[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
क्या !
मुझे दासी नें आकर जो सूचना दी उसे सुनकर मैं चौंक गयी थी ।
महारानी ! त्रिजटा नें एक बालक को घायल कर दिया ।
पर क्यों ? मैं स्तब्ध थी इस सूचना से ।
वो बालक को खाना चाहती थी ………..पर बालक भाग गया ……और सैनिकों नें उसे पकड़ लिया …………….
ये गलती उससे दूसरी बार हुयी है……..दासी नें मुझे ये भी बताया ।
मेरे सिर में दर्द होनें लगा था…….अभी कहाँ है त्रिजटा ? मैने पूछा ।
राजदरबार में ……….दासी नें ये भी कहा …..कि महाराज श्रीरामचन्द्र जी नें आपको राजदरबार में बुलवाया है ।
क्या त्रिजटा वहीं है ? मैने पूछा ।
हाँ उसी का न्याय करना है महाराज को ………क्यों की वो आपकी सखी है ………..इसलिये महाराज आपको बुलवा रहे हैं ।
मैं त्रिजटा के बारे में ही सोच रही थी …………….
लंका में जिस तरह वो मेरे साथ रहती थी ……हर समय ……….वैसे ही वो मेरा साथ यहाँ भी चाहती थी……….पर यहाँ कैसे सम्भव !
मैं कई दिनों से उसे देख रही थी ……..वो चिड़चिड़ी सी हो गयी थी ।
चलो ! मैं दासी के साथ चल दी राजदरबार में …….मन में बहुत उथल पुथल चल रहा था ……पता नही बेचारी त्रिजटा का क्या होगा !
कहीं उसे मृत्यु दण्ड सुना दिया मेरे श्रीराम नें तो ?
नही नही …………….मेरा हृदय काँप गया था ……..वो मेरे लिए यहाँ है ………वो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्रेम करती है ।
सभा लगी हुयी थी ……………सब थे वहाँ ।
पर मैने त्रिजटा को ही देखा ……..अपराधी की तरह खड़ी थी वो ।
सिर झुकाकर……….उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ।
मैं जब गयी तब उसनें मेरी और देखा था …….और उसकी वो बड़ी बड़ी आँखें मुझ से बस यही कह रही थीं…….मुझे कुछ नही पता क्या होगया ………मैं सच कह रही हूँ रामप्रिया ! मुझे कुछ नही पता ।
मुझे अयोध्यानाथ के बाम भाग में बैठना था…………मैं गुरुजनों को प्रणाम करके बैठ गयी……..पर हृदय मेरा काँप रहा था ।
वैदेही ! ये आपकी सखी हैं …………..इसलिये इन्हें हमनें कोई दण्ड नही दिया ………..वैदेही ! अपराध तो इन्होनें अक्षम्य किया है ।
एक बालक को मारनें का प्रयास ….? और उसे खानें का ?
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ………..!!!!!!!
🌹 जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ४२*
*🤝 १. संसार 🤝*
_*संसार की प्रतीति*_
बहुत गई थोड़ी रही, नारायण अब चेत।
काल-चिरैया चुग रही, निसि-दिन आयू-खेत ॥
नारायण सुख भोगमें, तू लंपट दिन-रैन।
अन्त समय आयो निकट, देख खोल के नैन ॥
धन- जोबन यूँ जायँगे, जा बिधि उड़त कपूर ।
नारायण गोविन्द भज, मत चाटै जग-धूर ॥
नारायण इस संसार में भूपति भये अनेक ।
मैं-मेरी करते रहे, ले न गये तृन एक ॥
*सत्संगी*– श्रीशंकराचार्य एक स्थल पर कहते हैं— *'ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ?'*– अर्थात् तत्त्व - ज्ञान होने के बाद फिर संसार कैसा? यह बात कुछ ठीक गले नहीं उतरती । तत्त्व - ज्ञान होने के बाद यदि संसार न रहता, तो या तो आजतक किसी को तत्त्वज्ञान हुआ ही नहीं। क्योंकि संसार प्रत्यक्ष दीखता है; अथवा तत्त्वज्ञान होने के बाद संसार रहता नहीं—यह मान्यता ही गलत है। अब इसमें सत्य क्या है, यह आप समझाइये।
*सन्त* - भाई, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये शास्त्रों ने विविध साधन बतलाये हैं। अन्त:करण में तीन दोष रहते हैं, उनमें से प्रत्येक की निवृत्ति के लिये अलग-अलग साधन करने पड़ते हैं। अन्तःकरण इन तीनों दोषों की निवृत्ति के द्वारा जबतक विशुद्ध नहीं हो जाता, तबतक यह बात समझ में नहीं आती।
ऐसा कुतर्क आपके ही मन में आता है, ऐसा न समझिये। बल्कि दूषित अन्तःकरणवाले सभी आदमियोंको ऐसे कुतर्क हुआ ही करते हैं। इसलिये जिसको तत्त्वज्ञान प्राप्त करना है, उसे तो सबसे पहले अन्तःकरण को दोषरहित करना चाहिये।
इन तीन दोषों में पहला दोष *'मल'* कहलाता है। इस दोष की निवृत्ति के लिये निष्काम कर्म, जप, दान, सत्य, सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का सेवन करना चाहिये। मल पाप का ही दूसरा नाम है। निष्काम कर्म, जप और दान-पुण्य के बिना पाप का क्षय नहीं होता; इसलिये इनको करना चाहिये।
दूसरा दोष है *‘विक्षेप'* अर्थात् *अन्तःकरण की चंचलता*। अन्त:करण अपने भीतर रहनेवाली वासनाओं के कारण चंचल रहता है। इसको स्थिर करने के लिये सगुण या निर्गुण उपासना, आसन, प्राणायाम और गुरु-भक्ति का आचरण करना चाहिये।
*इन दो दोषों को दूर करने के बाद तीसरा दोष जो 'आवरण' कहलाता है, उसकी निवृत्ति के लिये गुरुमुख से शास्त्राध्ययन करना चाहिये। इस प्रकार दीर्घकाल तक अभ्यास करते-करते गुरु की कृपा से आवरण भंग होगा तथा स्थिर और निर्मल अन्त:करण में अपने-आप ज्ञान का उदय होगा।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
