श्री सीताराम शरणम् मम 152भाग 2″तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

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Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मैं जब गयी तब उसनें मेरी और देखा था …….और उसकी वो बड़ी बड़ी आँखें मुझ से बस यही कह रही थीं…….मुझे कुछ नही पता क्या होगया ………मैं सच कह रही हूँ रामप्रिया ! मुझे कुछ नही पता ।

मुझे अयोध्यानाथ के बाम भाग में बैठना था…………मैं गुरुजनों को प्रणाम करके बैठ गयी……..पर हृदय मेरा काँप रहा था ।

वैदेही ! ये आपकी सखी हैं …………..इसलिये इन्हें हमनें कोई दण्ड नही दिया ………..वैदेही ! अपराध तो इन्होनें अक्षम्य किया है ।

एक बालक को मारनें का प्रयास ….? और उसे खानें का ?

मेरे श्रीराम स्वयं स्तब्ध थे……….मैने त्रिजटा की ओर देखा …..वो रो रही थी ……..मेरी ओर देखनें की उसमें हिम्मत भी नही थी ।

और वैदेही ! एक बार नही ………..दो बार ……………

अब आप कहो …….क्या दण्ड दिया जाए ।

हे राजाराम ! मृत्यु दण्ड से कम नही मिलना चाहिए इस राक्षसी को दण्ड ! ……..जिसके पुत्र को खानें का प्रयास किया था त्रिजटा नें उसका पिता भी उपस्थित था वहाँ ……….ये गुहार उसी नें लगाई थी ।

नही …….मृत्यु दण्ड नही …………….मैं बोल पड़ी ……….वह बालक मृत्यु का ग्रास तो नही बना ? इसलिये मृत्यु दण्ड नही ।

मैने मना किया………..मेरे श्रीराम मेरी ओर ही देख रहे थे ।

“पर अयोध्या में, इसे नही रहनें दूँगा मैं”………स्पष्ट घोषणा थी ये ।

मैने अब त्रिजटा की ओर देखा तो मेरे भी नयन सजल हो गए थे ।

वो मेरी ओर देख कर कह रही थी ……….रामप्रिया ! मैं कहाँ जाऊँगी ।

मैं लंका लौटकर अब जानें वाली नही हूँ ……….वो बहुत कुछ बोल रही थी ………..पर सभा को यहीं पर रोक दिया आज मेरे श्रीराम नें ।

राज निर्णय आचुका था ……देश निकाला दे दिया था त्रिजटा को ।


क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ………..!!!!!!!

🌹 जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ४३*

               *🤝 २. संसार 🤝*

                _*संसार की प्रतीति*_ 

   ज्ञान का उदय होने के बाद संसार रहता है या नहीं और यदि रहता है तो किस रूप में रहता है - इस बात को समझना साधन-सापेक्ष है। फिर भी मैं यथाशक्ति समझाने का प्रयत्न करूँगा। आपकी बुद्धि कदाचित् इसे स्वीकार न करेगी, परंतु आपका हृदय ऐसा नहीं कहेगा। जो ज्ञान बुद्धि से तो समझ में आ जाता है, परंतु अन्त:करण में स्थिर नहीं होता, वह *'परोक्षज्ञान'* कहलाता है और अन्त:करण जबतक विशुद्ध नहीं होता, तबतक ज्ञान *‘अपरोक्ष'* नहीं होता। 

   देखिये, यह एक घड़ा है और यह पानी भरने के काम में आता है; फिर यदि अनाज भरना हो तो उसमें अनाज भी भरा जा सकता है । यह घड़ा मिट्टी स्वरूप ही है; क्योंकि यह मिट्टी का विकार है। इस बात को समझने के लिये बुद्धि से विचार करना चाहिये और पश्चात् तदनुकूल निश्चय करना चाहिये। ऐसा निश्चय करने के लिये किसी घड़े को फोड़कर चूर-चूर करके *'वह मिट्टीरूप है'* इस प्रकार नहीं दूसरा समझा जाता। उसी प्रकार सोने का गहना केवल सोना ही है, कुछ नहीं - ऐसा निश्चय करने के लिये भी गहने को भट्टी में डालकर गलाना जरूरी नहीं है। अर्थात् ज्ञान होनेके बाद संसार रहता हो या न रहता हो, उसका नाश करना जरूरी नहीं है। कार्य को उसके मूल कारण के रूप में जानना चाहिये, यही कार्य का नाश कहलाता है। घड़े को मिट्टी के रूप में जान लेना और गहने को सोने के रूप में जान लेना, यही घड़े का तथा गहने का नाश होना है; क्योंकि मिट्टी में घड़े का तथा सोने में गहने का अत्यन्ताभाव है।

   इसी प्रकार ज्ञान का उदय होने के बाद संसार दीखना बन्द नहीं होता; परंतु उसको देखने की दृष्टि बदल जाती है। अज्ञानी को संसार नाम-रूप में और कार्य-कारणभाव में दीखता है और ज्ञानी को ईश्वररूप या ब्रह्मरूप में दीखता है। अज्ञानी को घड़ा और गहना आदि पदार्थों के रूप में संसार दीखता है तथा ज्ञानी को मिट्टी और सोने के रूप में, अर्थात् अधिष्ठानरूप में दीखता है। ज्ञानी की दृष्टि में नाम-रूप तथा कार्य-कारण-भाव कल्पित हैं, इसलिये नाम-रूप से परे परमात्मारूप संसार ज्ञानी को भासता है और इसीसे *'ज्ञाते तत्त्वे कः संसार:'*- यह जो कहा गया है, इसमें कोई असत्य नहीं है। अज्ञानी को जिस प्रकार संसार दिखलायी देता है, वैसा ज्ञानी को नहीं दिखलायी देता ।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*

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