छ कछु सूंघवे लगे …….उनकूँ असह्य दुर्गन्ध आयवे लगी ही……वो सब बच्छ डर गए और अपनी पूँछ उठाय के भागे अपने परम रक्षक कन्हैया के पास ।

कन्हैया सोय रहे हे …लेकिन बच्छन की आवाज़ सुनके कन्हैया की नींद हूँ खुल गयी ……कन्हैया उठे तौ दाऊ भैया हूँ खड़े है गए । कन्हैया ने उठते ही चारों ओर देख्यो …..फिर अपने बछड़न कूँ सहलायवे लगे ………….दाऊ ! बछड़न के आँखिन में भय है …….जे कहते भए फिर कन्हैया ने दूर देख्यो ….तौ एक बछड़ा चर रह्यो है …….दाऊ ने भी दूर देखी तौ सहज में बोले …”बछड़ा है”। कन्हैया बोले …..दाऊ ! ध्यान ये देखो । कन्हैया के कहवे पे दाऊ ने जब ध्यान ते देख्यो ….और बा बछड़ा के नेत्रन में देख्यो , तौ ….कन्हैया ! जे तौ राक्षस है ।

अब कन्हैया मुस्कुराए ……ऋषि वशिष्ठ की प्यारी गैया नन्दिनी ने राक्षस प्रमील कूँ शाप दियौ हो ……जे वही राक्षस है….कन्हैया बोले ।

कन्हैया काहे कूँ शाप दियौ ? दाऊ भी पूछ रहे हैं ।

देवन कूँ जीतवे वारौ ….राक्षस राज प्रमील । कन्हैया आगे बोले – पतौ है दाऊ ! जे प्रमील है ना ….एक बार ऋषि वशिष्ठ के आश्रम ते हे कै जाय रो ….बाही समय नन्दिनी गाय कूँ याने देख लियौ ….बस याने सोची जे गाय तौ मनोवांछित कछु भी दैवै वारी है …..तौ याकूँ मैं ऋषि ते माँग लऊं …..फिर मेरे पास कछु बात की कमी रहेगी नही । जे सोचके राक्षस ने ब्राह्मण कौ रूप धारण कर लियौ और ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में उतर गयौ …..।

कहा चहिए ब्राह्मण देवता ! ऋषि ने ससम्मान पूछ्यो हो । विप्र भेष धारी कपटी राक्षस ने कही ….हे ऋषि ! मोकूँ जे गाय दै दो ।

ऋषि तौ जानते भए भी कछु नही बोले …लेकिन नन्दिनी गाय ते रह्यो नही गयौ ….बाने क्रोध में आय के कह दियौ …दुष्ट ! तू राक्षस है …और विप्र भेष धारण करके हमकूँ छल रह्यो है …..जा , तू बच्छ है जा । बस दाऊ ! वही राक्षस बछड़ा बन गयौ …लेकिन बाही समय बाने नन्दिनी गाय ते प्रार्थना करी ….ऋषि वशिष्ठ के हूँ चरनन में गिर गयौ …..दाऊ ! तब नन्दिनी ने कही ….द्वापर में जब मैं अवतार लै कै आऊँगौ तब याकौ उद्धार होयगौ ।

जे सब सुनके दाऊ फिर कहवे लगे …यहाँ कैसे आयौ है जे ? कन्हैया बोले …कंस ने भेज दियौ ….चौं ? दाऊ ने पूछ्यो ….तौ कन्हैया हँसते भए बोले …..मोकूँ मारवे ।

जे रूप भी बदल सके ? दाऊ पूछ रहे हैं । हाँ ,लेकिन नन्दिनी के शाप ते जे मूल बच्छ ही रहैगौ । जे कहते भए कन्हैया अब बा बच्छासुर के पास चले गए …वो तौ बड़ौ ही प्रसन्न है गयौ …बाने सोची ….अच्छों भयौ ….मोकूँ जाके पास जानौं पड़तौ जे स्वयं ही मेरे पास आय गयौ ।

अब कन्हैया याके पीछे गए ….बच्छासुर और प्रसन्न है गयौ ….बाने सोची कि अपने दोनों लात मारूँ सोई जे मर जावैगौ …..जैसे ही लात चलायवे लगो ….कन्हैया ने पीछे के दो याके लात पकड़ लिए और चारों ओर घुमायके दूर फेंक दियौ …….हम सब ग्वाल सखा अब आनंदित है गये हे । बाही समय जयजयकार भई …..नभ ते पुष्प वृष्टि भई ….और बा राक्षस कौ उद्धार है गयौ ।

“बच्छासुर वधकारी कृष्ण कन्हैया लाल की”……..बछड़े भी आनन्द में अब उछले और हम सब बड़े प्रेम ते बोले …..”जय जय जय जय”।

क्रमशः….
Hari sharan
Niru Ashra: ( "प्रश्नोपनिषद"- षोडश )

!! साधक – साधना !!


( मैं फिर गया उसी स्थान पर… उन महात्मा में कुछ अलग ही आकर्षण था… महर्षि महेश योगी की अनगिनत गुफाएं हैं… वो जंगल का क्षेत्र है… अब तो सरकार ने अपने अंडर में ले लिया है… पर सन्त लोग अभी भी हैं… एक दो गुफाओं में जाकर मैंने देखा भी… जंगलों में पुलिस रहती है… सबको जाने नही देती हाथी बाहुल्य क्षेत्र है… पर मैं गया… किसी पुलिस को कुछ पैसे दिए… तो किसी को ऐसे ही बातों में उलझा कर ।

नील कण्ठ महादेव जाने का पैदल मार्ग भी पास से ही है… पर मैं तो घनघोर जंगल में गया था… “जिन खोजा तिन पाइयाँ” ।

“प्रार्थना का अर्थ होता है – परमात्मा के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध”

ओह ! वो दिव्य महात्मा एक झरने के पास बैठे थे… इतनी सर्दी में भी उनके देह में कोई वस्त्र नही था… मैं काँप रहा था ।

वो हँसे… अपनी गुफा में लेकर गए… पता नही कहा से अपनी कमण्डलु से गर्म जल एक पात्र में डाला… शिलाजीत ऊँगली से निकाली… और शुद्ध शहद मिला कर मुझे दिया… और बोले… पी लो पहले… मुझे खोजने में बड़ा श्रम किया है… ये मेरा आतिथ्य है… स्वीकार करो… मैंने प्रसन्नता पूर्वक उसे ग्रहण किया… शरीर गर्म हो गया था एकाएक ।

आप यही पीते हैं ? इसलिये ऐसे रहते है ! मैं हँसते हुए बोला… पर वो गम्भीर ही बने रहे… नही… मैं नही पीता ये… तुम लोग जो आते हो उनके लिये रखा है मैंने… अतिथि का सत्कार ।

मैंने उनसे कहा… आपके “प्रार्थना” का बड़ा लाभ हुआ मुझे ।

हूँ… वो सहज मुद्रा में बैठ गए थे मेरी बात सुनकर ।

प्रार्थना – ईश्वर के साथ प्रेममय सम्बन्ध जोड़ती है… हृदय की आकुलता आर्तता के भावना की अभिव्यक्ति है – प्रार्थना ।

याद रहे… प्रार्थना में शरीर, मन, वाणी इन तीनों का सम्बन्ध होता है… इसलिये तन , मन, प्राण सब कुछ लग जाता है प्रार्थना में ।

मैं कुछ नही करता… मेरी कोई साधना नही है… बस दिन में प्रार्थना करता हूँ और रात में प्रार्थना करता हूँ… रात भर…

कोई सुनता नही है ?

हाँ… ये सुनते हैं वृक्ष , हाथी , सिंह… शान्त होकर सुनते हैं… पर मैं तो अपने प्यारे को सुनाने के लिये करता हूँ… और वो सुनते हैं… आहा ! शरीर का रोम रोम पुलकित हो उठता है ।

प्रार्थना की बहुत महिमा है… बहुत ।

सुबह , शाम , रात आहा ! मेरा मन तो प्रार्थना में ही डूबा रहता है ।

वो ये सब कहते हुये… मन्त्र मुग्ध हो गए थे ।

मैं शान्त भाव से उनके पास बैठा रहा… वो मौन हो गए थे ।

साधकों ! मैंने उनसे मौन की अवस्था में बहुत कुछ पाया । )


प्रश्न – भैया ! मैं बहुत दुःखी हूँ… क्या करूँ ? परिवार में कुछ अच्छा नही हो रहा ।

उत्तर – बहन ! प्रार्थना करो… मेरी बात मानो… भगवान के सामने बैठो। और रोओ… फिर प्रार्थना करो… इससे बहुत लाभ होगा… जो समस्या हो उसे सुनाओ ।

प्रश्न – पर भैया ! आप तो कन्हैया के निकट हैं ना… आप ही मेरी ओर से बोल दो ।

उत्तर – नही पगली ! कन्हैया सबके निकट है… मेरे जितने निकट है उतना ही वो तेरे भी निकट है… प्रार्थना करो… ये सब मन्त्रों से… तंत्रों से ऊँची वस्तु है प्रार्थना… अपने दिल की सब कहो… उनसे कुछ छुपा है क्या ?

पर बोलना पड़ता है… कन्हैया को बिना बोले नही होता… उसकी प्रार्थना करनी पड़ती है… उसको मनुहार करना पड़ता है… आदत बिगाड़ दी है मैया यशोदा ने उसकी… और वो तुमसे ही सुनना चाहेगा… उसके यहाँ किसी की सिफारिश नही चलती… मैंने एक दो लोगों की बातें उससे कहीं तो कहने लगा… उसका मुँह नही है क्या ? तुम क्यों बोल रहे हो… वही बोले ।

क्या करूँ ? वो ऐसा ही है… तुम प्रार्थना करो… वो सुनेगा ही ।

प्रश्न – क्या ये सच में इतना सरल है ? मात्र प्रार्थना से सब हो जायेगा ?

उत्तर – बिल्कुल हो जाएगा… पक्का हो जाएगा… मैं अनुभव कह रहा हूँ… मेरा विश्वास करो… गूँगा बोलने लगेगा… हाँ ये कोई मैं ऐसे वैसे नही कह रहा… असम्भव से असम्भव कार्य सम्भव हो जायेंगे… तुम करो तो… हृदय से निकली प्रार्थना में अगाध शक्ति है… फिर ये तो विचार करो कि हम प्रार्थना कर भगवान से… भगवान की प्रार्थना कर रहे हैं… और हृदय के भाव में पत्थर को पिघलाने की ताकत है… मैं बार बार कह रहा हूँ ये मेरा अनुभव है ।

प्रश्न – पर हमें कुछ नही चाहिये भगवान से… हमें भगवान ही चाहियें… तब हम क्या करें ?

उत्तर – आपके चरण की धूल हमें चाहिये… प्रार्थना मात्र कामना से ही नही होती है… प्रेम की उच्चावस्था में जो प्रार्थना होती है… उसका प्रभाव कितना होता है… इसका आप अन्दाजा भी नही लगा सकते..भगवान बिक जाएंगे बिना मोल यार !… वो अद्भुत होगा…

एक प्रार्थना मेरी… जो मैंने रात्रि में रोते हुये अकेले गंगा के किनारे बैठकर कही थी…

प्रिय प्रेम !

तुम जो चाहो वही करो ! सब कुछ अपने मन की करो… मेरी चाह कभी पूरी मत करो… प्यारे ! चाह को ही मिटा दो ना ! मेरे अंदर के कामना को ही नष्ट कर दो ना ! कोई बात नही तकलीफ होगी… पर मेरा भला जिसमें हो वो करो ना ! मेरे मन में जो चाह उठे तुम्हें छोड़कर वो कभी पूरी मत करना… हे मेरे प्रियतम ! यही मेरी प्रार्थना है… मेरा सभी “मैं मेरा” मिटा दो ना ! बस कुछ न चाहूँ… तुम्हें ही चाहूँ… ऐसा बना दो ना ! वैसे तुम मुझे बहुत कुछ समझा रहे हो… पर मैं कहाँ समझने वाला हूँ ऐसे… मुझे समझाओ मत मेरे लिये जो ठीक हो वो करो… ठीक हो वो करो ? ये कहना भी ठीक नही है… तुम जो करोगे वो ठीक ही होगा ।

तुम्हारा
“हरिशरण”

साधकों ! मैं आज फिर कह रहा हूँ… मकर संक्रान्ति के दिन… प्रार्थना करो… नित प्रार्थना करो… बहुत लाभ मिलेगा तुम्हें ।

“प्रश्नोपनिषद” क्रमशः….

Harisharan
Niru Ashra: श्री भक्तमाल (178)


🌸 श्री भक्तमाल – श्री पूर्णसिंह जी 🌸💐👏🏻

श्री पूर्णसिंह जी परम सदाचारी , वीर एवं महान भगवद्भक्त थे । श्री कृष्ण प्रभु इनके इष्टदेव थे । ये आमेर नरेश श्री पृथ्वीराज जी के पुत्र थे । उनकी माता का नाम पदारथ देवी था । कविहृदय, परम भागवत श्री पूर्णसिंह जी नित्य नूतन सुंदर सुंदर पद रचकर अपने श्री ठाकुर जी को सुनाते । श्री ठाकुर जी को भी इनके पदों को सुनने मे बडा सुख मिलता । यदि कभी किसी कार्यविशेष की व्यस्तता में श्री पूर्णसिंह जी पद नही सुना पाते तो श्री ठाकुर जी स्वप्न मे इनसे पद सुनाने का अनुरोध करते । ऐसे दीवाने हो गए थे ठाकुर जी इनके पदों के ।

एक दो बार इस प्रक्रार का प्रसंग प्राप्त होनेपर इन्होंने दृढ नियम बना लिया की अब मै हर दिन भगवान को पद सुनाऊँगा । बहुत समय तक नियम अक्षुष्ण रूप से चलता रहा । परंतु एक बार किसी राज्यकार्यवश इन्हें पद सुनाने का ध्यान नही रहा ।

जब कार्य से फुरसत मिली तो श्री ठाकुर जी का दर्शन करने मंदिर मे गये । परंतु वहाँ इन्हे श्री ठाकुर जी का श्री विग्रह ही नही दिखायी पड़ा । पुजारी से पूछा – श्री ठाकुर जी की प्रतिमा कहाँ गयी ? पुजारी जी ने कहा – प्रतिमा तो सिंहासन पर ही विराजमान है । श्री पूर्णसिंह जी की समझ मे नहीं आ रहा था कि आखिर मुझे क्यो नहीं दर्शन हो रहा है ? बहुत विचार करने के बाद याद आयी कि मैंने श्री ठाकुर जी को आज पद नही सुनाया ।

फिर तत्काल पद सुनाने लगे तो श्री ठाकुर जी भी मन्द मन्द मुसकराते हुए इन्हे दर्शन देने लगे । भक्ति मार्ग पर यदि भक्त कोई नित्य नियम निश्चित कर लें तो समय समय पर उसके नियम की परीक्षा होती है । श्री भगवान भी भक्त के नित्य नियम की प्रतीक्षा करते रहते है अतः संसार के कार्यो से पहले नियम को प्रधानता देनी चाहिए यह शिक्षा इस चरित्र से प्राप्त होती है ।

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